एआईएमआईएम के नेता अकबरुद्दीन ओवैसी के कारण पिछले दिनों से औरंगजेब की कब्र चर्चा में है। वह औरंगजेब की कब्र पर गए और फील चढ़ाए और फातिहा पढ़ा।
यह अपने आप में बहुत ही हैरान करने वाला तथ्य है क्योंकि औरंगजेब का दक्कन में आना अपने आप में उसकी सबसे बड़ी पराजय थी। औरंगजेब का शासनकाल भले ही लम्बा रहा हो, परन्तु दक्कन पर कब्जा कर पाना उसके लिए दुसाध्य क्या असंभव रहा था। शिवाजी के आगरा से वापस जाने के उपरान्त औरंगजेब जैसे हार मान बैठा था। परन्तु शिवाजी की असमय मृत्यु ने उसके दिल में एक आस जगा दी थी कि वह दक्कन पर अधिकार स्थापित कर लेगा।
आज जब हम अकबरुद्दीन की औरंगजेब की कब्र की यात्रा की बात कर रहे हैं, तो क्या संयोग है कि आज ही शिवाजी के पुत्र संभा जी महाराज की जयंती मना रहे हैं!
शिवाजी और उनके पुत्र ने औरंगजेब के सपने को तोडा ही नहीं था, बल्कि पूरी तरह से चकनाचूर कर दिया था। शिवाजी ने जहाँ औरंगजेब को चुनौती देना आरंभ किया तो वहीं संभा जी उस चुनौती को और आगे लेकर गए। वर्ष 1681 में संभा जी को तमाम राजनीतिक उठापटक के उपरान्त अपने पिता का सिंहासन प्राप्त हुआ था। और उन्होंने फिर औरंगजेब को चैन नहीं लेने दिया।
कहा जाता है कि जब संभा जी को औरंगजेब पराजित नहीं कर पाया तो उसने कसम खाई कि वह अपना किमोंश (पगड़ी) नहीं पहनेगा। हालांकि संभा जी को पराजित करना औरंगजेब के लिए टेढ़ी खीर बन गया था, फिर भी वह छल का शिकार हुए और औरंगजेब ने उन्हें बंदी बना लिया।
उन्हें कवि कलश के साथ बंदी बनाया गया था और उन पर मुस्लिम बनने का दबाव बनाया जाने लगा।
उन्हें असंख्य यातनाएं दी गईं, जब उन्होंने किसी भी स्थिति में इस्लाम स्वीकारने से इंकार कर दिया और फिर
“औरंगजेब ने इससे क्रोधित होकर आदेश दिया, की संभाजी के घावों पर नमक छिड़का जाए। और उन्हें घसीटकर औरंगजेब के सिंहासन के नीचे लाया जाए। फिर भी संभाजी लगातार भगवान् शिव का नाम जपे चले जा रहे थे। फिर उनकी जीभ काट दी गई और आलमगीर के पैरो में राखी गयी, जिसने इसे कुत्तो को खिलाने का आदेश दे दिया।”
जब वह फिर भी नहीं झुके तो औरंगजेब ने उनके हाथ भी काट दिए और उन्हें अंधा कर दिया। पंद्रह दिनों तक ऐसी यातनाएं देता रहा था औरंगजेब, परन्तु वह उन्हें इस्लाम में नहीं ला पाया था। फिर अंतत: 11 मार्च 1689 को संभा जी ने अपने धर्म का पालन करने के लिए प्राणोत्सर्ग कर दिए थे।
परन्तु औरंगजेब का अट्टाहास भी विचलित न कर सका था मराठा हिन्दू शक्ति को, उसके लिए काल बनकर आई थीं शिवाजी की बहू ताराबाई!
