बसंतपंचमी को जब हिन्दू पूरी आस्था के साथ विद्या की देवी सरस्वती का पूजन और वंदन करते हैं, एवं प्रकृति के नए रूप का स्वागत करते हैं, उसी समय एक कहानी जो हवाओं में है, वह कानों से उतरकर देह को सिहरा जाती है। साथ ही कई प्रश्न भी खड़े करती है। यह कहानी हिन्दू नायकों को विस्मृत करने की कहानी है, जो कहीं ऊपर ऊपर तो हैं, चेतना में भी हैं, परन्तु विमर्श में नहीं हैं। यह कम उम्र के हिन्दू नायक विमर्श में क्यों नहीं हैं?
क्यों किसी वीर हकीकत राय के बलिदान दिवस को राष्ट्रीय स्तर पर यह कहकर नहीं मनाया जाता कि उन्होंने प्रतिकार किया था? क्यों हकीकत राय के बलिदान का उल्लेख विमर्श का हिस्सा नहीं बन पाया? यह एक ही हकीकत राय की कहानी नहीं है, बल्कि कई बालकों और बालिकाओं की कहानी है। परन्तु आज वीर हकीकत राय के बहाने ही सही विमर्श बार होनी चाहिए।
हिन्दू खत्री परिवार में हकीकत राय का जन्म 1719 को सियालकोट (वर्तमान में पाकिस्तान) में हुआ था। वह अपने अभिभावक के एकमात्र पुत्र थे। इसलिए अपने घरवालों के लाडले भी थे। बालपन से ही कुशाग्र बुद्धि वाले हकीकत राय ने मात्र चार-पांच वर्ष की उम्र में ही इतिहास और संस्कृत विषय का अध्ययन कर लिया था।
चूंकि वह मुगल काल था, तो दरबार के कामकाज की भाषा फ़ारसी थी, इसलिए उनके पिता ने उन्हें फारसी की पढ़ाई करने के लिए पास की मस्जिद में भेजा था। एक दिन उनके मुस्लिम सहपाठियों ने उनसे माता भगवती के विषय में अपशब्द कहे। इस पर उन्होंने प्रतिवाद किया, तो उनके साथ के मुस्लिम बच्चों ने मौलवी से शिकायत की कि उन्होंने फातिमा बी के विषय में अपशब्द कहे हैं।
बस इतना ही कहना था कि मौलवी और कट्टर मुस्लिमों को बहाना मिल गया।
उसके बाद बालक को शहर के काजी के सामने प्रस्तुत किया गया। परन्तु न ही बालक की बात सुनी गयी और न ही बालक के परिजनों की। और उन्हें मृत्युदंड सुना दिया गया। हाँ, यह जरूर कह दिया गया कि अगर वह इस्लाम क़ुबूल कर लेंगे तो उन्हें बख्श दिया जाएगा। परन्तु वीर हकीकत राय ने इस बात से इंकार कर दिया। उन्होंने स्पष्ट कह दिया कि वह अपना धर्म नहीं बदलेंगे।
उसके बाद उन्हें लाहौर भेज दिया गया, कि मामले की आगे सुनवाई हो। कहा जाता है कि मौलवी भी उनके साथ साथ गए और पूरे रास्ते उन्हें धमकाते रहे। परन्तु फिर भी हकीकत राय नहीं झुके। जिस उम्र में बालक अपनी माताओं की स्नेह भरी गोद में लोरियां सुनकर सोते हैं, उस उम्र में हकीकत राय को यह भी नहीं पता था कि वह जीवित रहेंगे या नहीं।
उन्होंने किसी भी प्रकार से झुकने से इंकार कर दिया। लाहौर में जाकर भी उनके दंड को न ही बदला जाना था और न ही बदला। और उन्हें मृत्यु या इस्लाम दोनों में से एक को चुनने के लिए कहा गया। पर कहा जाता है कि उन्होंने प्रश्न किया कि क्या मुसलमान बनने पर उनकी मृत्यु नहीं होगी? यदि मृत्यु होनी ही है तो अपने ही धर्म में हो!
बालक ने मृत्यु को चुना। और कहा जाता है कि उन्हें आधा जमीन में गाढ़ कर आधे शरीर पर पत्थरों से प्रहार किया जाने लगा। अंत समय में वह राम राम का जाप कर रहे थे। जब पत्थर खाकर वह निढाल हो गए तो जल्लाद ने अपनी तलवार से उनका सिर कलम कर दिया। कुछ लोग कहते हैं कि उन्होंने दस वर्ष में बलिदान दिया, कुछ बारह तो कुछ चौदह! परन्तु उम्र दस से चौदह वर्ष के बीच ही बताते हैं।
जिस दिन उन्होंने अपना सर्वस्व धर्म के लिए बलिदान कर दिया, वह बसंत पंचमी का ही दिन था।
बसंत पंचमी अर्थात चेतना का दिन, स्वयं की सच्ची पहचान का दिन, यह मानने का दिन कि आखिर हम कौन हैं, हमारी पहचान क्या है, हमारी चेतना के विस्तार का दिन!
माँ सरस्वती हमें ज्ञान देती हैं, वह हमारी चेतना का विस्तार करती हैं, हमें हमारी पहचान के प्रति सजग करती हैं, जिससे हम अपने शत्रु की आँखों में आँखें डालकर निर्भीकता से यह कह सकें कि मृत्यु मात्र चोला बदलना ही है!
हकीकत राय ने यही किया, उन पर माँ सरस्वती की कृपा थी कि उन्होंने इस तथ्य को समझ लिया था कि यह देह मात्र एक चोला है और हर किसी को यहाँ पर एक न एक दिन मरना ही है।
विमर्श से गायब क्यों हैं वीर हकीकत राय?
वीर हिन्दू बालक हकीकत राय विमर्श से बाहर क्यों है? यह प्रश्न बार बार पूछा जाना चाहिए! मजहब की कट्टरता में छोटे छोटे बालकों को भी नहीं बख्शा जाता था, यह विमर्श में क्यों नहीं आ पाया? क्यों उन हिन्दू बच्चों और स्त्रियों की कहानियों को हम खुलकर सामने नहीं ला पाते हैं, जिन्होनें अपने धर्म के लिए प्राण त्याग दिए, परन्तु विधर्मियों के अत्याचारों के सामने नहीं झुके!
विमर्श बनाना ही होगा, विमर्श के दायरे में उन सभी कहानियों को लाना ही होगा जिनके भीतर हिन्दू चेतना थी, जिनके भीतर शत्रु बोध था, जिनके भीतर यह कहने का साहस था कि वह प्राण त्याग देंगे परन्तु इस्लाम नहीं क़ुबूल करेंगे!
आज के दिन वीर हकीकत राय को सोशल मीडिया पर स्मरण किया गया। परन्तु फिर भी अभी भी अत्याचारियों का विमर्श बनना बहुत आवश्यक है!
अभी भी कई स्थानों पर उनके मंदिर और मूर्तियाँ हैं, बस प्रयास करना है, उन कहानियों को मुख्यधारा के विमर्श में लाने का! समस्या यह है कि वामपंथी विमर्श में हिन्दू धर्म के लिए संघर्ष करने और प्राण बलिदान करने वालों को कायर घोषित कर दिया है और बर्बर, अत्याचारी इस्लामिक विचारधारा को योद्धा और उद्धारक! अत: यह आवश्यक है कि ऐसी कहानियों को मुख्यधारा के विमर्श में लाया जाए!