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Friday, April 26, 2024

वन्देमातरम रचने वाले श्री बंकिम चन्द्र चटर्जी की पुण्यतिथि पर विशेष

आज बंकिम चन्द्र चटर्जी की पुण्यतिथि है। बंकिम चन्द्र चटर्जी के नाम से कौन परिचित नहीं है? उन्होंने ही देश की आत्मा पर फाहा रखते हुए वन्देमातरम की रचना की थी। सन्यासी विद्रोह पर आधारित आनंदमठ उपन्यास ने देश में जैसे एक क्रांति ला दी थी। इस उपन्यास में साधुओं की वीरता का वर्णन था और साथ ही यह भी बताने का प्रयास किया गया था कि माँ की रक्षा के लिए उसकी संताने सदा ही अपने प्राणोत्सर्ग के लिए तत्पर होंगी, फिर इससे कोई भी अंतर नहीं पड़ता कि वह सन्यासी है या गृहस्थ।

हिन्दू मूल्यों से परिपूर्ण यह उपन्यास धर्म की महत्ता को बताता है। उन्होंने इसमें बताया था कि माँ के लिए स्वत: प्रेरणा से प्राणोत्सर्ग करने वालों के भीतर जो साहस होता है, वह वेतन भोगी लोगों के हृदय में नहीं हो सकता है। एक स्थान पर आनंदमठ में वह लिखते हैं

“एकाएक अपने साहब को मरा हुआ देख और अपनी रक्षा के लिए किसी को आज्ञा देते न देखकर सरकारी सिपाही डटकर भी निश्चेष्ट हो गए। इस अवसर पर तेजस्वी डाकुओं ने सिपाहियों को हताहत कर आगे बढ़कर गाड़ी पर रखे हुए खजाने पर अधिकार जमा लिया। सरकारी फौजी टुकड़ी भयभीत होकर भाग गई।“

आनंदमठ में उन्होंने हिन्दू जनता पर जिस प्रकार से कर व्यवस्था के माध्यम से अकाल थोपा गया था, उसका मार्मिक वर्णन किया है। वह लिखते हैं:

1174 में फसल अच्छी नहीं हुई, अत: ग्यारह सौ पचहत्तर में अकाल आ पड़ा- भारतवासियों पर संकट आया। लेकिन इस पर भी शासकों ने पैसा-पैसा, कौड़ी-कौड़ी वसूल कर ली। दरिद्र जनता ने कौड़ी-कौड़ी करके मालगुजारी अदा कर दिन में एक ही बार भोजन किया। ग्यारह सौ पचहत्तर बंगाब्द की बरसात में अच्छी वर्षा हुई। लोगों ने समझा कि शायद देवता प्रसन्न हुए। आनंद में फिर मठ-मंदिरों में गाना-बजाना शुरू हुआ, किसान की स्त्री ने अपने पति से चांदी के पाजेब के लिए फिर तकाजा शुरू किया। लेकिन अकस्मात आश्विन मास में फिर देवता विमुख हो गए। क्वार-कार्तिक में एक बूंद भी बरसात न हुई। खेतों में धान के पौधे सूखकर खंखड़ हो गए। जिसके दो-एक बीघे में धान हुआ भी तो राजा ने अपनी सेना के लिए उसे खरीद लिया, जनता भोजन पा न सकी। पहले एक संध्या को उपवास हुआ, फिर एक समय भी आधा पेट भोजन उन मिलने लगा, इसका बाद दो-दो संध्या उपवास होने लगा। चैत में जो कुछ फसल हुई वह किसी के एक ग्रास भर को भी न हुई। लेकिन मालगुजारी के अफसर मुहम्मद रजा खां ने मन में सोचा कि यही समय है, मेरे तपने का। एकदम उसने दश प्रतिशत मालगुजारी बढ़ा दी। बंगाल में घर-घर कोहराम मच गया।

पहले लोगों ने भीख मांगना शुरू किया, इसके बाद कौन भिक्षा देता है? उपवास शुरू हो गया। फिर जनता रोगाक्रांत होने लगी। गो, बैल, हल बेचे गए, बीज के लिए संचित अन्न खा गए, घर-बार बेचा, खेती-बारी बेची। इसके बाद लोगों ने लड़कियां बेचना शुरू किया, फिर लड़के बेचे जाने लगे, इसको बाद गृहलक्षि्मयों का विक्रय प्रारंभ हुआ। लेकिन इसके बाद, लड़की, लड़के औरतें कौन खरीदता? बेचना सब चाहते थे लेकिन खरीददार कोई नहीं। खाद्य के अभाव में लोग पेड़ों के पत्ते खाने लगे, घास खाना शुरू किया, नरम टहनियां खाने लगे। छोटी जाति की जनता और जंगली लोग कुत्ते, बिल्ली, चूहे खाने लगे। बहुतेरे लोग भागे, वे लोग विदेश में जाकर अनाहार से मरे। जो नही भागे, वे अखाद्य खाकर, उपवास और रोग से जर्जर हो मरने लगे।

