कामकाजी महिलाओं का बहुत शोर रहता है। और कामकाजी महिलाओं की अवधारणा को पश्चिमी अवधारणा बताया जाता है एवं साथ ही यह स्थापित किए जाने का बारम्बार प्रयास किया जाता है कि वर्किंग वुमन अर्थात कामकाजी महिलाऐं, जिन्हें आय प्राप्त होती है और जिसके कारण अर्थव्यवस्था में योगदान हो, भारत में तब से आई हैं, जब से पश्चिमी शक्तियां अर्थात अंग्रेज आए। परन्तु क्या वास्तव में ऐसा ही था? जिस देश में स्त्रियों को पुरातन काल से शस्त्र और शास्त्रों की शिक्षा दी जाती थी, जिस देश में सावित्री को अपना वर चुनने के स्वतंत्रता थी, उस देश में क्या स्त्रियाँ घर पर रहती होंगी? यदि महाकाव्यों और वेदों तक न भी जाएं तो भी चाणक्य के अर्थशास्त्र में ही कामकाजी महिलाओं का उल्लेख प्राप्त होता है।
penguin से प्रकाशित kautilya The Arthashastra (कौटिल्य अर्थशास्त्र), जिसका अनुवाद किया है एल एन रंगराजन ने, में मौर्यकालीन स्त्रियों के विषय में विस्तार से लिखा है। इसमें लिखा है कि महिलाएं पुनर्विवाह कर सकती थीं, विधवाएं पुनर्विवाह कर सकती थीं और इतना ही नहीं यदि विवाह के उपरान्त स्त्री और पुरुष का निबाह नहीं हो पा रहा है, तो वह परस्पर आपसी सहमति से विवाह विच्छेद भी कर सकते थे।
वस्त्र उद्योग में महिलाएं करती थीं काम
जिन स्त्रियों के पास जीवनयापन का कोई माध्यम या साधन नहीं होता था, वह वस्त्र बुनाई का कार्य करती थीं। सूत/वस्त्रायुक्त के अंतर्गत जो सूची प्रदान की गयी है, उसमें निम्न स्त्रियाँ सम्मिलित हैं: विधवा, अंगविकल स्त्रियाँ, अविवाहित लडकियां, स्वतंत्र रूप से रह रही स्त्रियाँ, राज्य दण्डित, वैश्याओं की माएं, वृद्ध महिलाएं एवं वह देवदासियाँ, जो अब मंदिर में कार्य नहीं कर रही हैं।
वैसे महिलाएं कई क्षेत्रों में कार्य करती थीं, गुप्तचर के रूप में कार्य करती थीं, एवं उनके लिए शुल्क आदि का विवरण भी इस पुस्तक में दिया गया है! राजा की आँखें खुलते ही उसका आदर सत्कार करने वाली धनुषधारी महिला सैनिक ही होती थीं! अर्थात राजा की सुरक्षा करने के लिए महिला सेना थी, मेगस्थनीज़ ने भी इसे अपनी पुस्तक इंडिका में लिखा है, परन्तु उसने इन महिलाओं को विदेशी महिलाएं कहा है
महिलाओं की रक्षा के लिए विधिक उपाय
जिन महिलाओं को दासी बनाया जाता था, उनके शील की रक्षा करने के लिए नियम थे। किसी भी दासी पर उसका स्वामी हाथ नहीं उठा सकता था, न ही हिंसक व्यवहार कर सकता था। किसी भी दासी से किसी भी नग्न पुरुष को स्नान कराने का कार्य नहीं कराया जा सकता था और न ही उसका शील भंग किया जा सकता था।
यह नियोक्ता का कर्तव्य होता था कि वह अपनी कुंवारी दासी का कौमार्य भंग न करे!