अपने सबसे बड़े शत्रु शिवाजी की असमय मृत्यु एवं उनके पुत्र संभा जी को तड़पा तड़पा कर मृत्यु के घाट उतारने वाला औरंगजेब अब निश्चिन्त था कि वह मराठों को हरा देगा और जीवन के अंतिम दिनों में जो स्वयं से वादा किया था कि उत्तर से दक्खन तक वह मुग़ल शासन को स्थापित कर देगा! मगर शिवाजी के छोटे पुत्र ने उसका यह स्वप्न धूमिल कर दिया! औरंगजेब अब दक्खन में बेचैन होने लगा था। उसे बार बार शिवाजी का अट्टाहस याद आ रहा था जिसमें उसने कहा था कि मैं रहूँ या न रहूँ, मराठा कभी भगवा ध्वज झुकने नहीं देंगे! वर्ष 1689 में राजाराम ने छत्रपति तृतीय के रूप में सिंहासन सम्हाला!
परन्तु वह मात्र ग्यारह वर्ष ही शासन कर सका और उन ग्यारह वर्षों में भी मुट्ठी भर मराठों ने मुग़ल सेना के सामने समर्पण नहीं किया! वह लड़ते रहे, कभी जीतते, कभी हारते, कभी हारकर जीतते, तो कभी जीतकर हारते! मगर समर्पण नहीं किया! शिवाजी के आदर्श उनके साथ थे। औरंगजेब वर्ष 1683 से ही दक्कन में डेरा डाले था। उसे भान भी नहीं था, कि जिस मराठा शासक के लिए उसने आगरा में जाल बिछाया था, वह मरने के बाद उसे दक्कन के जाल में फंसा जाएगा, और ऐसे जाल में कि वह अंतिम सांस भी अपनी राजधानी से दूर लेगा!
राजाराम की मृत्यु के उपरान्त औरंगजेब ने चैन की एक बार फिर सांस ली और सोचा कि अब तो शायद सपना पूरा हो! मगर इस बार फिर उसके सपने को शिवाजी के मूल्यों से हार माननी थी। इस बार उसके सामने डटकर खड़ी हुई राजाराम की विधवा रानी ताराबाई!
रानी ताराबाई ने स्वतंत्र मराठा साम्राज्य में साँस ली थी, और उसे पता था कि स्वाधीनता की उन्मुक्त हवा और गुलामी की गंधाती हवा में क्या अंतर है! उसने अपने पति की मृत्यु का शोक नहीं किया बल्कि निराश मराठा सेना में एक प्रेरणा का संचार किया! उसने अपने पति राजाराम के साथ मिलकर गुरिल्ला युद्ध की सभी तकनीकें सीखी थीं! वह तलवारबाजी, तीरंदाजी, प्रशासन आदि सभी कार्यों में पारंगत थी। उसने पूरे छ वर्षों तक मुग़ल सेना को रोके रखा और औरंगजेब के दक्कन पर अधिकार के सपने को ध्वस्त किया। वर्ष 1707 में दक्कन पर अधिकार की ख्वाहिश लिए औरंगजेब की मृत्यु हो गयी! वह अंतिम पचीस वर्षों तक दक्कन रहा!
विडंबना यह है कि उसने यह चाहा था कि शिवाजी अपनी मातृभूमि और परिवार से दूर मृत्यु का ग्रास बनें, उनके परिवार का कोई इंसान उनके साथ न हो, मगर बादशाह कण कण में वास करने वाले भगवान के न्याय से शायद परिचित नहीं था,शिवाजी को तो नहीं बल्कि उसे ही अपने जीवन के अंतिम दिन अपने परिवार सेदूर, अपनी मिट्टी से दूर काटने पड़े!
और उसे इस अंजाम तक पहुंचाने में ताराबाई का योगदान भी काफी था!
मुगलों की महानता का गान गाने वाले इतिहासकारों और अकबरुद्दीन जैसे नेताओं को यह स्मरण रखना चाहिए कि औरंगजेब की कब्र का स्थान ही उसकी सबसे बड़ी पराजय का प्रतीक है! वह जीवन के अंतिम वर्षों में दक्कन में पड़ा रहा, वह ताराबाई को पराजित करने की मंशा में रहा परन्तु उसकी मृत्यु अपने परिवार से दूर उसी प्रकार हुई, जैसी मृत्यु उसने शिवाजी को देने की सोची थी।
अकेली, परिवार से दूर, और दिल्ली के मौसम से दूर!
इसलिए औरंगजेब की कब्र मुगलों की सबसे बड़ी हार है और सबसे बड़ा शर्म का विषय है!