हम यह देखते हैं कि भारत के समस्त धार्मिक ग्रन्थ और कुछ नहीं बल्कि छलपूर्ण अनुवाद का शिकार हुए हैं। उन छलपूर्ण अनुवादों के आधार पर की गयी व्याख्याओं के अनुसार भारत को बार बार वामपंथियों ने देखा है और फिर उसी के अनुसार बने विमर्श पर समाज में जहर घोला है। भारत का धर्म शब्द रिलिजन बनकर सिमट गया, इसी प्रकार वर्ण को कास्ट कर दिया, जबकि कास्ट और वर्ण का दूर दूर तक कोई लेना देना नहीं हैं।
परन्तु भारत की चेतना ने इस छल का उत्तर अपनी मेधा से दिया। जो भी कुतर्क गढ़े गए, उसके उत्तर में लिखा गया। कितना लिखा गया। यह दूसरी बात है, परन्तु उत्तर दिया गया और अभी भी दिया जा रहा है। चूंकि झूठ गढ़ने में समय ही नहीं लगता है, बल्कि अत्यधिक श्रम लगता है, इसलिए झूठ का संसार अत्यंत विस्तृत होता है। जबकि सत्य की एक ही किरण झूठ के अन्धकार को काट डालती है। इतने वर्षों से वीर सावरकर के विषय में झूठ बोला गया, तो मात्र विक्रम संपत या उनके जैसे और एक दो लेखकों ने उस पूरे झूठ को ऐसा काटा कि जनता सत्य जान गयी।
भारत ने सदा विमर्श का उत्तर विमर्श से दिया, लिंचिंग नहीं की! ऐसा नहीं हुआ कि किसी ने गलत भाषांतरण किया हो तो भारत ने उसे जिंदा जला दिया गया हो, परन्तु विश्व में ऐसा हुआ है जब छोटे शब्दों के भाषांतरण ने लोगों को जिंदा जला दिया। परन्तु यह भारत में नहीं हो रहा था। यह भारत में नहीं हुआ, क्योंकि भारत सदा से ही विमर्श का स्थान रहा है। यह हुआ था फ्रांस के एक भाषांतरकार एटीन डोले के साथ!
वह वर्ष था 1546 का, जब एटीन डोले एक ऐसी असहिष्णुता का शिकार हुआ था, जो भाषा और ज्ञान से जुडी हुई थी। जो हो सकता है कि मात्र एक गलती ही हो। वह एक अनुवादक था। कहा जाता है कि वह राजा फ्रांसिस का नाजायज बेटा था, यदि ऐसा नहीं भी था तो भी वह किसी संभ्रांत एवं कुलीन परिवार का था। 1509 में जन्मा एटीन डोले वर्ष 1521 में पेरिस चला गया।
एटीन डोले ने विधि अर्थात लॉ का अध्ययन किया था तथा उसे नास्तिकता के आरोप में गिरफ्तार किया गया था। हालांकि फ़्रांस के राजा फ्रांसिस प्रथम के कारण उसे रिहाई मिली, परन्तु उसके व्यंग्यों के आधार पर फिर से उसे जेल में डाल दिया गया। परन्तु जो लोग आज अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की बात करते हैं और हिन्दुओं को इस झूठ के आधार पर कोसकर विमर्श बनाते हैं कि ब्राह्मण शूद्रों के कान में वेदों के शब्द जाने पर पिघला सीसा डालते थे। जबकि ऐसा एक भी प्रमाण नहीं प्राप्त होता है।
परन्तु अब्राह्मिक रिलिजन में ऐसा नहीं होता होगा, इस विषय में संदेह है। हमने आपको पहले भी बताया है कि बाइबिल के अनुवाद के चलते विलियम टिंडेल की भी हत्या कर दी गयी थी। फिर एटीन की हत्या क्यों की गयी? क्या इस बार भी चर्च सम्मिलित था? उसने ऐसा क्या अनुवाद कर दिया था कि उसकी हत्या कर दी गयी?
क्या वास्तव में उनका अपराध ऐसा था कि मात्र 37 वर्ष की उम्र में उन्हें अनुवाद का शहीद बना दिया जाता? यह बहुत ही चौंकाने वाला तथ्य है। क्या आपको पता है कि हिन्दुओं के धर्मग्रंथों की मनचाही व्याख्या करने वाले ईसाई समाज ने मात्र कुछ शब्दों की व्याख्या के कारण एटीन को जिंदा जला दिया था।
“वर्ष 1546 में, डोलेट को ग्रीक से फ्रेंच में अनुवाद के कारण सजा सुनाई गई थी, जिसमें उसने सुकरात के एक संवाद के उद्धरण में कुछ परिवर्तन कर दिया था, और यह उद्धरण प्लेटो को समर्पित था। यह संवाद “मृत्यु” के विषय पर था और इसमें डोले ने एक छोटा सा हिस्सा जोड़ दिया था।
“चूंकि यह निश्चय है, कि जीवितों में मृत्यु कुछ भी नहीं है: और मरे हुओं के लिए वे अब नहीं हैं: इसलिए, मृत्यु उन्हें और भी कम छूती है। और इसलिथे मृत्यु तुम्हारा कुछ न कर सकेगी, क्योंकि तुम अब तक मरने को तैयार नहीं, और जब तुम मरोगे, तो मृत्यु भी कुछ न कर सकेगी, क्योंकि अब तुम कुछ भी न रहोगे।”
यह जो अतिरिक्त दो शब्द थे, उसकी व्याख्या को रिलिजन के विरोध में माना गया क्योंकि यह आत्मा की अमरता से इंकार करती है! डोले को विधर्म के सिद्धांत फ़ैलाने का दोषी पाया गया और उसे जिंदा जलाकर मारने की सजा दे दी गयी।
यह बहुत ही दुखद है कि अनुवाद अध्ययन में एटीन डोले का नाम प्रमुख विचारकों के रूप में जाना जाता है, परन्तु उन्हें व्याख्या करने के कारण मृत्यु दंड दिया गया। मृत्युदंड भी सबसे जघन्य, अर्थात जिंदा जलाकर!
भारत में हिन्दुओं के धर्म की पूरी की पूरी अवधारणाओं का छलपूर्ण अनुवाद करने वाले स्वयं का इतिहास नहीं देखते हैं!
अनुवाद के कारण दो विद्वानों के प्राण ईसाई समाज ने लिए हैं। जबकि यही अंग्रेज और मिशनरी ईसाई रिलिजन का प्रचार करने के लिए हिन्दू धर्म ग्रंथों का अनुवाद करते हुए पाए गए। स्वास्तिक का अनुवाद कैसा किया है, यह हम सभी ने देखा है! स्वास्तिक को हिटलर के चिन्ह के साथ जोड़ दिया है, जबकि स्वास्तिक का दूर दूर तक कोई रिश्ता नहीं है। परन्तु हिन्दू अब अपना विमर्श तैयार कर रहा है, अपनी बात कह रहा है, वह जलाता नहीं है। वह कबीर के राम को भी उतना आदर देता है, जितना तुलसीदास के राम का!
क्योंकि भारत सदा विमर्श में विश्वास करता है, संवाद में विश्वास करता है, शास्त्रार्थ में विश्वास करता है, असहमति में जिंदा जलाने की कुरीति तो अब्राह्मिक जगत से आई है!