आज 30 सितम्बर को विश्व ट्रांसलेशन दिवस है, जिसे लोग प्राय: विश्व अनुवाद दिवस कहते हैं, परन्तु क्या वास्तव में ट्रांसलेशन का हिन्दी में स्थानापन्न शब्द अनुवाद हो सकता है? यह एक ऐसा प्रश्न है, जिस पर विचार होना चाहिए। आज जब दुनिया में भाषांतरण एक अनिवार्य आवश्यकता हो गयी है, क्योंकि यह मात्र साहित्य या मीडिया तक न जुड़ा होकर शिक्षा, फिल्म,धारावाहिक, ऑनलाइन मार्केटिंग तक में प्रचलित है, तो ऐसे में यह आवश्यक हो जाता है कि यह जाना जाए कि अनुवाद कैसे ट्रांसलेशन से एकदम पृथक है।
किसी से भी अनुवाद की बात की जाए, तो वह सहज कह देता है कि हाँ अनुवाद ही तो करना है, परन्तु क्या अनुवाद भी उतना ही सीमित है, जितना ट्रांसलेशन है? पहले जानते हैं कि अनुवाद भारतीय ज्ञान परम्परा में किसे कहा जाता था?
क्या है अनुवाद?
अनुवाद शब्द मूलत: अनु+वाद से बना हुआ है। अनु अर्थात पीछे की ओर और वाद का अर्थ है कथन। किसी भी पूर्वकथन का अनुसरण करके कहे या लिखे गए कथन को ही अनुवाद कहते हैं। अत: अनुवाद शब्द का अर्थ हुआ किसी कही गयी बात के बाद कहना या पुन:कथन करना। दूसरे शब्दों में अगर हम कहें तो किसी भाषा में पहले से ही कहे गए या विद्यमान औरलिखित सामग्री को किसी दूसरी भाषा में लिखना या कहना ही अनुवाद की श्रेणी में आएगा। संस्कृत के कुछ कोशों में इसका अर्थ ‘प्राप्तस्य पुन: कथनम’ या ज्ञातार्थस्य प्रतिपादनम्’ मिलता है। प्राचीनकाल में जो हमारे देश में गुरुकुलों में शिक्षा देने की मौखिक परम्परा थी, और जिसमें गुरु या आचार्य लोग जो भी कुछ बोलते या जिन मन्त्रों का उच्चारण करते,शिष्य लोग गुरु के उन कथनों को पीछे पीछे दोहराते थे। इसी को आम तौर पर अनुवचन या अनुवाद कहा जाता था। प्राचीन ग्रंथों की अगर और बात करें तो पाएंगे कि पाणिनि ने अपने अष्टाध्यायी में एक सूत्र दिया है “अनुवादे चरणानाम”। कई टीकाकारों ने इसका अर्थ “सिद्ध बात का प्रतिपादन” या कही हुई बात का कथन बताया है” इसी प्रकार भ्रतर्हरी ने अनुवाद शब्द का प्रयोग दुहराने या पुन:कथन के रथ में दिया है – अनुवृत्तिरनुवादो वा”। जैमिनीय न्यायमाला में भी अनुवाद का “ज्ञात का पुन:कथन” के अर्थ में हैं।[1]
भारत में प्राचीन काल से चली आ रही अनुवाद पद्धति में अनुवाद के कई रूप सामने आते हैं।
वद धातु में घञ् प्रत्यय लगाने से बने वाद शब्द का अर्थ होता है, कथन या वाचन! अब इसमें जब अनु उपसर्ग को जोड़ा जाता है तो वह हो जाता है “अनुवाद” अर्थात अनुकथन, अर्थात अनुसरण करते हुए कहना! ऋग्वेद में भी अनुवदति शब्द का प्रयोग अनुवाद के लिए आया है।
अर्थात यह मात्र एक भाषा से दूसरी भाषा में अंतरण नहीं है, बल्कि यह कहीं उससे और भी अधिक है। इसे हमारे यहाँ पुन: व्यक्त करने को लेकर कहा गया है। यह मात्र इतना है ही नहीं कि एक भाषा से दूसरी भाषा में मक्खी पर मक्खी बैठा दी!
