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Monday, June 30, 2025
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कक्षा में प्रथम आता था बेटी का सहपाठी, ईर्ष्या के वशीभूत हो ईसाई महिला ने हिन्दू बच्चे को जहर देकर मार डाला

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Picture Credit - ANI and NBT

ईर्ष्या व्यक्ति से क्या क्या नहीं करवा देती, पुडुचेरी के शहर कराईकल में ऐसा ही विचलित कर देने वाला मामला सामने आया है। यहां पर एक 42 वर्षीय ईसाई महिला जे. सगयारानी विक्टोरिया ने अपनी बेटी के 13 वर्षीय सहपाठी को मार डाला। उसने बच्ची के हिन्दू सहपाठी को कोल्ड ड्रिंक में जहर मिलाकर पिला दिया। सबसे ज्यादा आश्चर्जनक बात यह है कि महिला ने बच्चे को सिर्फ इसलिए मार दिया क्योंकि वह उसकी बेटी का प्रतिद्वंदी था और हमेशा कक्षा में प्रथम आया करता था, जबकि उसकी बेटी द्वितीय स्थान पर आया करती थी।

कराईकल के एसएसपी आर लोकेश्वरन के अनुसार मृतक 13 वर्षीय बालमणिकंदन और विक्टोरिया की बेटी आठवीं कक्षा में पढ़ते थे। महिला को ईर्ष्या थी कि बालमणिकंदन क्यों उसकी बेटी से अच्छे अंक लाता था। शुक्रवार 2 सितम्बर को, स्कूल के वार्षिक दिवस समारोह के समय, महिला ने एक चौकीदार को बताया कि वह मणिकंदन की मां है, और उसे अपने बेटे को कुछ सामान देना है। उसने दो शीतल पेय की बोतलें चौकीदार को दी, और उसे कहा कि यह बोतलें उसके कथित बेटे को सांस्कृतिक कार्यक्रम में भाग लेने के बाद दे दी जाये।

पुलिस के अनुसार बालमणिकंदन ने वह शीतल पेय पी लिया, और घर पहुंचते ही उल्टी करने लगा। उसके माता-पिता उसे एक निजी अस्पताल में ले गए जहां उसका इलाज हुआ और घर लौट आया। शनिवार को वह फिर से बीमार हो गया और उसे कराईकल के सरकारी सामान्य अस्पताल में भर्ती कराया गया जहां शनिवार की रात उसकी मृत्यु हो गई। मरने से पहले मणिकंदन ने अपनी मां से कहा था कि चौकीदार के द्वारा भेजे गए शीतल पेय के सेवन से वह बीमार पड़ गया।

लड़के की मां को यह घटना संदिग्ध लगी और उसने कराईकल टाउन पुलिस थाने में शिकायत दर्ज कराई। विद्यालय प्रशासन ने बताया कि चौकीदार द्वारा पेय पदार्थ बाला को दिया गया, वहीं माता पिता ने कहा कि उन्होंने अपने बेटे के लिए कोई पेय पदार्थ नहीं भेजा था। जब चौकीदार से पूछ ताछ हुई तो उसने बताया कि एक महिला ने बाला की माँ होने का दावा कर यह पेय पदार्थ भिजवाया था। वहीं पोस्टमार्टम रिपोर्ट से पता चला कि पेय पदार्थ में जहर मिला हुआ था, जो जानबूझकर बालामणिगंदन को मारने के लिए दिया गया था।

पुलिस ने सागयारानी को गिरफ्तार कर लिया, पूछताछ करने पर ज्ञात हुआ कि ने शीतल पेय में एक पारंपरिक दवा मिलाई थी, जिससे लड़के को डायरिया हो जाता और उसकी मृत्यु के पश्चात किसी को संशय नहीं होता। अगर बाला ने अपनी माँ को पेय पदार्थ के बारे में नहीं बताया होता, तो शायद इस षड्यंत्र के बारे में किसी को पता ही नहीं होता और उसकी मौत प्राकृतिक ही मानी जाती। साक्ष्य मिलने के पश्चात पुलिस ने विक्टोरिया सहयारानी को गिरफ्तार कर लिया और उसे न्यायिक मजिस्ट्रेट न्यायालय में प्रस्तुत किया गया, जहाँ से उसे न्यायिक हिरासत में भेज दिया गया है।

क्या यह मात्र ईर्ष्या थी या रिलीजियस उत्तरदायित्व था?

यूँ तो कहने के लिए यह एक ईर्ष्या जनित अपराध है, लेकिन इसका एक और पक्ष है जो हमे देखना चाहिए। मिशनरी और चर्च द्वारा गैर-विश्वासियों को ‘गुमराह भेड़’ के रूप में माना जाता है, और ईसाई बच्चों को यह पढ़ाया जाता है कि हिंदू बच्चे हीन होते हैं और उनके साथ वैसा ही व्यवहार करना चाहिए। इस मामले में भी विक्टोरिया की मणिकंदन के प्रति ईर्ष्या के पीछे यही कारण हो सकता था। उसे यह पचा नहीं कि कैसे एक हिन्दू बालक उसकी बेटी से अच्छा प्रदर्शन कर सकता है।

यहाँ आप एक पादरी का वीडियो देख सकते हैं, जिसमें वह छोटे बच्चों को “पिता, माता, भाई या बहन होने पर भी दुश्मनों पर हमला करने” की सलाह दे रहा है ताकि “भगवान के घर” को खराब होने से बचाया जा सके। वीडियो में पादरी साधु सेल्वराज है, जो हिन्दुओं से घृणा करते हैं, और जिन्होंने अपने अनुयायियों को कोविड -19 वैक्सीन के बारे में भी भ्रमित किया था, उन्हें शैतान द्वारा संक्रमित बताया था।

ऐसे ढेरों उदाहरण हैं, जहाँ यह देखा गया है कि ईसाई बच्चों में हिन्दुओ के प्रति इस तरह के झूठ और घृणा के विचार रखने के लिए उकसाया जाता है। यही घृणा के विचार भविष्य में हिंसक घटनाओं के लिए उत्तरदायी होते हैं। हिन्दुओं के लिए इस जाल को समझने का समय है!

AAP’s evolution has an uncanny similarity to Orwell’s Animal Farm!

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No party on this planet parallels Orwell’s Animal Farm than Bharat’s Aam Aadmi Party, the AAP. From its idealistic roots to opportunistic power struggles, and eventually becoming consummately the corrupt force it was supposed to fight against.

The AAP = Animal Farm

In both stories, we start off with a principled old leader who rises up against the corrupt regime, inspiring common folks (aam aadmi) across the land. He attracts various disciples who claim to be his greatest followers.

Anna Hazare = Old Major

Eventually, the old leader would fade away, soon replaced by upstart leaders who deviate from his path. Anna shunned political parties, but many of disciples saw a party as the only way to make a difference. Soon a group of rebels would create the everyman’s party, the AAP.

3 pivotal characters emerge. Enter the idealistic leader, who wanted better for all. Vishwas Kumar Sharma would change his name to Kumar Vishwas as a message of moving beyond caste and unity. He saw the AAP as a vehicle for a future, better, modern Bharat.

Snowball = Kumar Vishwas

Next is the opportunist. Abandoning Anna’s principles in the pursuit of power. Arvind Kejriwal would helm the AAP and banish rivals such as Vishwas and others, just as Napoleon did to Snowball, bending rules on whim and becoming corrupt as his priors.

Napoleon = Arvind Kejriwal

Of course every “hero” needs a sidekick. Slick talking Squealer was the propaganda arm of Napoleon while Kejriwal would find his in “handsome” Manish Sisodia. Ramble rousing and propagandizing extraordinaire, Sisodia would become Kejriwal’s right hand.

Squealer = Manish Sisodia

With Snowball’s idealism out of the scene, Squealer spun all that was good on the farm solely due to Napoleon and all that was bad on internal rivals & outside forces, regardless of the truth. Napoleon elevates his pigs as the 1st among equals. The inner circle has extra privileges

The farm continues to deteriorate but Squealer and Napoleon carry on the propaganda, they control all the information with little rivals. They change Old Major’s principles incrementally. They bring out the gaslight and trick the populace.

The farm battles its old owners again and comes out on top, but at the cost of much. His underwhelming performance is covered by propaganda & the antipathy of the farm towards old owners. He pawns off his soldiers to cover his own greed and failures.

Time passes by and eventually the pigs begin to resemble their human masters. They walk on 2 feet, enslave other animals, and begin to take to the bottle.

How ironic that it is the bottle that now floods Kejriwal’s camp in a corruption scandal that looks more Congressi than any.

(This article has been compiled from the tweet thread originally tweeted by The Emissary (@TheEmissaryCo) on August 30, 2022.)

मैं हिन्दू कैसे बना- सीताराम गोयल, अध्याय 9: नेहरूवाद का भयावह अनुभव

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हम सीता राम गोयल जी की पुस्तक “मैं हिन्दू कैसे बना: How I Became Hindu” अपने सभी पाठकों के लिए हिंदी में प्रस्तुत कर रहे हैं. स्वर्गीय सीता राम गोयल जी स्वतंत्र भारत के उन अग्रणी बौद्धिकों एवं लेखकों में से एक थे,  जिनके कार्य एवं लेखन को वामपंथी अकादमी संस्थानों ने पूरी तरह से हाशिये पर धकेला. हम आम लोगों के लिए पुस्तकों/लेखों का खजाना उपलब्ध कराने के लिए VoiceOfDharma.org के आभारी हैं:

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मैं इस पश्च लेख को अपनी बौद्धिक आत्मकथा के रूप में वर्णित तीसरे पुनर्मुद्रण में जोड़ रहा हूं ताकि मैं अपनी  कहानी को एक आश्वस्त और जागरूक हिंदू के रूप में पूरा कर सकूँ। कहानी मुख्य रूप से नेहरूवाद के विभिन्न अभिव्यक्तियों से,मेरी आकस्मिक भेंट से संबंधित है।  आज मैं पंडित जवाहरलाल नेहरू को एक दर्प से भरे हुए भूरे साहब के रूप में देखता हूं और नेहरूवाद को उन सभी साम्राज्यवादी विचारधाराओं के संयुक्त अवतार के रूप में देखता हूँ,अर्थात इस्लाम, ईसाई धर्म, वाइट मैन्स बर्डन और साम्यवाद,जिसने विदेशी आक्रमणों के मद्देनजर इस देश को प्लावित कर दिया है। और मेरे मन में ज़रा भी संदेह नहीं है कि अगर भारत को जीना है तो नेहरुवाद को मरना होगा। बेशक, यह पहले से ही भारतीय लोगों, उनके देश, उनके समाज, उनकी अर्थव्यवस्था, उनके पर्यावरण और उनकी संस्कृति के खिलाफ अपने पाप कर्मों के बोझ तले मर रहा है। मैं ये प्रतिपादन करता हूं कि नेहरूवाद की, उसके सभी रूपों में,एक सचेत अस्वीकृति,इसके अंत की गति तेज कर देगी, और हमें उस क्षति से बचाएगी जो अगर इसे रहने दिया तो,जरूर उत्पन्न करेगी।

जब से पंडित नेहरू,भारतीय राजनीतिक परिदृश्य पर बड़े पैमाने पर उभरे ,उनके लेखन,भाषणों और नीतियों के अध्ययन के बाद मैं इस निष्कर्ष पर पहुंचा हूँ। लेकिन कहीं मेरा निर्णय मनमाना न लगे,इसलिए मैं उस आधार को स्पष्ट कर रहा हूं जहां से मैं आगे बढ़ रहा हूं।

इन परिसरों को मैंने स्वयं, उस समाज और संस्कृति पर, लंबे समय तक चिंतन करके तैयार किया है, जिससे मैं संबंधित हूँ।

 मैंने पहले ही वर्णन किया है कि मैं कैसे रामस्वरूप के मार्गदर्शक में सनातन धर्म में एक स्थाई विश्वास की ओर लौटा। अगला प्रस्ताव जो उनके साथ चर्चा में मेरे लिए तेजी से स्पष्ट हो गया वह यह था कि हिंदू समाज जो सनातन धर्म का वाहन रहा है, एक महान समाज है और अपने बेटे और बेटियों से सम्मान और भक्ति का पात्र है। अंत में भारतवर्ष मेरे लिए एक पवित्र भूमि बन गई क्योंकि यह हिंदू समाज की मातृभूमि रही है और बनी हुई है ।

कुछ ऐसे हिंदू हैं, जो दूसरे तरीके से शुरूआत करते हैं, यानी भारतवर्ष एक पवित्र भूमि (पुण्यभूमि) होने के कारण यह उनकी पितृभूमि (पितृभूमि) के साथ-साथ उनकी गतिविधि (कर्मभूमि) का क्षेत्र है। वे हिंदू समाज का सम्मान करते हैं क्योंकि उनके पूर्वज इसी समाज से थे और विदेशी आक्रमणकारियों से हिंदुओं के रूप में लड़े। इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि राष्ट्रवाद की उनकी धारणा विशुद्ध रूप से क्षेत्रीय है और हिंदू समाज की उनकी धारणा जनजातीय से ज्यादा कुछ नहीं, हालांकि मेरे लिए शुरुआती बिंदु सनातन धर्म है। सनातन धर्म के बिना मेरे लिए भारतवर्ष,भूमि का एक अन्य टुकड़ा है और हिंदू समाज, मनुष्यों की एक अन्य सभा है ।तो इसी क्रम में मेरी प्रतिबद्धता सनातन धर्म, हिंदू समाज और फिर भारतवर्ष के प्रति है ।

इस परिपेक्ष्य में, मेरा पहला आधार यह है कि सनातन धर्म जो वर्तमान में हिंदू धर्म के नाम से जाना जाता है, वह न केवल एक धर्म है बल्कि एक पूरी सभ्यता भी है,जो इस देश में अनगिनत युगों से फली फूली है, और जो कई प्रकार के शिकारी साम्राज्यवाद के साथ एक दीर्घकालीन मुकाबले के बाद, फिर से अपने अस्तित्व में पूरी तरह से आने के लिए संघर्ष कर रही है। दूसरी ओर मैं इस्लाम और ईसाई धर्म को बिल्कुल भी धर्म नहीं मानता। मेरे लिए वे नाजीवाद और और साम्यवाद जैसे साम्राज्यवाद की विचारधाराएं हैं, जो एक ईश्वर के नाम पर लोगों के एक समूह द्वारा, दूसरे के खिलाफ आक्रामकता को तर्कसंगत बनाते हैं, जिसे कुछ आततायी, जो पैगम्बर के छद्मवेष के रूप में रहते हैं,ने अपनी छवि के रूप में अविष्कृत किया है। अब जबकि भारत ने इस्लामी और इसाई शासन को पराजित और तितर-बितर कर दिया है, तो मैं भारत में उनके लिए कोई जगह नहीं देखता।मैं इस्लाम और ईसाई धर्म को इस देश में अपने धर्म प्रसारण को बनाए रखने का अधिकार नहीं देता या फिर उनके धर्मगोष्ठियों को, जो उनके धर्मोपदेशकों को हिंदुओं पर युद्ध छेड़ने के लिए प्रशिक्षित करते हैं।मेरे लिये वो धर्मनिरपेक्षता निरर्थक है जो हिंदू धर्म को सिर्फ एक अन्य धर्म के रूप में मानता है और इसे इस्लाम और ईसाई धर्म के सममूल्य रखता है। मेरे लिए धर्मनिरपेक्षता की यह अवधारणा उस अवधारणा का घोर विकृतिकरण है जो आधुनिक पश्चिम में ईसाई धर्म के खिलाफ विद्रोह के रूप में उभरी और जिसका अर्थ भारतीय संदर्भ में इस्लाम के खिलाफ भी विद्रोह होना चाहिए। धर्मनिरपेक्षता की अन्य अवधारणा अर्थात सर्वधर्म-समभाव महात्मा गांधी द्वारा इस्लाम और ईसाई धर्म को उनके आक्रामक धर्माभिमान का इलाज करने और उन्हें हिंदुओं के धर्मांतरण को रोकने के लिए किया गया था। इस दूसरी अवधारणा को परित्याग दिया गया, जब भारत के संविधान ने इस्लाम और ईसाई धर्म को मौलिक अधिकार के रूप में परिवर्तन करने का अधिकार स्वीकृत कर लिया। जो लोग हिंदुओं को डराने के लिए इस अवधारणा का आह्वान करते हैं वह या तो महात्मा के इरादे से अनभिज्ञ हैं या जानबूझकर उनके संदेश को विकृत कर रहे हैं।

मेरा दूसरा आधार यह है कि अपनी पुश्तैनी मातृभूमि में रहने वाले हिंदू केवल एक समुदाय नहीं हैं। मेरे लिए तो हिंदू, राष्ट्र का गठन करते हैं,और केवल यही लोग हैं जो इस देश की एकता,अखंडता,शांति और समृद्धि में रुचि रखते हैं। दूसरी ओर मैं मुसलमानों और ईसाइयों को अलग-अलग समुदाय नहीं मानता। मेरे लिए वह हमारे अपने लोग हैं जो इस्लामी और इसाई साम्राज्यवाद द्वारा अपने पुश्तैनी समाज और संस्कृति से अलग-थलग कर दिए गए हैं और जिन्हें विदेशों में बसे साम्राज्यवादी ताकतों द्वारा अपने उपनिवेशों के रूप में इस्तेमाल किया जा रहा है, ताकि वह हिंदू मातृभूमि में उत्पात और विवाद पैदा कर सकें। मैं इसलिए इस वाद का समर्थन नहीं करता कि भारतीय राष्ट्रवाद हिंदू राष्ट्रवाद से अलग और श्रेष्ठ है।मेरे लिए हिंदू राष्ट्रवाद भारतीय राष्ट्रवाद के समान है। “संग्रथित संस्कृति”, “संग्रथित राष्ट्रवाद” और “संग्रथित राज्य” के नारे मेरे लिये व्यर्थ हैं। और मेरे मन में ज़रा भी संदेह नहीं है कि जो लोग इन नारों के साथ साथ “हिंदू सांप्रदायिकता” के नारे लगाते हैं, वे जाने अनजाने भारतीय राष्ट्रवाद के देशद्रोही हैं, चाहे वे कोई भी वैचारिक पहनावा क्यों ना पहनें या वर्तमान व्यवस्था में वह किन पदों पर काबिज हैं ।

मेरा तीसरा आधार यह है कि भारतवर्ष सर्वोत्कृष्ट हिंदू मातृभूमि रहा है और रहेगा। मैं भारतीय या भारत-पाक उपमहाद्वीप के रूप में भारतवर्ष के वर्णन को अस्वीकार करता हूं। मैं यह मानने से इनकार करता हूं कि अफगानिस्तान,पाकिस्तान और बांग्लादेश, हिंदू मातृभूमि के अभिन्न अंग नहीं रह गए हैं, सिर्फ़ इसलिए क्योंकि वे इस्लामी साम्राज्यवाद के शिकार हुए हैं।  हिंदुओं ने कभी भी अपनी प्राचीन मातृभूमि की प्राकृतिक और सुपरिभाषित सीमाओं के बाहर किसी भी भूमि पर दावा नहीं किया है,ना तो विजय के अधिकार से, ना किन्हीं शास्त्रों में की गई प्रतिज्ञा को पूरा करने के उद्देश्य से।इसलिए मुझे कोई कारण नहीं दिखता कि हिंदुओं को,अपने पूर्वजों से जो वैध रूप से विरासत में मिला है, लेकिन सशस्त्र बल के माध्यम से उनसे जो छीन लिया गया है;उस पर अपना दावा क्यों छोड़ना चाहिए। इसके अलावा जब तक हिंदू अपनी मातृभूमि के उन हिस्सों को इस्लाम के शिकंजे से मुक्त नहीं करते हैं तब तक वे उस हिस्से के खिलाफ आक्रामकता के खतरे का सामना करते रहेंगे,जो वर्तमान में उनके कब्जे में है। इन तथाकथित इस्लामी देशों का अतीत में भी उपयोग किया गया है और वर्तमान में भारत के उन हिस्सों पर विजय पाने के लिए,जो बचे हैं,जलावतरण अड्डे के रूप में उपयोग किया जा रहा है।

मेरा चौथा आधार यह है कि भारतवर्ष का इतिहास हिंदू समाज और संस्कृति का इतिहास है। यह इतिहास है, कि कैसे हिंदुओं ने एक ऐसी सभ्यता का निर्माण किया जो कि सहस्त्राब्दियों तक दुनिया की प्रमुख सभ्यता बनी रही, कैसे वे सत्ता और समृद्धि की अधिकता के कारण आत्मसंतुष्ट हो गए और अपनी मातृभूमि की रक्षा की उपेक्षा की, कैसे उन्होंने प्रारंभिक आक्रमणकारियों की श्रृंखला को अपने समाज और संस्कृति के विशाल परिसर में से पीछे हटा दिया या उसमें अवशोषित कर लिया, और कैसे उन्होंने कई शताब्दियों तक इस्लाम, ईसाई और ब्रिटिश साम्राज्यवाद के हमलों से लड़ाई लड़ी और फिर भी उत्तरजीवी रहे। मैं मध्यकालीन भारत में मुस्लिम शासन को स्वदेशीय व्यवस्था के रूप में मान्यता नहीं देता। मेरे लिए यह उतना ही विदेशी शासन था जितना कि परवर्ती ब्रिटिश शासन। विदेशी आक्रमणकारियों का इतिहास भारत के इतिहास का हिस्सा नहीं है,ये उन देशों के इतिहास का हिस्सा है जहां से वो आक्रमणकारी आए थे,या उन धर्म-संप्रदायों का जिनका वे समर्थन करते हैं। और मैं दूसरी सहस्राब्दी ईसा पूर्व में भारत पर आर्यों के आक्रमण के सिद्धांत को स्वीकार नहीं करता। यह सिद्धांत मूल रूप से विद्वानों द्वारा इस तथ्य को समझाने के लिए एक अस्थायी परिकल्पना के रूप में प्रस्तावित किया गया था, कि भारतीयों, ईरानियों और यूरोपीय लोगों द्वारा बोली जाने वाली भाषाएं एक ही परिवार से संबंधित हैं। और जहां तक विद्वता की दुनिया का सवाल है यह एक अस्थाई परिकल्पना आज तक बनी हुई है । भारत में केवल राष्ट्र विरोधी और अलगाववादी ताकतें ही, हिंदुओं को डराने और उनके विभाजनकारी मंसूबों को मजबूत करने के लिए इस परिकल्पना को एक सिद्ध तथ्य के रूप में पेश कर रही हैं। मैंने इस विषय का गहराई से अध्ययन किया है और पाया है कि यदि आर्य प्रवासन की दिशा को उलट दिया जाए तो भाषाई तथ्य को और अधिक संतोषजनक ढंग से समझाया जा सकता है।

पंडित नेहरू और नेहरूवाद पर निर्णय पारित करने के लिए मेरे प्रमुख परिसर हैं।भारत की आध्यात्मिक परंपराओं, समाज, संस्कृति, इतिहास और समकालीन राजनीति के विस्तृत मूल्यांकन के लिए उनसे कई सूक्ष्म आधार अनुमानित किये जा सकते हैं।

यह याद किया जा सकता है कि पंडित नेहरू किसी भी तरह से एक अद्वितीय चरित्र नहीं थे, ना ही नेहरूवाद कोई दृगविषय है। ऐसे कमजोर दिमाग वाले व्यक्ति और ऐसी अधीनस्थ विचार प्रक्रियाएं सभी समाजों में देखी गई हैं,जिन्हें कुछ समय के लिए विदेशी शासन के अधीन होने का दुर्भाग्य झेलना पड़ा है।सभी समाजों में हमेशा ऐसे लोग होते हैं जो सशस्त्र शक्ति की श्रेष्ठता को संस्कृति की श्रेष्ठता के साथ भ्रमित करते हैं,जो खुद को एक निम्न नस्ल का समझ कर अपने आप से घृणा करने लगते हैं और आत्मविश्वास हासिल करने के लिए विजेता के तरीकों को अपनाते हैं,जो अपने पूर्वजों से मिली विरासत में दोष ढूंढने लगते हैं, और जो अंततः हर उस ताकत और कारक के साथ हाथ मिला लेते हैं जो उनके पुश्तैनी समाज को नष्ट करने के लिए निकल पड़ा है। इस परिपेक्ष में देखे जाने पर पंडित नेहरू एक आत्मविहीन हिंदू से अधिक कुछ नहीं थे,और नेहरूवाद हिंदू प्रलोभन से ज़्यादा कुछ नहीं है जो कि इस्लाम, ईसाई धर्म और आधुनिक पश्चिम की तुलना में हीनता की गहरी भावना से पैदा हुआ है।

 मध्यकालीन भारत में मुस्लिम शासन ने ऐसे आत्मविहीन हिंदुओं का एक पूरा वर्ग पैदा कर दिया था। उन्होंने मुस्लिम हथियारों की श्रेष्ठता को मुस्लिम संस्कृति की विशेषता के प्रतीक के रूप में व्याख्यान किया था। समय के साथ वे आक्रांताओं की तरह सोचने और व्यवहार करने लगे और अपने ही लोगों को नीचा दिखाने लगे। किसी मुस्लिम प्रतिष्ठान में नियोजित होने  पर वह सबसे ज्यादा खुश होते ताकि वे शासक संभ्रांत वर्ग के सदस्य के रूप में पारित हो सकें। उनके पक्ष में केवल एक ही बात कही जा सकती थी कि वे किसी न किसी कारण से इस्लाम में धर्मांतरित नहीं हुए और पूरी तरह से मुस्लिम समाज में विलीन नहीं हुए। लेकिन इसी कारण से वे इस्लामी साम्राज्यवाद के ट्रोजन अश्व बन गए और अपने ही लोगों की सांस्कृतिक मोर्चाबंदी को ध्वस्त करने का काम करने लगे।

जब ब्रिटिश हथियार विजयी हो गए तो वही वर्ग ब्रिटिश पक्ष में चला गया। उन्होंने उनमें से अधिकांश को और हिंदू पूर्वाग्रहों को बरकरार रखा जो उन्होंने अपने मुस्लिम मालिकों से गृहीत किये थे,और कुछ और विकसित किये, जो कि ब्रिटिश प्रतिष्ठान और ईसाई मिशन का योगदान था। इस तरह ब्रिटिश शासन उनके लिए ईश्वरीय विधान बन गया।इस दोहरी प्रक्रिया के सबसे विशिष्ट उत्पाद थे राजा राममोहन राय।

हालांकि,सौभाग्य से हिंदू समाज के लिए, मुस्लिम शासन के दौरान आत्मविमुख हिंदू एक प्रधान घटक नहीं बन पाया था। उनका वर्ग शहरी केंद्रों तक ही सीमित था जहां मुस्लिम प्रभाव एक महत्वपूर्ण मात्रा में मौजूद था। इस वर्णसंकर नस्ल की संख्या ग्रामीण इलाकों में कम और दूरस्थ थीं जहाँ मुस्लिम शासन ने कभी  मजबूत जड़ें नहीं बनाई थीं। दूसरे, वैचारिक संग्राम के माध्यम से मानव मन में हेरफेर करने के लिए इस्लाम की क्षमता अपर्याप्त थी। वह प्रधानतया पाश्विक बल के माध्यम से काम करता था और सशक्त प्रतिरोध पैदा करता था। अंत में, मुस्लिम शासन की पूरी  अवधि के दौरान हिंदू बच्चों की शिक्षा कुल मिलाकर हिंदूओं के हाथों में रही। तो आत्मविमुख हिंदू केवल हिंदू समाज के सीमांत पर मौजूद और कार्य करता था और शायद ही कभी मुख्यधारा में रहा।

