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Friday, March 29, 2024

महानायक शिवाजी जयंती पर विशेष: “महानायक शिवाजी” उपन्यास से शाइस्ता खान पर हमले के प्रकरण का अंश

सभी मराठों के संग संग जय सिंह ने भी यह सुन रखा था कि शिवाजी को माँ भवानी स्वयं ही आशीर्वाद देने प्रकट होती हैं। वह उनके स्वप्नों में आती हैं। अफजल वध से पूर्व जब शिवाजी को योजना की सफलता के विषय में संदेह था तब माँ भवानी ने ही सपने में आकर उन्हें विजय का आश्वासन दिया था।

शाइस्ताखान द्वारा पुणे पर अधिकार के उपरान्त जब शिवाजी प्रतापगढ़ के दुर्ग से उसकी एक एक गतिविधि पर ध्यान रख रहे थे तो एक बार पुन: अपनी माँ भवानी के दर्शन हुए!

“”इतने उद्विग्न क्यों हो पुत्र?”” माँ ने शिवाजी के ललाट पर हाथ फेरते हुए पूछा

“”माँ, उस मलेच्छ ने मेरे उस महल पर अधिकार किया है, जहां दिन भर भजन होते थे, सात्विक वातावरण था! और आज वहां पर मुजरे होते हैं, बाई नाचती हैं! अश्लीलता पूरे दिन भर अपने वीभत्स रूप में होती है! मैं यह नहीं देख पा रहा हूँ और वर्तमान में कुछ कर भी नहीं पा रहा हूँ!”” शिवाजी ने माँ को अपनी पीड़ा बताते हुए कहा! शिवाजी लगभग रो ही पड़े थे!

माँ हंसी! और अपना आँचल शिवाजी पर फैला दिया! ““तुम जैसा व्यक्ति उस शाइस्ता खान से पराजित होगा, जिसके पास न ही कोई मूल्य है और न ही कोई स्वप्न? वह स्वराज स्थापित करने वाले शिवाजी को पीड़ित कर रहा है? यह तो अत्यंत ही परिहासजनक है पुत्र! सुनो, शाइस्ताखान भी अफ़ज़ल की तरह  है! इतने व्यग्र न हो, निशाना साधो और विजयी हो!”” कहते कहते शिवाजी के बालों में हाथ फेरने लगीं!

“”माँ, माँ, यह तुम थीं!”” शिवाजी की आंख खुलने पर वह जैसे अपने कक्ष से बाहर भागे! उनके पीछे पीछे उनके सैनिक भी भागे, कि इतनी अस्तव्यस्त अवस्था में उनके राजे कहाँ भागे जा रहे हैं?

“माँ, माँ!” शिवाजी भागते भागते मंदिर में पहुँच गए! और उनकी आँखों से अश्रुओं की धार बह निकली! “जिसके पास स्वयं आपका आशीर्वाद हो, वह कैसे पराजित हो सका है! अब मुझे समझ आ गया है कि आप अपनी संतान को अकेला नहीं छोड़तीं! माँ, मैं धन्य हुआ!” शीघ्र ही यह समाचार पूरे प्रतापगढ़ में फ़ैल गया कि शिवाजी को स्वयं माँ भवानी ने विजय का आशीर्वाद दिया है! शिवाजी अजेय हैं! शिवाजी अजेय हैं!  उन पर कोई विजय नहीं पा सकता!

अजेय और शिवाजी!” अचानक से जय सिंह के मुख पर अचानक से उपहासपरक मुस्कान आ गयी! यदि शिवाजी अजेय हैं, तो मैं क्या हूँ?”  परन्तु शिवाजी की प्रतीक्षा में बैठे जयसिंह इस समय शिवाजी के पिछले विजय अभियानों की स्मृतियों में इतना खोए थे कि वह स्वयं ही कुछ कुछ बोलते जा रहे थे! जय सिंह अपने द्वारा की गयी विजयों के विषय में मौन हो गए थे, “मेरा क्या है, जो जीता दिल्ली की गद्दी के लिए जीता, जहां लड़ा वहां दिल्ली की गद्दी थी, जय सिंह का नाम इतिहास में किस विजय के लिए होगा? जय सिंह इतिहास में क्यों होगा?” जय सिंह जैसे स्वयं से प्रश्न करते थे। परन्तु उत्तर नहीं पा पाते थे!

