भाजपा सरकारों में मीडिया सलाहकारों की नियुक्ति पर हुए विवाद के बाद अब एक बार फिर से एक और नियुक्ति पर विवाद उत्पन्न हुआ। और यह विवाद था भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान, शिमला के अर्धवार्षिक पत्रिका ‘चेतना’ का सम्पादक एक ऐसे व्यक्ति को बना दिया गया, जिसकी दृष्टि में समस्याओं की जड़ में वह विचारधारा है, जो विचारधारा इन दिनों सरकार में है। यह संस्थान भारत सरकार के शिक्षा मंत्रालय के अधीन कार्य करता है।
पत्रकार आशुतोष भारद्वाज को भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान, शिमला की अर्धवार्षिक पत्रिका 'चेतना' का संपादक बनाया गया। इस संस्थान के प्रमुख @MakrandParanspe हैं। यह संस्थान भारत सरकार के शिक्षा मंत्रालय के अधीन कार्य करता है। pic.twitter.com/KKFZ9Rt6Rl
— rajiv tuli (@rajivtuli69) June 23, 2021
पत्रकार आशुतोष भारद्वाज, हिंदी पट्टी के वामपंथी लेखकों के चहेते हैं। और उनका चहेता होना स्वाभाविक भी है क्योंकि वह हमेशा हिन्दुओं के विचारों की आलोचना करते हैं, सारी समस्याओं की जड़ हिंदुत्ववादी राजनीति को बताते हैं, और मजे की बात यह है कि वह अपने लेखों के माध्यम से हिंदी बोलने वालों को प्यार से पिछड़ा भी बता देते हैं, तो ऐसे लोग वामपंथी खेमे को सबसे ज्यादा पसंद आते हैं।
पत्रकार आशुतोष हो सकता है, विद्वान हों, पर कोई भी विद्वता असहिष्णुता नहीं सिखाती है। यदि उनकी विद्वता केवल इस बात से आहत हो सकती है कि उनके प्रिय लेखक, उदय प्रकाश, जिनके साथ मिलकर उन सभी ने हिंदी में “अवार्ड वापसी” अभियान चलाया था, उन्होंने राम मंदिर निर्माण के लिए चेक दे दिया, और इस दुःख में वह यह भी कह देते हैं कि वह उस साक्षात्कार से हाथ खींच रहे हैं, जो उन्होंने इण्डिया टुडे के लिए उदय प्रकाश का लिया था, तो उन तमाम राम मंदिर के भक्तों की भी आहत हो सकती हैं। आखिर वह भी तो प्रश्न करेंगे कि राम मंदिर बनाने वाली सरकार के संस्थान में राम मंदिर को साम्प्रदायिक कहने वाला व्यक्ति किसी पत्रिका का सम्पादक कैसे हो सकता है?
कैसे किसी सम्पादक के वैचारिक विचार व्यक्तिगत हो सकते हैं, जैसा विवाद बढने पर मकरंद परांजपे ने कहा कि किसी सम्पादक के व्यक्तिगत विचारों के आधार पर आप नियुक्ति निर्धारित नहीं कर सकते। वैसे यह सत्य होता है, जब किसी के व्यक्तिगत विचार उस कार्य को प्रभावित न करें, जो वह करने जा रहा है। हालांकि चेतना के इस अंक में, कई ऐसे व्यक्तियों को स्थान प्राप्त है जिनके विचार सरकार विरोधी हो सकते हैं, परन्तु देश विरोधी नहीं।
Our Fellows edit our journals for designated durations. I am grateful to @ashubh & @ReadWithVani for helping revive "Chetana," which went dead after its inaugural issue decades ago. You may or may not like the editor's personal views, but an SM witch-hunt is not the way forward. https://t.co/cVEch1v56C
— Makarand R Paranjape (@MakrandParanspe) June 23, 2021
फिर भी कई नाम ऐसे हैं, जिन पर आपत्ति होनी चाहिए, क्योंकि वह एजेंडा चलाने वाले हैं। पत्रकार हृदयेश जोशी, जिन्होंने कठुआ काण्ड पर मात्र सरकार को घेरने के लिए और हिन्दुओं के प्रति अपनी घृणा को फैलाने के लिए एजेंडापरक और झूठी कविता का अनुवाद कर, उसका पाठ भी कई स्थानों पर किया था।
प्रश्न कभी सरकार को घेरने वालों का विरोध करने वालों का नहीं है, विरोध है उन लोगों का जो एजेंडा चलाते हैं। जो तथ्यों को तोड़ मरोड़ करके जनता के सम्मुख धर्म को बदनाम करने का एजेंडा चलाते हैं।
इसी प्रकार इस पत्रिका में जसिंता केरकेट्टा की कविताएँ हैं। जसिंता केरकेट्टा, झारखंड निवासी हैं, और कथित रूप से वनवासियों के लिए आवाज़ उठाती हैं। परन्तु वह आवाज़ इसलिए नहीं उठाती हैं कि वह शोषण बताना चाहती हैं। उनकी जो कविताएँ नेट पर उपलब्ध हैं, वह राष्ट्रवाद का विरोध करती हैं, गाय और धर्म को कोसती हैं। राष्ट्रवाद के लिए वह लिखती हैं
राष्ट्रवाद
………।।
जब मेरा पड़ोसी
मेरे ख़ून का प्यासा हो गया
मैं समझ गया
राष्ट्रवाद आ गया ।
वह धर्म और गाय को भी कोसती हैं। जबकि मुझे नहीं लगता कि गाय के नाम पर कोई भी हत्या वनवासी क्षेत्र में हुई हो! और गाय के नाम पर हत्या तो होती नहीं है, गौ तस्करी रोकने के लिए कथित क्रांतिकारी नहीं लिखती हैं। वह प्रश्न करती हैं:
पहाड़ पर लोग पहाड़ का पानी पीते हैं
सरकार का पानी वहाँ तक नहीं पहुँचता
मातृभाषा में कोई स्कूल नहीं पहुँचता
अस्पताल में कोई डॉक्टर नहीं पहुंँचता
बिजली नहीं पहुँचती इंटरनेट नहीं पहुँचता
वहाँ कुछ भी नहीं पहुँचता
साब! जहाँ कुछ भी नहीं पहुँचता
वहाँ धर्म और गाय के नाम पर
आदमी की हत्या के लिए
इतना ज़हर कैसे पहुँचता है?