जब अनुवाद को मात्र ट्रांसलेशन तक सीमित कर दिया है, तब यह देखना चाहिए कि इस वृहद विषय को किस सीमा तक संकुचित कर दिया गया है।
जरा कल्पना करें कि जब हमारे ऋषियों ने अनुवाद शब्द को कहा, तब वर्तमान ट्रांसलेशन, Translatology जैसे शब्द क्या, अंग्रेजी भाषा ही कहीं दूर दूर तक नहीं थी। भारत में अनुवाद तब भी प्रचलन में था जब लैटिन भाषा भी अस्तित्व में नहीं थी। फिर अनुवाद को इतना सीमित क्यों कर देना कि वह ट्रांसलेशन तक सीमित हो जाए?
यह भाषाई जीनोसाइड का एक उदाहरण है, जिसमें हम अपनी भाषा की मूल अवधारणाओं का संहार कर रहे हैं, उसे वहां तक सीमित कर रहे हैं, जहाँ वह अपने बाद में जन्मी भाषा की पिछलग्गू बन जाए?
ट्रांसलेशन क्या है?
किन्तु आज अनुवाद का अर्थ बहुत कुछ केवल अंग्रेजी शब्द ट्रांसलेशन के समरूप ही रह गया है, जिसका अर्थ है एक भाषा से दूसरी भाषा में भावों को लाना। ऑक्सफोर्ड अंग्रेजी शब्दकोश में इसका मुख्य अर्थ निम्न दिया गया है:
Translate- Express the sense of (word, sentence, book) in or into another language (as translated Homer into English from the Greek)
अनुवाद अध्ययन अर्थात ट्रांसलेशन स्टडीज के लिए यह आवश्यक हो जाता है कि जो वह प्रकार ट्रांसलेशन के पश्चिमी अवधारणा के चलते बताता है, उन सबके सूत्र एवं उन सबके मूल हिन्दू धर्म ग्रंथों में आकर खोजे क्योंकि यहीं पर उसे कई उदाहरण मिलेंगे। क्योंकि जितने सृजनात्मक तरीके से बार बार रामकथा का अनुकथन हिन्दू संतों ने किया है, वह विश्व में दुर्लभ है।
विश्व में इसलिए दुर्लभ है क्योंकि यह हिन्दू धर्म की ही उदारता एवं विशालता है कि यहाँ पर राम कथा, कृष्ण कथा को कथ्य वही रखते हुए पृथक तरीके से व्यक्त किया जा सकता है, क्योंकि बाइबिल के ऐसे अनुवाद पर जिसे चर्च ने अनुमोदित नहीं किया था, विलियम टिंडेल को जला दिया गया था।
परन्तु अनुवाद के कारण आज तक ऐसा हुआ हो, हिन्दू धर्म ने नहीं देखा।
फिर भी अनुवाद को अत्यधिक सीमित करके मात्र ट्रांसलेशन तक ही संकुचित क्यों कर दिया गया, यह एक लम्बे विमर्श की मांग करता है एवं यह भी मांग उचित है कि वर्तमान में जो ट्रांसलेशन है उसे भाषांतरण कहा जाए, न कि अनुवाद! क्योंकि अनुवाद को “ट्रांसलेशन” तक सीमित करना अपनी पहचान या इससे भी बढ़कर सांस्कृतिक जीनोसाइड अर्थात कल्चरल जीनोसाइड की ओर एक बहुत बड़ा कदम है, क्योंकि इससे भारत की एक विशाल ज्ञान परम्परा अत्यंत सीमित ही नहीं बल्कि पश्चिमी दृष्टिकोण पर निर्भर हो जाएगी!
[1] गोस्वामी, कृष्ण कुमार, 2008 अनुवाद विज्ञान की भूमिका राजकमल प्रकाशन प्रा। लिमिटेड, दिल्ली– पृष्ठ 16
सुंदर प्रस्तुति और विश्लेषण।