यह सब आंग्ल देशीय आक्रांताओं और ईसाई धर्मोपदेशकों के आने के साथ बदल गया। उनका प्रभाव शहरी केंद्रों तक ही सीमित नहीं था क्योंकि उनकी चौकियां ग्रामीण इलाकों में भी फैल गई थीं। दूसरे, वे विचारों के भंडार और उन्हें संप्रेषित करने के साधनों से लैस थे जो कि इस्लाम के समतुल्य उपकरणों की तुलना में कहीं अधिक कार्यक्षम थे।और लंबे समय में जिससे सबसे बड़ा फर्क पड़ा वह था हिंदू बच्चों की शिक्षा का कार्य, साम्राज्यवादी और ईसाई धर्म प्रचारक संस्थानों  द्वारा अपने हाथों में ले लेना। एक संचयी परिणामस्वरूप आत्मविमुख हिंदुओं की संख्या तेजी से और कई गुना बढ़ गई । इसके साथ ही प्रामाणिक हिंदुओं के खिलाफ और आत्मविमुख हिंदुओं के पक्ष में सोवियत साम्राज्यवाद द्वारा निर्मित साम्यवादी प्रणाली द्वारा तूफानी हमला भी जुड़ा था। यह मानव इतिहास में किसी आश्चर्य से कम नहीं है कि हिंदू समाज और संस्कृति,ना केवल तूफान से बची बल्कि इसने महर्षि दयानंद, स्वामी विवेकानंद, श्री अरबिंदो और महात्मा गांधी के तहत एक जवाबी हमला भी किया जैसे कि उनके लिए दुनिया का सम्मान अर्जित किया। बावजूद इसके, आधुनिक पश्चिम के वर्चस्व वाले सांस्कृतिक परिवेश में आत्मविमुख  हिंदू लगातार बढ़ते और फलते फूलते रहे। और वे आजादी के बाद की अवधि में शीर्ष पर आ गए जबकि हिंदू पुनरुत्थान का कोई भी दिग्गज रंगमंच पर नहीं रहा।

यह कोई संयोग नहीं है कि नेहरूवादी शासन ने ज्यादातर मामलों में ब्रिटिश राज की तरह व्यवहार किया है। नेहरूवादियों ने भारत को एक हिंदू देश के रूप में नहीं बल्कि एक

बहु- जातीय,बहु-धार्मिक और बहु-सांस्कृतिक अखाड़े के रूप में देखा है। उन्होंने अंग्रेजों की तरह अल्पसंख्यकों, यानी साम्राज्यवाद द्वारा स्थापित उपनिवेशों की मदद से मुख्यधारा के समाज और संस्कृति को दबाने की पूरी कोशिश की । उन्होंने हिंदू समाज को खंडित करने और इस प्रक्रिया में अधिक अल्पसंख्यक बनाने की भी कोशिश की । दरअसल अल्पसंख्यकों की रक्षा के नाम पर हिंदू संस्कृति के हर अभिव्यक्ति को खत्म करना, हिंदू गौरव के हर प्रतीक को विकृत करना, और हिंदू संगठन पर अत्याचार करना उनका पूरे समय का पेशा रहा है। हिंदुओं को राक्षसों के रूप में प्रस्तुत किया गया है जो सत्ता में आने पर सांस्कृतिक नरसंहार करेंगे।

सरदार पटेल की मृत्यु के बाद कुछ वर्षों के भीतर पंडित नेहरू ने जो शक्ति और प्रतिष्ठा हासिल की उसका एक व्यक्ति के रूप में, या एक राजनीतिक नेता के रूप में, या फिर एक विचारक के रूप में अपने स्वयं के गुणों से कोई लेना-देना नहीं था। वे एक ऐतिहासिक प्रक्रिया के परिणाम थे जिसने आत्मविमुख हिंदुओं के एक पूरे वर्ग को सामने ला दिया था। यदि यह वर्ग ना होता तो पंडित नेहरू कभी शीर्ष पर नहीं आते।और यह वर्ग भी प्रबल नहीं बनता या  ऐसा ही बना नहीं रहता, अगर इसे पश्चिम  प्रतिष्ठानों द्वारा बनाए नहीं रखा जाता, खासकर सोवियत संघ के द्वारा।

देश का विभाजन इस्लामी साम्राज्यवाद के कारण हुआ था लेकिन नेहरूवादियों ने इसके लिये बेशर्मी से हिंदू सांप्रदायिकता को दोषी ठहराया। सोवियत साम्राज्यवाद के हित में साम्यवादियों द्वारा भारत के नवजात गणतंत्र पर युद्ध छेड़ा गया। लेकिन नेहरूवादी इन देशद्रोहियों के लिए माफी मांगने और

आरएसएस पर हथौड़े चलाने में लगे थे। एक ओर ब्रिटिश राज और दूसरी और नेहरूवादी शासन के बीच और भी कई  सामान्यताएं हैं। मैं विवरण में नहीं जा रहा हूं क्योंकि मुझे यकीन है कि कोई भी व्यक्ति अगर इस विषय पर दिमाग लगाएगा तो उसे ये समानताएं  स्पष्ट हो जाएंगी। नेहरूवादी फार्मूला ये है कि हिंदुओं को हर स्थिति में दोषी ठहराया जाना चाहिए चाहे असली अपराधी कोई भी हो ।

यह मेरा बड़ा सौभाग्य था कि पंडित नेहरू कभी मेरे नायक नहीं बने।कथा पुरूषों के पास उनकी प्रशंसा करने वालों के बीच भावशून्य तर्क वितर्क और निश्चल प्रतिबिंबन को रोकने का तरीका होता है। मेरे विवेक और चिंतन को तो अक्सर मानो ग्रहण लग जाता है। लेकिन बहुत लंबे समय के लिए नहीं और पंडित नेहरू के जादू में तो एक पल के लिए भी नहीं।

 मेरे गांव में स्कूल के दिनों में, और बाद में दिल्ली में, मेरे लिये स्वतंत्रता आंदोलन का मतलब महात्मा गांधी था। मैंने उनके बारे में कई कहानियां नहीं सुनी सिवाय इसके कि वह बकरी का दूध ही पी कर रहते थे, चरखा चलाते थे और जंगली पठानों को वश में कर

रखते थे। एकमात्र अन्य नेता, जिनके बारे में मैं अधिक से अधिक जागरूक हुआ, वे थे पंडित नेहरू। उनके बारे में काफी लोक कथाएं प्रचलित थीं। वह इलाहाबाद में एक महल में रहने वाले एक उत्कृष्ट अमीर आदमी के इकलौते बेटे के रूप में प्रतिष्ठित थे, जो अपने कपड़े लंदन में सिलवाते और पेरिस में धुलवाते थे, जिसने राजप्रतिनिधि के आने पर उच्च मूल्य वर्ग के नोटों का ईंधन के रूप में प्रयोग कर चाय बनवा कर पेश की थी, पहली बार खादी के कपड़े पहनने पर उसकी कोमल त्वचा पर छाले पड़ गए थे। बेटा जो इंग्लैंड में अपने स्कूल और कॉलेज की शिक्षा प्राप्त करने के लिए जाना जाता था ,उसने वेल्स के राजकुमार की मित्रता को ठुकरा दिया था, जो उन के सहपाठी थे, जिन्होंने कई सम्मानों को अवमानना के साथ ठुकरा दिया,जिसे केवल उन्हें देने के लिए अंग्रेज अत्यधिक उत्सुक थे ताकि वे उन्हें अपनी ओर कर सकें,और जिसने अपने ही लोगों का बेताज बादशाह बनना चुना।

इसलिए जब पूरी दिल्ली में दीवारों पर पोस्टर लगे, यह घोषणा करते हुए की ये महान व्यक्ति चांदनी चौक से सटे गांधी मैदान में एक जनसभा को संबोधित करने आड रहे हैं तो मैं बहुत उत्साहित महसूस कर रहा था।मुझे सही तारीख याद नहीं है।यह संभवत: 1934 के अंत या 1935 के शुरुआत की बात है।मेैं सातवीं कक्षा का छात्र था।

मैं जहां रहता था वहां से गांधी मैदान कुछ ही दूरी पर था फिर भी मंच के पास बैठने के लिए  और वक्ता को करीब से देखने के लिए बहुत जल्दी चला गया।पहले व्याख्यान – मंच काफी ऊंचा था।लेकिन पंडित नेहरू के आने तक भीड़ जमा हो गई थी जो बाद के मानकों से बड़ी नहीं थी।

 जब पंडित नेहरू मंच पर आए, लोगों का हाथ जोड़कर अभिवादन किया और एक स्थानीय कांग्रेस नेता द्वारा औपचारिक रूप से उनका परिचय कराया गया तो तालियों की गड़गड़ाहट गूँज उठी। लेकिन अगली घटना जो मैंने देखी उसने मुझे अपनी आंखें मलने पर मजबूर कर दिया।मुझे विश्वास नहीं हो रहा था कि वो सब सच है। महापुरुष का चेहरा लाल हो गया था,वे बाईं ओर मुड़े और उसी नेता के चेहरे पर एक जोरदार तमाचा जड़ दिया जो माइक के पास खड़ा था। माइक काम नहीं कर रहा था। पंडित नेहरू हाथ से संकेत कर रहे थे और अपनी आवाज के शीर्ष पर चिल्ला रहे थे जैसे कि कुछ भयावह हो गया हो। इस बीच माइक ने फिर से काम करना शुरू कर दिया था और उन्हें हर ओर सुना जा सकता था। वह कह रहे थे “दिल्ली की कांग्रेस के करकुन कमीने हैं,रज़ील हैं,नामाक़ूल हैं। मैंने कित्ती बार इनसे कहा है कि इंतजाम नहीं कर सकते तो मुझे मत बुलाया करो पर ये सुनते ही नहीं।” एक पल के लिये बिलकुल सन्नाटा छा गया। अगले ही पल एक ओर तालियों की गड़गड़ाहट गूँज उठी।मेरे बगल में बैठे गांधी टोपी वाले व्यक्ति ने टिप्पणी की “पंडित जी अपने गुस्से के लिए प्रसिद्ध हैं और लोग उन्हें इसलिए और अधिक पसंद करते हैं।” मैं मंच की ओर मुड़ा तो देखा थप्पड़ मारे गए कांग्रेसी नेता का चेहरा मुस्कान से नहाया हुआ था जैसे उन्होंने कोई प्रतिष्ठित पुरस्कार जीता हो।

यह मेरे लिए एक नया अनुभव था। मैंने अपने गांव में, अपने जिला मुख्यालय में और दिल्ली में कई जनसभाओं में भाग लिया था पर मैंने सार्वजनिक मंच पर ऐसा जंगली व्यवहार कभी नहीं देखा था। बेशक वो अन्य वक्ता इतने बड़े नहीं थे जितना कि यह। क्या बड़े लोगों का व्यवहार ऐसा ही था ? मैं अचंभित था। मुझे एक ऐसे व्यक्ति की प्रशंसा करना मुश्किल लगा जो न केवल चिल्लाया था बल्कि किसी ऐसे व्यक्ति को थप्पड़ भी मारा था जो जीवन में  उनसे निचले स्तर पर था और जो पलटवार करने की स्थिति में नहीं था। और वह भी बिना पीड़ित की गलती के। छोटी उम्र में भी धौंसियों के लिये मेरे मन में घृणा ही थी।

 इसके बाद जो भाषण हुआ वह कहीं अधिक निराशाजनक था। मुझे विषय याद नहीं है। यह वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य के बारे में रहा होगा । मुझे उस समय अंग्रेजों के जाने के आह्वान से परे कोई राजनीति समझ में नहीं आई।मुझे अब केवल वही भाषा याद आ रही है जो पंडित नेहरू बोल रहे थे।वो ना हिंदी थी ना उर्दू । उनके अधिकांश वाक्य व्याकरण या वाक्य विन्यास के संदर्भ में  बहुत गलत थे। कभी-कभी वह शब्दों के बारे में अनिश्चित से महसूस हो रहे थे। मुझे लगा कि वह बहुत कमजोर और तुच्छ वक्ता हैं। मैंने कई अन्य लोगों को सुना था जो इतने प्रसिद्ध नहीं थे फिर भी वे कहीं बेहतर और अधिक सुसंगत थे। मेरा उनकी भाषा पर ध्यान नहीं जाता अगर मुझे ये नहीं पता होता कि वह ऐसे प्रांत से हैं जो हिंदी और उर्दू दोनों के लिए प्रसिद्ध था।

 इस पहली सभा, जिसमें मैं उपस्थित रहा, उसके बाद पंडित नेहरू ने दिल्ली में कई अन्य जनसभाओं को संबोधित किया। लेकिन मैंने उन पर ध्यान नहीं दिया। उनका अगला प्रदर्शन मैंने 1942 में देखा। कुछ ही दिनों पहले क्रिप्स मिशन के साथ वार्ता विफल रही थी। मैं जानना चाहता था कि हिटलर सोवियत संघ के खिलाफ जो युद्ध छेड़ रहा था उसे देखते हुए कांग्रेस आगे क्या करना चाहती है। मैं अब एक स्नातकोत्तर छात्र था और मैं इस अभियान का समर्थन करता था जिसके बारे में मेरे राजनीति विज्ञान के प्रोफेसर ने बताया था कि यह मानव स्वतंत्रता और प्रगति के उद्देश्य से हो रहा है। मुझे विश्वास हो गया था कि हिटलर एक जंगली जानवर था, जिसका शिकार किसी भी कीमत पर किया जाना ज़रूरी था।

सभा स्थल वही पुराना गांधी मैदान था लेकिन भीड़ इतनी ज्यादा थी जितनी मैंने किसी जनसभा में नहीं देखी थी। मैं फव्वारे की तरफ खुलने वाले फाटक के पास खड़ा हो गया। मैं सभा के अंत में संभ्रमित भीड़ के हंगामे में  फँसना नहीं चाहता था। मुझे नहीं पता था कि मैं एक ऐसा दृश्य देखने जा रहा हूं जो मुझे पंडित नेहरू से हमेशा के लिए दूर कर देगा।

 मंच पर आते ही महापुरुष को खूब सारी माला पहनाई गई।उन्होंने हाथ जोड़कर लोगों का अभिवादन किया।  लेकिन जैसे ही वह माइक की ओर बढ़े सभा के एक कोने में कुछ हलचल हुई। किसी ने मुझे बताया कि दिल्ली की एक सूती मिल के मजदूर हड़ताल पर चले गए हैं और अपनी मांगों के लिए पंडित नेहरू से समर्थन मांग रहे हैं। मुझे लगा कि कार्यकर्ता यह अनुचित कर रहे हैं। उन्होंने अपना पक्ष रखने के लिए गलत समय और गलत स्थान चुना था। राष्ट्र संकट के बीच था। यह एक राष्ट्रीय नेता को छोटी-छोटी स्थानीय समस्याओं से परेशान करने का कोई अवसर नहीं था। मुझे यह भी पता चला कि इस हंगामे के पीछे कुछ साम्यवादी थे। मुझे उन साम्यवादियों पर बहुत क्रोध आया ।

लेकिन जैसे ही मैं फिर से मंच की ओर मुड़ा, मैंने जो देखा वह कहीं अधिक अनुचित और अशोभनीय था। पंडित नेहरू उस पकड़ से मुक्त होने की कोशिश कर रहे थे जिसमें उन्हें कई कांग्रेसी नेताओं ने पकड़ रखा था,और जिन्होंने उनके हाथों और कमर को कसके पकड़ा हुआ था।उन्हें नीचे कूदने से रोका जा रहा था और उस कोने की ओर भागने से रोकने की कोशिश की जा रही थी जिस तरफ हंगामा हुआ था। लगता था पंडित नेहरू को बीच में बैठी भीड़ का कोई भान नहीं था। वह एक पल आगे बढ़ रहे थे और अगले ही पल उन्हें पीछे खींचा जा रहा था और इस दौरान वह लगातार अपनी आवाज के शीर्ष पर चिल्ला रहे थे। माइक पर उनकी तेज़ आवाज गूँज रही थी-” देखना चाहता हूं इन कमीनों को मैं। बता देना चाहता हूँ इनको कि मैं कौन हूँ। इनकी यह गंदी हरकतें मैं कतई बर्दाश्त नहीं कर सकता।” हंगामा थम गया। कांग्रेस नेताओं ने उन पर अपनी पकड़ छोड़ दी। अचानक वे सीधे हो गए जैसे कि वह अपने जूते से बाहर निकलने वाले थे। उन्होंने अपना दाहिना हाथ ऊपर उठाया और चिल्लाए- “मैं एक शानदार आदमी हूं।” भीड़ बेतहाशा लगातार ताली बजा रही थी।

 उस दिन उनका भाषण पूरी तरह से असंगत था। ऐसा लग रहा था जैसे वह किसी रैली को संबोधित करने के बजाय स्वयं से बात कर रहे हों। जो उन्होंने अपने पहले वाक्य में कहा उससे वह अगले वाक्य में पीछे हटते नजर आए। एक क्षण में अंग्रेजों को “हमारे सीने पर बैठा एक पत्थर” कहकर निंदा कर रहे थे अगले ही पल वह सोवियत संघ द्वारा बचाव की जा रही स्वतंत्रता और प्रगति के लिए सहानुभूति से ओतप्रोत हो रहे थे। जहां तक ब्रिटिश साम्राज्यवाद का संबंध था वह अंत तक उससे लड़ने के पक्ष में थे। लेकिन साथ ही उन्होंने लोगों को, युद्ध के प्रयास में आड़े आने के प्रति आगाह किया। उनका झुकाव किस ओर था यह निश्चित तौर पर कहना या अंदाजा लगाना मुश्किल था।वह जिस भाषा में बात कर रहे थे उस पर मैं कोई टिप्पणी नहीं करूंगा। मुझे यह पहले के अवसरों की तरह ही कुत्सित लगा।

बैठक के तितर-बितर होने के बाद जो हुआ वह और भी निकृष्टतर था। वह मंच से उतरे और उस फाटक की ओर बढ़ने लगे जहां मैं खड़ा था। कांग्रेस के स्वयंसेवकों ने उनके चारों ओर घेरा बना लिया था। लेकिन जैसे ही लोग आगे बढ़े और उनके पैर छूने की कोशिश की उन्होंने स्वयंसेवकों को दूर धकेल दिया और स्वयं आगे बढ़ने लगे। वह अपने दोनों हाथों से थप्पड़ मार रहे थे और अपने दोनों पैरों से अपने आसपास आने वाले लोगों को लात मार रहे थे। उन्होंने फुल बूट्स पहने हुए थे ।उनके कुछ प्रशंसकों को बुरी तरह चोट लगी होगी। मुझे लगा कि उन्हें अपने लोगों के साथ इस क्रूर तरीके से व्यवहार करने का कोई हक नहीं था। आखिरकार वे उनके प्रति केवल उसी तरह अपनी निष्ठा दिखाने की कोशिश कर रहे थे जिस तरह से उन्होंने अपनी परंपरा से सीखा था।

 कुछ दिन पहले मैं उत्तरी दिल्ली में हरिजन बस्ती गया था जहां महात्मा गांधी ठहरे हुए थे। मैं एक घंटे से अधिक उनके कदमों में बैठा रहा और किसी ने भी मुझे उस झोपड़ी से बाहर निकालने की कोशिश नहीं की। उन्होंने हमें दिल खोलकर हंसाया जब वे अपनी बातों से कुछ अमीर लोगों को हरिजन के लिए पैसे देने के लिए राजी करने की कोशिश कर रहे थे जो की उनके द्वारा पहले दी गई राशि से अधिक थी।शाम हुई और वह प्रार्थना सभा की ओर चल पड़े। स्वयंसेवकों ने उनके चारों ओर रस्सी का घेरा बना दिया लेकिन लोगों को रोका नहीं जा सका । लोग चारों ओर से दौड़े और उनके पैरों तक पहुंचने के लिए घेरे के नीचे रेंगने लगे। गांधी जी असहाय हो  रुक गए। लेकिन उनका चेहरा प्रेम से चमक रहा था । उन्होंने भारी स्वर में कहा-” बुड्ढा हूं, मर जाऊंगा ।जाकर बैठ जाऊँ तो फिर सिर से पैर तक छू लेना

मैंने दो महान राष्ट्रीय नेताओं के व्यवहार की तुलना की जब उन्हें अपने लोगों की भीड़ का सामना करना पड़ा। मैं खुद को इस निष्कर्ष पर पहुंचने से नहीं रोक सका कि महात्मा गांधी धरती के पुत्र थे और अपने लोगों के बीच बिल्कुल शांतिप्रद थे,जबकि नेहरू एक भूरे साहिब थे जो अपनी सभाओं में लोगों की भीड़ देखना तो पसंद करते थे लेकिन उनकी संस्कृति को  तुच्छ समझते थे। वह एक अपर देशीय लग रहे थे जो कि एक अपरिचित दुनिया में भटक कर आ गए थे। मैंने पंडित नेहरू के बारे में जो कुछ भी देखा या जाना उसने बाद में इस निष्कर्ष की पुष्टि की। मैं केवल एक और उदाहरण का उल्लेख करूंगा।

 मैं 1947 के अंत में या 1948 की शुरुआत में दिल्ली में था और अमेरिका के अपने पत्रकार मित्र से मिलने गया। जैसा कि मैंने उल्लेख किया, वह भारत के स्वतंत्र होने के तुरंत बाद  कोलकाता से दिल्ली के लिए रवाना हो गए थे। जैसे ही मैं कॉफी हाउस में उनके साथ बैठा उन्होंने कहा-” सीता, यह आदमी अपने आप को समझता क्या है? भगवान? मैंने उनसे पूछा-” “कौन ? क्या हुआ?” उन्होंने मुझे कुछ साधुओं की कहानी सुनाई जो नई दिल्ली में पंडित नेहरू के आवास के बाहर अनिश्चितकालीन अनशन पर बैठ गए थे और उनसे यह आश्वासन मांग रहे थे कि अब गौ हत्या बंद कर दी जाए क्योंकि गौ मांस खाने वाले अंग्रेज अब चले गए थे। मेरे दोस्त ने कहा -“मैं वहां कुछ रिपोर्ट इकट्ठा करने और कुछ तस्वीरें लेने गया था। अमेरिकी पाठकों को भारत से ऐसी कहानियां पसंद हैं। लेकिन मैंने जो देखा वह मेरे लिए बहुत भयावह था। जब मैं एक साधु से बात कर रहा था जो थोड़ी अंग्रेजी जानता था,उसी समय यह आदमी अपनी बहन श्रीमती पंडित के साथ तेजी से अपने घर से बाहर निकला।दोनों हिंदी में कुछ चिल्ला रहे थे। बेचारा साधु आश्चर्यचकित हो गया और खड़ा हो गया। इस आदमी ने साधु को थप्पड़ मार दिया जो हाथ जोड़कर आगे आ गया था और फिर उसकी बहन ने भी वैसा ही किया। वह कुछ ऐसा कह रहे थे जो बहुत कठोर और अप्रिय लग रहा था। फिर वे दोनों पीछे मुड़े और जितनी तेजी से आए थे उतनी तेजी से गायब हो गए। साधु ने विरोध में एक शब्द भी नहीं कहा, उन दोनों के जाने के बाद भी। मैंने महसूस किया की उन्होंने यह सब कुछ सामान्य बात की तरह लिया था।” उसने यह निष्कर्ष निकालते हुए बात समाप्ति की कि “पंडित नेहरू के बारे में तो यह सामान्य बात है। वह जीवन भर लोगों को थप्पड़ और लात मारते रहे हैं।” उसने कहा-“मैं आपके देश के कायदे और मानदंड तो नहीं जानता लेकिन अगर मेरे देश में यदि राष्ट्रपति  एक नागरिक पर चिल्ला भी दे तो उसे जाना होगा।हम किसी से भी ऐसी बकवास नहीं बर्दाश्त करते हैं चाहे वह कितना ही बड़ा क्यों ना हो ।” मैं चुप रहा।

अब जब मैंने पंडित नेहरू के लेखन और भाषण को व्यापक रूप से पढ़ा है, उन नीतियों को जाना जिसका वह अनुसरण करते हैं थे तो मैं पूरे विश्वास के साथ कह सकता हूं कि यह लाइलाज धौंसिया एक असाध्य कापुरुष भी था। हमें अलग-अलग संदर्भों में और अलग-अलग लोगों के प्रति उनके व्यवहार स्वरूप को जोड़ कर देखना है तब कोई भी स्पष्ट रूप से समझ सकता है कि जिस समय वह मोहम्मद अली जिन्ना और मुस्लिम लीग के सामने रेंग रहे थे और उनकी चापलूसी में मग्न थे ठीक उसी समय वह हिंदू महासभा और उसके नेताओं के सामने अपने घमंड में ओत प्रोत थे।बाद में वे आरएसएस के खिलाफ गरज रहे थे और साथ ही साथ भारत और विदेशों में साम्यवादियों के सामने रेंग रहे थे जो उन्हें अमेरिकी साम्राज्यवाद के कुत्ते के रूप में लताड़ रहे थे। जो उन्हें लताडते,उनकी वह चाटुकारिता करते जबकि उन लोगों को अपमानित करते रहते जो उन्हें वापस पलट कर जवाब नहीं दे सकते या उन्हें उनकी जगह दिखाने के स्थिति में नहीं थे।

 1949 में हमने पंडित नेहरू और इनकी सरकार का समर्थन करके अपना साम्यवादी विरोधी काम कैसे शुरू किया और कैसे हमें समय के साथ पता चला कि वह आदमी एक प्रतिबद्ध साम्यवादी था इसकी कहानी मैंने कहीं और कहीं है। यहां मैं यह कहानी बताना चाहता हूं कि नेहरूवाद से भरे माहौल में मैंने एक प्रतिबद्ध हिंदू के रूप में कैसा प्रदर्शन किया ।

कॉलेज के दिनों के मेरे दार्शनिक मित्र 1955 में अपनी पीएचडी थीसिस के प्रकाशन के सिलसिले में कोलकाता आए थे। उस समय वे नेहरू के बड़े प्रशंसक थे और उनका मानना था कि नेहरू के अधीन भारत में सब कुछ ठीक है । मैंने एक परंतुक जोड़ा “जब तक आप उन विषयों पर आलोचनात्मक बात नहीं कहते या लिखते जहाँ नेहरू ने सीमा चिन्हित की है।” उसने मुझ पर विश्वास नहीं किया। मैंने उनसे भारत के समरेखण प्रतिरूप  या भारत की विदेश नीति पर एक आलोचनात्मक लेख लिखने और उसे किसी प्रतिष्ठित पत्र में प्रकाशित करने के लिए कहा। उन्होंने चुनौती स्वीकार कर ली।

दिल्ली लौटने पर उन्होंने पाया कि वे समाजवाद बनाम पूंजीवाद पर लिखे गए अपने लेख के कारण वहां के अर्थशास्त्रियों के बीच प्रसिद्ध हो गए थे। ये लेख इंग्लैंड के एक प्रबुद्ध पत्रिका में प्रकाशित हुआ था और वहाँ के और साथ ही फ्रांस के कुछ प्रतिष्ठित विद्वानों द्वारा सराहा गया था। दिल्ली विश्वविद्यालय में अर्थशास्त्र के एक प्रसिद्ध प्रोफेसर ने उनके लिए एक विशेष अध्येतावृत्ति बनाने का वादा किया। दिल्ली से प्रकाशित होने वाले आर्थिक मामलों पर एक प्रसिद्ध साप्ताहिक के संपादक ने उन्हें नियमित पत्रभाग/पृष्ठ का एक खण्ड लिखने के लिए आमंत्रित किया।हालाँकि, उन्होंने मेरी चुनौती को याद किया। साप्ताहिक में कुछ पारंपरिक लेखों का योगदान करने के बाद उन्होंने भारत की योजना पर एक आलोचनात्मक लेख लिखा। संपादक ने उस लेख को तो प्रकाशित किया लेकिन उन्हें स्पष्ट रूप से बता दिया कि अब उनके और किसी लेख की आवश्यकता नहीं है। प्रोफेसर ने भी उनका नवीनतम लेख पढ़ते ही उनसे किनारा कर लिया। इसके बाद उन्होंने भारत की विदेश नीति की आलोचनात्मक समीक्षा की और इसे एक के बाद एक कई दैनिक और साप्ताहिक समाचार पत्रों में भेजा।उन सभी ने उसे प्रकाशित करने में उनकी असमर्थता के लिए एक टाइप की हुई चिट्ठीके साथ लौटा दिया। वह अब केवल एक अप्रसिद्ध साप्ताहिक में ही स्वीकार कर सकते थे कि वह मुझसे शर्त हार गए थे।

