भारत में हिन्दी साहित्य के बहाने एक अलग ही खेल खेला गया है और हिन्दी साहित्य को देवनागरी में उर्दू साहित्य बनाने का भी कुप्रयास जोरों से हुआ है। हिन्दी अवधारणाओं के आधार पर उर्दू अवधारणाओं अर्थात इस्लामी अवधारणाओं को साहित्य में स्थापित किया गया और यही कारण है कि वह रचनाकार जो हिन्दी में लिखा करते थे, और जो साहित्य को सत्ता से दूर रखने की बात करते थे, उन्हें बस यूं ही कभी कभी याद कर लिया जाता है।
वर्ष 1972 में नई दुनिया में उनका एक लेख प्रकाशित हुआ था, जिसका शीर्षक था कि “साहित्य सत्ता की ओर क्यों देखता है” इस लेख को पढने के बाद ज्ञात होता है कि आखिर क्यों उन लेखकों की बिरादरी ने दुष्यंत को भुला रखा है, जो विचार से परे किसी भी सरकार में इनाम लेने के लिए सबसे आगे की पंक्ति में मिलते हैं। कथित जनवादी लेखकों को आज भी शिकायत रहती है कि सरकार उन्हें पूछती नहीं! परन्तु सरकार के आधार पर साहित्य चलेगा क्या?
दुष्यंत कुमार अपने उस लेख में लिखते हैं कि यह एक अजीब बात है कि साहित्यकार में शिकवों और शिकायतों का शौक बढ़ता जा रहा है। उसे शिकायत है कि गवर्नर और मुख्यमंत्री उसे पहचानते नहीं, शासन उसे मान्यता नहीं देता या देता है तो तब जब वह कब्र में पैर लटका कर बैठ जाता है। लेकिन समझ नहीं आता कि लेखक के लिए यह जरूरी क्यों है कि वह उन बातों को महत्व दे! आखिर शासन ने तो उससे नहीं कहा था कि वह लेखक बने। वह अपनी अदम्य संवेदनशीलता के कारण लेखक बनता है, अभिव्यक्ति की दुर्निवार पीड़ा उसे कलम उठाने के लिए विवश करती है। इस प्रक्रिया में शासन या समाज कहाँ बीच में आता है?”
दुष्यंत यहीं नहीं रुकते हैं, वह लेखन और शासन को अलग रखने के लिए तर्क देते हैं। वह कहते हैं कि शासन से मान्यता का अर्थ है शासन से समझौता, और समझौता हमेशा अकादमी को कहीं न कहीं कमजोर करता है, और यह विरोधाभास ही तो है कि आप जिस शासन की आलोचना करें, उसी की स्वीकृति और मान्यता के लिए तरसें!
उन्होंने लेखकों को विशेषाधिकार का भी विरोध किया था क्योंकि उनके अनुसार लेखक को अपनी स्वतंत्रता में बाधक होने वाले हर अहसान से बचना चाहिए। वह इस बात से बहुत दुखी थे कि लेखक आखिर सत्ता के आसपास क्यों घुमते हैं? उन्होंने इस लेख में लेखक संघों की राजनीति की भी आलोचना की थी।
एक और बात उन्होंने लेखकों के लिए कही थी और वह अभी तक हिंदी के साहित्य जगत के लिए सटीक बैठती है। उन्होंने लिखा था कि “दरअसल बात यह है कि लेखक किसी दूसरे लेखक को भौतिक दृष्टि से जरा सी भी संपन्न स्थिति में नहीं देख सकता।” और उन्होंने हिंदी लेखकों के दोमुंहेपन पर बात करते हुए कहा था कि “वह अर्थात हिंदी का लेखक) एक साँस में विरोध करता है और दूसरी में समर्पण! एक तरफ वह शासन को कोसता है और उनकी उपेक्षा का हवाला करता है और फिर दूसरे प्रदेशों का हवाला देकर यह सिद्ध करना चाहता है कि वहां नेता साहित्यकारों का आदर करते हैं।”
दुष्यंत कुमार ने इस लेख में जो सच्चाई बताई थी, वह आज भी है। आज भी जनवादी, वामपंथी, प्रगतिशील लेखकों को हर सरकार में इनाम चाहिए, उन्हें कथित रूप से सत्ता का विरोध भी करना है, परन्तु सत्ता के संकेत पर मुंह भी बंद रखना है! उन्हें बस उन्हीं मामलों पर अपना मुंह खोलना है, जो उनके लिए कुछ फायदा करा दें!