जय सिंह को यह भली भांति ज्ञात था कि शाइस्ताखान में बहुत घमंड है! वह हर कीमत पर शिवाजी को नीचा दिखाना चाहता था। शाइस्ता खान की निगाह में शिवाजी एक बंदर था, जो एक जगह से दूसरी जगह कूदता था। और एक दिन उसने एक ब्राह्मण को बुलाया और उससे शिवाजी को एक पत्र लिखने  को कहा! पत्र का मजमून यही था कि “हे शिवा, तुम एक बन्दर हो, जो एक डाल से दूसरी डाल कूदता रहता है! जो अपने पहाड़ों से अलग नहीं जाता! जो कुछ नहीं करता! और तुम सोचते हो कि तुम मुगलों को हरा दोगे? अरे बन्दर, जरा अपने पहाड़ों से बाहर निकल कर देख कि दुनिया में क्या क्या है? तू बाहर आता है या नहीं!”

शिवाजी यह पत्र पाकर बहुत हँसे! माँ भवानी की बात सत्य होती प्रतीत हुई। उन्हें अनुभव हो गया कि शाइस्ता खान बेहद ही बेसब्रा इन्सान है, और नीच इंसान है! उसे उसके ही जाल में फंसाना होगा! पत्र को पढ़कर शिवाजी ने दूत से कहा

“”तो मैं बन्दर हूँ? आप तो मुझे मराठा हिन्दू प्रतीत होते हैं! आपने रामायण का अवश्य ही अध्ययन किया होगा! रामायण में राम का संदेसा लेकर कौन गया था? और किसने सोने की लंका को जलाया था? किसने रावण को अपने पैरों पर ला दिया था और रावण किसके पैर हिला नहीं पाया था?””

प्रतापगढ़ के दुर्ग में शिवाजी के दरबार में सभी दरबारियों के मुख से हंसी निकल पड़ी!

“राजे, यह तो आपने बहुत ही रोचक बात कही है! आप बन्दर! जिस तरह रावण ने हनुमान को बन्दर कहने पर बाद में पश्चाताप में हाथ मले थे, शाइस्ता खान पता चले हाथ मलने के लिए भी हाथ खोजे!”

“हा हा! यही होगा! दूसरों को बन्दर समझने वाला खुद बंदर भी नहीं रह पाता!”

शिवाजी और दरबारियों के समवेत ठहाकों के मध्य दूत के हाथ में वह संदेशा देकर शिवाजी ने ससम्मान विदा किया!

रावण की लंका में आग लगाने वाला एक बन्दर ही था, यह संदेशा सुनकर शाइस्ता खान के क्रोध का पारावार न रहा! वह और चिढ गया और शिवाजी को चिढाने के लिए लालमहल में और मांस आदि कटवाने लगा।

*********************************************************************

उसने हमें धमकी दी है! शाइस्ता खान को धमकी! उसे तो मैं अब मसल कर रहूँगा!” शाइस्ता खान के पास जब शिवाजी का खत पहुंचा तो वह गुस्से से पागल हो गया था। “मुझे मारेगा? मुझे?” वह पागलो की तरह बोलता जा रहा था!

“इस शहर में कोई घुसने न पाए! देखें बन्दर कहाँ से आता है!” वह क्रोध में जैसे फुफकार रहा था!

लेकिन बन्दर को तो आना ही था, बन्दर को अपनी लंका को इस रावण से मुक्त कराना था। वह लालमहल में तवायफों के घुँघरू की आवाज़ सुन कर और कुपित हो जाते थे। परन्तु मुगलों से सीधे टकराने का और वह भी मैदानी इलाकों में, लगभग असंभव था। और शाइस्ताखान पुणे छोड़कर आता नहीं! अत: जीजाबाई और अपने सरदारों के साथ मंत्रणा के उपरान्त शिवाजी ने गुप्तचरों के द्वारा प्राप्त सूचना के आधार पर योजना बनाई। मगर मिर्जा राजा को आज तक यह विश्वास नहीं हो पाया है कि आखिर एक लाख से अधिक सैनिकों के बीच शिवाजी घुसे कैसे होंगे। मिर्जा राजा बार बार औरंगजेब से इस बात का ज़िक्र करते थे कि शिवाजी को कई तरह से परास्त किया जा सकता है, फिर शाइस्ता खान का वहां पर दो सालों से टिके रहने का औचित्य क्या है? पुणे के लाल महल में शाइस्ता खान ने अपना हरम भी बना लिया था, और वहीं पर रहने का उसका इरादा था। एक साल में जब बहिर्जी नाइक ने शाइस्ताखान और पुणे में उसकी रंगरलियों की सूचनाएं दे दीं, तो शिवाजी ने एक ऐसी योजना बनाई जो अत्यंत ही दुस्साहसिक थी।

