इन दिनों आंदोलनों का जोर है, इधर भी आन्दोलन, उधर भी आन्दोलन! व्यवस्था को तोड़ने के लिए आन्दोलन! वामपंथियों और कट्टर इस्लाम का हथियार है यह आन्दोलन, परन्तु मजे की बात है कि वामपंथी प्रदेशों, या इस्लामिक देशों में इन आन्दोलनों की अनुमति ही नहीं है। वामपंथी देशों में भी कोई भी व्यक्ति या संस्था उस स्वतंत्रता से आन्दोलन नहीं कर सकती, जितनी स्वतंत्रता से यह लोकतांत्रिक सरकारों में आन्दोलन करते है।
और इसमें इनके हथियार होते हैं, क्रांतिकारी गीत! लगभग सब कुछ तोड़ने के लिए तैयार, परन्तु इस बात से शून्य कि इस तोड़फोड़ के बाद क्या होगा? भूख के गीत, परन्तु इस भूख के कारण क्या हैं, इस विषय में नहीं झांकते? मंदिर नहीं चाहिए, कारखाने चाहिए, पर किसके कारखाने? शून्य है इस विषय में यह गीत! यह गीत भड़काने का कार्य करते हैं, यह गीत ठोस समाधान न देते हुए एक ऐसे भ्रम के चौराहे पर युवाओं को लाते हैं, जहाँ से आगे मात्र भटकाव है, कुंठा है, निराशा है। आइये आज ऐसे ही कुछ गीतों का विश्लेषण करते हैं:
एक ऐसे गीत से शुरुआत करते हैं, जो अर्थव्यवस्था के एक बड़े स्तम्भ अर्थात धार्मिक पर्यटन पर आक्रमण करता है।
खाने को न रोटी देंगे कृष्ण कन्हैया,
मालिकों से लड़ने को एक हो जा भैया
तेरी ही कमाई से खड़े ये कारखाने,
तुझको ही मिलते न पेटभर दाने,
गिद्धों के जैसा तुझसे मालिक का रवैया,
खाने को न रोटी देंगे किशन कन्हैया
बृजमोहन का लिखा हुआ यह गीत क्रांतिकारी गीत माना जाता है, परन्तु जब भी कोई भारत के परिप्रेक्ष्य में यह कहता है कि खाने को रोटी नहीं देंगे राम या किशन, तो वह भारत की आत्मा पर तो प्रहार करता ही है, साथ ही वह धार्मिक पर्यटन के क्षेत्र में होने वाले रोजगार को भी कम करता है। भारत आज से नहीं अपितु सदियों से धार्मिक एवं आध्यात्मिक चेतना का स्थल रहा है, न जाने कहाँ कहाँ से लोग यहाँ पर अपनी आध्यात्मिक पिपासा को शांत करने के लिए आते रहे हैं।
भारत सरकार के पर्यटन मंत्रालय की पत्रिका अतुल्य भारत के 18वें अंक, जो वर्ष 2019 में प्रकाशित हुआ था, धार्मिक पर्यटन के विषय में बताया गया है। इसमें लिखा है कि जैकोव्स्की के अनुसार सभी अंतर्राष्ट्रीय पर्यटकों की 35% यात्रा का उद्देश्य स्पष्ट रूप से धार्मिक होता है। इसके साथ ही अधिकाँश लोगों की यात्रा में कोई न कोई धार्मिक स्थल शामिल हो ही जाता है।
हरनार और स्वारोबोक के अनुसार धार्मिक पर्यटन, पर्यटन के सबसे पुराने रूपों में से एक है और यह निस्संदेह ईसाई धर्म से बहुत पहले से मौजूद था।
इस बात को और स्मरण रखना होगा कि भारत हिन्दू धर्म के साथ साथ बौद्ध, जैन एवं सिख आदि धर्मों का भी केंद्र है, अत: पूरे विश्व से भारत में धार्मिक यात्री आते हैं। इसलिए यह कहना अपने आप में अत्यंत बेवकूफी से भरा हुआ है कि राम और किशन खाना नहीं देंगे, धार्मिक और ऐतिहासिक पर्यटन न जाने कितने लोगों को रोजगार देता है! खैर, जब ऐसे बेकार से क्रांतिकारी गीतों को हमारी युवा पीढ़ी रोमांटिसाइज़ करती है तो वह अपने लिए एक बहुत बड़ा रोजगार का क्षेत्र बंद कर लेती है।
और यह लोग लाल क्रान्ति की बात करते हुए लाल सवेरे की बात करते हैं और इन गीतों में वह उस लहू को भुला देते हैं, जो लाल क्रांति ने निर्दोषों का बहाया है।
महेश्वर लिखते हैं
सारा संसार हमारा है, सारा संसार हमारा है,
मजलूमों ने मुल्कों-मुल्कों अब झंडा लाल उठाया है,
जो भूखा था, जो नंगा अहता, अब गुस्सा उसको आया है,
रोके तो कोई हमको जरा, सारा संसार हमारा है!