मई 1957 में जब मैं दिल्ली लौटा तब तक पंडित नेहरू भारत और विदेशों में अपनी शक्ति और प्रतिष्ठा के शिखर पर थे। भारत के इतिहास में समाजवादी युग के अग्रदूत के रूप में सोवियत प्रतिमान की तर्ज पर दूसरी पंचवर्षीय योजना को बड़ी धूम-धाम से शुरू किया गया था। अमेरिका ने चेस्टर बोल्स की बात को बढ़ावा दिया  कि नेहरू का “न्यू इंडिया” लाल चीन द्वारा चुने गए सर्वसत्तावादी मार्ग के विपरीत लोकतंत्र के विकास में एक महान प्रयोग था। लेकिन यह “अशोक और अकबर के बाद सबसे महान भारतीय” के लिए मामूली तारीफ थी। उनके लिये “विश्व शांति के संरक्षक” के रूप में उनकी छवि सर्वोपरि थी। भारत में चाटुकार प्रेस और विदेश यात्रा करने वाले एक साथी ने उन्हें महानता की पराकाष्ठा बताया। जब मैंने इसे बार-बार लोगों से सुना यहाँ तक कि बाबू साहब लोगों से भी, तो मुझे अपने कानों पर विश्वास करना मुश्किल हो गया कि-” मानव इतिहास के इस समीक्षात्मक मोड़ पर पंडित जी की उपस्थिति के बिना दो बड़ी शक्तियां परमाणु प्रलय से पृथ्वी के टुकड़े टुकड़े कर देंगे।” जनसभाओं या विद्वानों की गोष्ठियों में शायद ही कोई भाषण हो जो इन शब्दों से शुरू ना हुआ हो,”जैसा कि हमारे प्रिय प्रधानमंत्री, विश्व शांति के दूत ने बताया है……”

 यह साम्यवादी देशों, विशेष रूप से सोवियत संघ और लाल चीन के प्रतिनिधिमंडलों का दिन था।अलग अलग  साम्यवादी देश से लौटने वाले कुछ उल्लेखनीय लोगों के “अपनी आंखों से हमने जो चमत्कार देखे हैं” के बारे में बयान दिए बिना एक सप्ताह भी नहीं बीतता। उसी समय पश्चिमी लोकतंत्रों, विशेष रूप से संयुक्त राज्य अमेरिका को सबसे निराशाजनक और अनैतिक रंगों में रंगा जा रहा था। वे -“लोगों की शांति, प्रगति और समृद्धि के दुश्मन थे, खासकर एशियाई लोगों के।” अगर किसी को किसी भी कारण से अमेरिकी समर्थक का मार्का लग गया तो उसे शर्मसार होना पड़ता था। साम्यवादी शासन या साम्यवादी दलों या स्वयं साम्यवाद के बारे में चापलूसी से कम कुछ भी कहना अमेरिकी समर्थक प्रतिष्ठा प्राप्त करने का सबसे निश्चित तरीका था चाहे कोई वास्तव में अमेरिका के पक्ष में हो या नहीं। जो देश के सार्वजनिक जीवन में जाने जाते थे वे या तो सही ब्रांड के प्रगतिशील/सुधारवादी थे या ऐसे ही आगे बढ़ने की कोशिश कर रहे थे। उन्होंने उन लोगों को घुड़काना या उनके साथ किसी भी तरह के संपर्क से बचने की पूरी कोशिश की जिन्हें अमेरिकी समर्थक ब्रांड होने के दुर्भाग्य का सामना करना पड़ा था।कोई आश्चर्य नहीं कि एक सुस्पष्ट और प्रसिद्ध साम्यवादी विरोधी के रूप में मुझे सम्मानित हलकों में एक संदिग्ध चरित्र के रूप में

देखा जाता था।

यह राष्ट्रीय विकास के लिए स्वैच्छिक प्रयास के रूप में जाना जाने वाला दिन भी था। पूरे देश में, हर क्षेत्र में स्वैच्छिक संस्थाओं का उदय हुआ था। उन दिनों आप जिस दूसरे जन उत्साही व्यक्ति से मिलें वह या तो एक स्वैच्छिक संस्था चला रहा था या किसी को प्रोत्साहित करने की प्रक्रिया में था। केंद्र के साथ-साथ राज्यों में भी  सरकारी विभाग हर तरह के स्वैच्छिक प्रयासों को वित्त पोषित करने के लिए तैयार थे,बशर्ते कोई इसकी आवश्यकता को साबित कर सके जो उन लोगों के लिए मुश्किल नहीं था जो साबित करने की कला को जानते थे या जो सही जगहों पर  सही लोगों को जानते थे।तिस पर अमेरिकी निधीकरण संस्थाएं यहां सभी प्रकार के स्वैच्छिक कार्यों को वित्त पोषित करने के लिए उत्सुक थीं, बशर्ते कि संस्थापक प्रतिष्ठान की नजर में सम्मानित लोग हों। मुझे एक दृष्टांत के बारे में पता चला जहां एक स्थापित स्वैच्छिक संगठन के सचिव को गुप्त रूप से एक अमेरिकी निधीकरण संस्था के कुल वेतन भुगतान पर रखा गया था ताकि वह अपने संगठन को अमेरिकी सहायता स्वीकार करने के लिए राजी कर सके जो अन्यथा इसके लिये अनिच्छुक थे। एक दिन जब मैं अपने राजनीति विज्ञान के प्रोफ़ेसर से मिला तो उन्होंने मुझे सलाह दी कि मैं अपना जीवन मुक्तहस्त रूप से जीऊँ।वह स्वैच्छिक प्रयास के बारे में दोषदर्षी हो गये थे क्योंकि उन्होंने इसकी कृत्रिमता को देख और समझ लिया था।

 मैंने जो विशेष रूप से देखा था कि यद्यपि सार्वजनिक वातावरण अमेरिकी विरोधीवाद से अंतर्धूमित था परंतु निजी तौर पर अमेरिकी सभी प्रगतिशील हलकों के सबसे प्रगतिशीलों में भी बहुत लोकप्रिय थे। स्वैच्छिक प्रयास के लिए अमेरिकी धन प्राप्त करने या अमेरिका प्रायोजित विदेश यात्राओं पर जाने या अमेरिकी अनुदान और छात्रवृत्ति पर अमेरिकी विश्वविद्यालयों में बेटे और बेटियों को भेजने के मामले में किसी को भी अमेरिका से कोई आपत्ति नहीं थी। मुझे कुछ खानदानी साम्यवादियों और साथी यात्रियों के बारे में पता चला जो निजी अमेरिकी घरों में अमेरिकी शराब  गटकते और ढेर सारा विचित्र अमेरिकी खाना खाते जबकि सार्वजनिक रूप से हर अमेरिकी चीज़ के खिलाफ ज़हर उगलते थे। लेकिन अमेरिकी ऐसे ही लोगों की संगति में सहज महसूस करते थे और उन लोगों पर नाक-भौं चढाते थे जिन्हें अमेरिकी समर्थक के रूप में जाना जाता था। मुझे एक अमेरिकी प्रोफेसर ने भारत की अपनी लघु यात्रा पर ये बताया  कि यह दुश्मनों को दोस्त बनाने के लिए एक सुविचारित कार्य प्रणाली थी। लेकिन मुझे भारत में कहीं भी अमेरिका के लिए मित्रता दिखाई नहीं दी।

जिस संगठन से मैं एक शोध सलाहकार के रूप में जुड़ा था उसमें मेरे बॉस मेरे एक पुराने मित्र थे। हम दिल्ली के एक ही स्कूल और कॉलेज में पढ़े थे।जब हम दोनों ही उस बौद्धिक मंडली के सदस्य बन गए जो 1944 में राम स्वरूप के इर्द-गिर्द विकसित हुआ था, तब हम दोनों काफ़ी करीबी दोस्त बन गए । उन्होंने शरणार्थी पुनर्वास के क्षेत्र में काफी सराहनीय काम किया था और अब किसी न किसी पैमाने पर भारतीय हस्तशिल्प को बढ़ावा दे रहे थे। कुल मिलाकर वह दिल्ली के सार्वजनिक जीवन में काफी महत्वपूर्ण हो गए थे। जैसे ही उन्हें पता चला कि मैं अपने साम्यवादी विरोधी गतिविधियों के कारण सड़क पर हूं तो उन्होंने तुरंत मुझे नौकरी की पेशकश की। मैं इसके लिए उनके प्रति कृतज्ञ था । उन्होंने एक ही शर्त रखी थी कि मैं राजनीति नहीं करूंगा। मैं समझ गया कि इस प्रतिबंध में राजनीतिक लेखन भी शामिल है, हालांकि उन्होंने यह स्पष्ट रूप से नहीं कहा था। लेकिन उन्होंने इसमें उन सम्मानजनक मंडलियों को शामिल नहीं किया था जिसमें वे रहते और उठते बैठते थे। बहुत जल्द ही उन्हें मुझ पर हर तरफ से और हर तरह के हो रहे हमलों से बचाने के लिए बुलाया गया।

 उन्हें जो सबसे पहला हमला झेलना पड़ा वह अमेरिकियों ने किया था।उनके संगठन के  ग्रामीण विकास विभाग को अमेरिकी सहकारी संघटन से कुछ वित्तीय सहायता मिल रही  थी। इस विभाग से मेरा कोई लेना देना नहीं था सिवाय इसके कि जिस शोध व्यवस्था में मैं काम करता था वह उसी परिसर में था। एक  दिन मेैं एक सहकर्मी के साथ बैठकर बातें कर रहा था तभी सरकारी संगठन का नेतृत्व करने वाला अमेरिकी वहाँ आ गया। मैं देख सकता था कि उसकी आंखों में विद्वेष था। बात सोवियत संघ की तुलना में अमेरिकी सहायता के स्वरूप की ओर मुड़ गई। मैंने समीक्षा की कि जहाँ अमेरिका हमारे घरों और चूल्हों की देखभाल कर रहा था वहीं सोवियत संघ हमारे सिर की देखभाल कर रहा था। अमेरिकी क्रोधित हो गया। उसने कहा-“तुम बहुत ही बुरे आदमी हो जो तुमने ऐसा कहा।” मैंने आपत्ति जताई कि हमारा एक दूसरे से परिचय तक नहीं हुआ है,हालांकी वह अपनी राय रखने के लिए स्वतंत्र हैं लेकिन उन्हें मुझे बुरा भला कहने का कोई हक नहीं। वह आवेश में बाहर निकल गया।

संयोगवश मेरे बॉस और मेरे एक सहयोगी को उसी दिन शाम इस अमेरिकी के घर रात के खाने के लिए आमंत्रित किया गया। जैसे ही उन्होंने घर में प्रवेश किया उन्होंने देखा कि अमेरिकी बिस्तर पर लेटा हुआ कराह रहा था। कई अन्य अमेरिकियों ने उसे चारों ओर से घेरा हुआ था। मेरे बॉस ने उनके स्वास्थ्य के बारे में पूछताछ की। सभी अमेरिकियों ने एक स्वर में कहा- “कोलकाता से आपने जिस साम्यवादी को आयात किया है उसने आज सुबह श्रीमान का अपमान किया। तब से वे अस्वस्थ महसूस कर रहे हैं। मेरे बॉस ने पहले तो सोचा कि शायद मैंने ही अपनी तीखी जुबान का प्रयोग किया है,जिसके लिए मैं बहुत मशहूर था, लेकिन मेरे सहयोगी ने उन्हें सुधारते हुए पूरी घटना बताई। मेरे बॉस ने अमेरिकियों को दृढ़ स्वर में कहा कि मेरी प्रतिष्ठा एक साम्यवादी के विपरीत थी, कि उन्हें अपने संगठन में किसको नियुक्त करना है इस बारे में कोई आग्यापन नहीं लेंगे, अगर वह अपने सहायता कार्यक्रम को बंद करना चाहते हैं तो कर के अगले चौबीस घंटे में ही वापस चले जाएँ। जैसे ही वे घर से बाहर निकलने लगे अमेरिकी अपने घुटनों पर गिरकर उनसे गलतफहमी के लिए क्षमा मांगने लगे। सहकारी संघटन के अमेरिकी प्रभारी अब बीमार नहीं थे। वह बिलकुल स्वस्थ थे और तुरंत खड़े होते हुए बोले कि वह सपने में भी कोई शर्त  रखने की बात नहीं सोच सकते। अगली सुबह उसने मुझसे दोस्ती करने की कोशिश की । उसने जो हाथ मेरी और बढ़ाया मैं उसे मिलाने से इनकार नहीं कर सकता था। मुझे नहीं पता था कि पिछली शाम उनके घर पर क्या हुआ था। इस घटना की खबर मुझे महीनों बाद मिली लेकिन वो भी मेरे बॉस द्वारा नहीं।

 मेरे शोध कार्य में, मुख्य रूप से आयोजित किए गए संगोष्ठीयों के प्रतिवेदन संकलित करना और आयोजित होने वाले संगोष्ठीयों के लिए कार्य पत्र तैयार करना निहित था। यह अंतहीन संगोष्ठियों का युग था। शायद ही कोई ऐसा दिन होता जब दिल्ली में कोई न कोई संगोष्ठी ना हुई हो । इन सभाओं में अधिकांश समय ऐसे लोगों में चला जाता था  जिनके पास कहने के लिए कुछ नहीं था लेकिन जिन्हें अपने स्वरयंत्र को नियंत्रण में रखने में कठिनाई होती थी।सिद्धान्तवादी बातें करते समय वे बहुत पारंगत महसूस करते। मुझे कुछ ऐसे चेहरे भी दिखे जो हर संगोष्ठी में मौजूद होते, चाहे विषय कुछ भी हो। उन्होंने पूरी कार्यवाही के दौरान एक शब्द भी नहीं बोला होता लेकिन सत्र के अंत में यात्रा, आवास और परिवहन खर्च लेने के लिए तत्पर रहते। एक दिन मैंने उनमें से एक को पकड़ा  जिसने पिछली शाम अहमदाबाद से आने जाने और दिल्ली के एक होटल में दो दिनों तक रहने के लिए मोटी रकम ली थी। मुझे आश्चर्य हुआ कि वह अहमदाबाद से इतनी जल्दी यात्रा कैसे कर सकता है कि अगले ही दिन एक संगोष्ठी में फिर से भाग लेने पहुंच जाए। उसने मुझसे बिना पलक  झपकाए कहा कि उसका अहमदाबाद से कोई लेना-देना नहीं सिवाय इसके कि वह वहां पैदा हुआ था, कि वह अपने परिवार के साथ दिल्ली में रहता था और संगोष्ठी में भाग लेने के लिए पैसे लेना उसका जीवन यापन करने का तरीका था। मैं उस बुद्धिमान व्यक्ति की प्रशंसा किये बिना नहीं रह सका। उन्हें  संगोष्ठी से कुछ सारभूत मिल रहा था।

 उस व्यवस्था में मुझे एकमात्र संतोष यह था कि मुझे अपनी पढ़ाई को नवीनीकृत करने के लिए बहुत समय मिल रहा था। मैं पहले ही बता चुका हूं कि कैसे मैंने सनातन धर्म के प्राचीन और आधुनिक शास्त्रों का अध्ययन किया। यहां मैं यह बताना चाहता हूं कि कैसे मैंने भारत के इतिहास के बारे में अपने दृष्टिकोण को सही किया। जैसे ही मुझे सनातन धर्म की श्रेष्ठता का ज्ञान हुआ मुझे उस समाज से प्यार हो गया जो सदियों से इसका वाहन रहा है।लेकिन मैंने जो इतिहास पढ़ा था वह शायद ही हिंदू समाज का इतिहास था। यह उन विजेताओं का इतिहास था जिन्होंने हिंदुओं को उत्पीड़ित किया था। मैं ये जानने के बारे में उत्सुक हो गया कि हिंदू समाज इतने लंबे समय तक आक्रमणों से उत्तरजीवी कैसे रहा,विशेष रूप से इस्लामी आक्रमणकारियों और इसाई धर्मप्रचारकों के हमलों से।  क्योंकि मैं इस बात से अवगत था कि हिंदू समाज ही एकमात्र प्राचीन समाज था जो इस्लाम और ईसाई धर्म के जातिसंहार आक्षेपों  से बचा रहा था। अन्य सभी प्राचीन समाज इन धर्म युद्ध पंथों या उनकी नवीनतम परिवर्तित साम्यवाद के आगे झुक गए थे। श्रीलंका,बर्मा थाईलैंड और जापान ही अन्य अपवाद थे। लेकिन फिर  यह अपवाद भी, एक बृहद् मापदण्ड से, भारत की प्राचीन संस्कृति के ही विस्तारण थे।

 मुझे अब विश्वास हो गया था कि हिंदू समाज किसी ऐसी अंतर्जात ताकत के कारण बच गया है जिसने अंततोगत्वा इसे सभी आक्रमणकारियों से लड़ने और उन को पराजित करने में सक्षम बनाया था। और मैंने भारत के इतिहास का अध्ययन इस समाज की दृष्टि से शुरू किया।इसने मेरी आँखें खोल दीं। हिंदू नायकों की तुलना में आक्रमणकारियों को उनके सही आकार में दिखा दिया, जिन्होंने उनसे लड़ाई की थी। मैंने ऑरगनाइज़र में -‘हिंदू इतिहास की विशिष्टता’ नाम से एक श्रंखला शुरू की। लेकिन मेरी आंखों में कुछ परेशानी के कारण मेैं उसे पूरा नहीं कर सका। मैं अभी भी भारत का इतिहास लिखने की आकांक्षा रखता हूं, भले ही वो एक प्रारूप हो।

इसलिए हिंदू समाज सभी सम्मान,गौरव और श्रद्धा का पात्र था। इसने मानव आत्मा की गहराइयों की कुंजी धारण किए हुये थी। लेकिन मैंने अपने आसपास जो देखा वह ठीक इसके विपरीत था। सम्मान की बात तो दूर यहाँ तो हिंदू समाज को हर दिन अपमानित किया जा रहा था, और वह भी अपनी प्राचीन मातृभूमि में। शासक अभिजात वर्ग को इस समाज के पसीने और परिश्रम और अंतहीन बलिदानों के द्वारा सत्ता में आसीन किया गया था। यही वह समाज था जिसने इस्लामी साम्राज्यवाद की कमर तोड़ दी थी। यह वह समाज था जिसने कई देशों के ईसाई धर्म प्रचारक मंडलों को पराजित किया था। यह वह समाज था जिसने भारत को ब्रिटिश शासन से मुक्त कराया था। फिर भी हिंदू अभिजात वर्ग को इस समाज के एक हिस्से के रूप में जाने जाने में शर्म आती थी।

इसे समाजवादी ,साम्यवादी,वामपंथी और बाकी के रूप में जाना जाना पसंद था लेकिन हिंदू के रूप में कभी नहीं । वास्तव में स्वतंत्रता के बाद के भारत में हिंदू शब्द को भी एक कुत्सित शब्द बना दिया गया था। किसी को केवल अपनी पहचान हिंदू के रूप में देनी थी और फिर तो बस उसे एक संकीर्ण संप्रदायवादी, रूढ़िवादी, प्रतिक्रियावादी, राष्ट्रीय एकता के दुश्मन जैसी उपाधियों से  अलंकृत कर दिया जाता। मुसलमान, ईसाई, बौद्ध, जैन या सिख होने में कोई कलंक नहीं था। लेकिन एक हिंदू , जो शासक अभिजात वर्ग की दृष्टि में सम्मानजनक होने की आकांक्षा रखता था उसे धर्मनिरपेक्षता का समर्थन करना ज़रूरी था, जो कि  पंडित नेहरू और उनके साम्यवादी साथियों द्वारा शुरू किया गया था। मैं जानना चाहता था कि हिंदू इस अपमान के आगे कैसे और क्यों झुक गए।

 इस बीच माओ त्से तुंग के कारण मेरी स्थिति में कुछ सुधार हुआ था। उन्होंने दलाई लामा और हजारों तिब्बतियों को उनकी मातृभूमि से खदेड़ दिया था और घुसपैठ की एक श्रृंखला में भारत के क्षेत्र पर कब्जा कर लिया था, जिसे पंडित नेहरू को 1959 के अंत में संसद में मजबूरी में स्वीकार करना पड़ा। कुछ दोस्त जिन्होंने मुझसे दूरी बना ली थी अब मुझसे आकर मिलने लगे और मुझसे  रेड चाइना से खतरे की प्रकृति पर चर्चा करने लगे, जिसके बारे में मुझे गत वर्षों में बहुत कुछ लिखने के लिए जाना जाता था। मैंने उनसे कहा कि अब चीन पर चर्चा करने का समय नहीं है, और अब हमें सैन्य तैयारी करने की आवश्यकता थी। चीन ने अब अपना असली चेहरा उजागर कर दिया था जिसे पंडित नेहरू और उनके पालतू चाटुकार प्रेस ने इतने सालों तक पर्दे में रखने की कोशिश की थी। मैं देख सकता था कि चीन के साथ अब टकराव दूर नहीं था और हमारा देश ना तो वैचारिक रूप से और ना ही भौतिक रूप से इस चुनौती का सामना करने के लिए तैयार था। मुझे पंडित नेहरू और उनके गुर्गों/ टहलुओं , जो भारत को अपने नियंत्रण में रखे हुए थे , पर अत्यधिक क्रोध आ रहा था।

 ऐसा कई बार हुआ  कि कोई साम्यवादी प्रोफेसर या लेखक हमारे शोध विभाग में मेरे किसी न किसी  सहयोगियों से मिलने आ जाता। जब भी मेरा उनसे परिचय करवाया जाता तो वे अनायास ही कहते -“ओ अच्छा तुम ही  वो आदमी हो!”मैं मुस्कुरा देता और कहता कि मुझे यह जानकर खुशी हुई कि वह मुझे इतनी अच्छी तरह से जानते हैं जब कि मैंने उनके बारे में कभी नहीं सुना । मेरे इस कथन ने उन्हें दूर करने का काम किया। लेकिन 1959 के अंत में जिस साम्यवादी से मेरा परिचय हुआ वह एक प्रसिद्ध व्यक्ति था। मुझे ये स्वीकार करना पड़ा कि मैं उन्हें सोवियत संघ की सेवा में उनके रिकॉर्ड से जानता था। उन्होंने तुरंत एक तीखा हमला किया और कहा -” श्री गोयल, जब आप लोगों ने हंगरी के बारे में इतना शोर मचाया तो हम सब समझ सकते थे। हंगरी में जो हुआ वह एक त्रासदी थी। ऐसा नहीं होना चाहिए था। लेकिन जब आप इन कुत्सित लामाओं के बारे में भी उसी तरह का शोर करते हैं तो ये तो हद है।” मेरे धैर्य का बाँध टूट गया और मैंने गुस्से में उससे कहा कि एक साम्यवादीके साथ बहस करने का कोई फायदा नहीं है क्योंकि उनके भेजे में अगर कुछ घुस सकता है तो केवल एक गोली। उनके द्वारा तिब्बतियों को कुत्सित लामा के रूप में संदर्भित करने से मैं अपना आपा खो बैठा था। तिब्बतियों ने ऐसा कुछ भी नहीं किया था जो चीन की साम्यवादी सेना द्वारा उनके खिलाफ किए जा रहे अपराधों को सही ठहराया जा सके। उसने मुझे फासिस्ट कहा और वहाँ से बाहर निकल गया। मेरा दिल बैठ गया। यह शख्स नेहरू ब्रिगेड की पल्टन का बेहद करीबी था। मैं अनुमान लगा सकता था कि देश किस ओर अग्रसर था।

अगले साल मेरे बॉस ने, श्री जयप्रकाश नारायण (जेपी) को अखिल भारतीय पंचायत परिषद, जिसके वे अध्यक्ष थे, के अंशकालिक सचिव के रूप में काम करने के लिए मुझे परिदाय दिया। मैं कुछ साल पहले उनसे कई बार मिला था। वास्तव में वह पहले व्यक्ति थे जिनके पास रामस्वरूप और मेैं, हमारी साम्यवादी विरोधी कार्यों के लिए उनका आशीर्वाद लेने गए थे। उन्होंने कहा था-” यदि आप स्टालिनवाद के विरोधी हैं तो मैं पूर्ण रुप से आपके साथ हूं।लेकिन मुझे साम्यवाद में कुछ भी गलत नहीं दिखता।” मैंने उनसे पूछा,-“लेनिनवाद के बारे में आपका क्या विचार है?”उन्होंने कहा-” लेनिनवाद ठीक है।” मैंने लेनिन के उद्धरणों की एक श्रंखला दोहराई जो मैंने हाल ही में पढ़ी थी। उन्होंने इस टिप्पणी के साथ चर्चा को समाप्त कर दिया कि-” मुझे नहीं पता।साम्यवादी उत्कृष्ट साहित्य के बारे में मेरा ज्ञान काफी पुराना है।” सो वह मेरी प्रसिद्धि से परिचित थे और जब मेरे नाम का उल्लेख एक ऐसे व्यक्ति के रूप में किया गया जो परिषद को अपने पैरों पर खड़ा करने में मदद कर सकता था तो उन्होंने नकारात्मक प्रतिक्रिया दी। लेकिन जब पालम हवाई अड्डे पर,जहाँ वे अमृतसर से पटना जाने के रास्ते में रुके थे,मेरी उनसे संक्षिप्त बातचीत हुई तो उस के बाद उन्होंने मुझे ठुकराया नहीं,  वह मास्टर तारा सिंह से मिलने पंजाब गए थे।

 जेपी ने मेरा काम देखा तो मुझे पसंद करने लगे। लेकिन मैं महसूस कर सकता था कि मेरे वैचारिक झुकाव के बारे में उन्हें दुराव था। एक दिन उन्होंने मुझसे  स्पष्ट रूप से पूछा-” क्या आप समाजवादी हैं?” मैंने कहा-” पहले रहा हूँ।” उन्होंने अपनी बात जारी रखते हुए कहा-” चूहा अपने ही क्रमिक विकास पर निर्भर रहता है। अब आप क्या हैं?” मैंने कहा-” मैं  हिंदू हूँ।” उन्होंने कहा-” इसका कोई मतलब नहीं है। मैं भी एक हिंदू हूँ।” मैंने बिना सोचे समझे कह दिया-“मैं उस तरह का हिंदू नहीं हूँ।” अगले ही पल मुझे उस टिप्पणी के लिए खेद हुआ। मैं देख सकता था कि जेपी को यह बात पसंद नहीं आई। उनके चेहरे पर झुंझलाहट दिखाई दे रही थी। लेकिन वह इतने सज्जन व्यक्ति थे कि मुझे उन्होंने मेरी जगह नहीं दिखाई।

निर्णायक भेंट अप्रत्याशित रूप से हो गई। जेपी ने एक अंग्रेज को पंचायत परिषद में व्याख्यान देने के लिए आमंत्रित किया था। वह एक सेवानिवृत पुलिसकर्मी थे और उन्होंने एक प्रमुख क्रिमिनोलॉजिस्ट होने की प्रतिष्ठा हासिल की थी।जैसे ही उन्होंने अपना मुंह खोला मैंने पाया कि वह एक असहनीय मूर्ख हैं। मुझे आश्चर्य हुआ कि जेपी ने आखिर उनमें ऐसा क्या देखा था। गोरी चमड़ी के लिए जेपी की बड़ी कमजोरी ही एकमात्र व्याख्या थी और मैंने यह कमजोरी बार-बार देखी थी। अब वह अभिमानी अंग्रेज द्वारा हिंदू परंपराओं पर निरंतर अवमानना के बावजूद भी, जिनमें से कुछ उन्होंने आपराधिक प्रवृत्तियों को आश्रय देने के रूप में लक्षित किया ,जेपी भावविभोर हुए बैठे थे। मैं व्याख्यान के अंत में खड़ा हो गया और उनसे पूछा कि क्या वह मेरे मेरे कुछ प्रश्नों का उत्तर देंगे।उसने मुझे टालते हुए कहा कि उसके पास इस तरह की बेवकूफ़ियों के लिए समय नहीं है। उस आदमी के जाने के तुरंत बाद जेपी मुझ पर भड़क गए। मैं जानता था कि जेपी आसानी से अपना आपा नहीं खोते थे लेकिन उस दिन उन्हें क्रोध आ गया।उन्होंने मुझसे गुस्से में कहा-” तुमने मेरे मेहमान का अपमान किया है।मुझे इस तरह का व्यवहार बिल्कुल पसंद नहीं है।” मैं चुप रहा।

