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Thursday, June 1, 2023

मंगल पाण्डेय: नायकों के नायक

स्वतंत्रता की चाह अब अपने प्रचंड रूप में प्रज्ज्वलित हो चुकी थी। वह वर्ष भारत के इतिहास में एक नया अध्याय लिखने के लिए व्यग्र था। वर्ष 1857 कई नायकों को जन्म देने वाला था।  परन्तु उस वर्ष भारत के मानचित्र पर एक ऐसी घटना घटित होने वाली थी, जो युगों युगों तक स्वतंत्रता की लौ जलाए रखने वाली थी और साथ ही वह वर्ष नायकों के साथ की जाने वाले कायरता का भी वर्ष था।  आठ अप्रेल 1857 भी ऐसी ही तिथियों में से एक तिथि थी, जो इतिहास में दर्ज होने वाली थीं।  परन्तु आरम्भ कहीं और से था।

मंगल पाण्डेय, एक साधारण सिपाही थे। वह क्रान्ति की चिंगारियों से स्थिर और ठहरे जल में ऐसा तूफ़ान ला सकते थे जिससे भय खाकर  वह अंग्रेजी साम्राज्य हिल जाता, जिसका सूरज कभी डूबता नहीं था। पर डूबने का आरम्भ उसी दिन से होना था।  वह देश में स्वतंत्रता का मंगल गान चाहते थे।  वह अंग्रेजी सेना में भर्ती हुए थे, देश सेवा के लिए ही। परन्तु उन्हें दूसरी तरह से देश सेवा करनी थी। उनके हृदय में देश के प्रति जो समर्पण था, वह दूसरी तरह से सामने आना था।

बेहद गठीली देह के स्वामी मंगल पाण्डेय, अपनी देश की सेवा में लग गए। परन्तु शीघ्र ही उन्हें यह ज्ञात हो गया था कि उनकी राह कहीं और है।  मंगल पाण्डेय 34वीं बंगाल नेटिव इन्फेंट्री के अंतर्गत बैरकपुर में अपनी सेवा दे रहे थे। इसके साथ ही वह संभवतया असंतुष्ट भी रहे होंगे, कुछ तो करना ही चाहते होंगे। परन्तु इस असंतोष को हवा दी उस सूचना ने, जिसे सुनकर उनकी देह क्रोध से भर गयी।

मंगल पाण्डेय के बटालियन को एनफील्ड पी 53 राइफल दी गयी थी। जो एक .877 केलिबर की बन्दूक थी। इस बन्दूक के कारतूस के विषय में कहा गया कि इन्हें मुंह से खींचना होगा और इसमें गाय और सूअर के चर्बी मिली थी। गाय की चर्बी और मुँह से खींचना? यह एक ऐसी घटना थी, जिसने मंगल पाण्डेय को पूरा हिला कर रख दिया। क्या इन लोगों में हमारे धर्म के प्रतीकों या फिर कहें कि बहुसंख्यक समुदाय के लोगों की भावनाओं के प्रति आदर नहीं है। वह हमें कीड़ा मकोड़ा समझते हैं क्या? संभवतया उसी क्षण वह चिंगारी पैदा हुई होगी जिसकी उन्होंने कभी कल्पना की थी, वह चिंगारी कोई साधारण चिंगारी नहीं थी, वह उनके भीतर अपने देश, अपने धर्म के प्रति सर्वोच्च बलिदान के लिए प्रेरित करने वाली चिंगारी थी। वह चिंगारी थी देश के भीतर एक आग लगाने की चिंगारी।

उन्होंने जब विरोध किया कि वह गाय की चर्बी के कारतूसों को अपने मुँह से नहीं खींचेंगे तो उन्होंने विरोध की एक रेखा खींच दी। उन्होंने प्रेरित किया कि शेष सैनिक भी इस विद्रोह का दामन थामें और एक नई रेखा बनाएं। मंगल पाण्डेय का यह विश्वास झूठ नहीं था। जैसे ही उन्होंने विद्रोह किया वैसे ही शेष सैनिकों ने विद्रोह कर दिया। यह विरोध स्वतंत्रता की वर्णमाला का एक नया अक्षर था।

उनकी योजना में कई लोग साझीदार थे। झांसी, दिल्ली सहित सभी उस क्षण की प्रतीक्षा में थे जब यह आततायी वहां से जाएँगे। उनके राज्यों पर अपनी कुदृष्टि डालने वाले शीघ्र ही इस पावन भूमि से जाएँगे। यह पहला संगठित कदम था। यह प्रथम संगठित वर्ष था। और इस यज्ञ में अपने प्राणों का उत्सर्ग करने वाला प्रथम व्यक्ति थे मंगल पाण्डेय।  देश के लिए बलिदान देने वाले नींव के प्रथम पत्थरों में मंगल पाण्डेय थे। वह अपने राष्ट्र के भवन का वैभवशाली विकास होते देखना चाहते थे।

मंगल पाण्डेय ने मात्र उन कारतूसों को चलाने से इंकार ही नहीं किया था, अपितु 29 मार्च 1857 को दो अंग्रेज अधिकारियों को मृत्यु के घाट भी उतार दिया था। हालांकि कुछ लोग 1857 की क्रांति की विफलता के लिए उनके इसी व्यग्र कदम को बताते हैं, परन्तु इतिहास जानता है कि यह बात सत्य नहीं हो सकती।  मंगल पाण्डेय को हिरासत में लिया गया और फिर उन पर मुकदमा चलाया गया।

मंगल पाण्डेय को उन लोगों से न्याय की आस क्या रही होगी जिन्होनें जिस धरती पर शासन किया था उसी की जनता की धार्मिक भावनाओं का ध्यान नहीं रखा था। वह उस मक्कारी को खूब जानते थे जिसके चलते अंग्रेज इस विशाल भूमि के जबरन स्वामी बन बैठे थे।  वह उनकी कुटिल राजनीति को भली भांति जानते थे। यही कारण था कि उन्होंने इस भूमि के लिए, अपने धर्म के लिए बलिदान होना स्वीकार किया। उन्हें अंग्रेजी सत्ता के प्रति विद्रोह आरम्भ करने के लिए मृत्युदंड सुनाया गया। वह प्रसन्न हुई और उन्होंने सहर्ष इस समर्पण को स्वीकार किया।

अंतत: 8 अप्रेल 1857 को उन्हें फाँसी पर लटकाया गया। पर जैसे उन्हें गिरफ्तार करने के लिए उनके साथी आगे नहीं आए थे, वैसे ही उन्हें फाँसी देने के लिए भी स्थानीय जल्लाद सामने नहीं आए। उन्होंने इंकार कर दिया। और अंत में कलकत्ते से जल्लादों को बुलवाया गया था। पर उनकी फाँसी के बाद भी क्रान्ति की आग बुझी नहीं बल्कि और भड़क उठी।

उन्होंने जो चिंगारी लगाई थी, वह बुझी नहीं और अंतत: 1947 में अंग्रेजों को वापस जाना ही पड़ा।

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