सर्वेश्वर दयाल सक्सेना लिखते हैं
जारी है जारी है,
अभी लड़ाई जारी है,
यह जो छापा तिलक लगाए और जनेऊधारी हैं,
यह जो जात-पांत पूजक हैं और जो भ्रष्टाचारी हैं,
यह जो भूपति कहलाता है, जिसकी साहूकारी है,
उसे मिटाने और बदलने की करनी तैयारी है!
क्या यह संयोग है कि जिस छाप तिलक के दुश्मन सर्वेश्वर दयाल सक्सेना है, उसी छाप तिलक के दुश्मन वह भी सूफी कवि रहे, जिन्होनें निजामुद्दीन औलिया की शान में लिखा कि
छाप तिलक सब छीनी रे, मोसे नैना मिलाइके
आखिर सभी को तिलक से ही इतनी घृणा क्यों थी?
क्रांतिगीत कभी भी उस कारण पर बात नहीं करते जिसके कारण यह भूख है। सर्वेश्वर दयाल सक्सेना सहित कई कथित बड़े कवियों की रचना में कभी भी अंग्रेजों को नहीं कोसा जाता, उस कुव्यवस्था के लिए, उस अत्याचार के लिए, जो उन्होंने इस विशाल देश की जनता के साथ किया।
आपकी लड़ाई किससे है? यह क्रांति के गीत किसके विरुद्ध हैं? यह क्रांति के गीत किस उद्देश्य की पूर्ति के लिए हैं? यह खून खराबा किसलिए है?
आप इन क्रांतिकारी गीतों में कभी उत्तर नहीं पाएंगे, क्योंकि उनके पास उत्तर हैं ही नहीं!
गजानन माधव मुक्तिबोध को बहुत बड़ा क्रांतिकारी कवि माना जाता है, वह लिखते हैं
“रोटी तुमको राम न देगा,
वेद तुम्हारा काम न देगा,
जो रोटी का युद्ध करेगा,
वह रोटी को आप वरेगा!”
वेदों के विषय में लिखने का अधिकार उन सभी को कैसे हो गया, जिनकी आस्था ही वेदों में नहीं है? वेदों में क्या नहीं है? अर्थववेद में आयुर्वेद है और राम के विषय में तो कहा ही गया है कि “राम, तुम्हारा चरित स्वयं ही काव्य है।
कोई कवि बन जाय, सहज संभाव्य है।“
मैथिली शरण गुप्त जब यह लिखते हैं तो झूठ नहीं लिखते, कोई भी समाज तभी उन्नति कर सकता है जब उसके समक्ष उसका आदर्श हो। आयातित विमर्श पर उपजा साहित्य कुंठा या विध्वंस ही उत्पन्न करेगा, जैसा इन क्रांतिकारी गीतों में दिखाई देता है।
समय आ गया है जब हम अपने लोक से जुड़े, अपने लोक के गीतों को अपनी पाठ्यपुस्तकों में स्थान दें! यह जो विध्वंस के गीत हैं, वह विनाश के प्रति रूमानियत उत्पन्न करते हैं, क्योंकि इनका विध्वंस सृजन के लिए नहीं है, बल्कि केवल तोड़ने के लिए है!
सोनाली जी आपका लेख पढ़ के काफी अच्छा लगा। सोशलमीडिया का यह तो फायदा मिला हैकी अब हम बहुत सारी नई जानकारी से परिचित हो रहे है।आप जैसे लोगों के द्वारा।