 अगले दिन मैंने जेपी को अपनी हिंदी पुस्तक ‘सम्यक संबुद्ध ‘ दी जिसे मैंने हाल ही में बौद्ध उत्कृष्ट साहित्य  से संकलित किया था। इसके परिचय में मैंने कहा था कि बौद्ध धर्म सनातन धर्म का केवल एक आयाम है जिसे तब मैंने आगे परिभाषित किया था। मैंने जे पी से केवल परिचय पढ़ने का अनुरोध किया, यदि वह समय निकाल सकें और उन्हें रुचि हो तो। मैं चाहता था कि उन्हें पता चले कि हिंदू धर्म से मेरा क्या मतलब है। जेपी ने कहा कि उन्हें बौद्ध धर्म बहुत पसंद है और वह पूरी किताब पढेंगे। मुझे उम्मीद नहीं थी कि वो ऐसा करेंगे। लेकिन कुछ दिनों के बाद जब मैं उनसे मिला तो मुझे बहुत सुखद आश्चर्य हुआ। उन्होंने कहा-” उस दिन अपना आपा खोने के लिए मैं क्षमा चाहता हूँ। मुझे नहीं पता था कि आप इतने विद्वान हैं और बौद्ध धर्म पर इतना गहरा अध्ययन किया है। और मैं तो बस आपकी इतनी सुंदर और मधुर हिंदी लेखनी पर मंत्रमुग्ध हो गया हूँ।” मैं भावुक हो गया और उनके पैर छुए। उन्होंने आगे कहा -“यदि आप जो कहते हैं वह सनातन धर्म है तो मैं पूरी तरह से इसके पक्ष में हूं।” मुझे बहुत खुशी महसूस हुई। उसके बाद जेपी के साथ मेरे संबंध कमोबेश सहज हो गए। मुझे लगा कि मेरा हिंदू धर्म अब उनकी नजर में संदेह का विषय नहीं रहा। मैंने यह कहानी कहीं और सुनाई है कि कैसे मैं जेपी को आरएसएस के शिविर में उनकी पहली यात्रा पर ले जाने में सक्षम हुआ।

 अब पंचायत परिषद कार्यशील रूप में थी।मैंने इसके लिए जो संविधान का मसौदा तैयार किया था वह कानून मंत्रालय द्वारा अनुमोदित किया गया था और सामुदायिक विकास मंत्रालय ने पंचायती राज में प्रशिक्षण के लिए एक संस्थान के लिए अच्छा अनुदान स्वीकृत किया था। संस्थान का नेतृत्व करने के लिए किसी सक्षम निदेशक की तलाश चल रही थी तभी जेपी ने परिषद के शासकीय निकाय में मुंबई के एक युवक को  पद पर नियुक्त करके सभी को चौंका दिया।उस युवक ने संयुक्त राज्य अमेरिका के एक विश्वविद्यालय से केमिकल इंजीनियरिंग में डॉक्टरेट की डिग्री प्राप्त की थी।जेपी ने हमें उसके बारे में और कुछ नहीं बताया। लेकिन उन्होंने मेरी तरफ देखा और कहा-” सीताराम जी वह एक मुसलमान है।” मैं चुप हो रहा। उन्होंने फिर कहा-” क्या तुमने सुना? वह एक मुसलमान है।” शायद वह उम्मीद कर रहे थे कि एक हिंदू के रूप में मैं आपत्ति करूँगा। मैंने कुछ नहीं कहा ।मैंने कभी भी मुसलमानों की परवाह नहीं की। किसी न किसी  रूप में अपने धर्मनिरपेक्षवादको साबित करने के लिए मुसलमानों को तिरस्कृत करने वाले हिंदुओं ने मुझे हमेशा भावशून्य कर दिया था। इसके अलावा मैंने कभी भी पंचायत परिषद या उस तरह के किसी भी संगठन को अपना अंतिम गंतव्य नहीं माना था। यह मेरे लिए केवल एक प्रतीक्षालय था जब तक की ट्रेन आकर मुझे वहां ना ले जाए जहां मुझे जाना था। इस बीच,जिस काम के लिए मुझे पैसे दिए गए थे उसे मैं कर्तव्यपरायणता से कर रहा था। मुझे ये आश्चर्य हुआ कि जेपी ने इस बात को इतना तूल क्यों दिया और अलग से मुझे याद क्यों दिलाया।

परिषद और संस्थान के कर्मचारियों ने मुझे नए निदेशक के साथ कार्यालय की राजनीति में शामिल करने की कोशिश की। उनके बारे में तरह-तरह की कहानियां लेकर मेरे पास आए।मैंने टिप्पणी करने से इंकार कर दिया और उन्हें निराश कर दिया।एक दिन महाराष्ट्र से एक व्यक्ति आया। वह रेड चाइना की एक संक्षिप्त यात्रा के बाद “सहकारी खेती” पर एक रिपोर्ट लिखने के लिए प्रसिद्ध हो गया था। पंडित नेहरू उस  रिपोर्ट का उपयोग इस देश में “संयुक्त खेती” की शुरूआत करने के लिए कर रहे थे। वर्षों बाद मुझे पता चला कि चीन में सरकारी खेती पर उनकी मूल रिपोर्ट में एक अध्याय था कि कैसे उस कार्यक्रम में किसानों की सामूहिक हत्या हुई थी, और उन्होंने इस अध्याय को छोड़ दिया था क्योंकि पंडित नेहरू ने सोचा था कि वो बिल्कुल भी प्रासंगिक नहीं था। यह व्यक्ति उस समय एक प्रमुख गांधीवादी के रूप में जाना जाता था।वह मेरे सामने बैठ गया और फुसफुसा कर कहा-“गोयल जी, क्या आप जानते हैं कि मैं एक मराठा हूं?” मैंने कहा-” आपके नाम से पता चलता है” उसने फिर पूछा-” आप जानते हैं कि हम मराठा मुसलमानों से नफरत करते हैं?” मैंने उत्तर दिया-” मैंने मराठा इतिहास पढ़ा है। मुझे नहीं लगता कि आपका कथन सभी मराठों के बारे में सत्य है।” उसने कहा-” वैसे भी उस डॉक्टर…. को पसंद नहीं करता जिसे जेपी ने हम पर थोपा है।” मैं चुप रहा। यह व्यक्ति किसी भी तरह से पंचायत परिषद से जुड़ा हुआ नहीं था । मुझे समझ नहीं आ रहा था कि वह मुझसे यह सब क्यों कह रहा है।

 कुछ दिनों बाद मुझे इस खेल का पता चला।जेपी ने मुझे और निदेशक को मीटिंग के लिए बुलाया। जैसे ही हम बैठे उन्होंने निदेशक की ओर रुख किया और कहा- “सीताराम जी के खिलाफ आपकी शिकायतों का कोई अंत नहीं है। उनकी उपस्थिति में कहिये कि आप मुझसे क्या कह रहे थे ताकि मामला सुलझाया जा सके। निदेशक हक्के बक्के रह गए। इस तरह के सामने के लिए वे बिल्कुल भी तैयार नहीं थे ।कुछ क्षण के लिए वह बद्ध जिह्व हो गए।उनका चेहरा उद्धिग्न था। उन्होंने अपने आप को  संभालते हुए कहा,” उसने श्री…. से कहा कि वह मुसलमानों से नफरत करता है।” मैंने जाने-माने गांधीवाद के साथ हुई बातचीत को शब्द दर शब्द सुनाया।जेपी मुस्कुराए और कहा-“श्री…..को कभी भी सही सावधानीपूर्वक रिपोर्टिंग के लिए नहीं जाना गया है।उन्होंने जो कुछ कहा उसे भूल जाओ। अब आपका अगला आरोप क्या है? निदेशक थोड़ा गड़बड़ाए,”ये कहते हैं कि मेरी शैक्षिक उपाधियाँ फर्जी हैं। जेपी मेरी ओर मुड़े।मैंने उनसे कहा,-” मैं शैक्षिक उपाधियों के नकली या असली होने के लिये तब परेशान होऊँगा जब मुझे इनकी परवाह होगी।मेरे लिये इनका कोई महत्व नहीं है। मेरे पास अपनी ही इतनी अच्छी वाली रखी हैं।” निदेशक के पास कहने के लिए और कुछ नहीं था और वह वहाँ से चले गये।जेपी ने मुझसे पूछा-” आपके पास कौन सी शैक्षणिक उपाधियाँ है? क्या मैं आपका जीवन वृत्त देख सकता हूं?”

मुझे पहली बार अपनी शैक्षणिक उपाधियाँ, मेरे आचार्यों द्वारा दिये गए प्रमाण पत्र,मेरे द्वारा लिखी गई पुस्तकों को संकलित करना पड़ रहा था। जैसे ही जेपी ने उन्हें पढ़ना समाप्त किया उन्होंने मुझसे कहा-“आप पंचायत परिषद जैसी  संगठनों में क्या कर रहे हैं?  आपकी जैसी योग्यता का आदमी तो विश्वविद्यालय में होना चाहिए। पता करिये कि दिल्ली में इतिहास विभाग का प्रमुख कौन है। मैं उन्हें वहाँ आपके लिये उचित शिक्षण कार्य के लिये आपकी अनुशंसा करते हुए लिखूंगा।जब मैंने उन्हें विश्व विद्यालय के प्रोफेसर और विभागाध्यक्ष का नाम दिया तो उन्होंने अगले दिन पत्र लिखा।उसमें  मेरे बारे में बहुत अच्छा लिखा था। लेकिन जब मैंने उन्हें पत्र भेंट किया तो प्रोफेसर और प्रमुख बिलकुल भी प्रभावित नहीं हुए । उसे बिना पढ़े मेरी तरफ देखा और कहा-“ओह!तुम अब दिल्ली में हो ?क्या तुम कोलकाता से काम नहीं कर रहे थे? वह आदमी एक साथी यात्री था जैसा कि मुझे जल्दी ही पता चला। कुछ दिनों बाद जेपी को जवाबी पत्र मिला। । उन्होंने इसे पढ़ा और मुझसे कहा यह एक राजनयिक  पत्र है। वह आपको विश्वविद्यालय में नौकरी नहीं करने देगा। ऐसा लगता है कि वह आपको अच्छी तरह से जानता है और आपके बारे में सख्त दुराव है। मुझे खेद है कि मैं इससे अधिक और कुछ नहीं कर सकता। उन्होंने जो कुछ किया उसके लिए मैं बहुत आभारी हूं।

 कुछ महीनों के बाद मुझे पंचायत परिषद छोड़नी पड़ी। जेपी की मौजूदगी में हमारे बीच आमना-सामना होने के बावजूद निदेेेशक ने मेरे खिलाफ तमाम तरह की शिकायतों से जेपी के कानों में जहर खोलना जारी रखा। खुद जेपी ने मुझसे कई बार कहा-” इस आदमी में तुम्हारे खिलाफ बहुत जहर भरा है ।” मैं चुप  रहा। मैं समझ सकता था कि जेपी असहाय महसूस कर रहे हैं।वह निदेशक को छोड़ नहीं सकते थे, हालांकि वे अब उनसे अनुरक्त नहीं थे। जेपी की धर्मनिरपेक्ष छवि दांव पर लगी थी। साथ ही उन्हें इस संभावना पर काबू पाना मुश्किल हो रहा था कि मेरा गैर धर्मनिरपेक्ष हिंदू होना इस परेशानी का कारण था। एक दिन उन्होंने मेरे बॉस और मुझे बैठ कर इसे सुलझाने के लिए आमंत्रित किया। उन्होंने वही कह कर शुरूआत की जो निदेशक कह रहे थे।अचानक मेरे बॉस खड़े हो गए और मेरा हाथ पकड़ कर मुझे भी खींच लिया । उन्होंने कहा मैं इसे ले जा रहा हूं। उसने वह काम कर दिया है जिसके लिए मैंने इसे यहाँ भेजा था। आपकी परिषद अब काम कर रही है ।और इसके लिए काम की कोई कमी नहीं है।” हम बाहर निकल गए। जेपी ने हमें रोकने की कोशिश भी नहीं की। उन्हें राहत महसूस हुई होगी।

 यह अवश्यंभावी था कि जैसे-जैसे मैं एक आश्वस्त और जागरूक हिंदू होता गया, मैं आरएसएस और इसके राजनीतिक मंच बीजेएस की ओर आकर्षित होता गया, जब दोनों की प्रतिष्ठा “हिंदू सांप्रदायिकतावादी संगठन” होने की थी। मैंने यह मान लिया था कि नेहरूवादी जिसे “हिंदू सांप्रदायिकता” के रूप में वर्णित कर रहे थे वह भारतीय राष्ट्रवाद था। मुझे स्वीकार करना होगा कि मैं बड़े मोहभंग/भ्रांति-मुक्ति में था ।मुझे पहले ही पता चल गया था कि गाय के सवाल, मुस्लिम आक्रमणकारियों के चरित्र और उन आक्रमणकारियों से लड़ने वाले हिंदू नायकों की स्थिति पर कुछ मतभेदों को छोड़कर इन संगठनों ने घरेलू और विदेशी सभी महत्वपूर्ण मुद्दों पर नेहरूवादी सहमति साझा की थी। बीजेएस एक

आडंबरपूर्ण हवा के झूले के नेतृत्व में तेजी से नेहरूवादी रुख की ओर बढ़ रहा था, जिसने ये छिपाने का कोई कारण नहीं देखा कि वह अपनी पार्टी के सहयोगियों की तुलना में साम्यवादियों का साथ अधिक पसंद करता है। जब मैंने पहली बार उनसे मिलने की इच्छा व्यक्त की तो बीजेएस के सचिव ने मुझे पूरी गंभीरता से कहा कि अगर मैं किसी भी दोपहर विंडसर प्लेस में पार्टी के कार्याल आया तो ज़रूर उनसे मिल सकता हूँ बशर्ते वह दिल्ली में हों। इससे भी बुरी बात यह थी कि

आरएसएस और बीजेएस के दिग्गजों ने अपना लगभग सारा समय और ऊर्जा यह साबित करने में लगा दी कि वह हिंदू सांप्रदायिक नहीं बल्कि ईमानदार धर्मनिरपेक्षता वादी हैं।

 आरएसएस के साथ मेरा पहला संपर्क तब विकसित हुआ था जब मैं कॉलेज में द्वितीय वर्ष का छात्र था और एक धर्मनिष्ठ गांधीवादी था। एक सुबह मेरे दोस्त पार्टी छात्रावास में मेरे कमरे में आए। वे दोनों विज्ञान के छात्र थे और मैं उन्हें केवल उनके चेहरे से जानता था। उन्होंने हिंदी में मेरी लघु कहानी का  उल्लेख किया जो कॉलेज की पत्रिका में छपी थी और एक पुरस्कार जीता था और मुझे हिंदू राष्ट्र पर लिखने के लिए जो़र दिया। उन्होंने बताया कि वे आरएसएस के सदस्य हैं और उन्होंने मुझे पत्रिका के अगले संपादक के रूप में चुनने का वादा किया क्योंकि उनके पास छात्रों के बीच बहुमत था। मैंने अब तक आरएसएस के बारे में कभी नहीं सुना था और हिंदू राष्ट्र के बारे में तो कुछ भी नहीं जानता था। मेरे लिए आदर्श रामराज्य था जैसा कि महात्मा गांधी ने प्रतिपादित किया था।

 उसके बाद हम अक्सर मिलते रहे । जब मैंने उनसे कुछ साहित्य मांगा जो उनके आंदोलन ने निर्मित किया था तो मुझे कुछ नहीं मिला।इसके बजाय वह मुझे विजयदशमीके कार्यक्रम  में ले गए जिसका मैंने पहले ही उल्लेख किया है। जब मेरे दोस्त मुझे महात्मा गांधी के बारे में दिन-ब-दिन शानदार कहानियां सुनाने लगे यह साबित करने की कोशिश में कि महात्मा कुछ और नहीं बल्कि मुस्लिम लीग की कठपुतली और अफगानिस्तान के गुप्तचर थे,तब उनसे मेरी दोस्ती टूट गई। ऐसी कहानियां मैंने पहले कभी नहीं सुनी या पढ़ीं थीं।

मुझे यह जानकर खुशी हो रही थी कि हाल के वर्षों में आरएसएस ने महात्मा गांधी और उनकी भूमिका के अपने मूल्यांकन को संशोधित किया था। मैं अब यह भी देख सकता था कि पुरानी कहानियों की उत्पत्ति एक संतप्त चेतना में हुई थी जो वर्षों से इस बात का साक्षी रहा है कि कैसे महात्मा गांधी और भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने हिंदू के रूप में पहचाने जाने से हमेशा इनकार किया लेकिन हिंदुओं की ओर से मुस्लिम लीग के साथ सौदेबाजी करने में उन्हें कोई दिक्कत नहीं रही। हिंदुओं को हल्के में लेने की महात्मा और कांग्रेस की आदत हो गई थी। लेकिन उस समय, और राष्ट्रीय राजनीति के बारे में मेरी पूरी अज्ञानता की स्थिति में,वे कहानियां कुछ अधिक घृणास्पद लग रही थीं।

 आरएसएस के साथ मेरा अगला संपर्क कोलकाता में, साम्यवादी विरोधी कार्य में मेरी भागीदारी के दौरान, विकसित हुआ। हमारे समूह ने कांग्रेस और प्रजा सोशलिस्ट पार्टी(पीएसपी) के नेताओं से उनके सहयोग की अपेक्षा की थी, जो हमने सोचा था कि एक गैर पार्टी राष्ट्रीय मंच था। इनमें से कुछ नेता हमारे दृष्टिकोण को लेकर अति व्यग्र थे और उन्होंने इसके बदले हमें हिंदू सांप्रदायिकता से लड़ने की सलाह दी। कुछ अन्य नेताओं ने हमारी बात सुनी और आगे की चर्चा के लिए हमें अपने कार्यालय में बुलाने का वादा किया लेकिन उनमें से किसी ने भी वादा नहीं निभाया। एक दिन एक दोस्त ने मुझे गलत नेताओं के पास जाने के लिए डाँटा और मुझे हावड़ा में आरएसएस शिविर में ले गया। मैं वहां जिस नेता से मिला वह सहानुभूतिपूर्ण थे।उन्होंने शिविर समाप्त होते ही हमारे कार्यालय का दौरा करने का वादा किया।उन्होंने अपना वादा निभाया,हालांकि इस बीच हमारा कार्यालय नए परिसर में स्थानांतरित हो गया था। वह पुराने कार्यालय में गये थे ।वहाँ उन्हें हमारा नया पता मालूम हुआ।

 इसी समय के आसपास, कलकत्ता साप्ताहिक में नियमित रूप से लिखने वाले एक अंग्रेज ने आरएसएस को एक फासीवादी संगठन के रूप में अभिलक्षित किया। मैं उन्हें व्यक्तिगत रूप से और हमारे काम के प्रति मित्रवत  रूप में जानता था। लेकिन मैंने साप्ताहिकि  को एक पत्र लिखा जिसमें कहा गया था कि -“जो लोग आरएसएस को फासीवादी संगठन कहते हैं वे स्वयं फासीवादी हैं। वो पत्र प्रकाशित हो गया।उस अंग्रेज पत्रकार ने अगले दिन मुझे फोन किया। उन्होंने कहा कि वास्तव में आरएसएस के बारे में वे कुछ नहीं जानते थे और उन्होंने तो केवल प्रचलित भूषाचार का पालन किया था।वह क्षमाप्रार्थी थे। इस बीच,मैंने आरएसएस नेता को अपने छपे हुए पत्र की एक कटिंग दी । उन्होंने प्रिंट में कुछ और प्रतियां मांगी जो मैंने उन्हें दे दी। मुझे पता चला कि उन्होंने उनको आरएसएस के हलकों में परिसंचारित कर दिया था ताकि मुझे अवांछनीय मिथ्यापवाद के खिलाफ आरएसएस के प्रतिरक्षक के रूप में  अनुमोदित किया जा सके। मुझे नहीं पता था कि उस समय आरएसएस के बारे में अच्छी राय रखना साहस का काम था। जब मैंने राष्ट्रवादी मोरचा लेना शुरू किया तो यह अभिमत मुझे स्वत: ही आ गया।

हमारे साम्यवादी विरोधी कार्यो में आरएसएस के इस नेता ने जो मदद की वह काबिले तारीफ थी।

आरएसएस के कुछ युवकों ने पूजा में और अन्य प्रदर्शनों में हमारे बुक स्टॉल का प्रबंधन किया, साम्यवादियों की पुनरावृत धमकियों का सामना करते हुए, कि वे कलकत्ता के मध्य में इस तरह की तोड़ मरोड़  नहीं होने देंगे। हम पूरी तरह सफल हुए और हमने बड़ी संख्या में अपने प्रकाशन बेचे। इस बीच कई आरएसएस और बीजेएस नेताओं ने हमारे कार्यालय का दौरा किया और हमारे काम की कमान संभाली, जब भी वे अपने व्यक्तिगत या पार्टी के काम से कोलकाता आए या उधर से गुजरे। मैं इस दौरान उनमें से कुछ को अच्छी तरह से जान पाया। लेकिन मुझे सबसे बड़ा संतोष यह हुआ कि हमारे समूह के कांग्रेस और समाजवादी सदस्यों ने एक सर्वनिष्ठ रण में सहयोगी के रूप में  “हिंदू सांप्रदायिकता वादियों” से मुलाकात की और अपनी कुछ धर्मनिरपेक्षतावादी आत्मधार्मिकता को छोड़ दिया।

 आरएसएस बीजेएस के साथ मेरे संपर्क का एक क्रम यह रहा कि जब हमें अपने साम्यवादी विरोधी काम को बंद करना पड़ा तो मुझे 1950 में दूसरे आम चुनाव के दौरान मध्यप्रदेश के खजुराहो संसदीय क्षेत्र से चुनाव लड़ने के लिए बीजेएस को टिकट की पेशकश की गई। स्थानीय आरएसएस कार्यकर्ता, जो मेरे अभियान के प्रबंधक थे, ने पीएसपी से समर्थन का आश्वासन प्राप्त किया था।हालांकि, ये सभी व्यवस्थाएँ तब खत्म हो गईं जब उस कार्यकर्ता की दुर्घटना हो गई और वह शय्या ग्रस्त हो गया। फिर भी मैं आरएसएस और बीजेएस संगठन के कामकाज को करीब से देख सकता था। इसमें समर्पित कार्यकर्ता और शक्तिशाली वक्ता थे। संगठन के पास केवल भौतिक संसाधनों की कमी थी। मेरे लिए ये विश्वास करना कठिन था कि एक देशभक्त संगठन इतना गरीब हो सकता है। मैं अभी तक हिंदू महासभा के लोगों से नहीं मिला था और मुझे नहीं पता था कि गरीबी का वास्तव में क्या मतलब हो सकता है।

 इस चुनाव के दौरान कुछ चौंकाने वाले मामले सामने आए।बीजेएस ने दिल्ली में जो विज्ञापन पोस्टर छपवाए थे उसमें घोषणा की गई थी कि बीजेएस का एक मुख्य उद्देश्य अस्पृश्यता को समाप्त करना था। क्षेत्र के कार्यकर्ता उन पोस्टरों को लगाने के खिलाफ थे क्योंकि उन्हें लगा था कि इससे मतदाताओं में एक विचारणीय रूढ़िवादी वर्ग के मेरे खिलाफ जाने की संभावना थी। लेकिन मैं पोस्टर लगाए जाने की बात पर अड़ा रहा। मुझे नहीं पता कि उनका इस्तेमाल किया गया या नहीं। दूसरे, मैंने देखा कि मेरी जनसभाओं के आयोजकों को एक ओर कांग्रेस की नीतियों और दूसरी ओर बीजेएस नीतियों के बीच शामिल सिद्धांतों के बारे में मेरी बात पसंद नहीं आई। उन्होंने मुझसे बार-बार कांग्रेस के लोगों को बेईमान, समाजवादी और धर्मनिरपेक्षतावादियों के रूप में प्रस्तुत करने के लिए कहा और बीजेएस को समाजवाद और धर्मनिरपेक्षता के ईमानदार अनुयायी के रूप में। तीसरे,आयोजकों ने मुझे चेतावनी दी कि जब भी मुस्लिम इलाके में बैठक हो तो गौहत्या पर प्रतिबंध लगाने और पाकिस्तान के खिलाफ कुछ भी ना कहें। अंत में उन्होंने मेरे भाषणों में अक्सर अंग्रेजी शब्दों या वाक्यांशों का उपयोग करने के लिए कहा ताकि कहीं ऐसा ना हो कि लोग यह निष्कर्ष निकालने लगें कि मैं अशिक्षित हूं। मुझे यह सलाह पसंद नहीं आई।

 1957 में जब मैं दिल्ली लौटा तो आरएसएस बीजेएस के साथ मेरे संपर्क की पृष्ठभूमि यही थी।संपर्क समय के साथ गहरा होता गया। मैंने अक्सर ऑर्गेनाइजर में लिखा और आरएसएस बीजेएस के लोगों से कई बार मिला। उनमें से ज्यादातर काफी मिलनसार थे। मैं जिस एकमात्र अमित्रवत आदमी से मिला वह वो बातूनी था जिसका मैंने उल्लेख किया है। जब भी वह मुझे देखता उसके चेहरे पर एक झुंझुलाहट दिखती जो कि अक्सर ही होता। एक सुझाव जो मैंने हर उस आरएसएस और बीजेएस के नेता को दिया जिनसे मैं मिला, कि आंदोलन की अपनी एक पूर्ण हिंदू विचारधारा होनी चाहिए और सभी कार्यक्रमों, आंदोलनों,समारोहों और सार्वजनिक हस्तियों को उस विचारधारा के संदर्भ में संसाधित करना चाहिए ना कि उधार के नारों पर रहना चाहिए या उन निर्धन

अवधारणाओं पर जो तात्कालिक अभिमंत्रित किये गए हों। उन्होंने मुझे धैर्यपूर्वक सुना और शायद ही कभी मेरी बातों का खंडन किया हो। लेकिन कुछ समय के बाद मुझे एहसास हुआ कि उन्होंने मुझे गंभीरता से नहीं लिया। उनमें से अधिकांश का मानना था कि संगठन ही  मायने रखता है, विचारधारा नहीं। मुझे यकीन था कि वे गलत थे। मैं उनकी दुर्दशा को स्पष्ट रूप से देख सकता था क्योंकि उन्होंने अपने विरोधियों द्वारा निर्धारित जमीनी नियमों के अनुसार काम करने की कोशिश की थी। लेकिन उन्होंने सोचा कि विचारधारा के साथ मेरी अन्यमनस्कता का मेरी साम्यवादी पृष्ठभूमि से कुछ लेना देना है।मैं असहाय महसूस कर रहा था। मुझे भी नाराजगी महसूस हुई जब मैंने आरएसएस की सभाओं में हर वक्ता को “बुद्धिजीवियों” की अवहेलना करते सुना कि जिन्होंने किताबें तो पढ़ी थीं लेकिन व्यवहारिक समस्याओं के बारे में कुछ नहीं जानते थे।उन कहानियों में से उनकी प्रिय कहानी थी एक पंडित के बारे में, जो पाणिनी को नहीं जानने के लिए एक नाविक पर त्योरियां चढ़ाते हैं, लेकिन वही नाविक उन पर तरस खाता है जब नाव मुश्किलों से घिर जाती है और उस पंडित को तैरना नहीं आता।

मेरे लिए आरएसएस के बारे में सबसे सारगर्भित यह था कि कुल मिलाकर उन्होंने अपने संगठन (संघ) और अपने नेताओं (अधिकारियों)के अलावा किसी भी विषय पर किसी भी राय की अभिव्यक्ति पर प्रतिक्रिया नहीं दी। एक औसत आरएसएस कार्यकर्ता से कोई भी, प्रतिक्रिया प्राप्त किए बिना, कोई भी हिंदू धर्म या हिंदू संस्कृति या हिंदू समाज हिंदू इतिहास के बारे में कुछ भी कह सकता था। वे तभी गर्मजोशी या नाराज़गी दिखाते जब उनके संगठन, या उनके नेताओं, या दोनों के बारे में, कुछ अनुकूल या प्रतिकूल कहा जाता। मुझे आश्चर्य हुआ कि यह किस तरह का हिंदू संगठन था। मुझे उम्मीद थी कि आरएसएस अपने संगठन या उसके नेताओं की प्रतिष्ठा के बजाय हिंदू कारणों के लिए जागृत होता।

 एक दिन एक बीजेएस नेता ने मुझ से बीजीएस को पश्चिम में प्रस्तुत करतेके लिये एक पुस्तक लिखने को कहा। मैंने कहा कि मैं बीजेएस के बारे में बहुत कम जानता हूं और बेहतर होगा कि यह काम उनके अपने विद्वानों में से एक द्वारा किया जाए। उन्होंने कहा कि समस्या यह थी कि उनके संगठन में कोई विद्वान नहीं था।मैं किताब लिखने के लिए तैयार हो गया लेकिन उन्हें चेतावनी दी कि उनकी नीतियों के हिसाब से यह काफी आलोचनात्मक होगा। उन्हें आश्चर्य हुआ। उन्होंने मुझ पर तरस खाते हुए कहा कि मैं प्रतिभाशाली व्यक्ति हूं और मैं उनके संगठन में आगे बढ़ सकता हूं बशर्ते मैं किताब लिखूं और उनके लोगों के मन से मेरे बारे में संदेह को दूर कर दूँ। मैंने उनसे पूछा-” कैसा संदेश”

