भारत में इन दिनों फेमिनिज्म का अर्थ पूरी तरह से पुरुषों का विरोध बनकर रह रहा है। इन दिनों car24 के उस विज्ञापन की भी चर्चा है जिसमें वह कारों के बहाने हसबैंड को बदलने की या फिर स्वयंवर की बात कर रही हैं। एक विज्ञापन में तो जो दो लड़कियों की बातचीत है वह यह है कि वह कार 24 के स्थान पर हस्बैंड्स 24 बनाएंगी, जिसमें कहीं जाने का झंझट नहीं, और वह ऐसा हो जाएगा जैसे स्वयंवर!
और सब हंसने लगते हैं। जरा कल्पना करें कि जिसने यह विज्ञापन बनाया है न ही उसे विवाह जैसे सम्बन्धों का ज्ञान है और न ही स्वयंवर जैसी महान परम्परा का। स्वयंवर कोई कार 24 जैसी अदलने बदलने वाली परम्परा नहीं थी, वह सामर्थ्य और गुणों के आधार पर वर चयन की परम्परा थी। क्या स्त्री स्वतंत्रता की इस परम्परा की तुलना कहीं से भी इस्तेमाल की गयी कारों की किसी कंपनी के साथ हो सकती है?
पर, फिर यह आधुनिक पिछड़ा हुआ फेमिनिज्म है! जिसमें एक दो लडकियां अपने ब्रेक अप पर खुशी मनाती हुई पिज्जा खा सकती हैं। हालांकि यह बुरा नहीं है, यह बहुत अच्छी बात है कि लडकियां बुरे रिश्ते से बाहर निकलकर आ रही हैं तो जश्न मना रही हैं। मगर यही बात फिर लड़कों के लिए होनी चाहिए। क्या हम इसी खुशी के साथ ब्रेक अप का जश्न मनाते लड़कों को देख सकते हैं? नहीं! एक आम भावना आएगी कि “लड़के ने लड़की का फायदा उठाकर छोड़ दिया!”
ब्रेक-अप का अर्थ बुरे रिश्ते से बाहर आना, तो लड़कों का भी सेलेब्रेशन हमें दुखी नहीं करना चाहिए, पर वह करता है? क्यों? इसका प्रश्न आज के फेमिनिज्म में हैं! जब हम कार24 के विज्ञापन पर पुरुष विरोधी या कहें विवाह विरोधी चुटकुले सुनकर हँसते हैं तो कहीं न कहीं उसी फेमिनिज्म के जाल में फंसते हैं, जो अब पूरी तरह से पुरुष विरोध में बदल गया है, या कहें पुरुष निंदा में! परिहास बुरा नहीं है, पर उसके बहाने अस्तित्व पर निशाना साधना बुरा है।
ऐसा नहीं है कि केवल विज्ञापन ही इस प्रकार का एकतरफा फेमिनिज्म, और पुरुष विरोधी फेमिनिज्म पैदा कर रहे हैं, इसमें योगदान सभी का है। इसमें योगदान कहीं न कहीं पाठ्य पुस्तकों का भी है, जो हमारे बच्चों के दिमाग में बालपन से ही यह बीज बो देती हैं, कि लड़कियों के साथ हिन्दू समाज में अत्याचार होता था, उन्हें जन्म नहीं लेने दिया जाता था। आदि आदि!
परन्तु वह यह नहीं बताती हैं कि आखिर में हिन्दू समाज में जो स्त्रियों के साथ यह अत्याचार होने आरम्भ हुए, वह कब से आरम्भ हुए? क्या वह तभी से आरम्भ नहीं हुए, जब से फेमिनिस्टों का प्रिय इस्लाम भारत में आया? क्या हमारी स्त्रियों को परदे में तभी से रखना आरम्भ नहीं हुआ जब से काला बुर्का भारत में आया?
वह यह नहीं बताते कि कैसे पिछड़ी सोच वाले यूरोपीय भारत में आए तो वह यहाँ की स्त्रियों का खुलापन देखकर हैरान रह गए और फिर उसी खुलेपन को उन्होंने बुराई बताना शुरू कर दिया। जबकि भारत में स्त्रियों के विषय में मौर्य वंश में आए यात्री मेगस्थनीज ने ही अपनी पुस्तक इंडिका में लिखा था कि “यद्यपि बहुविवाह का प्रचलन उच्च वर्ग में था, मगर महिलाओं को स्वतंत्रता थी। वह दर्शन पढ़ती थीं और वह धार्मिक शपथ भी ले सकती थीं।”
स्त्री के प्रेम के उन्मुक्त रूप का वर्णन बार बार हमें संस्कृत के ग्रन्थों में प्राप्त होता है। यदि स्त्री को परदे में रखा जाता था, तो श्रृंगार शतक में जो स्त्री देह का वर्णन है, वह कैसे हो पाता?
कालिदास मेघदूत में जब लिखते हैं कि
त्वामारूढं पवनपदवीमुदगृहीतालाकान्ता:
प्रेक्षिष्यन्ते पथिकवनिता: प्रत्ययादाश्वसन्त्य:
क: संन्द्धे विरहविधुरां त्वय्युपेक्षेत जायां
न स्यादन्योsप्यहमिव जनो य: पराधीनवृत्ति:
अर्थात मेघों से कालिदास कह रहे हैं कि जब तुम आकाश में उमड़ते हुए उठोगे तो प्रवासी पथिकों की स्त्रियाँ मुंह पर लटकते हुए घुंघराले बालों को ऊपर फेंककर इस आशा में तुम्हारी ओर टकटकी लगाएंगी कि अब प्रियतम अवश्य आते होंगे!