वह बंगाल के अकाल के कारणों की बात करते हुए लिखते हैं कि

बंगला सन् 1173 में बंगाल प्रदेश अंगरेजों के शासनाधीन नहीं हुआ था। अंगरेज उस समय बंगाल के दीवान ही थे। वे खजाने का रुपया वसूलते थे, लेकिन तब तक बंगालियों की रक्षा का भार उन्होंने अपने ऊपर लिया न था। उस समय लगान की वसूली का भार अंगरेजों पर था, और कुल सम्पत्ति की रक्षा का भार पापिष्ट, नराधम, विश्वासघातक, मनुष्य-कुलकलंक मीरजाफर पर था। मीरजाफर आत्मरक्षा में ही अक्षम था, तो बंगाल प्रदेश की रक्षा कैसे कर सकता था? मीरजाफर सिर्फ अफीम पीता था और सोता था, अंगरेज ही अपने जिम्मे का सारा कार्य करते थे। बंगाली रोते थे और कंगाल हुए जाते थे।

अत: बंगाल का कर अंगरेजों को प्राप्य था, लेकिन शासन का भार नवाब पर था। जहां-जहां अंगरेज अपने प्राप्य कर की स्वयं अदायगी कराते थे, वहां-वहां उन्होंने अपनी तरफ से कलेक्टर नियुक्त कर दिए थे। लेकिन मालगुजारी प्राप्त होने पर कलकत्ते जाती थी। जनता भूख से चाहे मर जाए, लेकिन मालगुजारी देनी ही पड़ती थी।

इसी आनंद मठ में वन्देमातरम की रचना है, जिसमें माँ को शस्य श्यामलम बताया गया है। यह बताया है कि माँ का शोषण हो रहा है और हमें माँ की रक्षा करनी है। चूंकि यह उपन्यास मुस्लिम शासन में किए जा रहे अत्याचारों के विरोध में था तो उसे मुस्लिम विरोधी मान लिया गया। यही कारण है कि वन्देमातरम का विरोध भी इतना अधिक हुआ।

आनंदमठ जैसा उपन्यास जो साधुओं एवं हिन्दुओं की अच्छी छवि को प्रस्तुत करता है, वह एक बार नहीं बल्कि कई बार सेक्युलर लेखकों के मुस्लिम प्रेम के चलते उनकी घृणा का शिकार हुआ, जबकि वह यह समझने में विफल हुए कि यह कुशासन के विरोध में लिखा गया कालजयी उपन्यास है, जिसमें लिखा गया वन्देमातरम गीत आज भी उतना ही जोश उत्पन्न करता है, जितना तब करता था।

वंदे मातरम्!

सुजलां सुफलां मलयजशीतलाम्

शस्यश्यामलां मातरम्।।।।।

शुभ्रज्योत्सना पुलकित यामिनीम्

फुल्लकुसुमित द्रुमदलशोभिनीम्

सुहासिनी सुमधुरभाषिणीम्

सुखदां, वरदां मातरम्।।

वंदे मातरम्।

सप्तकोटकण्ठ-कलकल निनादकराले,

द्विसप्तकोटि भुजैर्धृत खरकरवाले,

अबला केनो मां तुमि एतो बले!

बहुबलधारिणीम् नमामि तारिणीम्

रिपुदलवारिणीम् मातरम्।।

वंदे मातरम्।

तुमी विद्या, तुमी धर्म,

तुमी हरि, तुमी कर्म,

त्वं हि प्राण: शरीरे।

बाहुते तुमी मां शक्ति,

हृदये तुमी मां भक्ति,

तोमारई प्रतिमा गड़ी मंदिरे-मंदिरे मातरम!

वन्देमातरम

त्वं हि दुर्गा दशप्रहरण धारिणी,

कमला कमल-दल-विहारिणी,

वाणी विद्यादायिनी नमामि त्वं

नमामि कमलां, अमलां, अतुलाम,

सुजलां, सुफलां, मातरम्

वंदे मातरम्।।

श्यामलां, सरलां, सुस्मितां, भूषिताम्

धरणी, भरणी मातरम्।।

वंदे मातरम्।’

यह देश का और हिन्दुओं का दुर्भाग्य ही है कि जो भी साहित्य उनमें धर्म एवं देश के प्रति प्रेम एवं आदर जागृत कर सकता था, उसे साम्प्रदायिक प्रमाणित करने का प्रयास किया गया, एवं षड्यंत्र किया गया कि चेतना को जागृत करने वाला साहित्य मुख्यधारा में न आ पाए!

यह भी देखना दुखद है कि जहाँ पहले आनंदमठ जैसे उपन्यासों पर फ़िल्में बनती थीं, बाद में देश प्रेम का स्थान एजेंडा ने ले लिया एवं बॉलीवुड पूर्णतया हिन्दू विरोध में ढल गया

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