 वह मुस्कुराया और कहा-” आपको पता होना चाहिए। हमारे अधिकांश लोग सोचते हैं कि आप…..” उसने वाक्य पूरा नहीं किया। मैंने उसके लिए उसे पूरा किया, एक अमेरिकी एजेंट …… मुझे खुद पर काबू रखना था मैंने उनसे कहा कि अगर उनके किसी भी व्यक्ति को देश भक्ति के लिए किसी भी दिन प्रमाणपत्र की जरूरत हो तो वह आकर मुझसे ले सकते हैं। बस वही बीजेएस के साथ मेरे संबंधों का अंत था।

आरएसएस से मेरे मोहभंग में कुछ और समय लगा। देश रेड चाइना से संघर्ष की ओर अग्रसर था।लोग पंडित नेहरू की विदेश नीति से असंतुष्ट हो गए थे। लेकिन उनका मानना था कि प्रधानमंत्री को उनके रक्षा मंत्री और करीबी विश्वासपात्र श्री वी.के कृष्ण मैनन ने पथभ्रष्ट किया था।बहुत कम लोग यह मानने को तैयार थे कि, देश की त्रासदी के असली सूत्रधार स्वयं पंडित नेहरू थे। मेनन नेहरू के सेवक से ज्यादा कुछ नहीं थे और ना तो कांग्रेस पार्टी में और ना ही देश में उनकी अपनी कोई प्रतिष्ठा थी। अब तक मैंने पंडित नेहरू के लगभग सभी प्रकाशित लेख और भाषण पढ़ लिए थे और उन्हें एक प्रतिबद्ध साम्यवादी के रूप में जाना था। उन्होंने अपने देश में समाजवादी निर्माण के काम का श्रेय रेड चाइना को दिया और यह घोषणा करते रहे कि समाजवादी देश अपने पड़ोसियों के प्रति कोई शत्रुता पूर्ण मंशा नहीं रख सकता। मेरी समस्या यह थी कि मैं अपनी धारणा को अपने लोगों के साथ कैसे साझा करूं ।भारत में प्रेस कमोबेश पूरी तरह से, साम्यवादियों,या सह यात्रियों या स्वार्थपरायण चापलूसों के निर्णय नियंत्रण में था।

इसलिए मुझे तब बहुत खुशी हुई जब आरएसएस नेता, जिनसे मैं कोलकाता में मिला था, और जो अब अपने संगठन में बहुत आगे बढ़ चुके थे,ने ऑर्गेनाइजर में लेखों की एक श्रृंखला में नेहरू की विचारधारा का दस्तावेजीकरण करने के लिए आमंत्रित किया। इसके 5 जून 1961 के अंक  से शुरूआत करते हुए मैंने कॉमरेड कृष्ण मेनन की रक्षा में सामान्य शीर्षक के तहत सतरह लेख लिखे। मैं एक छद्म नाम से लिख रहा था, एकाकी  बहुत से लोग नहीं जानते थे कि लेखक कौन था। कम से कम मेरे मालिक इस बात से पूरी तरह से अनजान थे कि मैंने उन्हें जो प्रतिज्ञा दी थी उसका मैंने उल्लंघन कर दिया है। लेखों को उन मंडलियों में व्यापक रूप से पढ़ा जाता था जो आमतौर पर कभी भी ऑर्गेनाइजर नहीं पढ़ते थे।

 इसलिए मुझे आश्चर्य हुआ, जब एक दिन बीजीएस के उस बातूनी व्यक्ति ने मुझे -“राष्ट्र के नेता के बारे में वह सब बकवास” लिखने के लिए फटकार लगाई। मैंने संपादक से बात की जिन्होंने कहा कि वह एक ऐसे व्यक्ति से ये बात नहीं छिपा सकते थे जो बीजेएस के शीर्ष नेता थे।उसने मुझे बताया कि उस आदमी ने उससे “उस कुप्रसिद्ध आदमी से कोई लेना-देना नहीं रखने के लिए” कहा था।मैं उस बातूनी के पास जा कर पूछना चाहता था कि साम्यवाद और उसके उपकरण-समूह के चरित्र को उजागर करने के अलावा मैंने क्या अपराध किया था।लेकिन जब तक मुझे आरएसएस नेता का समर्थन प्राप्त था,जिनसे मैं हर हफ्ते मिलता था,मुझे उसकी परवाह नहीं थी।वह मेरी श्रृंखला के प्रशंसक थे।

मेरा सोलहवां लेख अभी अभी आया था। आरएसएस नेता ने मुझसे कहा कि तुम लिखते रहो और तब तक नहीं रुकना जब तक मैं “मौजूदा स्थिति में नेहरू की नीति” तक नहीं पहुंच जाऊँ। उन्होंने कहा कि मेरी श्रंखला ने “हमारे लोगों के विचारों में एक क्रांति ला दी है”,कि वह श्रृंखला समाप्त होते ही उसे एक पुस्तक के रूप में प्रकाशित करने की योजना बना रहे थे, और यह कि वे इसे हर भारतीय भाषा में लाखों की प्रतियों में लोगों को उपलब्ध करवाएंगे। मैं अपने काम से संतुष्ट  महसूस कर रहा था। मेरा सत्रहवां लेख पहले से ही प्रेस में था। अब मैं रेड चाइना के बारे में पंडित नेहरू की नीतिज्ञता के बारे में लिखने की सोच रहा था।

 लेकिन शायद इस श्रृंखला को पूरा करना मेरी किस्मत में नहीं लिखा था। अगले सप्ताह जब मैं आरएसएस नेता से मिला तो मैंने कुछ ऐसा सुना जो मेरी अपेक्षा के बिल्कुल विपरीत था। जैसे ही मैंने उनके कमरे में प्रवेश किया तो उन्होंने उदासीन और सुविचारित स्वर में कहा -“सीताराम जी आपको नेहरू के सिवाय कोई काम नहीं है क्या? आखिर नेहरू ने ऐसा क्या कर दिया जो आप हाथ धोकर उसके पीछे पड़ गए?” मैं अचकचा गया और मुझे समझ नहीं आया कि मैं क्या जवाब दूँ। संयोगवश ऑर्गेनाइजर के संपादक भी उसी समय कमरे में आ गए। यह नेता उन पर बरस पड़े-” यह क्या नेहरु नेहरु लगा रखा है?अपने अखबार का यह क्या बना डाला तुमने?क्या और कोई शीर्षक नहीं बचा ? बंद करो यह नेहरू नेहरू।” संपादक ने भी कुछ नहीं कहा। वह आरएसएस के अनुशासन में थे। मैं जैसे आसमान से नीचे आ गिरा। मुझे विश्वास नहीं हो रहा था कि मेरे सामने बैठा निष्ठुर चेहरे और विद्वेष पूर्ण आंखों वाला यह वही व्यक्ति था जिसने एक हफ्ते पहले ही मेरी श्रृंखला की इतनी प्रशंसा की थी। लेकिन यह कटु सत्य था ।

मेरे सत्रहवें लेख छपने के तुरंत बाद देश लाल चीन के साथ युद्ध में रत हो गया था। मुझे सरकार द्वारा प्रताड़ित किया जा रहा था। जैसे ही उत्तरी सीमा पर पहली गोली चलाई गई मैंने पाया कि मैं जहां भी जाता एक खुफिया आदमी मेरा पीछा करता रहता। जब तक मैं अपने कार्यालय में रहता वह उसके बाहर खड़ा रहता और देर रात तक मेरे घर के बाहर रहता था। एक दिन एक मित्र ने मुझे सूचित किया कि मुझे बहुत जल्द ही गिरफ्तार किया जा सकता है। उसने कहा कि एक विक्षिप्त नेहरू वादी ने मुझे कॉफी हाउस में बैठे देखा था और अचंभित था कि “गोयल जैसा सरकार विरोधी व्यक्ति” क्यों आजाद घूम रहा था।  उस समय वह एक बहुत छोटा आदमी था लेकिन प्रतिष्ठान के काफी करीबी था। बाद में वह इंदिरा गांधी की सरकार में मंत्री और मॉस्को में हमारा राजदूत बना। हाल ही में वह श्री वी पी सिंह की जनता दल सरकार में एक महत्वपूर्ण मंत्री था। लाहौर में उसके सहपाठी ने मुझे बताया था कि विभाजन पूर्व के दिनों में वह एक कार्ड लेकर चलने वाला साम्यवादी था। मैं अच्छी तरह समझ सकता था कि वह मुझसे नाराज क्यों था।वह उस भीड़ का हिस्सा था जो उस समय माओ की निष्ठावान समर्थक थी, जब मैं उस विरूप प्राणी के खिलाफ लिख रहा था। मैंने उनके जैसे लोगों को उनके देशद्रोही तरीकों की याद दिलाई थी। तो वे मुझे जब भी देखते तो बहुत असहज महसूस करते थे। लेकिन वे तब भी सत्ता में थे और मैं एक नाचीज़। मैंने उसे नाराज ना करना ही समझदारी समझा और कॉफी हाउस जाना बंद कर दिया। मैं जेल नहीं जाना चाहता था।

आखिरकार मुझे एक अपेक्षाकृत असामान्य कारण से गिरफ्तार नहीं किया गया। मेरा नाम न केवल ‘शुष्क सरकारी तत्वों’ की सूची में था बल्कि उन देशभक्तों की सूची में भी था जिनसे चीन के खिलाफ गुरिल्ला युद्ध छेड़ने की उम्मीद थी। यह 23 नवंबर 1962 का दिन था। एक ‌सुदृढ़ अफवाह थी कि बहुत जल्द भारत पर चीन द्वारा हवाई हमला किया जाने वाला है। मुझे कॉन्ग्रेस कार्यालय से एक फोन आया। वह राज्यसभा की सदस्य थीं। मैं उन्हें कुछ खास जानता नहीं था। कोलकाता में उनसे एक बार एक छोटे से अंतराल के लिये मिला था जब वह 1954 मे रेड चाइना से लौटते समय मेरे एक दोस्त के साथ रह रही थीं। जब वह साम्यवादी लोकसभा सांसद रेनू चक्रवर्ती के नेतृत्व वाले संसदीय प्रतिनिधिमंडल के सदस्य  के रूप में वहां गईं थीं तब उन्होंने उस आश्चर्य लोक को देखा था। उन्होंने मेरे दोस्त के घर मेरी चाइना पर लिखी किताबें देखीं तो मुझे बातचीत के लिए आमंत्रित किया। उसने कहा -“मैंने जो अपनी आंखों से  देखा है उसकी तुलना में, आपने अपनी किताबों में जो भयावहता चित्रित की है वह कुछ भी नहीं है।” मेरे दोस्त ने उन्हें देश को विश्वास में लेने के लिए कहा  क्योंकि साम्यवादी प्रचार से लोगों को गुमराह किया जा रहा था। वह गुस्से में बोलीं -“तुम्हारा इरादा क्या है युवक? क्या आप चाहते हैं कि मैं प्रधानमंत्री की दृष्टि में एक अवांछित व्यक्ति बन जाऊँ? अगली सुबह उनका नाम संयुक्त बयान में दूसरे नंबर पर था की चीन में सब कुछ बहुत अद्भुत और अच्छा है। मैं उनसे फिर कभी नहीं मिला। अब उन्होंने मुझसे तुरंत मिलने के लिए कहा।

 जैसे ही मैंने उनके ड्राइंग रूम में प्रवेश किया उन्होंने मुझे अपने साथ चलकर गृह मंत्री श्री लाल बहादुर शास्त्री से मिलने के लिए कहा। उन्होंने मुझे बताया कि उन्होंने मेरा नाम उन लोगों की सूची में देखा है जिनकी आगामी गुरिल्ला बल में भर्ती होने की संभावना थी और  मुझे ढूंढ कर तुरंत पेश करने की जिम्मेदारी ली थी। उनके अनुसार सरकार को डर था कि चीनी पूरे पूर्वी  भारत पर कब्जा कर लेंगे और अनुमान लगाया गया था कि उस भूमि को मुक्त कराने में हमें सालों लग जाएंगे। चूँकि मैं उस क्षेत्र में रहा था और वहां के लोगों और उन की भाषाओं को भी जानता था इसलिए मुझे उत्कृष्ट गोरिल्ला सामग्री के रूप में चुना गया था। मैंने उनसे कहा कि -“एक तरफ मुझे सलाखों के पीछे डालने की कोशिश की जा रही है और दूसरी तरफ मुझे देश की सेवा के लिये एक सैनिक के रूप में देखा जा रहा है?” वह हंसी और कहा कि ज्यादातर समय सरकार के दाहिने हाथ को भी पता नहीं होता कि उसके बाएं हाथ ने क्या किया है, और मुझे इस तरह की चुभन से कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए। लेकिन मुझे आपत्ति थी और यह कह कर मैं बाहर चला गया कि जब तक पंडित नेहरू देश के प्रधानमंत्री रहेंगे तब तक  मैं केवल देशद्रोही ही हो सकता था। वर्षों बाद मुझे पता चला कि वास्तव में श्री बीजू पटनायक के नेतृत्व में एक गोरिल्ला बल को संगठित करने का कदम उठाया गया था।

 महीने बीत गए और मुझ पर से निगरानी हटा दी गई।मैं  यह स्वीकार करता हूं कि उन दिनों मैं हमेशा डरा रहता था। मेरा एक बड़ा परिवार था जिसमें मैं अकेला कमाने वाला था। मेरे बूढ़े माता-पिता को राजनीति समझ नहीं आती थी। मेरे बच्चे भी अभी स्कूल और कॉलेज में पढ़ते थे। कुछ दिन मैंने अपनी गतिविधियों को कम ही रखा। लेकिन पंडित नेहरू के बारे में सच्चाई को सामने लाने का जो दृढ़ निश्चय था वो अभी भी काफी प्रबल था। इसलिए मैंने अपनी श्रृंखला को एक पुस्तक के रूप में प्रकाशित करने के बारे में सोचा।अभी इसे पूरा होने में समय था। फिर भी इससे प्रधानमंत्री के बारे में जो तथ्य सामने आए उसका काफी असर हुआ। एक पूरा साल बीत जाने के बाद मैंने वैद्य गुरुदत्त से संपर्क किया जिन्होंने मेरी श्रृंखला पढ़ी और पसंद की थी। उन्होंने इसे दिसंबर 1963 में प्रकाशित करवाया।

मैं एक बार फिर प्रसन्नता का अनुभव कर रहा था लेकिन तभी रामस्वरूप ने मुझे बताया कि मेरे बॉस मेरी किताब के कारण किसी प्रकार के दबाव में हैं।मैं तुरंत उनके पास गया और उनकी परेशानी का कारण पूछा। वे नाराज़ हो गए और कहा-” हमारे संगठन में साम्यवादी हैं, समाजवादी हैं और जनसंघी भी हैं। उन सभी को अपनी राय व्यक्त करने की स्वतंत्रता हैं। जब तुम कुछ कहते हो , जिसमें तुम इतनी प्रबलता से विश्वास करते हो तो लोगों को आपत्ति क्यों होती है? हमारा भारतवर्ष एक लोकतांत्रिक देश है। चाहे परिणाम कुछ भी हो पर मैं झुकने वाला नहीं।” मैंने उनसे कहा कि मैं उनके पद को किसी खतरे में नहीं डालना चाहता और यदि वह अपने मौजूदा पद पर रहेंगे तो भविष्य में मुझे फिर सुरक्षा प्रदान कर सकते हैं। फिर मैंने उनके आंशुलिपिक को बुलाया और तत्काल प्रभाव से मेरी सेवाओं को समाप्त करने वाला एक पत्र लिखवाया। मेरे बॉस ने इसका विरोध किया। उन्होंने कहा-” मैंने सोचा तुम इस्तीफा दे रहे हो। मैं तुम्हें बर्खास्त नहीं करूँगा।” मैंने कहा -“मेरे पास बचाने के लिए कोई सम्मान नहीं रहा। मुझे दिल्ली में दूसरी नौकरी नहीं मिलेगी। मुझे इस समय केवल तीन महीने की तनख्वाह की परवाह है जो मुझे तभी मिलेगी अगर मुझे बर्खास्त कर दिया जाए।  अगर मैं त्यागपत्र दूं तो मुझे क्या मिलेगा?”उन्होंने ड्राफ्ट टाइप करवाया और उस पर हस्ताक्षर किए। जब वह पत्र मुझे दे रहे थे तो मैंने देखा कि वह किसी तरह अपने आंसुओं को रोकने में प्रयासरत थे। मैं एक बार फिर सड़क पर आ गया था।

 वर्ष 1964 में भी पंडित नेहरू की स्थिति कुछ बेहतर नहीं थी। वह बस जीवित थे। लेकिन उनका जोश जा चुका था। उसी तरह वह डर भी जो उन्होंने अपने विरोधियों को हराने के लिए जीवन भर इस्तेमाल किया था।यह तो केवल उनके द्वारा पैदा किया गया प्रगतिशील वंश था जिसने अपने अस्तित्व को बचाए रखने के लिये उनकी लाश को सिंहासन पर टिका रखा था। अधिनायक को उसके पूर्ण विध्वंस के समय में एक महापुरुष की तरह दिखाने की कोशिश की जा रही थी। मुझे बहुत स्पष्ट रूप से याद है 1969 की सर्दियों में चीनी साम्यवादियों के हाथों हमारे अपमान के परिणामवश क्या हुआ था।

 पंडित नेहरू ने जो भवन बनवाया था वह आज उनके चारों और जर्जर अवस्था में धाराशायी पड़ा था। विश्व शांति के संरक्षक के रूप में उनके ढोंग को उन्हीं के चीनी साम्यवादियों ने बुरी तरह से पंगु बना दिया था, जिन्हें उन्होंने बिना किसी अंत के और हर मंच से बढ़ावा दिया था। वास्तव में उनके दिये गए धर्मविषयक व्याख्यान की वजह से वह दुनिया के लिए हंसी का पात्र बन गये थे। सोवियत संघ,जिसके अच्छे बुरे वक्त में उन्होंने वर्षों तक बहुत साथ दिया था, वह आज खुलकर “हमारे चीनी भाइयों” के पक्ष में आ गए थे।उनके अरब और एफ्रो एशियाई मित्र पोस्टमास्टर से सीखी गई गुटनिरपेक्षता की कला का अभ्यास करते हुए,पूरी तरह से अलग खड़े थे।और वह स्वयं “पूंजीवाद ,उपनिवेशवाद और युद्ध के शिविर के रूप में चारों ओर निंदित किये गए लोगों से रोते हुए लगातार मदद की गुहार लगा रहे थे।

अपने देश में,भारतीय साम्यवादी दल जिसे उन्होंने एक दुर्जेय राजनीतिक तंत्र के रूप में संरक्षित और प्रचारित किया था,उनसे दूर भाग रही थी। इसमें बहुमत जल्द ही चेयरमैन माओ के प्रति निष्ठा की शपथ लेने वाला था। मुस्लिम अल्पसंख्यक जो उनके धर्मनिरपेक्षता के तहत खासा समृद्ध हुआ था,भारत की हार और अपमान से बेहद खुश था।वह तो भारत की दुर्दशा से पाकिस्तान को लाभ मिलने का इंतजार करेगा। दूसरी पंचवर्षीय योजना जिसका उन्होंने इस उम्मीद में स्वागत किया था कि भारत जल्द ही एक औद्योगिक महाकाय के रूप में उभरेगा,ने देश को एक देशव्यापी अकाल के कगार पर लाकर खड़ा कर दिया था। उनके तत्काल उत्तराधिकारी प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री 1965-66 में इस गंभीर स्थिति का सामना करेंगे।

 सामान्य मानवीय और राजनीतिक सिद्धांत के अनुसार यह स्थिति का सर्वेक्षण करने का समय था।बड़े पैमाने पर लोग इस कलंकित और अप्रतिष्ठित नेता और जरा- जीर्ण मण्डली का दृश्य से हटने का इंतजार कर रहे थे।वे खड़े होकर ये कहने के मूड में थे,”आप यहां कुछ ज्यादा ही लंबे समय से हैं। भगवान के लिये अब यहाँ से दफा हो जाओ !” लेकिन मैंने जो देखा वह बिलकुल उलट हुआ। नेता के साथ-साथ उनका दल भी इस कशाकशी से ना केवल सकुशल बाहर निकले बल्कि विजयी और उग्र रूप में दिखे। जो स्थिति की समीक्षा हो रही थी वो बेगुनाहों के खेमे में हो रही थी।

 पंडित नेहरू को बार-बार इस्तीफा देने की धमकी देने की आदत थी। लोगों का विरोध करने के लिए यह उनका एक सर्व विदित तरीका था कि वह अपरिहार्य थे, और उनके बिना देश को बर्बादी का सामना करना पड़ेगा। इस तरह वह हर बार अपने पक्ष में तूफान खड़ा करने और सार्वजनिक जीवन से बाहर निकालने के लिए चुने गए किसी भी व्यक्ति को बदनाम करने में सफल रहे थे । इस बार एक लंगड़े की तरह वह सिंहासन से चिपके रहे । ब्रिगेडियर दलवी के शब्दों में, उनमें इस्तीफा देने  के प्रस्तावों से गुजरने की भी शालीनता नहीं थी। उन्हें बस इतना करना था कि “आधुनिक दुनिया में वास्तविकता के संपर्क से बाहर होने” और “हमारी रचना के कृतिम वातावरण में रहने” के बारे में कुछ कविताएं लिखीं और प्रतिष्ठान ने लोगों से आंसू बहाने को कहा। वफादार और चाटुकारों का झुंड पहले से भी ज़्यादा जोश से  हरकत में आ गया.पूरे देश में एक क्रंदन गूंज उठा कि नेहरू के हाथों को,”उन प्रतिक्रियावादियों को पीछे हटाने के लिए,जो बीते समय को वापस लाना चाहते हैं, और राष्ट्रीय संकट को दूर करने के लिए, मजबूत करने की आवश्यकता है।” कॉमरेड एस.ए डांगे के नेतृत्व में एक विशाल जुलूस “महान नेता और उनकी शांति और प्रगति की नीतियाँ” के समर्थन में गरजते हुए संसद भवन तक गया। मैंने पंडित नेहरू को अपनी आंखों से देखा, रेलिंग पर खड़े होकर जुलूस को संसद के उत्तरी गेट पर पहुँचते हुए देख रहे थे।लेकिन अगले ही दिन उन्होंने वहाँ उपस्थित होने से भी इंकार कर दिया।

इस परिकलित सामरिक गतिविधि का चरमोत्कर्ष कामराई योजना में हुआ,जो इसके तुरंत बाद हुआ था। कांग्रेस के वे नेता जिनकी,विदेशी या घरेलू, राष्ट्रीय नीतियों को आकार देने में कोई भूमिका नहीं थी,उन्हें केंद्र और राज्य दोनो सरकारों में उनके पदों से हटा दिया गया।उनकी “लोगों के बीच पार्टी के काम के लिए आवश्यकता थी” वाले कथन से किसी को धोखा नहीं हुआ।सभी समझ रहे थे कि क्या हो रहा है। महावीर त्यागी ने तो पंडित नेहरू से स्पष्ट ही कह दिया -“यारों के सर कटा कर सरदार बन गए!!” लेकिन किसी की हिम्मत नहीं हुई कि इस दोषदर्षी टिप्पणी को चुनौती दे। पंडित नेहरू और उनके झुंड के लिये ये एक और विजयी दिवस था।

यदि पंडित नेहरू एक ऐसे व्यक्ति होते जो अपनी योग्यता के बल पर शीर्ष पर पहुंचे होते या परिस्थितियों ने उन्हें सत्ता में लाने की साजिश रची होती तो जब  उनके नेतृत्व को 1952 में एक गंभीर झटका लगा था तब उनकी सारी प्रतिष्ठा चली जाती। वो मानव आदर्श कि, सफलता की तरह कुछ भी सफल नहीं होता और असफलता के समान कुछ भी असफल नहीं होता,उन पर भी लागू होता। यदि उन्होंने जिस विचारधारा का समर्थन किया था वह उनकी व्यक्तिगत पसंद होती,तो वह उस युग के दुखद अंत के साथ गुमनामी में चले जाते,जिसकी उन्होंने अध्यक्षता की थी। लेकिन जो हुआ वह इसके ठीक उलट है।एक व्यक्ति के रूप में, एक राजनीतिक नेता के रूप में और एक विचारक के रूप में, पंडित नेहरू के चरित्र में जितने गंभीर दोष सामने आए हैं उनकी छवि को आगे बढ़ाने का प्रयास उतना ही अधिक उन्मत्त रहा है। उनके द्वारा अपनाई गई नीतियों को जितनी अधिक विफलता का सामना करना पड़ा, उतने ही उच्च स्वर में उन्हें उनकी अपरिवर्तित शुचिता में जारी रखने की दुहाई दी गई। ऐसा प्रतीत होता है कि एक पूरा प्रतिष्ठान, पंडित नेहरू को स्थाई नायक के रूप में और नेहरूवाद को सभी बीमारियों के लिए रामबाण औषधि के रूप में स्थापित करने पर तुला हुआ था।

कोई आश्चर्य की बात नहीं कि “महान व्यक्ति की बेटी”, श्रीमती इंदिरा गांधी,कांग्रेस पार्टी और देश में, बड़े पैमाने पर प्रतिक्रियावादियों के सभी प्रकार के बाधाओं को पार करने में सफल रहीं।प्रगतिशील लोग कोने-कोने से उनके खेमे में आते गए और उनके कद को उनके पिता के समान बृहत् बना दिया। उन्होंने खुद को साम्यवादियों और सभी प्रकार के साथी यात्रियों से घेर लिया और सीधे और खुले तौर पर भारतीय साम्यवादी पार्टी और उनके मोर्चों से रंगरूटों की भर्ती शुरू कर दी। उन लोगों ने उनकेे पिता की नीतियों को और आगे बढ़ाने में उनकी पूरी मदद की । इस सौदेबाजी में उन्होंने कांग्रेस पार्टी में, सरकार में, स्वैच्छिक एजेंसियों में, मीडिया और शिक्षा में अर्थात संक्षेप में पूरे प्रतिष्ठान में सत्ता और प्रतिष्ठा के सभी पदों पर एकाधिकार कर लिया। एक जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) पूरे देश से स्टालिनवादी प्रोफेसरों को इकट्ठा करने के लिए बनाया गया  और एक शानदार पैमाने पर वित्त पोषित किया गया । प्रोफेसरों ने जिस अहंकार के साथ‍ हर विषय पर बोलना शुरू किया उस पर विश्वास करने के लिए उसे जानना और समझना जरूरी था।

अगले कुछ वर्षों में नेहरू वादी झुंड तेजी से और कई गुना बढ़ गया। अब यह एक प्रतिबद्ध कांग्रेस पार्टी कैडर, एक प्रतिबद्ध संसद,एक प्रतिबद्ध प्रेस,एक प्रतिबद्ध न्यायपालिका, एक प्रतिबद्ध नौकरशाही और एक प्रतिबंध सशस्त्र बल की मांग करने के लिए काफी मजबूत महसूस कर रहा था।एकमात्र प्रतिबद्धता, जिसे ना तो याद किया गया और ना ही उल्लेख किया गया, वह लोकतंत्र के प्रति प्रतिबद्धता थी,जिसे विशेष रूप से संयुक्त राज्य अमेरिका में पंडित नेहरू के समर्थकों द्वारा भारत के “समाजवाद में प्रयोग”के प्रमाण चिन्ह के रूप में प्रस्तुत किया गया था।नेहरूवाद अपने असली रंग में आ गया था।देश को नेहरू वंश की एक निजी जागीर में बदल दिया गया था और उन लोगों द्वारा चूर चूर कर दिया गया था जो इसके संरक्षक होने का दिखावा करते थे ।