यदि महिला गर्भवती होती थी तो उसे दासी के रूप में खरीदा नहीं जा सकता था, एवं उसका गर्भपात भी नहीं कराया जा सकता था। यदि किसी कारणवश उसके नियोक्ता से उसका गर्भ ठहरता था और उसके नियोक्ता का शिशु जन्म लेता था तो उसे और उसकी संतान को दासत्व से मुक्ति मिल जाती थी, उन्हें दास नहीं माना जाता था।
स्त्री और पुरुष परस्पर विवाह से पृथक हो सकते थे
जो भी अर्थशास्त्र के हिंदी एवं अंग्रेजी अनुवाद उपलब्ध हैं, उनमें यह स्पष्ट लिखा है कि यदि विवाह के उपरान्त स्त्री और पुरुष परस्पर सम्बन्ध नहीं बनाते हैं, एवं यदि स्त्री लगातार सात मासिक तक दूसरे पुरुष की कामना करती रही हो, वह अपने आभूषण अपने पति को लौटा दे एवं उसे दूसरी स्त्री के साथ सोने की आज्ञा दे। इसी प्रकार पति भी यदि स्त्री के साथ सम्बन्ध नहीं बनाता है तो वह भी उसे नहीं रोकेगा। और यदि पति झूठ कहते हुए पाया जाता है कि उसकी स्त्री उसे संतुष्ट नहीं करती है या फिर पत्नी के किसी और के साथ सम्बन्ध है तो उस पर 12 पण का दंड लगाया जाए। यदि पति न चाहे तो पत्नी नाराज होते भी परित्याग नहीं कर सकती है तथा यदि पत्नी न चाहे तो पति भी पत्नी का परित्याग नहीं कर सकता है। हालांकि पहले चार प्रकर के विवाहों में परित्याग का नियम नहीं है, तो यदि पुरुष स्त्री से तंग आकर सम्बन्ध समाप्त करता है तो उसे स्त्री का सारा धन लौटा देना चाहिए।
स्त्री के पास उसके स्त्रीधन और पति की सम्पत्ति का अधिकार है। परन्तु यदि वह अपने पति की मृत्यु के उपरांत पुनर्विवाह करती है तो उसका पहले पति की संपत्ति पर अधिकार नहीं है।
यदि कोई व्यक्ति बाहर गया है तो उनकी स्त्रियों को कम से कम एक वर्ष तक प्रतीक्षा करनी चाहिए एवं साथ ही यदि बच्चे हैं तो कुछ अधिक समय तक अपने पति की प्रतीक्षा करनी चाहिए। यदि धन धान्य है तो ठीक, नहीं तो परिवार के लोग कुछ समय तक उसे सहारा दें, एवं यदि चार साल के बाद भी वापस नहीं आता है व्यक्ति, तो वह पुनर्विवाह कर सकती हैं।
इसमें लिखा है कि यदि कोई ब्राहमण कहीं पढने गया हो तो उनकी स्त्रियों को जीवन पर्यंत प्रतीक्षा करनी चाहिए। यदि समाज के किसी व्यक्ति द्वारा उनके बच्चा पैदा हो गया हो तो इसमें उनकी बदनामी किसी को नहीं करनी चाहिए!
क्या ऐसी यौन स्वतंत्रता एवं समाज की उदारता की अपेक्षा किसी भी अब्राह्मिक समाज से की जा सकती है?
स्त्री और पुरुष दोनों के लिए दंड विधान हैं
सबसे महत्वपूर्ण जो बात है वह है कि स्त्रियों और पुरुषों के अधिकारों की ही व्याख्या इसमें नहीं की गयी है, बल्कि इसमें स्त्री एवं पुरुषों के लिए दंड भी निर्धारित किए गए हैं। यदि लड़की विवाह के समय झूठे कौमार्य का दावा करती थी और यदि उसका दावा झूठ पाया जाता था तो उसे 200 पण का दंड मिलता था तो वहीं यदि पुरुष यह कहता था कि लड़की कुंवारी नहीं है तो उसे भी उतने का ही दंड मिलता था एवं साथ ही वह उस लड़की से विवाह भे नहीं कर सकता था। (4 । 12 । 1 5- 1 9 } ।
बार बार वामपंथियों का यह कहना कि हिन्दू समाज पिछड़ा था, हिन्दू समाज में महिलाओं का शोषण होता था, सम्पूर्ण हिन्दू समाज के हृदय में हीन भावना भरता है, जबकि हमारा समाज स्त्रियों के लिए स्वतंत्रता का समाज था। हां यदि स्वतंत्रता थी, तो कर्तव्य भी थे, कर्तव्य थे तो उन्हें पूर्ण करने का उत्तरदायित्व भी था, यदि कार्य पूरा नहीं किया जाता था तो दंड भी थे। परन्तु वह स्त्री और पुरुषों दोनों के लिए थे।
न ही कोई महिला पुरुष पर मिथ्यारोप लगा सकती थी और न ही कोई पुरुष! फिर प्रश्न यह है कि यह कौन सा फेमिनिज्म है जो औरतों को हर अपराध से मुक्त करता है या फिर यह भाव मन में लाता है कि वह अबला हैं और उन्हें विशेषाधिकार प्राप्त होने चाहिए, जबकि भारत में तो आदिकाल से ही महिलाओं को अधिकार प्राप्त हैं, हाँ, अधिकारों के साथ कर्तव्य भी सुनिश्चित हैं!