बन्दर को प्रवेश करने के लिए मार्ग की जानकारी भी होनी थी। एक दिन पुणे के एक मंदिर में एक भाट तुकाराम का एक भजन गा रहा था। पुणे से कुछ दूरी पर भेष बदल कर रह रहे शिवाजी के कानों में यह बात पड़ी! जिन मंदिरों को स्वयं ही बनाया था, उन मंदिरों में तुकाराम के भजन को सुनने का मोह शिवाजी न छोड़ सके और भेष बदलकर पुणे में प्रविष्ट हो गए थे! जैसे ही वह पुणे में प्रविष्ट हुए, उनकी भेंट उन्हीं हवाओं से हुई, जो अब तक मुगलों के अधिकार में रहकर भी स्वतंत्रता की गंध स्वयं में बनाए रखी थीं। भजन की एक एक पंक्ति उन्हें बुला रही थी। जैसे कह रही हो, कब तक इस गुलामी में भजन गाते रहेंगे? कब तक यह लोग पुणे की भूमि पर अत्याचार करते रहेंगे! शिवाजी मंदिर में जाकर भाट के पास बैठ गए!

“”रुक क्यों गए! गाइए न! देखिये आपके गायन ने मुझ मुसाफिर को भी यहाँ बुला लिया! न जाने कितनी पीड़ा थी इस भजन में, कि मुझ जैसे अनजान को यहाँ बुला लिया!” “

शिवाजी ने भाट से कहा!

“”यह पीड़ा बहुत अंतस की पीड़ा है यात्री! हमारे शिवा से अलग होने की पीड़ा है!””

“”ओह, वही शिवा, जो आप सबको इस दानव के साथ छोड़कर स्वयं प्रतापगढ़ दुर्ग में छिपा बैठा है? जाइए वह क्यों आपको बचाने आएगा! आप भी इस दानव की आधीनता स्वीकार कर लीजिए, शायद कुछ धन मिल जाए”” भेष बदले शिवाजी ने कहा

“”सुनो यात्री तुम कोई भी हो, शिवाजी महाराज के विषय में तुमने कुछ कहा तो तुम्हारे टुकड़े यहीं कर देंगे! हमें यकीन है शिवाजी शीघ्र आएँगे और हम सबकी पीड़ा को समाप्त करेंगे! वह हमें हमारी वही स्वतंत्रता प्रदान  करेंगे!””

“”स्वतंत्र और वह, वह तो स्वयं ही प्रतापगढ़ में छिपे बैठे हुए हैं! स्वतंत्र कराना होता तो वह आ न जाते सेना लेकर!””

“”यात्री, तुम अब हद से आगे जा रहे हो! तुम्हारा नाश होना ही है!”” भाट चीखा और फिर उसकी निगाह उन आँखों पर गयी जो इस पूरी दुनिया में एक ही थी। जिन आँखों ने पुणे को यहाँ तक पहुंचाया था!  जिन आँखों ने पुणे को स्वतंत्रता और सम्पन्नता का स्वप्न दिखाया था। वह  भाट “क्षमा करें, क्षमा करें!” कहते हुए झुक गया!

वहीं बगल से गुजर रहे अफगान सैनिकों को शिवाजी का नाम सुनाई दिया और शीघ्र ही उन्होंने पूरा मंदिर परिसर घेर लिया। नंगी तलवारें लेकर वह मंदिर में प्रवेश कर गए! मंदिर में प्रवेश करते ही उन्होंने सभी लोगों को पूजा करते हुए पाया! लोग बैठकर तुकाराम के भजनों को सुन रहे थे! गा रहे थे! किसी भी प्रकार का कोई भी संदिग्ध या शिवाजी जैसी कद काठी का कोई व्यक्ति नहीं था! मंदिर में जैसे भक्त को बचाने का जूनून था। शीघ्र ही भजनों का स्वर तेज हो गया और अफगान सैनिकों को वहां कुछ नहीं मिला!