इसके बाद जो आपात स्थिति आई वह एक आकस्मिक स्थिति से निपटने के लिए अपनाया गया अनौपचारिक विचार बिल्कुल भी नहीं था। देश पर सत्तावादी शासन थोपने का विचार लोगों के जीवन में मूर्त रूप से लेने से पहले से ही नेहरूवादी झुंड के मन में वर्षों से परिपक्व हो रहा था। स्थिति को भी उस दिशा में आत्म-धार्मिकता और विचार के साथ आने वाली उच्चता द्वारा आकार दिया जा रहा था। पंडित नेहरू द्वारा बोले गए बीज अब फल फूल दे रहे थे।एक बार फिर उनका झुंड “सेनाओं और फासीवाद को पीछे हटाने के लिए लड़ी जा रही लड़ाई” में सबसे आगे थे और जब तक श्रीमती इंदिरा गांधी ने महसूस किया कि जमीन पर क्या हो रहा है तब तक बहुत देर हो चुकी थी।इस दौरान काफी उत्पात मचाया गयाा। देश के प्रमुख संस्थानों को तबाह कर दिया गया था। वे फिर कभी अपने प्राकृत रूप के नहीं रहे।

 मैं कैसे बच गया और एक बार फिर अपने पैरों पर कैसे खड़ा हो गया ये कोई असामान्य कहानी नहीं है। दुनिया में ऐसे लोगों की कमी नहीं जो असफलताओं को झेलते हैं, संघर्ष करते हैं और फिर से ऊभर कर आते हैं। कभी-कभी अप्रत्याशित लोगों से मदद मिलती है। कभी-कभी यह बहुत ही कठिन काम होता है। कभी-कभी यह सरासर सौभाग्य होता है। मेरे मामले में ये तीनों ही कारण थे।मेरा एक चचेरा भाई मेरी मदद के लिए आगे आया और उसने मुझे न केवल नैतिक समर्थन दिया बल्कि आर्थिक मदद भी दी, जिसकी मुझे बहुत आवश्यकता थी। मैंने बहुत मेहनत की।मेरी किस्मत ने मेरा बहुत साथ दिया और अगले चार वर्षों में मैं एक स्वतंत्र व्यवसाय स्थापित करने में सफल रहा।

1964 से 1977 के दौरान मैंने देश के सार्वजनिक जीवन में कोई हिस्सा नहीं लिया। मैंने बस घटनाओं को घटते और उनको अपनो साथ  देश को अधोगति की ओर ले जाते हुए देखा। एक दोस्त ने मुझे कई बार ताना मारा कि मैं आखिरकार सिर्फ एक बनिया था जो अपने सही धंधे में लौट आया था।एक एन्य मित्र ने शिकायत की कि वह मेरी लेखन शैली की अनुपस्थिति महसूस  कर रहे थे हालांकि उन्हें वह शैली कभी पसंद नहीं थी। मैं क्या कह सकता था ? मैं किसी को कुछ भी समझाने की स्थिति में नहीं था।

नेहरूवाद -2

1967-69 के दौरान एक संक्षिप्त अंतराल था जब विभिन्न विपक्षी दल एक साथ आए और पूरे भारत के विभिन्न राज्यों में संयुक्त विधायक दल (एसवीडी) की सरकारें बनाई। लेकिन इसका अधिकांश हिस्सा उपद्रवी दिखावे से ज्यादा कुछ नहीं था, जिसका परिणाम ये हुआ कि लोगों की नजर में कांग्रेस पार्टी पुनः स्थापित हो गई। बाकी तो पूरा श्रीमती इंदिरा गांधी का आडम्बर था जब तक कि उन्होंने जून 1975 में आपातकाल लागू नहीं कर दिया।

 ऐतिहासिक आम चुनावों की पूर्व संध्या पर सार्वजनिक गतिविधियों में मेरी भागीदारी संक्षिप्त थी। मुझे उस समूह में शामिल होने के लिए आमंत्रित किया गया था जिसे उस गठबंधन के लिए प्रेस विज्ञप्ति तैयार करने का काम सौंपा गया था जो श्रीमती इंदिरा गांधी के खिलाफ था। इसी समूह में मैं पहली बार श्री अरुण चीरियो से मिला।मेरा उनके बारे में ये अनुभव रहा कि वह बेहद विनम्र और मृदुभाषी थे। उस समय मुझे इस बात का कोई अंदाजा नहीं था कि आने वाले वर्षों में वे अग्रणी विद्वान पत्रकार के रूप में उभरेंगे और राष्ट्रीय समस्याओं को सही ढंग से पेश करेंगे।

  श्रीमती इंदिरा गांधी के खिलाफ गठबंधन के प्रति लोगों का उत्साह देखने लायक था। विपक्ष के नेताओं द्वारा संबोधित सभाओं में भारी भीड़ उमड़ रही थी। दूसरी ओर कांग्रेस पार्टी की बैठकों में,यहां तक कि श्रीमती इंदिरा गांधी द्वारा संबोधित की गई बैठकों में भी बहुत कम लोगों की उपस्थिति रहती। मैंने एक ऐसी सभा भी देखी जिसमे कोई भी नहीं था, केवल कांग्रेस के नेता ही एक बड़े मंच पर बैठे थे। जिस आदमी ने कालीनें और कुर्सियाँ सप्लाई थीं वह चिंतित था कि कहीं उसका सामान चोरी ना हो जाए क्योंकि उन पर कोई बैठा नहीं था।

परिणाम सामने आने पर उतने ही अभूतपूर्व दृश्य थे।अमेरिका से मेरा पत्रकार मित्र दिल्ली आया हुआ था। अब वह न्यूयॉर्क से प्रकाशित पत्रिका का मुख्य संपादक बन चुका था। बहादुर शाह जफर मार्ग पर अखबार के दफ्तरों के बाहर गली में लोगों को नाचते हुए देखकर वह हैरान हो गया। उसने कहा कि 1947 में जब भारत आजाद हुआ था तब भी उसने ऐसे दृश्य नहीं देखे थे।

मैं यह स्वीकार करता हूं कि मैं भी लोकप्रिय उत्साह से प्रभावित था और मुझे लगा कि चीजें आखिरकार बदलने वाली हैं। मैंने केवल एक रामस्वरूप को देखा जो बिल्कुल शांत थे। वह खुश थे कि आपातकाल खत्म हो गया था। लेकिन उन्हें उस गठबंधन से ज्यादा उम्मीद नहीं थी, जो जल्द ही जनता पार्टी बन गई।उन्होंने मुझसे कई बार कहा कि लोग सिर्फ इसलिए नहीं बदले क्योंकि उन्होंने खुद को एक नया पार्टी उपनाम दिया है। वह कुछ समय से कह रहे थे कि भारत में दलों की बहुलता है लेकिन नारों की एकता है। जनता पार्टी अपने जनसंघ घटक के अलावा, उपद्रवियों का एक और समूह बन गई और एसवीडी के दिनों की याद दिला दी।

1962 में उनके साथ के अपने अनुभव के बाद मेरा आरएसएस के बीजेएस नेताओं से संपर्क टूट गया था। लेकिन मैंने इस एकमात्र हिंदू आंदोलन के रूप में जो अभी भी जीवित है,में रुचि नहीं खोई थी। आर्य समाज और हिंदू महासभा कमोबेश मरणासन्न हो गई थी। रामकृष्ण मिशन और श्री अरबिंदो आश्रम यह साबित करने में व्यस्त थे कि वे हिंदू के बजाय सार्वभौमिक थे। लेकिन आरएसएस बीजेएस की गतिविधियों के बारे में मुझे जो सूचना मिली वह काफी निराशाजनक थी।

बीजेएस को कमोबेश पूरी तरह से उस बातूनी ने अपने कब्जे में ले लिया था। वह न केवल पंडित नेहरू की विचारधारा का अनुगमन करता था बल्कि पार्टी के सहयोगीयों के साथ व्यवहार में भी वह नेहरू के गुस्से का ही अनुसरण करता था। वह बीजेएस में उन चंद लोगों को चुप कराने या उनका पीछा करने में सफल रहा जिन्होंने यह कहने का साहस किया कि वे समाजवाद,धर्मनिरपेक्षता,गुटनिरपेक्षता और अन्य मुद्दों पर नेहरूवाद से सहमत नहीं थे।मैं विस्मित था कि क्या यह सब आरएसएस के दिग्गजों की सक्रिय या निष्क्रिय सहमति से हो रहा था? कुछ लोगों ने कहा, हाँ। अन्य लोगों ने कहा कि उस बातूनी शख्स की लोगों के बीच लोकप्रियता के सामने आरएसएस के नेता असहाय थे ।

मुझे दिसंबर 1971 में उस बातूनी द्वारा संबोधित एक जनसभा में जाने का मौका मिला। उन दिनों बांग्लादेश की मुक्ति के लिए हम पाकिस्तान के साथ युद्धरत थे।नवीनतम सूचना के अनुसार एक अमेरिकी बेड़ा बैंकॉक से रवाना हुआ था और बंगाल की खाड़ी की ओर बढ़ रहा था। यह चिंता का समय था। लेकिन वह बातूनी गरजने लगा,” अमेरिका का जो बेड़ा बंगाल की ओर बढ़ रहा है उसका एक जहाज भी वापस न जाने पाए।”  भीड़ ने खड़े होकर तालियों की गड़़गड़ाहट से उसकी सराहना की। मैं अचंभित था कि क्या वह जानता था कि अमेरिकी बेड़े का प्रतिनिधित्व का मतलब क्या था? और  मैं वहाँ से निकल गया। ये उस बातूनी की पहली जनसभा थी जिसमें मैंने भाग लिया था और यह आखिरी साबित हुई।

आरएसएस का कायापलट भी कम ध्यान देने योग्य नहीं था। आरएसएस ने कभी भी भारत में इस्लाम या उसकी गतिशीलता को समझने की परवाह नहीं की। मैंने स्वयं अपने कानों से गुरु गोलवलकर को एक सार्वजनिक मंच से घोषणा करते सुना था कि वह इस्लाम को अपने हिंदू धर्म से कम नहीं मानते, कि कुरान उनके लिए वेद के समान पवित्र है,और वह मानव इतिहास में पैगंबर मोहम्मद को महानतम व्यक्तियों में से एक मानते हैं।इसलिए आपातकाल के दौरान जब कुछ आरएसएस नेता जेल में थे तब अपने कैदी साथी जमात-ए-इस्लामी के मुल्लाओं के साथ निकट संपर्क में आकर खुद को संतुष्ट और पूर्ण महसूस करने लगे।मैंने स्वयं उन्हें यह कहते सुना कि-“जब तक हम इन मुस्लिम दिव्य आत्माओं से नहीं मिले थे तब तक हमें भी इस्लाम के बारे में कुछ जानकारी नहीं थी। अब हमें पता है कि इस्लाम वास्तव में क्या है।” मैंने उनमें से एक से पूछा- “क्या आपने स्वयं कभी इस्लाम के श्रेण्य ग्रंथों का अध्ययन किया है?” आप यह फैसला कैसे कर सकते हैं कि यह मुल्ला जो आपको बता रहे हैं वह  सूचना गलत नहीं है?” वह मुस्कुराया और मुझे असंशोधनीय कह कर खारिज कर दिया। मैं देख सकता था कि उन्हें मुल्लाओं ने जो इस्लाम के बारे में  बताया था उसे मानने की उनकी बहुत इच्छा थी। हां अगर इस्लाम सचमुच इतना अदभुत होता तो कोई समस्या नहीं थी।

 आरएसएस और बीजेएस ने नेहरूवाद को पूरी तरह से अपना लिया था और फिर कांग्रेस और जनता पार्टी के समाजवाद घटकों द्वारा उनके साथ जो बर्ताव हुआ वो उनके लिये बिलकुल उचित ही था। बावजूद इसके कि आपातकाल के दौरान आरएसएस बीजेएस को सबसे अधिक नुकसान उठाना पड़ा था और उनके ही लोग बड़ी संख्या में जेल भेजे गए थे और इस तथ्य के बावजूद की संसद में उनकी उपस्थिति भी सबसे बड़ी थी, जनता पार्टी में उनकी स्थिति एक नौकर की भांति थी जिसको कभी भी कोई भी लताड़ सकता था। पहले तो यह अफवाह उड़ी कि पार्टी पर सांप्रदायिकता वादियों द्वारा कब्जा किए जाने का खतरा है इसके बाद समाजवादियों ने खुला अभियान चलाया कि या तो आरएसएस  जनता पार्टी का बालचर बन जाए या पार्टी के जनसंघी आरएसएस से अपना संबंध तोड़ लें।  अंत में आरएसएस को अपने संविधान से हिंदू शब्द को हटाने और मुसलमानों को अपने दल में श्रेणीबद्ध करने का निर्देश दिया गया।

वह बातूनी, जो जनता पार्टी में जनसंघ समूह का नेता था,ने समाजवादियों की मांग का समर्थन किया। उन्होंने इंडियन एक्सप्रेस में एक लेख लिखा जिसमें कहा गया कि आरएसएस आखिरकार एक राजनीतिक आंदोलन था और इसलिए उसे अपने “सांस्कृतिक ढ़ोंग” से अलग होने में कोई हिचकिचाहट नहीं होनी चाहिए। जनसंघ समूह में श्री एल के आडवाणी एक अकेले ऐसे व्यक्ति  थे जिन्होंने सार्वजनिक रूप से कहा कि उन्हें आरएसएस के साथ अपने जुड़ाव पर गर्व है। लेकिन उन्होंने इसमें आरएसएस के दिग्गजों की गिनती नहीं की थी। वह अपनी अगली आमसभा में समाजवादियों के प्रस्ताव पर विचार करने के लिए तैयार हो गए ।वो तो 1980 में जनता सरकार के गिरने के कारण इस स्थिति को बचाया जा सका।

 एक मित्र जो जनता पार्टी के अंदरूनी सूत्र थे, ने मुझे बताया कि सोवियत राष्ट्रपति कोशि्यन, जो जनता पार्टी के दिनों में भारत की यात्रा पर थे, को इस बात का भरोसा नहीं था कि विदेश मंत्री के साथ उनकी मुलाकात कैसी होगी। उनकी यह धारणा थी कि मंत्री एक प्रतिक्रियावादी आंदोलन से संबंधित हैं लेकिन जब वे इन मंत्री से मिले तो उन्हें जानकर सुखद आश्चर्य हुआ कि “ये आदमी भारत में मेरे अपने साम्यवादी साथियों की तुलना में अधिक प्रगतिशील है।” इंदिरा गांधी के शासन के दौरान नियुक्त मॉस्को में हमारे राजदूत को बदलने के लिए एक कदम उठाया गया था। राजदूत को भारत के दूत के बजाय मॉस्को के आदमी के रूप में जाना जाता था। मंत्री ने दृढ़ता पूर्वक कहा-” कुछ नहीं किया जाएगा। वह मेरे सबसे अच्छे दोस्तों में से एक

 है ।” उन्होंने राज्यसभा में एक जाने-माने स्तंभ लेखक को भी शामिल करने की कोशिश की, जो आजीवन हिंदूवादी और हर इस्लामी अभियान के प्रबल समर्थक रहे हैं । ऐसा न होने पर मंत्री ने सैय्यद शहाबुद्दीन को विदेश मंत्रालय से हटा  कर उन्हें “सही प्रकार के मुस्लिम नेता जिनकी हमें तलाश थी” कहकर राज्यसभा में भेज दिया। सैय्यद ने भारत की राजनीति में अपने प्रायोजक को कभी निराश नहीं किया।

हालांकि इस बातूनी  का सर्वोच्च आनंद था भारतीय जनता पार्टी का गठन और गांधीवादी समाजवाद के रूप में इसके दर्शन का सूत्रीकरण। नई पार्टी के झंडे में इस्लामिक जिहाद के हरे रंग ने हिंदुत्व के भगवा(गेरू) रंग के साथ सम्मान साझा किया। आरएसएस या भाजपा में किसी को भी यह जानने या याद रखने की फिक्र नहीं थी कि भारत के इतिहास में इस्लामी रंग किसका प्रतीक था और यह भारत के भविष्य के लिए क्या दर्शाता है। सो अब नेहरूवादी नारे लगाने के लिए हमारे पास एक और मंच था। बस यह 1984 के आम चुनावों में ज़रूरत से ज़्यादा साबित हो गया। लोगों ने इस की कार्बन कॉपी के बजाय मूल और वास्तविक कांग्रेस पार्टी को वोट देने का फैसला किया।

मैंने 1977 में एक लंबे अंतराल के बाद,जिस दौरान मैं एक व्यवसाय खड़ा करने में व्यस्त था, रामस्वरूप के साथ अपनी नियमित बैठकें फिर से शुरू कीं । अब तक मैं लगभग अपनी सभी पारिवारिक जिम्मेदारियों से मुक्त हो चुका था। जो चर्चाएं विकसित हुई वह बहुत फायदेमंद थीं।जो विषय बारबार चर्चा में आया वह था इस्लाम और ईसाई धर्म का चरित्र और यह बंद पंथ हमारे लोगों और संस्कृति के साथ क्या करने की मंशा रखते थे ।

इस बीच इस्लाम ने भारत में अपना आक्रमण फिर से शुरू कर दिया था। तेल समृद्ध इस्लामी देशों से, पेट्रोडॉलर, सभी प्रकार के इस्लामी मिशनरियों और आतंकवादियों को लैस करने के लिए डाला जा रहा था। एक मुस्लिम साप्ताहिक ने इसे स्पष्ट रूप से प्रस्तुत किया। इसमें कहा गया था कि अल्लाह मूर्ख नहीं था जिसने  सारी संपत्ति  इस्लामी देशों को दी।  इसमें इस बात पर जोर दिय गया था कि मुसलमान तो इस दुनिया के मालिक होने के लिए पैदा हुए थे ।और ये इंगित किया कि भारत में अभी उनका काम अधूरा ही है।  इसी तरह के लेख कई इस्लामी देशों में छपे।

उसी समय ईसाई मिशनरी तंत्र ने स्वदेशीकरण और मुक्ति के अपने सिद्धांतों को सिद्ध किया । धर्म शास्त्रों को इसमें कोई संदेह नहीं था कि भारत को ईसा मसीह की भूमि बनना तय था । विवेकानंद और महात्मा गांधी जैसे राष्ट्रीय पुनरुत्थान की अग्रणी रोशनी को “एकमात्र सच्चे ईश्वर के एकमात्र पुत्र”के रूप में चित्रित क्या जा रहा था।

हालांकी पूरी स्थिति का सबसे निराशाजनक पहलू यह था कि विनाश की इन ताकतों के खिलाफ व्यवहारिक रुप से विरोध की कोई आवाज ही नहीं थी। ये ताकतें  जिन तरीकों और साधनों को संगठित कर रही थीं उन पर ध्यान ही नहीं दिया जा रहा था। एकमात्र आंदोलन जिसे हिंदू आंदोलन माना जाता था और जिनके द्वारा हिंदू समाज और संस्कृति की रक्षा किये जाने की उम्मीद रखी जा रही थी, वह अपनी धर्मनिरपेक्षता साबित करने में व्यस्त था। जनता पार्टी पंडित नेहरू की तुलना में महात्मा गांधी पर ज़्यादा भरोसा करती थी। लेकिन यह महात्मा गांधी नहीं थे जिन्होंने घोषणा की थी कि वह एक कट्टर सनातनवादी हिंदू थे।इसके बजाय ये वो महात्मा गांधी थे जिनका आविष्कार डॉ राम मनोहर लोहिया ने अपनी ही तरह की धर्मनिरपेक्षता को दिखाने के लिए किया था। कोई आश्चर्य नहीं था कि दिल्ली में जामा मस्जिद के इमाम बुखारी वर्तमान परिपेक्ष्य में एक महापुरूष की भाँति फलांग मार रहे थे। हर तरह के राजनेता उनका समादर कर रहे थे। इतना अच्छा समय तो उनका कभी नहीं रहा था।

रामस्वरूप व्याकुल महसूस कर रहे थे।उन्हें इसमें कोई संदेह नहीं था कि हिंदू समाज एक बड़ी मुसीबत में आने वाला था। वह पिछले कई वर्षों से इस्लाम और ईसाई धर्म के धर्म ग्रंथों का अध्ययन कर रहे थे और उनके सबसे रूढ़िवादी स्तोत्रों का गहराई से अध्ययन किया था। वह इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि यह धर्म नहीं बल्कि साम्यवाद और नाजीवाद जैसी क्रूर और असहिष्णु विचारधाराएं थीं। उन्होंने कहा कि भारत में इस  विचारधारा का प्रचार केवल हिंदू मातृभूमि में, हिंदू समाज और संस्कृति से जो कुछ भी बचा है,के लिए भयानक परिणाम देने वाला था।

 इस समय के आसपास मुझे इस पुस्तक की टंकितप्रति पढ़ने का अवसर मिला जिसे उन्होंने 1973 में समाप्त कर एक तरफ रख दिया था। यह अद्वैतवाद का गहन अध्ययन था जो इस्लाम और ईसाई धर्म दोनों की केंद्रीय हठधर्मिता के साथ-साथ एक शक्तिशाली प्रस्तुति थी जिसे एकेश्वरवादी हिंदू, बहुदेववाद के रूप में निरूपित करते हैं। मैंने ऐसा कुछ कभी नहीं पढ़ा था। यह मेरे लिए एक रहस्योद्घाटन था कि एकेश्वरवाद एक धार्मिक अवधारणा नहीं बल्कि एक साम्राज्यवादी विचार था। मुझे यह स्वीकार करना होगा कि मैं स्वयं इस समय तक एकेश्वरवाद की ओर झुका रहा था।कभी नहीं सोचा था कि ईश्वर की बहुलता एक विकसित आध्यात्मिक चेतना की स्वाभाविक और सहज अभिव्यक्ति है।

मुझे 1949 का समय याद आ गया जब मैंने रामस्वरूप की टंकितप्रति, रूसी साम्राज्यवाद:हाउ टू स्टॉप इट, पढ़ा था। फिर उन्होंने 1950 में- साम्यवाद और किसान: एशिया के लिए सामूहिक कृषि के निहितार्थ,लिखा। इन किताबों ने मुझे उस खतरे के बारे में सोचने पर मजबूर कर दिया था जिसका प्रतिनिधित्व साम्यवाद करता था। अब मैं इस्लाम और ईसाई धर्म के खतरे को देखने और समझने को उद्वत/जागृत हुआ। मैंने रामस्वरूप की नई महान कृति को प्रकाशित करने का निर्णय लिया।1980 में जब इसे प्रकाशित किया गया तब इसका शीर्षक था- द वर्ल्ड ऐज़ रेवेलेशन: नेम्स ऑफ गॉड्स। कॉलेज के दिनों के हमारे मित्र और अब द टाइम्स ऑफ इंडिया के मुख्य संपादक गिरीलाल जैन ने इस पुस्तक को पढ़ने के बाद मुझे फोन किया और कहा-” सीता, राम स्वरूप ने अपने जीवन की सबसे बेहतरीन पुस्तक लिखी है और आपने अपने जीवन की सबसे बेहतरीन पुस्तक प्रकाशित की है।” इसकी समीक्षा द टाइम्स ऑफ इंडिया में प्रसिद्ध अरबिंदोनियन, डॉक्टर शिशिर कुमार घोष ने “रिटर्न ऑफ द गॉड्स”शीर्षक के तहत की । समीक्षक ने रामस्वरूप के चिंतन में केंद्रीय विषय को इंगित किया।

 जैसे-जैसे हमारी चर्चा विकसित हुई मैंने पाया कि रामस्वरूप ईसाई धर्म की तुलना में इस्लाम के खतरे के बारे में अधिक चिंतित हैं। उन्होंने देखा कि आधुनिक पश्चिमी में ईसाई धर्म का प्रभाव अब बहुत कम हो गया  था,हालांकि भारत में यह अभी भी काफी क्षति करने में सक्षम था, पर जैसे ही पश्चिम में इसकी तर्कवादी समीक्षा हमारे लोगों को ज्ञात होगी, इसका पतन होना तय था। दूसरी और इस्लाम अब तक तर्कवादी समीक्षा से भी मुक्त था।हिंदू संत और विद्वानों ने इसके अनन्य और श्रेष्ठ दावों पर शायद ही कभी सवाल उठाया था। एकमात्र अपवाद स्वामी दयानंद थे। हाल ही में हिंदू धारणा यह रही थी कि इस्लाम हिंदू धर्म के समान सत्य सिखाता है। सर्व धर्म समभाव का नारा धर्मनिरपेक्षता को एक लाभ प्रदान कर रहा था जिसके पीछे इस्लाम और ईसाई धर्म अपना काम कर रहा था। इसमें भारत के इतिहास की उस व्यवस्थित विकृति को जोड़ें जो अलीगढ़ और जेएनयू के इतिहासकारों ने

नेहरूवादी प्रतिष्ठान में अपने सत्ता पदों से ली थी। वे जोर दे रहे थे कि इस्लामी नायकों को राष्ट्रीय नायकों के रूप में स्वीकार किया जाए जबकि वे हिंदू नायकों को खलनायक में परिवर्तित कर रहे थे।

रामस्वरूप इस्लाम और ईसाई धर्म की केवल तर्कवादी समीक्षा से संतुष्ट नहीं थे। वे चाहते थे कि इन विचारधाराओं को सनातन धर्म की यौगिक आध्यात्मिकता की दृष्टि से क्रियान्वित किया जाए। और उन्होंने इन पंथों को योग चेतना के पैमाने पर रखने के लिए रूपरेखा विकसित की थी।

 रामस्वरूप के अनुसार हमारी समस्या मुसलमान नहीं बल्कि इस्लाम थी। भारत में (अफगानिस्तान,पाकिस्तान और बांग्लादेश सहित) मुसलमानों का एक बड़ा हिस्सा हमारे अपने लोग थे। उन्हें इस्लाम ने हम से अलग कर दिया था। लेकिन हिंदू समाज मुस्लिम व्यवहार ढांचे में संचित रहे और इस दौरान  इस्लाम को एक महान धर्म के रूप में प्रस्तुत करते रहे। यह हिंदू समाज के लिए आत्मघाती था। मुस्लिम व्यवहार प्रतिमान को उस धारणा प्रणाली में अनुरेखण करना था जिसने इसे अनुमोदित किया था, और जिसे अब उजागर करना था।

मुस्लिम व्यवहार प्रतिमान की एक उल्लेखनीय विशेषता  थी मुसलमानों द्वारा मामूली बहाने पर भी सड़कों पर उतरने की उनकी प्रवृत्ति। इस्लाम द्वारा पाकिस्तान के निर्माण के लिए सड़क दंगों का इस्तेमाल एक प्रमुख हथियार के रूप में  किया गया था।जो भारत शेष था उसमें उनका उपयोग सभी प्रकार की मुस्लिम मांगों को लागू करने के लिए किया जा रहा था। और जब तक इस्लाम अपने आक्रामक स्वार्थ से मुक्त नहीं हो जाता तब तक मुसलमानों द्वारा सड़क पर होने वाले दंगों को रोका नहीं जा सकता।जो किया जाना चाहिए हिंदू बिलकुल उसके विपरीत  कर रहे थे। वे मुसलमानों को दोष दे रहे थे ,इस्लाम को नहीं,जो सड़क दंगों के लिए प्रेरित करता था।

रामस्वरूप को यकीन था कि सड़क दंगों को रोकने का एकमात्र प्रभावी तरीका हिंदू-मुस्लिम संवाद को सड़कों से मानव मन के स्तर तक ले जाना है। यह तभी संभव था जब हिंदु  स्वयं अपने स्रोतों से इस्लाम का अध्ययन करे और उसके दावों को खारिज करे। जब तक हिंदु  इस्लाम को एक धर्म के रूप में मान्यता देगा तब तक इसकी, आक्रामकता को छोड़ने और शांतिपूर्ण सह अस्तित्व को स्वीकार करने की संभावना नहीं थी। हमारे सामने इसाई धर्म और साम्यवाद की मिसालें थीं। पश्चिम में ईसाई धर्म को अपनी दंभ को त्यागना पड़ा और आधुनिक समय में एक स्वतंत्र और स्पष्ट चर्चा से विवश हो कर खुद को सुधारना पड़ा। जब पश्चिमी विद्वानों ने इसके सिद्धांतों की जांच की और उन्हें बड़े पैमाने पर लोगों को बताया तो पश्चिमी लोकतंत्रों में  साम्यवाद का वैचारिक प्रसार भी रुक गया था।