वह सेना को आम लोगों का हत्यारा बताती हैं, वह कहती हैं कि संगीनों का काम है सवाल करती जीभ पर निशाना लगाना, सेना उनके अनुसार गाँव और जंगल पर गोलियां चलाने वाली है।
प्रश्न यह नहीं है कि आप सरकार की नीतियों का विरोध करते हैं, पर प्रश्न यह है कि क्या ऐसे विचारों वाले लोगो को सरकार की पत्रिका में स्थान दिया जाना चाहिए, जो सरकार और सेना और हिन्दू धर्म को बदनाम करने के लिए एजेंडा चलाती हैं?
और इशारे इशारे में प्रधानमंत्री मोदी को हिटलर भी ठहराती हैं और उसी हिटलर वाली सरकार में वह कविता भेजती हैं?
क्या आशुतोष भारद्वाज और उनके जैसे लोगों के भीतर स्वाभिमान नाम की कोई चीज़ नहीं है और उनका समर्थन करने वाले लोगों में भी स्वाभिमान नहीं है कि वह जिस विचार का विरोध करते हैं, उसी सरकार की पत्रिका में प्रकाशित होने के लिए लालायित रहते हैं, क्या जिस प्रकार प्रखर दक्षिणपंथी लोगों को वामपंथियों का प्रमाणपत्र चाहिए होता है, तो ऐसे ही इन कथित क्रांतिकारियों को भी इस संघी सरकार से यह प्रमाणपत्र चाहिए कि आप बहुत क्रांतिकारी हैं! क्या आपकी क्रान्ति सरकारी पत्रिकाओं या सरकारी विज्ञापन लेने वाली पत्रिकाओं की मोहताज है?
यह समझ से परे है!
जो भी लोग यह कह रहे हैं कि हिन्दू ट्रोलर्स की भेंट पड़ गया एक पत्रिका का नव नियुक्त सम्पादक, तो वह खुद देखें कि वह कितना उन लोगों की पुस्तकों पर निष्पक्ष रूप से लिखते हैं, जो कथित रूप से दक्षिणपंथी हैं? यह बहुत दुर्भाग्य की बात है कि इस सरकार में भी उन्हीं लोगों को सारे बौद्धिक मंच मिल रहे हैं, और उन्हीं का एकाधिकार है जिनका एकमात्र लक्ष्य हिंदुत्व वादी विचारों को कोसना है। यह लोग अपनी एक समानांतर सरकार चलाते हैं, जो राहुल गांधी में अपना नेता खोजते है। यह लोग हिंदुत्ववादी लोगों को नीची दृष्टि से देखते हैं, यहाँ तक कि यह लोग हिन्दी भाषा को ही इसलिए क्षमा नहीं कर पाए हैं क्योंकि इसके कारण यह कथित फासीवादी सरकार सत्ता में आ गयी है और बार बार यह कहते हैं कि हिन्दी अब ज्ञान की नहीं बल्कि स्तरहीनता की भाषा हो गयी है।
जो लोग इतने असहिष्णु हैं कि वह एक भाषा तक को स्तरहीन करार दे दें, वह हिंदुत्ववादी ट्रोलर्स को कोसते हैं। धर्म की संकीर्ण मान्यताओं पर केवल वही प्रश्न उठा सकता है, जो उस धर्म को मानता है, जो उस धर्म को धारण करता है। यदि उस धर्म को धारण नहीं करता है तो उसे धर्म पर बोलने का अधिकार नहीं है।
हालांकि आशुतोष भारद्वाज ने इस विवाद के बाद यह कहा कि वह अब इस पर आगे कार्य नहीं करेंगे तो इस सरकार को कोसने वाले लेखकों ने कहा कि इस पत्रिका के लिए वह आवश्यक हैं! प्रश्न यही है कि क्या आप लोगों का आत्मसम्मान इतना नीचे है कि आप जिस सरकार को फासीवादी कहते हैं, उस सरकार की पत्रिका में अपना एजेंडा कैसे लेकर जा सकते हैं? या फिर वह बौद्धिक खेमे पर अपना ही एकाधिकार चाहते हैं? सर, प्लीज़! सहिष्णु बनिये और सोचिये कि क्यों बौद्धिक खेमे के खिलाफ आम लोग क्यों हो रहे हैं? सर प्लीज़, सरकार की नीतियों का विरोध करने पर कोई कुछ नहीं कहता, पर एजेंडे का विरोध है, और वह रहेगा! और आप इसीलिए इस फासीवादी सरकार में बौद्धिक आकाश में एकाधिकार चाहते हैं, जिससे आप निर्विघ्न होकर अपना झूठा एजेंडा चला सकें और आप पर कोई प्रश्न न उठा सकें!
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