धीरे धीरे शाम का धुंधकला छाने लगा! लोग अपने अपने घरों की तरफ गए! भाट ने अपना भजन बंद किया! और शिवाजी ने उसे आश्वासन दिया!

अँधेरे में शिवाजी ने देखा, उनका अपना शहर शांत हो गया है! जिस नगर का निर्माण उन्होंने अपने हाथों से किया था, उसके हर मार्ग से वह परिचित थे, धीरे धीरे अपने प्रिय नगर से जल्द आने का वादा कर वह सुरक्षित अपने शिविर पहुँच गए थे!

उस दिन शिवाजी शहर को जो वचन देकर आए, उसे अब पूर्ण करने का समय था! “

“हम सभी को अपने नगर को उस राक्षस से मुक्त कराना है, वह जो भी है, उसे यहाँ नहीं रहना चाहिए था। मैं अपने प्रिय लालमहल में भजनों के स्थान पर मुजरे का संगीत सुन नहीं पाता हूँ! जहां पर हमने स्वराज के लिए अपना खून पसीना एक किया, मैं वहां पर गौ मांस पकते नहीं देख सकता! मैं उस महल में हरम नहीं देख सकता जहां पर मैंने स्त्रियों को सदा आदर की दृष्टि से देखा है! मित्रों यह आपके हाथ में है कि हम इस अभियान में या तो उस राक्षस को भगाएं या स्वयं को स्वराज्य के स्वप्न के सर्वोच्च बलिदान के लिए प्रस्तुत करें! क्या आप तैयार हैं?”” शिवाजी ने अपने शिविर में लौटते हुए अपने साथियों का आह्वान करते हुए कहा

“”हम तैयार हैं शिवा, तुम्हारा स्वप्न हमारा स्वप्न है! यह हमारा साझा स्वप्न है!””

और इस प्रकार स्वराज्य के यज्ञ में अपना सर्वस्व देने वाले कुछ मुट्ठी भर योद्धा इकट्ठे हुए और पुणे को मुक्त कराने हेतु रात में आक्रमण के लिए  6 अप्रैल 1663 (रामनवमी का पूर्व दिवस, चैत्र शुक्ल अष्टमी) को चुना गया। 

“”इन दिनों रोजे चल रहे हैं और दिन भर रोजा रखने के उपरान्त मुग़ल सेना आराम करेगी, और हमें उसी समय उनपर आक्रमण करना है! याद रखिये कि हम लोग पूरी सेना से नहीं लड़ सकते हैं, इसलिए केवल लक्ष्य पर ध्यान! शाइस्ताखान के इस आक्रमण का नेतृत्व मैं करूंगा! मुझे महल का चप्पा चप्पा पता है और यह भी कि रात में रसोई से किस कक्ष में जाना सरल होगा!””

पर महाराज, रोजे के समय आक्रमण? क्या यह  धर्म सम्मत है?”

शिवा इस प्रश्न पर हैरान नहीं हुए। हिन्दुओं को उनकी इसी मूल्य परायणता ने मारा है। उन्हें इन्हीं मूल्यों ने पराजित किया है! उन्हें यह ज्ञात ही नहीं है कि लक्ष्य पर नज़र होनी चाहिए, माध्यम पर नहीं! अधर्मी जब हम पर वार करते समय धर्म और अधर्म का भेद नहीं करते तो हम क्यों करे? और धर्म की रक्षा के लिए तो राम ने भी छल का सहारा लिया ही था। बाली वध इसका सर्वोत्तम उदाहरण है!

हमारा लक्ष्य विजय प्राप्त करना है! जब वह हमारे मंदिरों पर आक्रमण करते हैं, तब वह यह नहीं सोचते कि हमारे मंदिर हमारे पूजा स्थल हैं, हम इन्हें न तोड़ें! वह जब आक्रमण करते हैं तो वह सबसे पहले हमारे मनोबल को तोड़ने के लिए हमारे मंदिर और स्त्रियों पर आक्रमण करते हैं! और हम न ही उनके कुरआन पर आक्रमण कर रहे हैं और न ही स्त्रियों पर! हमारा यह अभियान मात्र शाइस्ताखान को मारने के लिए है! और उसके उन आतताइयों के लिए, जिन्होनें हमारी प्रजा पर अत्याचार करने का पाप किया है! कुरआन और स्त्रियों और बच्चों को छुए बिना हमें यह कार्य पूर्ण करना है! इसलिए धर्म और अधर्म का कोई प्रश्न ही नहीं!”