1981 के अंत में एक दिन, मैंने रामस्वरूप से कहा,- “मैंने अपने जीवन के साठ साल पूरे कर लिए हैं। मुझे अपने परिवार के लिए जो कुछ भी करना था मैंने कर लिया। अगर आपको लगता है कि मैं हिंदू धर्म के लिए मदद कर सकता हूं तो मैं अपने व्यवसाय से सेवानिवृत्ति ले कर फिर से लिखना शुरु कर सकता हूं। मैं अपना शेष जीवन हिंदू समाज को इसकी महान विरासत के बारे में और उस पर मंडरा रहे खतरों के बारे में सूचित करने में लगाना चाहता हूँ। केवल मुझे अपने बेटों से परामर्श करना होगा कि क्या वे मुझे अब मेरा सबसे प्रिय काम करने को लिये छोड़ सकते हैं।रामस्वरूप ने मुझे इसकी सहमति दे दी।

मैंने अगले ही दिन अपने बेटों के सामने ये प्रस्ताव रखा।उनकी प्रतिक्रिया बहुत  सकारात्मक थी। एक बेटे ने कहा-” आप तो व्यवसाय के साथ-साथ ये अन्य कार्य भी कर सकते हैं। व्यवसाय तो अब हम भी चला सकते हैं।लेकिन हमारे बीच आप अकेले ऐसे व्यक्ति हैं जो यो अन्य कार्य कर सकते हैं। आप जब भी कार्यमुक्त होना चाहें बता दें, हम व्यवसाय को संभालने के लिए तैयार हैं। हमें जब भी कोई समस्या होगी या आपके परामर्श की आवश्यकता होगी तो हम आपसे मंत्रणा कर सकते हैं। ये सुनकर मुझे बहुत खुशी हुई।उसी दिन “वॉइस ऑफ इंडिया” का जन्म हुआ हालांकि रामस्वरूप ने कई दिनों बाद इस नाम का सुझाव दिया था।

मेरी अगली समस्या यह थी कि नई स्थिति के लिए प्रासंगिक विषयों पर लेखन फिर से कैसे शुरू किया जाए। पिछले पंद्रह वर्षों में व्यावसायिक पत्र और लेखा पुस्तकों के अलावा कुछ भी नहीं लिखने के कारण मेरी गंभीर विषयों पर लिखने की आदत खत्म हो गई थी। अपने दिमाग में उपयुक्त विचारों को पुनर्व्यवस्थित करने और फिर उन्हें कागज पर उतारने के लिए काफी संघर्ष करना पड़ा । कई हफ्तों तक मैं केवल फटे हुए कागज़ों के ढेर बनाता रहा । लेकिन मैंने रामस्वरूप का साथ नहीं छोड़ा। जल्द ही मेरी कलम ने सुसंगत वाक्य लिखने शुरू कर दिये।

आश्चर्यजनक बात है कि श्री के.आर.मलकानी,  ऑर्गेनाइजर के संपादक ने मुझे एक लेखक के रूप में कभी छोड़ा नहीं। उन्होंने इतने वर्षों से मुझे पत्र लिखना जारी रखा था और उन विषयों का सुझाव देते रहे जिन पर मैं उनके साप्ताहिकि में लेखों का योगदान कर सकता था। मैं सोचता था कि वे कितने दयालु हैं। हालांकि मैंने कभी उनके पत्रों का उत्तर नहीं दिया। अब मैं विचार कर उनके कार्यालय गया और उनसे पूछा कि क्या वह मेरी कुछ श्रृखलाओं पर विचार करेंगे जो मेरे दिमाग में थीं। वह तुरंत राजी हो गये।

 इस तरह वो सिलसिला शुरू हुआ और एक के बाद एक, हाउ आई बिकेम अ हिंदू, हिंदू सोसायटी अंडर सीज,ऐन एक्सपेरिमेंट विथ अनट्रुथ, डिफेंस ऑफ हिंदू सोसायटी, हिस्ट्री ऑफ हेरोइक हिंदू, रेजिस्टेंस टू इस्लामिक इनवेडर्स लिखी गईं। अब हर हफ्ते, कई दोपहर मैं ऑर्गेनाइज़र के कार्यालय में बिता रहा था, प्रूफ देख रहा था, अन्य आगंतुकों से मिल रहा था और श्री मलकानी से बात कर रहा था।मैं एक बार फिर अपने पुराने निजी अस्तित्व में आ गया था । अब मुझे विश्वास करना मुश्किल हो रहा था कि मैं गत पंद्रह वर्षों से अधिक समय से एक व्यवसायी था।

मुझे समय आने पर पता चला कि ऑर्गेनाइजर में मेरी श्रृंखला को धर्मनिरपेक्षतावादी हलकों में देखा जा रहा है । एक धर्मनिरपेक्ष लेखक,जिनसे मुझे एक दोस्त के घर मिलने का मौका मिला, ने कहा-“आप कितनी श्रृंखलाएँ लिखने की योजना बना रहे हैं?” मैंने कहा-“एक सौ,जब तक कि मैं मर ना जाऊं या बिस्तर पर ना पड़ जाऊँ।”  मेरे मन में कई विषय थे।मैं अपने डेस्क पर कई घंटे बिता रहा था,स्तोत्र सामग्री का अवलोकन कर रहा था,लेख लिख रहा था।

इस समय जिस बात ने मुझे सबसे अधिक प्रोत्साहित किया वह थी पाठकों से प्राप्त पत्रों की बाढ़। कुछ मेरे निजी पते पर आए और कुछ ऑर्गेनाइजर के संपादक के पास । वे भारत के सभी हिस्सों से आए थे और विदेशों से भी, विशेष रूप से ब्रिटेन और अमेरिका से।वे सभी,तथ्यों के बारे में मेरे ज्ञान और उन्हें एक उचित परिपेक्ष में रखने की मेरी क्षमता के लिए प्रशंसा से भरे हुए थे। मैं पाठकों के प्रति कृतज्ञ महसूस कर रहा था। मैंने भी एक बार लज्जित महसूस किया जब मेरी तुलना हाल के दिनों में हिंदू जागरण के किसी दिग्गज से की गई । एक पत्र बहुत संक्षिप्त था जिसमें संपादक को संबोधित किया गया था। इसमें कहा गया था कि- “सीताराम गोयल ऑर्गेनाइजर में सबसे अद्भुत और प्रशंसनीय चीज हैं।” मुझे स्वीकार करना होगा कि मैं खुशामदी महसूस कर रहा था।

और वो फिर से हुआ।जो झटका आया वह पिछली बार की तरह तीव्र और आकस्मिक नहीं था लेकिन यह एक झटका ही था।फर्क सिर्फ इतना था कि इस बार उसने मुझे चकनाचूर नहीं किया जैसा कि पिछले मौके पर किया था।

मैं एक श्रृंखला- मुस्लिम अलगाववाद: कारण और परिणाम शीर्षक से, एच.वि.शेषाद्री की पुस्तक, द ट्रैजिक स्टोरी ऑफ इंडिया’स पार्टीशन की समीक्षा कर रहा था। जब एक दिन इसका प्रूफ मेरे पास आया तो मैंने पाया कि सूफियों के बारे में कुछ महत्वपूर्ण अंश प्रिंटिंग प्रेस की रचना से गायब थे। मैंने टाइप की हुई कॉपी उठाई और देखा कि उन अंशों को लाल पेंसिल से काट दिया गया था। मैं श्री मलकानी की तरफ मुड़ा और उनसे पूछा कि क्या उन्होंने ऐसा किया है। वह मुझसे नजर नहीं मिला रहे थे, पर बुदबुदाए, -” हमें उनके साथ रहना है।” मैंने कहा-” मैं भी यह तय करने की कोशिश कर रहा था कि वह हमारे साथ रहना सीखें।” उन्होंने जवाब नहीं दिया।

 इसके तुरंत बाद श्री मलकानी को बर्खास्त कर दिया गया।मुझे पूरी कहानी पता नहीं। बहुत बाद में मुझे पता चला कि ऑर्गेनाइजर में मुझे नियमित रूप से लिखने से रोकने में उनकी विफलता भी इस  खेदजनक परिणाम  के कारणों में से एक थी। लेकिन उस समय मुझे इस बात का संशय नहीं था कि इस साप्ताहिक से उनके प्रस्थान के साथ मेरा कुछ लेना-देना है जिसमें वह तीन दशकों से सेवारत थे।ऐसे कि ऑर्गेनाइजर का मतलब मलकानी और मलकानी का मतलब ऑर्गेनाइजर था। दल के अधिपुरुषों के तरीके हमेशा अचूक होते हैं ।

श्री वी पी भाटिया, जिन्होंने ऑर्गेनाइजर के अगले संपादक के रूप में पदभार ग्रहण किया, श्री मलकानी की तरह ही एक बहुत ही सज्जन व्यक्ति थे। लेकिन राजनेताओं के दबाव  में कर भी क्या सकते थे? उन्होंने मेरे लेखों के अंशों को काटा नहीं लेकिन उन्होंने व्यापक संकेत दिए कि मेरे लेखों की अब और ज़रूरत नहीं। किसी संकेत को समझने के लिए मेरी खोपड़ी थोड़ी मोटी है तब भी मैं समझ गया  कि कहीं ना कहीं कुछ गड़बड़  है। मैंने श्री भाटिया से कहा कि जैसे ही मेरी वर्तमान श्रृंखला- भारत की राजनीतिक संभाषण की विकृति, समाप्त हो जाएगी, मैं रुक जाऊंगा । और मैंने ऐसा ही किया। लेकिन मैं जानना चाहता था कि हुआ क्या था ।

कुछ महीनों बाद मैं आरएसएस के एक दिग्गज से मिला। मुझे पता चला था कि मेरे लेखन पर प्रतिबंध में उनका कुछ हाथ था।तो मैंने उनसे स्पष्ट पूछा-“आपने ऑर्गेनाइजर में मेरी श्रृंखला को क्यों रोक दिया?” उन्होंने कहा-” कभी-कभी लिखिए।” कुछ महीनों बाद जब मैं आरएसएस के एक और दिग्गज से अचानक  मिला तो सारी बात सामने आ गई। वह अमेरिका में विश्व हिंदू परिषद की रैली में शामिल होने जा रहे थे। जैसे ही मैंने उनसे सवाल किया, उन्होंने मुझे उंगली दिखाते हुए जोर से चिल्लाते हुए कहा -” तुम जाकर इस्लाम पर हमला करते हो। फिर कोई मुसलमान हमारे पास कैसे आएगा? उनका स्वर तीखा था। दरअसल उनकी आवाज में तीखे तेवर थे। मैं उनसे पहले एक या दो बार मिल चुका था। मुझे लगा कि वह विनम्र व्यक्तित्व वाले व्यक्ति हैं।पर आज  मैं एक अलग ही व्यक्ति से मिल रहा था जो हिंदू आंदोलन के एक दिग्गज थे। फिर भी मैंने उनसे पूछा-” लेकिन क्या आप वाकई चाहते हैं कि मुसलमान आपके पास आएँ? उन्होंने कहना शुरू किया-” एक रणनीति के रूप में…. मुझे उनसे और अधिक सुनने की इच्छा नहीं हुई और मैं कमरे से बाहर चला गया। जब से मैंने साम्यवाद से मुंह फेरा है तब से मैं इस शब्द राजनीति से परेशान हूँ। मैंने मार्क्सवादी लेनिनवादी साहित्य में इस शब्द को पतझड़ के पत्तों की तरह बिखरे  देखा था। अब जब मुझे पता था कि यही पार्टी लाइन सामने रखी गई है तो किसी भी मामले में शिकायत के लिए कोई जगह नहीं थी ।  केवल एक चीज जो मुझे स्पष्ट नहीं हो रही थी वह थी आरएसएस भाजपा की यह दुहाई की धर्मनिरपेक्षतावादी दल मुसलमानों को उनके वोट हासिल करने के लिए परिपोषित कर रहे हैं। मेरे लिए यह वैसे ही बात थी की केतली कहे कड़ाही से कि वह काली है ।मैंने कभी भी पार्टी दिग्गजों या अमीरों की परवाह नहीं की क्योकि उनमें से बहुतों को मैंने बहुत करीब से देखा है । ज्यादातर लोगों को सत्ता का या पैसे का या फिर दोनों का लालच रहता है। ना ही मैं कभी किसी विशेषाधिकार प्राप्त पद का इच्छुक रहा हूं। तो मैं आगे बढ़ गया। मैं जानता था कि हिंदू समाज आरएसएस और भाजपा की तुलना में कहीं बड़ा है। मैंने, सच्चाई को जैसे देखता हूँ उसे उसी स्वरूप में अपने लोगों के पास ले जाने का फैसला किया।  मैं सुधार के लिए खुला था लेकिन रणनीति के रूप में महिमामंडित धूर्तता के लिए नहीं। प्रतिक्रिया फायदेमंद रही।

 मैं इस बार काम कर सका क्योंकि मेरे पास अपना पैसा था। दिल्ली, कोलकाता, और मद्रास के कुछ दोस्तों ने मुझे कुछ और मदद कर दी। अब मैं केवल ऐसे विद्वानों की तलाश कर रहा था जो सीधे सच बता सकें। सौभाग्य से मैं जल्द ही उनमें से कुछ से मिला। डॉ हर्ष नारायण, ए.के.चटर्जी, प्रोफेसर के.एस.लाल, कोएनराड़ एल्स्ट, राजेंद्र सिंह, संत आर.एस.निराला और श्रीकांत तलागेरी। समय बीतने के साथ और भी विद्वानों का हमारे साथ आना निश्चित है। वहीं गिरीलाल जैन, अरुण शौरी, स्वपन दासगुप्ता और कुछ अन्य लोग जो अपने दम पर आगे बढ़ रहे थे, मैं उन्हें सलाम करता हूं। एक प्रकाशक के रूप में मुझे जिस पहली समस्या का सामना करना पड़ा वह थी इस्लाम द्वारा भारत में आने के बाद से लगाया गया आपातकाल। किसी को भी इस्लाम, उसके पैगंबर, उसके धर्म ग्रंथ, उसके नायकों, और उनकी ‘भारतीय संस्कृति में योगदान’ की प्रशंसा करने की पूरी स्वतंत्रता है। लेकिन किसी के कुछ प्रश्न पूछने या इन्हीं विषयों से संबंधित वास्तविक तथ्यों को प्रस्तुत करने की स्वतंत्रता नहीं है। वहीं वेदों, महाकाव्यों, पुराणों और अन्य सभी पुस्तकों की, जिन्हें हिंदू पवित्र मानते हैं, की चर्चा की जा सकती है,यहां तक की उनकी निंदा भी की जा सकती है।इसी तरह हिंदू देवी-देवता, हर हिंदू नायक, हर हिंदू परंपरा और हर हिंदू सामाजिक संस्था की भी निंदा की स्वतंत्रता है। लेकिन यह कहना कि मोहम्मद अंतिम पैगंबर नहीं थे, कि कुरान अंतिम रहस्योद्घाटन नहीं है, और यह कि इस्लाम ही एकमात्र सच्चा धर्म नहीं है, परेशानी का कारण बना हुआ है। इस तरह के बयानों ने तब तक मौत की सजा को आमंत्रित किया,जब तक इस्लाम का, इस देश में सैन्य शक्ति का एकाधिकार था। उसके बाद वे कानून संहिता की धाराओं को आमंत्रित करते रहे हैं और अगर कानून में एक बार भी चूक हो जाए तो सड़क पर दंगे हो जाते हैं।

 अभी कुछ समय पहले ही अपराध विभाग के अधिकारी मुझसे मिलने आए, ना केवल दिल्ली से। मुझ पर सांप्रदायिक कलह पैदा करने और देश की शांति के लिए खतरा पैदा करने का आरोप लगाया गया था। मुझे गिरफ्तार कर लिया गया और जमानत लेने का आदेश दिया गया। दिल्ली के स्टेशन हाउस ऑफिसर जिसने मुझे चौबीस घंटे हवालात में बंद रखा, अपने इस कारनामे से बहुत खुश था। उसने जोर शोर से यह दावा किया कि उसने दिल्ली में एक बड़े सड़क दंगे को रोक दिया है। उसने मुझे अपने साथ आने और उन हथियारों को देखने के लिए आमंत्रित किया, जिन्हें स्थानीय मुसलमानों ने अपने घरों में और घरों की छतों पर इकट्ठा किया था। जब मैंने उससे पूछा कि उन्होंने ये हथियार क्यों नहीं हटाए, तो उसने कहा- “अपना यह प्रश्न  राजनीतिक दलों के बड़े मालिकों से करो। मैं तो एक छोटा सा आदमी हूं जो अपनी दैनिक रोटी कमाने की कोशिश कर रहा है।”

मुझे रामस्वरूप के प्रलेखित अध्ययन- हदीस के माध्यम से इस्लाम को समझना: धार्मिक विश्वास या कट्टरवाद ? के मामले में गिरफ्तार किया गया था। ह्यूस्टन, टैक्सास के श्री अरविंद घोष के प्रयासों के कारण 1982 में यह पुस्तक अमेरिका में प्रकाशित हुई थी। वॉइस ऑफ इंडिया ने 1983 में इसका एक भारतीय पुनर्मुद्रण प्रकाशित किया था। दिल्ली में पुस्तक बाजार में जोर शोर से यह चर्चा थी कि इस पुस्तक पर प्रतिबंध लगाया जा रहा है। मैं सांसें रोके इंतजार कर रहा था।लेकिन दो साल तक कुछ नहीं हुआ। इसलिए मैंने इसका हिंदी में अनुवाद करवाया और दो हजार प्रतियों के मुद्रित पृष्ठ, बाइंडर को भेज दिये। कुछ मुसलमानों की भीड़ उस बाइंडर की दुकान के बाहर जमा हो गई और दुकान को जलाने की धमकी देने लगे। स्टेशन हाउस ऑफिसर, जिसका मैंने उल्लेख किया था, कुछ ही मिनटों में घटनास्थल पर आ गया और सारे मुद्रित पृष्ठ और बाईंडर लेकर चला गया। अगले कुछ ही घंटों में मुझे उठा लिया गया।

दिल्ली प्रशासन ,जो उस समय कांग्रेस के शासन के अधीन था, ने हिंदी अनुवाद की जांच करवाने और यह पता लगाने के लिए कि यह अंग्रेजी मूल से हट तो नहीं गई या अंग्रेजी मूल में कोई आपत्तिजनक बात तो नहीं, के लिए एक के बाद एक दो स्क्रीनिंग समिति नियुक्त की। दोनों समितियाँ एक ही निष्कर्ष पर पहुंची कि अंग्रेजी मूल में या हिंदी अनुवाद में कुछ भी आपत्तिजनक नहीं था। उन दोनों ने केवल एक रूढ़िवादी इस्लामी ग्रंथ को संक्षेप में प्रस्तुत किया था। दिल्ली प्रशासन ने मामले को मेट्रोपॉलिटन कोर्ट भेज दिया और अनुरोध किया कि इसे खारिज कर दिया जाए। लेकिन जमात-ए-इस्लामी साप्ताहिक, रेडियंस, ने लेखक और प्रकाशक पर पैगंबर का अपमान करने का आरोप लगाते हुए हंगामा कर दिया। अदालत ने कुछ मुसलमानों को पेश होने और यह साबित करने का इंतजार किया कि मामले को खारिज क्यों नहीं किया जाना चाहिए। लेकिन कोई नहीं आया।इसलिए अदालत ने 28 सितंबर 1991 को मामले को खारिज कर दिया। लेकिन दिल्ली प्रशासन ने नवंबर 1991 में एक अधिसूचना जारी की जिसमें कहा गया कि जब भी इसका हिंदी अनुवाद प्रकाशित होगा उस पर प्रतिबंध लगा दिया जाएगा। मार्च 1992 में इसी प्रशासन ने इसके मूल अंग्रेजी पर भी प्रतिबंध लगा दिया। तब तक अंग्रेजी मूल लगभग दस वर्षों से प्रचलन में थी। इस बीच दो भारतीय पुनर्मुद्रण भी बिक चुके थे। इस किताब की आज भी काफी मांग है । पर मैं लाचार हूं।

मैं इस अध्याय को अयोध्या आंदोलन की अपनी टिप्पणियों के साथ समाप्त करूंगा। रामस्वरूप ने इस आंदोलन में हिंदुओं को इस्लाम के चरित्र के बारे में शिक्षित करने का अवसर देखा। 1983 की शुरुआत में उन्होंने मुझे। अपने इतिहास और पुरातत्व के ज्ञान को कुछ उपयोग में लाने के लिए कहा और सदियों से इस्लामी आक्रमणकारियों और शासकों द्वारा नष्ट किए गए हिंदू मंदिरों की एक निर्देशिका संकलित करने के लिए कहा । मुस्लिम स्मारक, जो उन स्थानों पर बने थे और/या हिंदू मंदिरों की सामग्री से बनाए गए थे, उन्हें उजागर करना था।मैं स्तोत्र सामग्री इकट्ठे करने में व्यस्त हो गया जो बहुत बड़ी मात्रा में और कई भाषाओं में थी। बहुत बड़ा काम किया जाने वाला था।

 मुस्लिम नेता और स्टालिनवादी इतिहासकार हिंदू कट्टरवाद के बारे में शोर मचा रहे थे, उसी दौरान इंडियन एक्सप्रेस के मुख्य संपादक अरुण शौरी के संज्ञान में आया कि लंबे समय पहले लखनऊ के प्रसिद्ध मुस्लिम धर्म शास्त्री अली मियां के पिता द्वारा लिखी गई एक उर्दू पुस्तक के अंग्रेजी अनुवाद से कुछ महत्वपूर्ण अंश हटा दिए गए हैं।

नेहरूवाद 3

उन्होंने 5 फरवरी 1989 के इंडियन एक्सप्रेस में एक लेख ,हाइडअवे कम्युनलिज्म लिखा था, जिसमें बताया गया था कि कैसे दिल्ली,जौनपुर,कन्नौज,इटावा, अयोध्या,वाराणसी और मथुरा में हिंदू मंदिरों के विनाश और उनके स्थलों पर मस्जिदों के निर्माण का वर्णन, स्वयं अली मियां द्वारा प्रकाशित अंग्रेजी अनुवाद से हटा दिया गया था। यह प्रतिष्ठित प्रेस द्वारा अब तक देखे गए मानदंड से हटकर एक नया और नाटकीय विचलन था। कुछ भी ऐसा प्रकाशित करना जो यह बताए कि इस्लाम उत्कृष्ट से कम था, लंबे समय से वर्जित था। मुझे सुखद आश्चर्य हुआ और मैंने अरुण शौरी को भारत का गोर्बाचेव  नाम दिया। उन्होंने पुराने नारों के बदबूदार कचरे से भरे घर में खिड़कियां खोल दी थीं और ताजी हवा को आने दिया था ।

मुझे तब और भी आश्चर्य हुआ जब उन्होंने मुझे अपने अखबार के लिए उस विषय पर मेरी जितनी भी जानकारी है उस पर एक लेख्य पत्र देने के लिए आमंत्रित किया। मैंने साम्यवाद,इस्लाम और ईसाई धर्म पर प्रलखित लेखों के साथ प्रतिष्ठित प्रेस में आने की बार बार कोशिश की थी लेकिन हर बार झिड़क दिये जाने पर छोड़ दिया था। मुझे बताया गया था कि महत्वपूर्ण प्रेस सिर्फ सम्मानित लेखकों के लिए था। मैंने उस सम्मानित कबीले का हिसाब रखा था। मैंने पाया कि उनमें से ज्यादातर सोवियत संघ,लाल चीन ,भारत के इतिहास, हिंदू समाज और संस्कृति,और इस देश में इस्लाम और ईसाई धर्म की उपलब्धियों के बारे में बड़े बड़े झूठ लिखते थे। इन योग्य लोगों में सबसे सफल हिंदू बेटर्स थे। उन्होंने हर हिंदू चीज़ पर कीचड़ उछालने के लिए मोटी रकम जमा की थी और वह भी हिंदू अमीरों के स्वामित्व वाले प्रेस में।

 मैंने अरुण शौरी से वादा किया था कि मैं बहुत जल्द एक लेख भेजूंगा। उन्होंने मुझे एक से अधिक लेख लिखने और विषय को पर्याप्त रूप से समाविष्ट करने के लिए कहा। इसलिए मैंने तीन लेख लिखे जो निर्विवाद इस्लामी स्तोत्रों से पूरी तरह से प्रलेखित थे, और यह दिखा रहे थे कि अन्य लोगों के पूजा स्थलों को नष्ट करना मध्ययुगीन काल में व्यवहारिक रूप से सभी मुस्लिम शासकों का पसंदीदा मनोरंजन था और इस्लाम में एक पवित्र प्रदर्शन था जिसकी मिसाल स्वयं पैगंबर द्वारा कायम की गई थी। पहला लेख 19 फरवरी 1989 को प्रकाशित हुआ थ। यह छह इस्लामी शिलालेखों की प्रतिकृति के साथ चित्रित किया गया था, जिसमें कहा गया था कि अल्लाह और पैगंबर ने हिंदू मंदिरों को गिराने और ज्यादातर मंदिरों के सामग्री से ही उनके स्थानों पर मस्जिदों के निर्माण को अपना आशीर्वाद दिया था ।

अरुण शौरी ने बड़ी हिम्मत दिखाई थी। लेकिन उन्होंने धर्मनिरपेक्षतावादी भीड़ की गणना नहीं की, जिसकी पहुंच इंडियन एक्सप्रेस के मालिक तक थी। उन्होंने मुझे फोन पर बताया कि कुछ दिक्कत होने वाली है। मैंने उनसे कभी भी परेशानी की प्रकृति के बारे में बात नहीं की और मुझे नहीं पता कि मेरे लेखों का अगले साल इंडियन एक्सप्रेस से उनके निष्कासन से कोई लेना देना है या नहीं। मुझे बस इतना पता है कि उन्हें मेरे अगले दो लेखों के प्रकाशन को थोड़ा धीमा करना पड़ा। उन्हें 19 फरवरी के बाद के हफ्तों में प्रकाशित होना था लेकिन वे 16 अप्रैल और 5 मई को प्रकाशित हुए।

 इस बीच 1989 के आम चुनावों के बाद अयोध्या आंदोलन ने गति पकड़ ली जिसमें भाजपा ने शानदार सफलता हासिल की थी। दिसंबर 1989 में बेल्जियम का एक नवयुवक, कोएनराड़ एल्स्ट मेरे कार्यालय में आया। उसने किसी किताब की दुकान से मेरी किताब ‘हिस्ट्री ऑफ हिंदू क्रिश्चियन एनकाउंटर’ की एक प्रति खरीदी थी और उसे पढ़कर मुझसे मिलने के लिए उत्सुक था। जिसे ‘हिंदू जागरण’ कहा जा रहा था हमने उसके चरित्र पर चर्चा की। मैंने उसे वॉइस ऑफ इंडिया के कुछ प्रकाशन दिए फिर वह अयोध्या और फिर वाराणसी चला गया। जब वह दो सप्ताह बाद लौटा तो उसने आश्चर्य व्यक्त किया कि उसे अयोध्या पर हिंदू मामले को प्रस्तुत करने वाली एक भी पुस्तक नहीं मिली। मैंने उसे बताया कि 1983 के अंत में एक वीएचपी नेता ने एक संगोष्ठी के बाद मुझे फोन किया था और पूछा था कि क्या मेरे पास इस बात का कोई सबूत है कि जहां बाबरी मस्जिद है वहां मंदिर मौजूद था। मुझे उम्मीद थी कि वीएचपी उसके बाद के छह वर्षों के दौरान कुछ साहित्य तैयार करेगा। हालांकि कोएनराड एल्स्ट इस बात से अवगत थे कि डॉ हर्ष नारायण और एच.के.चैटर्जी इस बीच इस विषय पर सकारात्मक सबूत लेकर सामने आए थे । फिर मैं उन्हें रामस्वरूप के पास ले गया,जैसा कि मैं हर उस व्यक्ति के साथ करता हूं जो मेरे पास आता है और हिंदू अभियोग के लिए सहानुभूति दिखाता है। अपने प्रस्थान की पूर्व संध्या पर, कोएनराड़ एल्स्ट ने मुझसे पूछा कि क्या मैं अयोध्या पर एक पुस्तक प्रकाशित करूंगा जिसे वह बेल्जियम लौटने पर लिखने की योजना बना रहा था। मैंने उसे गंभीरता से नहीं लिया। उस समय मुझे नहीं पता था कि हम जिस 31 साल के बेल्जियन से मिले थे वह एक विलक्षण व्यक्ति था और वह हिंदुओं के बारे में बहुत गहराई से महसूस करता था कि उनके पास एक अच्छा विषय है लेकिन उसे बहुत बुरी तरह से पेश किया जा रहा था।