वह इस लेख में लिखते हैं कि “आप लेखक के नाते अपने मैं को झुनझुने की तरह बजाते हैं, मित्रों की प्रशंसा करते हैं और शत्रुओं की निंदा करते हैं, साहित्य के नाम पर दिल की भड़ास निकालते हैं और यह भी आशा करते हैं कि दुनिया आपको पूजे, लोग आपको चाहें और शासन आपको मान्यता दे!”
दरअसल जनवादी, प्रगतिशील एवं वामपंथी साहित्यकार हर सरकार से प्रमाणपत्र चाहते हैं और हर सरकार को अपना भी प्रमाणपत्र देना चाहते हैं। और भारतीय जनता पार्टी की सरकार में तो वामपंथियों से प्रमाणपत्र लेना और देना बहुत ही आम हो गया है। क्योंकि कल ही भारत सरकार के मंत्री राजीव चन्द्रशेखर ने उस shethepeople की मालकिन शैल चोपड़ा के साथ मुलाकात की तस्वीर ट्वीट की जो पूरी तरह से हिन्दू धर्म के विरुद्ध है एवं हिन्दू धर्म के पुरुषों और स्त्रियों, के विरुद्ध विषवमन करता रहता है
यह दुर्भाग्य की बात है कि इस प्रकार के प्रमाणपत्र के खेल में असली विषय, असली मुद्दे सब गायब हो जाते हैं।
दुष्यंत जब कहते हैं कि
हो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए
इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए
आज यह दीवार, परदों की तरह हिलने लगी
शर्त थी लेकिन कि ये बुनियाद हिलनी चाहिए
हर सड़क पर, हर गली में, हर नगर, हर गाँव में
हाथ लहराते हुए हर लाश चलनी चाहिए
सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं
मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए
मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही
हो कहीं भी आग, लेकिन आग जलनी चाहिए
दुष्यंत को प्रमाणपत्र नहीं चाहिए और वह किसी को प्रमाणपत्र नहीं देना चाहते हैं, मगर वह चाहते हैं कि मुद्दे पर बात हो, उन समस्याओं पर बात हो, जो किसी की निजी कुंठा से नहीं उपजी हैं। वह क्रान्ति की बात करते हैं, परन्तु उस क्रांति में वह बात करते हैं कि “सूरत बदलनी चाहिए!” उन्हें हंगामा ही मात्र खड़ा नहीं करना है!
परन्तु दुर्भाग्य की बात है कि हिन्दी साहित्य “बस नाम रहेगा अल्लाह का” को क्रांतिकारी मानते हुए हर आन्दोलन की आवाज बना देता है, और दुष्यंत जो यह कहते हैं कि सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं
मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए
उन्हें हर आन्दोलन में किनारे कर देता है, क्योंकि दुष्यंत का क्रांतिकारी स्वर व्यवस्था विरोधी होकर भी अराजकता के पक्ष में नहीं है, वह सरकार का विरोधी होते हुए भी हिन्दुओं के विरोध में नहीं है! वह संसद में रोटी के मुद्दे पर वास्तव में बात करना चाहते हैं!
परन्तु आज जब हम पीछे मुड़कर देखते हैं तो पाते हैं कि हर व्यक्ति, हर वह रचनाकार जो हिन्दी लोक से जुड़ा था, उसे काट काट कर अलग किया जाता रहा और हिन्दी साहित्य उर्दू से प्रमाणपत्र लेने की चाह में “बस नाम रहेगा अल्लाह का” को ही क्रांतिकारी बताता रहा!
दुष्यंत कुमार का जन्म 1 सितम्बर, 1933 को हुआ था। उनका जीवन अधिक लंबा नहीं था, परन्तु उनका जीवन स्मरणीय है। उन्होंने अपनी 42 वर्ष की उम्र में ही वह सब कर दिया, जो लोग सौ साल में भी शायद ही कर सकें! उनका निधन 30 दिसंबर 1975 को हो गया था।
दुष्यंत कुमार त्यागी आज भी लोगों की स्मृति में हैं क्योंकि वह किसी की भी व्यक्तिगत आलोचना में विश्वास नहीं करते थे, वह विचार की आलोचना करते थे।
मत कहो, आकाश में कुहरा घना है,
यह किसी की व्यक्तिगत आलोचना है ।
दुष्यंत लोक में रचे बसे हैं, और वह सदा रहेंगे, और एक तरह से अच्छा ही है कि देश तोड़क एवं डिज़ाईनर आन्दोलनों में दुष्यंत की कविताओं को प्रयोग नहीं किया गया, नहीं तो डिज़ाईनर लेखक, एक्टिविस्ट आदि सभी दुष्यंत के साथ भी अन्याय कर बैठते! और उन्हें भी उस भारत के विरुद्ध खड़ा कर चुके होते, जिसके लिए वह अराजकता नहीं, व्यवस्था चाहते थे!