“तो रोजे चल रहे हैं, और दिन भर रोजा रखने के बाद मुग़ल सेना सूर्यास्त के बाद आराम करने लगती है। हमें योजना के अनुसार ही आगे बढना है!”

 शिवाजी अपने साथियों के साथ बारातियों के भेष में आए। शाम होते होते सभी साथी किसी न किसी तरीके से पुणे में अन्दर घुस आए। ढोल और बरात में बजने वाले अन्य वाद्ययंत्रों के साथ शिवाजी ने पुणे में प्रवेश किया! एक तरफ ढोल और तुतुही बज रही थी और दूसरी तरफ शिवा के सैनिक एक एक कर बरातियों के भेष में पुणे में प्रवेश कर रहे थे।

“”किसका विवाह है? अभी तक तो नगर में किसी  विवाह की सूचना नहीं”!” एक सैनिक ने पूछा

“बस अचानक ही मुहूरत निकल आया! अब मौसम और मुहूरत का क्या पता मालिक! हम तो बस अपना काम करने आए हैं! काम हो जाए, तो हम लोग भी खुशी खुशी जाएं!” शिवाजी ने सैनिक से कहा

भोले भाले देहातियों के भेष में वीर मराठा हो सकते हैं, यह तो मुगलों को पता ही नहीं था। सूरज ढलने के उपरान्त रोजा खुलने के बाद जब सब सैनिक सोने चले गए तो बाराती, व्यापारियों, घसियारों आदि के रूप में प्रविष्ट हुए सभी मराठा साथी इकट्ठा हुए और लालमहल में कहाँ से प्रवेश करना है, उधर की तरफ चले। लालमहल के चप्पे चप्पे से वाकिफ शिवाजी इस अभियान में सबसे आगे चल रहे थे। उन्होंने रसोई से महल प्रवेश किया। सैनिक सो चुके थे और बावर्ची खाने में सुबह के खाने की तैयारी चल रही थी। बावर्ची खाने में मौजूद लोगों को मारते हुए वह लोग आगे बढ़े। शिवाजी अपनी तलवार लेकर सबसे आगे चल रहे थे, उन्हें शाइस्ता खान का शयनकक्ष पता था और वह वहीं बढ़े। अचानक हुए इस हमले से महल में चीखो पुकार मच गयी और शाइस्ताखान को बचाने के लिए उसकी बेगमों ने सभी फानूस और दिये बुझा दिए। शिवाजी अँधेरे में ही तलवार चलाते रहे और जल्द ही उन्होंने भागते हुए शाइस्ता खान को देख लिया, शिवाजी ने उसपर तलवार से वार किया, अँधेरे में शाइस्ताखान खुद पर हुए वार से डर गया और चीखने लगा। “बचाओ, बचाओ! परन्तु उसकी बात सुनने के लिए कोई नहीं था। उसे नशे की स्थिति में शिवाजी का कद किसी विशाल बन्दर जैसा लग रहा था।

बंदर हूँ मैं, हनुमान हूँ! मैंने कहा था  न शाइस्ताखान कि बंदर ने ही रावण की लंका में आग लगाई थी! मगर यह मेरा नगर है, आग लगेगी केवल तुममें! तुम जाओगे यहाँ से”! शिवाजी उसे देखकर चीखते हुए वार करते जा रहे थे, और ढाका तक मुग़ल सेना का परचम लहराने वाला बेहोश पड़ा था!

शिवाजी को लगा कि वह मर गया, पर उसकी केवल दाहिने हाथ की तीन उंगलियाँ कटी थीं, वह बेहोश हो गया था।   

Amit Paranjape on Twitter: "Aurangzeb sent Shaista Khan along with a huge  army to Deccan to confront the growing presence of Shivaji Raje. Shaista  Khan captured many forts and occupied #Pune and

 