उसकी राम जन्म भूमि बनाम बाबरी मस्जिद: हिंदू मुस्लिम संघर्ष- एक केस स्टडी ,का आलेख ठीक एक महीने बाद डाकिये ने मुझे पहुंचाई। जब मैंने उसे पढ़ना शुरू किया तो मैं रुक नहीं सका और उसी शाम उसे रामस्वरूप के पास ले गया। उन्होंने रात में इसे पढ़ा और अगली सुबह मुझे फोन किया। उन्होंने कहा कि कोएनराड़ एल्स्ट की किताब तुरंत प्रकाशित की जानी चाहिए।

मैंने अभी-अभी एक किताब प्रकाशित की थी- हिंदू टेंपल्स व्हाट हैपन्ड टू दैम- वॉल्यूम वन प्रेलिमनरी सर्वे।  इसमे इंडियन एक्सप्रेस में प्रकाशित अरुण शौरी, डॉ हर्ष नारायण,रामस्वरूप और मेरे लेख सम्मिलित थे। दो लेख जो जय दुबाशी ने ऑर्गेनाइजर में,अयोध्या में शिलान्यास के महत्व और  बर्लिन की दीवार गिरने पर  लिखे थे,वे भी इसमें जोड़े गए थे।मैंने इस पुस्तक के लिए एक नया अध्याय,लेट द म्यूट विटनेसेस स्पीक भी लिखा। इस अध्याय में लगभग दो हजार मुस्लिम स्मारकों की सूची है जो,साहित्यिक और/या पुरातात्विक साक्ष्य के अनुसार हिंदू मंदिरों के स्थल पर खड़े थे या और उनकी चिनाई में हिंदू मूर्तियां थीं। इस सूची में मुस्लिम स्मारकों का स्थान,  स्थानवार, जिलेवार और राज्यवार भी दर्शाया गया था। सूची अब प्रसिद्ध हो गई है, हालांकि यह केवल हिमशैल के सिरे को छूती है।

 कोएनराड़ एल्स्ट की पुस्तक भी तैयार होने के तुरंत बाद रामस्वरूप और मैं श्री एल.के.आडवाणी के पास गए और उनसे उनके एक सार्वजनिक समारोह में दोनों पुस्तकों के विमोचन का अनुरोध किया। वह सहमत हो गए, हालांकि वह सामान्य रूप से हिंदू मंदिरों के संकलन के बारे में बहुत उत्सुक नहीं थे। उन्होंने 13 अगस्त 1990 को सार्वजनिक समारोह का उपयोग करते हुए यह  घोषणा की कि वे वाराणसी में विश्वनाथ मंदिर और मथुरा में कृष्ण जन्म भूमि के स्थलों पर अपने दावों को छोड़ने के लिए वीएचपी को मनाने की कोशिश करेंगे, बशर्ते मुसलमान अयोध्या में राम जन्मभूमि स्थल को छोड़ने के लिए सहमत हों।साथ ही  उन्होंने मुझे कड़ी भाषा का प्रयोग करने के लिए फटकार लगाई और कहा-” सीताराम जी तो तीखे हो जाते हैं।” मुझे आश्चर्य हुआ कि क्या उन्होंने मंदिरों पर किताब में मेरे लेख पढ़े हैं। एक मित्र जो मेरी पहले की शैली को जानता था और पसंद करता था उसने मुझे अपनी शैली को विद्वतापूर्ण बनाने के लिए झिड़का। वहां मौजूद लोग अवाक रह गए। समारोह की अध्यक्षता कर रहे गिरीलाल जैन ने यह कहते हुए कोई संकोच नहीं किया कि हिंदू सहिष्णुता ज्यादातर समय हिंदू कायरता से अधिक कुछ नहीं थी। लेकिन अगली सुबह प्रेस में इसमें से कुछ नहीं छपा। सिर्फ आडवाणी का प्रस्ताव था जो पहले पन्ने की खबर बना था।

 डॉ हर्ष नारायण और कोएनराड़ एल्स्ट ने प्रलेखित किया था कि कैसे सैयद शहाबुद्दीन ने अयोध्या में राम मंदिर के विनाश के सबूत के संबंध में अपना आधार बदल दिया था। लेकिन वह भाजपा विहिप गठबंधन अधिक सबूत देने को तैयार था। वास्तव में हिंदू विद्वानों ने जितने मजबूत सबूत दिए, मुसलमानों की मांग उतनी ही अधिक ठोस होती गई। अयोध्या आंदोलन के नेता मेरी बार-बार की चेतावनी के बावजूद, कि हिंदुओं को सवाल करना चाहिए और मुसलमानों को जवाब देना चाहिए,शहाबुद्दीन जैसे लोगों द्वारा बिछाए गए जाल में फँस गए थे । लेकिन यह नेता विदेशों में निर्दोष थे, जिन्हें इस्लामी धर्मशास्त्र या इस्लामी इतिहास का कोई ज्ञान नहीं था। स्थूल अज्ञान अक्सर वह  तिनका होता है जिससे आशावाद जुड़ा रहता है।इस पूरे प्रकरण के दौरान मुस्लिम नेता  अपने सामने खड़े हाथ जोड़े हिंदू भिखारियों को नीची दृष्टि से देखते रहे। मेरा विचार था कि नए राम मंदिर का निर्माण तब तक इंतजार कर सकता है जब तक भाजपा को लोगों से जनादेश नहीं मिल जाता। मैंने सोचा की पहली प्राथमिकता लोगों को इस्लाम के बारे में शिक्षित करना है। लेकिन अब तक अयोध्या में राम मंदिर वीएचपीबीजेपी गठबंधन के लिए अपने आप में एक मुद्दा बन गया था। वह कितनी भी तरकीबें आजमाने के लिए तैयार थे, कितने भी झूठ बोलने और कितना भी अपमान सहने के लिये तैयार थे  अगर वे अयोध्या में अपना मुद्दा पूरा कर सकें।

मुझे बाकी की कहानी सुनाने की जरूरत नहीं है जो कि जग-जाहिर है।अयोध्या आंदोलन के नेता जल्द ही उच्च स्वरों में घोषणा कर रहे थे कि इस्लाम अन्य लोगों के पूजा स्थलों को नष्ट करने की अनुमति नहीं देता है। उन्होंने मेरी किताब-‘ हिंदू टेंपल व्हाट हैपन्ड टू देम- वॉल्यूम टू -इस्लामिक एविडेंस ,पर कोई ध्यान नहीं दिया, जिसमें मैंने पवित्र मुस्लिम इतिहासकारों द्वारा लिखे गए कई इतिहासकारों को उद्धृत किया था, जो मुगल वंश के पतन तक हिंदू मंदिरों को नष्ट कर रहे थे और उनकी जगह मस्जिद बना रहे थे, जो मुस्लिम शासकों का पसंदीदा खेल था। मैंने इस पुस्तक में एक अध्याय- इस्लामिक थियोलॉजी ऑफ इकोनेक्लासम, को भी शामिल किया, यह साबित करने के लिए कि अन्य लोगों के पूजा स्थलों को नष्ट करना इस्लाम में एक पवित्र प्रदर्शन था क्योंकि पैगंबर ने खुद अरब में सभी पूर्व इस्लामी मूर्तिपूजक मंदिरों को नष्ट कर दिया था। अयोध्या आंदोलन के नेता मुसलमानों को स्वेच्छा से रामजन्मभूमि स्थल से अलग होने के लिए मनाने के लिए इस्लाम की चापलूसी करने के लिए लगे हुए थे, हालांकि इसका कोई परिणाम नहीं निकला।

 मैंने संघ परिवार के लोगों को बार-बार यह कहते हुए सुना कि कांग्रेस  मुसलमानों के साथ सही व्यवहार करना नहीं जानती है। वह मुसलमानों को यह बताते रहते हैं  कि जहां कांग्रेस उन्हें केवल वोट बैंक के रूप में देखती है,वहीं संघ परिवार उन्हें इंसानो और इमानदार मुसलमानों के रूप में सम्मानित करता है। वह मुसलमानों से भाजपा के लिये रैली करने की अपील कर रहे थे। मुझे एक चीनी कहानी याद आ रही है। एक जमींदार को अपनी पत्नियों का गला घोंटने की आदत थी। हर बार जब वह अपनी एक पत्नी का गला घोंटता तो दूसरी औरत उससे शादी करने के लिए आगे आ जाती। जब लोग नई महिला को बताते कि कैसे उसने पहले ही कितनी महिलाओं का गला घोंट दिया था तो वे उत्तर देती-” वे इस प्यारे इंसान को नहीं समझतीं” और फिर उनमें से प्रत्येक का अपनी बारी में गला घोंट दिया गया

अंग्रेजी से हिंदी अनुवाद- रागिनी विवेक अग्रवाल

Another Kerala Catholic diocese condemns Love Jihad being used by terrorist organisation to target girls

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A letter from the Catholic diocese at Thalassery has expressed deep concern about love seeds being planted by terrorist organisations that target Christian girls, stating that the need of the hour is all should pray for the hapless parents who turn helpless when their children fall to such baits.

Archbishop Mar Joseph Pamplani asked the laity to fervently pray for this during the eight days lent that is currently on and awareness should be there so the young minds do not fall into such traps.

The fresh call has come in the wake of increasing number of cases being registered in drug trafficking and also especially regarding students getting hooked to it.

The last time such a statement came out about was when the Pala Diocese Bishop Mar Joseph Kallarangat spoke about ‘Love Jihad’ and pointed out that the young generation is being misled by narcotic-loving jihadists.

And after that all hell broke loose in the state and came contrasting opinions to it, when many observed that no such thing exists in the state.

Incidentally, in the recently-concluded special Assembly session, Chief Minister Pinarayi Vijayan had informed the Assembly that the startling facts that showed a drastic increase of registering of cases related to drug cases when it jumped four times and sees he this as a very grave issue and will take strong measures to tackle this.

He pointed out that in 2020, there were 4,650 drugs related cases registered by the excise department and police, and in 2021 it reached 5,334 cases and till August 20 this yea, 16,128 cases were registered.

Likewise, in 2020, 5,674 people were arrested, in 2021 there were 6,704 arrests made and till August 29, 17,834 people have been arrested.

He went on to point out that this year so far, 1,340 kilograms of ganja, 6.7 kgs of MDMA and 23.4 kgs of hashish oil have been confiscated.

(The story has been published via a syndicated feed with a modified headline.)

SC seeks Centre’s reply on pleas for uniform marriage age, divorce, alimony, succession

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Supreme Court

The Supreme Court on Monday gave three more weeks to the Central government to file its responses on separate PILs seeking uniformity in marriage age, divorce, maintenance, adoption, succession, and inheritance for all communities.

A bench, headed by Chief Justice U.U. Lalit and comprising Justice S. Ravindra Bhat, queried whether a mandamus can be issued to the legislature regarding making a law. However, counsel for an intervenor urged the top court to dismiss the petitions saying identical petitions were filed by advocate Ashwini Upadhyay which also included petition seeking directions to draft a Uniform Civil Code (UCC), which was first filed in the Delhi High Court and sought to be transferred to the SC.

At this, Chief Justice Lalit said: “Yes, I agree all these are various facets, components of the UCC.”

Solicitor General Tushar Mehta, appearing for the Centre, requested time to file response in the matter. The intervenor’s counsel urged the court to dismiss the petitions.

Upadhyay clarified his earlier plea was related to the UCC, which was withdrawn to make a representation to the Law Commission.

The top court said that it appears from the arguments raised here that identical issues are pending in this court. “Details of such petitions may be placed on record by the petitioner by the next date of hearing,” it said, and asked the Centre to file its response in the matter.

The petitions sought uniform grounds for divorce, alimony, and maintenance and remove discriminatory procedure prevailing in different communities, which violates fundamental rights to equality.

The apex court had earlier tagged together PILs seeking uniform marriage age, divorce, maintenance, adoption, succession, and inheritance for all communities.

The petitions argued that discriminatory practices existing within personal laws, which violate Article 14, and Article 21, which promises the right to dignity, and also Article 15, which prohibits discrimination. The petitions contended that such practices place women at an inferior position to men.

(The story has been published via a syndicated feed.)

Love Jihad happening on large scale in Amravati: RS MP Anil Bonde

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jihad

RS MP Anil Bonde has alleged that large-scale love jihad (grooming) is occurring in Amravati. He has also asked members of the Muslim community to keep control over their boys who lure and trap Hindu girls. Bonde alleged 20 cases of love jihad have come to the fore in which many girls have gone missing after marriage. He further alleged that several girls are pushed into prostitution.

He cited the latest case of love jihad from Amravati’s Dharani where a Muslim youth trapped a Hindu girl and married her. He also said there has been another case where the police have been unable to trace a girl who went missing after her wedding. He warned it doesn’t augur well if Hindu girls continue to be misled by Muslim boys.

He released a video citing the case of a recently married girl who was rescued by Bajrang Dal (BD) and Vishwa Hindu Parishad (VHP) activists recently. She married an ambulance driver and was sent back to her family after being rescued. The highly-educated Hindu girl was forcibly married by the Muslim youth who has only studied up to the ninth standard.

It has further been alleged that the girl’s permission wasn’t sought in this matter. Bonde revealed the girl’s health isn’t fine and she is undergoing treatment at the general hospital where Bonde visited her. It further came to light that the organization and lawyer who conducted the marriage are bogus.

Bonde had a message for the Hindu society. He asked Hindu girls not to fall for any inducement which may possibly destroy their lives. He said chemist Umesh Kolhe’s murderer Shaikh Irfan was also accused of love jihad. He said Irfan raped a married Hindu woman in Indore after making her unconscious using chloroform. In view of these facts, Bonde has demanded police conduct a thorough combing operation in Amravati.

(Featured Image Source: Loksatta)

Irish regulator fines Instagram $402 mn over kids’ privacy violation

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Meta-owned photo and video-sharing platform Instagram has been fined 405 million euros ($402 million) by the Irish Data Protection Commission for violations of the General Data Protection Regulation.

The fine, the second-highest under the GDPR after a 746 million euros penalty against Amazon, is the third for a Meta-owned company handed down by the Irish regulator, reports Politico.

“This inquiry focused on old settings that we updated over a year ago, and we’ve since released many new features to help keep teens safe and their information private,” a Meta spokesperson was quoted as saying.

“Anyone under 18 automatically has their account set to private when they join Instagram, so only people they know can see what they post, and adults cannot message teens who do not follow them. We engaged fully with the DPC throughout their inquiry, and we are carefully reviewing their final decision,” the spokesperson added.

In an emailed statement, the Irish DPC confirmed the penalty but declined further comment.

The regulator imposed the fine after having to trigger a dispute-resolution mechanism to resolve other European data protection authorities’ input on the penalty.

The penalty, currently the highest for a Meta-owned company — after a 225 million euros fine for WhatsApp and a 17 million euros fine for Facebook — is aimed at Instagram’s violation of children’s privacy, including its publication of kids’ email addresses and phone numbers.

(The story has been published via a syndicated feed.)

मध्य प्रदेश खंडवा में एक लड़की को दी जा रही है जांबाज मंसूरी से एसिड डालने की धमकी तो वहीं जबलपुर में भी आया लव जिहाद का मामला

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लव जिहाद के मामले अब और मुखर होकर आ रहे हैं। अब तो दुस्साहस यहाँ तक है कि लड़कियों को बात न मानने पर सरेआम मारने की धमकी दी जा रही है। हिन्दू लड़कियों को नष्ट करने का दो तरफ़ा अभियान है, या तो बात मानो या फिर मरने के लिए तैयार रहो! दोनों ही मामलों में लड़की का विनाश निश्चित है। इन दोनों मामलों को देखने पर उस दुस्साहस पर विचार करना ही चाहिए कि आखिर क्या कारण है कि पूरा का पूरा परिवार ही हिन्दू लड़की को मुस्लिम बनाने पर तुल जाता है, न ही किसी क़ानून का भय है और न ही दंड का!

मध्यप्रदेश में खंडवा में जांबाज मंसूरी ने एक नर्सिंग की छात्रा के अपहरण का प्रयास किया। उसने लड़की के सिर पर फूल बिखेर दिए और फिर कहा कि वह उससे शादी करे। धर्म बदले और उसके साथ चले। इतना ही नहीं उसने लड़की का हाथ पकड़कर बाइक पर बैठा लिया, मगर जैसे ही वह बाइक की स्पीड बढ़ाता, उससे पहले ही लड़की कूद गई और शोर मचाने लगी। भीड़ को देखकर वह भाग गया, हिन्दू संगठन इस मामले की जानकारी मिलते ही वहां पर पहुँच गए।

भास्कर के अनुसार लड़की ने कहा कि

मैं शहर के एक प्राइवेट नर्सिंग कॉलेज में फर्स्ट ईयर की स्टूडेंट हूं। सोमवार दोपहर 3 बजे मैं अपने घर आशापुर जा रही थी। गांव का ही मोनू उर्फ जांबाज मंसूरी एक साल से परेशान कर रहा है। जब मैं हरसूद कॉलेज में पढ़ती थी, तब भी वह पीछा कर रास्ता रोकता था। वह शादी के लिए दबाव डालता था। मैंने अपने परिवार को भी ये बात बताई थी। मेरे परिजनों ने आरोपी के पिता पीरू मंसूरी के घर जाकर शिकायत भी की थी। कुछ दिन पहले आरोपी ने मेरा मोबाइल नंबर किसी से ले लिया। वो मुझे वाट्सऐप पर मैसेज करने लगा। कहता है शादी कर लो, वरना परिवार को जान से मार दूंगा। उसने कई बार बंदूक और पिस्तौल हाथ में थामे हुए फोटो भेजे और धमकाया कि धर्म परिवर्तन करके शादी कर लो, नहीं तो गोली मार दूंगा। पिछले महीने भी उसने खंडवा आकर रास्ता रोक लिया था, तब मुंह पर एसिड फेंकने की धमकी दी थी।

यह कितना दुस्साहस है कि हिन्दुओं की लड़कियों को यूंही उठा लेने की धमकी भी कोई दे देता है और धमकी देता ही नहीं है, बल्कि अमल में भी ले आता है। क़ानून, सजा आदि किसी का भी डर नहीं, कौन देता है ऐसे वर्ग को यह साहस? कौन करता है समर्थन? समर्थन के लिए पूरी की पूरी लॉबी है!

वहीं मीडिया के अनुसार आरोपी 9 महीने पहले भी लव जिहाद के मामले में जेल गया था, अभी जमानत पर बाहर है और फिर इस घटना को अंजाम दिया

एक पैटर्न है कि लड़की के साथ नकली नाम के साथ पहले दोस्ती करो, प्रेम प्रसंग करो और फिर फोटो सबूत के लिए रखे जाएं कि लड़की तो प्यार करती थी। जबकि अधिकाँश मामलों में लड़की उस हिन्दू नाम से दोस्ती करती है, जो उसे बताया जाता है। और फिर उन तस्वीरों के माध्यम से लड़की को चरित्रहीन घोषित किया जाता है, या फिर मुस्लिम पहचान सामने आने के बाद लड़की को प्रताड़ित करने के बाद मुस्लिम लड़कों को क्लीनचिट देने के लिए उन तस्वीरों का प्रयोग किया जाता है।

हिन्दुओं की नैतिक ब्रिगेड उन तस्वीरों की सत्यता जाने बिना लड़की को कोसने लगती है

यह भी दुखद है कि हिन्दुओं का एक बड़ा वर्ग है, जो नैतिकता के नाम पर उन तस्वीरों की सत्यता जांचे बिना उन लड़कियों को ही दोषी ठहराने लगता है। जैसा हाल ही में झारखंड की अंकिता के मामले में देखा गया था!

जबकि यह ऐसा जाल है जिसमें लड़कियों को पाठ्यक्रम की पुस्तकों से लेकर साहित्य एवं फिल्मों हर माध्यम से फंसाया जाता है। जो मातापिता अपनी बच्चियों को पाठ्यक्रम की पुस्तकों में बार बार यही रटवाते हैं कि हिन्दू धर्म में लड़कियों का शोषण किया जाता था, मुग़ल काल महान था और अंग्रेजों ने सती प्रथा पर रोक लगाई थी, और धर्म के स्थान पर फिल्मों का विमर्श करते हैं, वह भी अपनी बेटियों को भ्रमित करने में कहीं न कहीं सहायक होते हैं।

ऐसे में लडकियां पहले ही भ्रमित होती हैं, अपने ही धर्म के प्रति ऐसी भावना से भरी होती हैं, जिसमें कई गलत जानकारियाँ होती हैं, ऐसे में कई बार रूमानियत भी उसी मजहब से आ जाती है क्योंकि फिल्मों में सूफी गाने ही मोहब्बत का पर्याय बन गए हैं।

लड़की को चारों ओर से घेरकर ऐसा कर लिया गया है, कि बहुत बार उन्हें समझ ही नहीं आता है कि उनके साथ क्या हो सकता है। परन्तु फिर भी एक बड़ा वर्ग ऐसी लड़कियों का हैं जो ऐसी तमाम ब्रेन वाशिंग के बाद भी संघर्ष करता है, जैसा खंडवा की उस लड़की ने किया और पुलिस में रिपोर्ट कराई।

जैसा जबलपुर की उस लड़की ने किया जिसे अपनी शादी के बाद पता चला उसका पति दरअसल उसके धर्म का नहीं है और उसने झूठ बोलकर शादी की थी। इसमें भी वही कहानी है कि लड़की के साथ पहले वह छेड़छाड़ करता था और बहलाफुसला कर प्रेम जाल में फंसाया, और मंदिर में वर्ष 2021 में शादी कर ली थी। मगर जब महिला ने फतेहपुर (पति के निवास स्थान) जाने की इच्छा जाहिर की तो वहां जाकर उसकी आँखें फटी की फटी रह गईं क्योंकि वह संजय न होकर असलम निकला। वही उस महिला का भी धर्म बदलने का दबाव परिवार ने डाला।

वह महिला किसी तरह से जबलपुर पहुँची और रांझी थाने में रिपोर्ट दर्ज कराई!

यह दोनों ही घटनाएं उस दुस्साहस की कहानी हैं, जिसमें न ही भारतीय क़ानून का डर है और न ही दंड का खौफ! और यह इसलिए भी है क्योंकि कहीं न कहीं उन्हें भी पता है कि लड़की को चारित्रिक रूप से हानि पहुंचाकर वह हिन्दुओं के एक बड़े नैतिक वर्ग को उसी लड़की के विरुद्ध खड़ा कर देंगे, जो दरअसल अकादमिक, साहित्यिक, फ़िल्मी एजेंडे के साथ साथ नैतिक दोहरे मापदंड का शिकार हो रही हैं!

यहाँ पर उन महिलाओं की बात नहीं हो रही है, जो किसी एजेंडा को खुद चलाती हैं, बल्कि यहाँ पर उन पीड़ित लड़कियों की बात हो रही है जिन्हें वास्तव में ऐसे जाल में फंसा लिया गया है, जहां से बाहर निकलना अत्यंत कठिन है! वह कल्चरल जीनोसाइड से लड़ रही हैं, वह उस संहार से लड़ रही हैं, जो उनकी धार्मिक पहचान मिटाने को उतारू है!

फीचर्ड इमेज: दैनिक भास्कर

AAP Govt too holds back trial of corrupt officials in Rs 1,000 crore GST scam in Punjab

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The AAP Government in Punjab is sitting over a request of the state’s Vigilance Bureau for sanction to prosecute a large number of senior excise and taxation officers accused of corruption in the collection of Goods and Services Tax (GST) due to which the cash-strapped state has been cheated of over Rs 1,000 crore in revenue.

The Punjab Vigilance Bureau registered two FIRs in the year 2020 and exposed a nexus between a divisional excise and taxation commissioner (DETC), 3 assistant excise and taxation commissioners, and 11 excise and taxation officers (ETOs). Two transporters who represented the truckers in the state have also been booked in the case as they played a key role in the scam.

The corruption scandal was detected in 2020 but was going on at least two or three years prior to this as well, senior officials said.

The Vigilance Bureau after completing the investigation filed a challan in the special court, Mohali on September 26, 2020 but the trial of the accused could not start as the sanction for the prosecution from the then Congress government in the state led by Captain Amarinder Singh was held back.

As many as 34 times the judge has taken up the matter for further hearing since the case was filed in 2020 but each time he was informed that the sanction from the government has not come through. While this had been happening in the case of the Congress government which had been accused of large-scale corruption, things were expected to change with the AAP government caming to power. However, the Bhagwant Mann government which had vowed to root out corruption in the state also appears to be dragging its feet over granting sanction for prosecution so that the trial can proceed in court.

The sanctioning authority, in AAP government now is Finance Minister Harpal Singh Cheema who also holds the charge of the Excise and Taxation Department.

Cheema when contacted on phone by Indian Narrative on Sunday said, “it is an old case, and I don’t remember anything about it. I will have to check with my office before I answer your question.”

An email was sent to the financial commissioner, taxation Mr. Ajoy Sharma on Friday to know why the sanction for prosecution was not being granted, but he did not reply.

The modus operandi of the accused officers was to allow trucks belonging to certain transporters to pass tax barriers without paying GST or to undervalue goods that were loaded. The services of some “passer boys” were taken who would in advance contact the excise officer concerned on his mobile phone informing him that such and such number of loaded trucks entering or leaving Punjab belonged to a particular transporter. This was a sufficient indication for the officer that the trucks were to be cleared without much ado.

Those whom VB is seeking to prosecute are Simranjit Singh, DETC, Piara Singh, ETO, Moga, Ravinanadan, ETO, Fazilka, Varun Nagpal, ETO, Muktsar, Kalicharan, ETO, flying wing Chandigarh, Satpal Multani, ETO, Faridkot, Ved Parkash Jakhar, ETO, Fazilka, Lakhbir Singh, ETO, mobile wing, Amritsar 1, Japsimran Singh, ETO, Amritsar, Dinesh Gaur, ETO, Amritsar, Sushil Kumar, ETO, Patiala, and Ram Kumar, Inspector, mobile wing, Jalandhar.

The investigating officer, Ashish Kapoor, the then AIG VB, informed the court through the challan that the phone calls of the accused with transporters Vijay Kumar of Ludhiana and Somnath of Phagwara were secretly recorded to reach the truth. The transcript of the recorded calls was presented in court wherein payment of bribes was openly discussed and confirmed.

It was found that transporter Vijay Kumar Ludhiana who uses the phone number 9878000023 repeatedly called different excise officers to facilitate the passage of trucks. The calls were made to 9698200092, 9872031169, 7307404445, 988800858, and 9463415573 on different dates. All these phone numbers were owned by and were being used by the accused excise officers.

Similarly, transporter Somnath who uses phone number 9876400527 was in constant touch with different excise officers for the same purpose. He made calls to 9817387906, 9803000527, 9915447544, 9463255599, 9914877877, 9465100800, 8054352014, and 9814119965 on different dates. Again, all these phone numbers were registered in the names of the accused officers.

Sources disclosed that the Vigilance Bureau somehow allowed two IAS officers then posted with the excise department, to go scot-free whose role in the GST scandal came under a cloud. Even the name of one IPS officer cropped up but no further action was taken against him.

Bhavneet Kaur, Commissioner GST, did not reply to a question sent to her via WhatsApp message whether the accused officers were still in service despite corruption cases having been registered against them.

(The story has been published via a syndicated feed.)

Ahmedabad youth Hitesh Rathod murdered, family accuses Muslim wife’s family which was pressurising him to convert

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The body of a youth, with injury marks on his body and his throat slit, was recovered from the Sabarmati river in Ahmedabad on Monday morning, police said.

Police is investigating to find who murdered the youth and whether his inter-faith marriage was a reason behind the murder, as his family alleged.

Ahmedabad Riverfront East Police Inspector V.D. Zala said: “After the body was fished out, it was identified as of Hitesh Rathod, who is in early 20s. Married to Afsana Banu, he had, on Sunday afternoon, dropped off his wife at a market in the old city area and then had gone missing. Later when his wife called him, his phone was switched off.”

Police Commissioner Sanjay Srivastava said it is definitely it is a murder case, but it too early to say who murdered him and why.

Rathod’s family suspects that Afsana Banu’s family can be behind the murder, because they were pressurising Rathod to convert to Islam.

However, defending her parents and family, Afsana Banu told the local media that her parents can’t be behind her husband’s murder, because they supported the couple getting their love marriage registered. They got married this May, but were in a relationship for more than one year.

Zala said that police have sent the body for a post-mortem examination, all aspects in the murder will be investigated, and both sides’ statements will be recorded.

(The story has been published via a syndicated feed with a modified headline.)