शाइस्ताखान के बेहोश होने के साथ ही महल में चीख और पुकार मचने लगी थी। पूरे महल में अचानक हुए इस हमले से कोहराम था। सभी को लग रहा था जैसे कोई आसमानी ताकत ही आसमान से कूद पड़ी है। इस आसमानी ताकत का सामना करने के लिए लालमहल के बाहर काफी संख्या में मुग़ल सैनिक इकठ्ठा हुए। और जैसे ही उन्हें यह पता चला कि दुश्मन ने हमला किया है, वैसे ही अपनी सुरक्षा व्यवस्था पर उन्हें स्वयं ही संदेह हो आया।

“ऐसा कैसे हो सकता है?”  महल से अन्दर प्रवेश करते हुए एक सैनिक ने दूसरे सैनिक से पुछा

“नहीं पता! शिवाजी कैसे अन्दर आए होंगे?” दूसरे सैनिक ने अपनी तलवार से मराठों की खोज करते हुए उत्तर दिया।

“महल के द्वारों पर अपने सभी साथियों को लगा दो, कोई बचकर न जाने पाए”  अंदर महल से आवाजें आने लगी थीं। पूरे महल में अन्धेरा हो जाने के कारण किसी को कुछ भी पता नहीं चल पा रहा था। तभी जोर जोर से ढोल और नगाड़ों की आवाजें भी महल में गूंजने लगीं। एक तो रोज़े के बाद की नींद से उठना, और दूसरा अँधेरे में केवल अनुमान से आगे बढ़ना और ढोल नगाड़े। सब कुछ ही जैसे शाइस्ता खान और उसकी सेना के लिए सदमे जैसा था। इसी बीच रोशनी तो लालमहल में वापस आ गयी मगर जब तक मुग़ल सैनिकों को होश आ पाता तब तक उन्हें यह अहसास हुआ कि शिवाजी अपने दलबल सहित वापस जा चुके हैं।

हतप्रभ सी मुग़ल सेना जल्द ही एकत्र होकर लालमहल से बाहर शिवाजी को पकड़ने के लिए भागी। शिवाजी को पकड़ने के लिए जब मुग़ल सेना बाहर भागी तो उसे समझ में नहीं आया कि आखिर कहाँ जाए?

राजगढ़ की तरफ से इस अभियान का आरम्भ किया गया था, मगर शिवाजी ने रणनीति बदलते हुए लौटने के लिए दूसरे मार्ग का रुख किया। एक तरफ धूल उड़ाती हुई मुग़ल सेना थी, जिसे हर हाल में शिवाजी को पकड़ना ही था।

और दूसरी तरफ शिवाजी और मोरोपंत में मंत्रणा हो रही थी। सेना को अपनी तरफ आते देखकर दोनों ने एक दूसरे की तरफ कुछ इशारे किए।

 “सब तैयार है महाराज!” मोरोपंत शिवाजी की तरफ देखकर मुस्कराए

और देखते ही देखते वहां पर हज़ारों की संख्या में बैल आ गए। उन सभी बैलों के सींगों पर कुछ लगा हुआ था।

“ये क्या महाराज!” एक प्रश्न उभरा

तभी शिवाजी ने अपने कुछ भरोसेमंद मवालों को बुलाया  और पूछा “अब इन धूल उड़ाती हुई मुग़ल सेना के साथ तुम्हें क्या करना है? तुम्हें पता हैं न!”

“हां, महाराज! आप लोग निश्चिन्त होकर यही रुकें, इन्हें हम देखते हैं।” उन लोगों ने सिर झुकाया  और जल्द ही वह उन बैलों के साथ दूसरी दिशा में भाग चले। जल्द ही बैलों की सींगों पर लगी मशालें जल उठीं और मुग़ल सेना भ्रमित होकर उन्हीं बैलों के पीछे भागने लगी।

“वो जा रहे हैं कायर और बुजदिल मराठे, पकड़ो, पकड़ो!”  और जल्द ही सभी मशालें मुग़ल सेना को अपनी तरफ खींच चलीं और शिवाजी और उनके साथी मुग़ल सेना की पहुँच से दूर राजगढ़ पहुँच गए। उस समय सूर्योदय से पहले का समय था, जब अन्धेरा इतना हो जाता है जब कुछ दिखता नहीं।

इधर मुग़ल सेना अँधेरे में फंसी थी और तभी शिवाजी रामनवमी के अवसर पर शाइस्ताखान पर जीत का उपहार देने के लिए माँ जीजाबाई के पास शीघ्रता से पहुंचना चाहते थे। बन्दर राक्षसों को जलाकर वापस आ गया था!

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