जब भृतहरि श्रृंगार शतक में स्त्रियों के रूप का वर्णन करते हैं और कालिदास यह लिखते हैं कि प्रवासी पथिकों की स्त्रियों के घुंघराले बालों को ऊपर करती हैं, तब भी यही प्राप्त होता है कि स्त्रियों को परदे में नहीं रखा जाता था।
फिर जो भी यह कहते हैं कि हिन्दुओं में स्त्रियों को परदे में रखा जाता था, और इसी का प्रतिकार करना फेमिनिस्टो का प्रथम दायित्व है, पुरुषों को अपशब्द देना प्रथम दायित्व है, तो उन्हें इस परदे के ओरिजिन में तो जाना चाहिए। मगर वह नहीं जातीं, बल्कि उदार हिन्दू धर्म में जन्म लेने वाली स्त्रियाँ भी उस मजहबी कट्टरता के बारे में नहीं बोलती हैं, जिसके कारण आज पूरा विश्व स्त्रियों को परदे में रखे हुए हैं।
उदाहरण के लिए आधुनिक अंग्रेजी भारतीय कविता की माँ मानी जाने वाली कमला दास, जो अपने पूरे जीवन भर हिन्दू परम्पराओं को कोसती रहीं, और कहती रहीं कि इस धर्म में प्रेम की स्वतंत्रता नहीं हैं। वह यौनिकता की स्वतंत्रता की बात करती रहीं, और अपने जीवन में अंतिम दिनों में अपने मुस्लिम प्रेमी के कारण इस्लाम अपना लिया और अपना नाम कमला सुरैया कर लिया। तब इस स्वतंत्रता की बात नहीं की कि प्रेम में मजहबी क्यों हो जाना? क्या प्रौढ़ कमला दास का युवा मुस्लिम प्रेमी इन्हें इनके असली नाम के साथ नहीं अपना सकता था? और क्या इनकी यौनिक प्यास इनकी पहचान से बढ़कर थी? शायद हाँ! फेमिनिस्ट केवल इन दिनों यौनिकता के नाम पर शारीरिक संतुष्टि का ही साधन बनकर रह गया है! और यही इन लोगों का दोगलापन है!
और जीवन भर हिन्दू कमला दास जो अपनी हिन्दू जड़ों को गाली देती रहीं, वह अंत में पर्दा अपनाने वाली कमला सुरैया तो बनीं ही, बल्कि अपने दोस्त और प्रेम कृष्ण को हटाकर उन्होंने नमाज पढ़ना शुरू कर दिया।
और अपने मित्र कृष्ण के बारे में उन्होंने क्या लिखा था, तब वह जब कमला दास थीं:
The Maggots
At sunset, on the river ban, Krishna
Loved her for the last time and left।।।
That night in her husband’s arms, Radha felt
So dead that he asked, What is wrong,
Do you mind my kisses, love? And she said,
No, not at all, but thought, What is
It to the corpse if the maggots nip?
तो ऐसी महिलाएं जिनका मूल उद्देश्य ही हिन्दुओं को नीचा दिखाना था, उन्हें जानबूझकर फेमिनिज्म का आदर्श बनाया गया, और उन्हीं की कविताओं को शामिल किया गया पाठ्यक्रम में, जिन्होनें हमारे आदर्शों को नीचा दिखाया। जैसे क्रांतिकारी कमला सुरैया ने कृष्ण को नीचा दिखाया तो वहीं हमारे आदर्श प्रभु श्री राम को आत्महत्या कराते हुए कविताओं में दिखाया गया है और वह भी पाठ्यक्रम में!
"Rama, the incarnation of Vishnu, committed suicide.
His 'arse' turned to moon .."Why this blatant insult of Bhagwan Ram in @OfficialIGNOU book on 'Understanding Poetry' by Arun Kolatkar?
Are there similar poems on revered figures of other faiths in book?
Source @shashank_ssj pic.twitter.com/Rrlwglfa6z
— Gems Of Books (@GemsOfBooks) June 11, 2021
इसलिए जो भी आज फेमिनिस्ट यह कविता लिख रही हैं कि वह अपने पुत्र को गर्भ में ही मार देंगी, उसके पीछे यही कारण है कि उनके लिए इतिहास का ज्ञान तभी से आरम्भ होता है जब से मुगल आए थे, मगर उसमे भी मुसलमानों के प्रति उनका प्यार इतना है कि वह मूल कारणों की ओर नहीं जातीं हैं और हिन्दुओं को ही दोषी ठहरा देती हैं और अपनी हिन्दू नाम और हिन्दू पहचान से इतनी नफरत है कि वह अपने हिन्दू पुत्र को जन्म ही नहीं लेने देंगी:

और यही फेमिनिज्म विज्ञापनों में जब आता है तब इस प्रकार आता है कि वह कार24 के जैसे हस्बैंड24 चलाएंगी और एक हफ्ते का वारंटी पीरियड देंगी! फिर से प्रश्न यही है कि क्या यदि कोई ऐसा कहेगा कि वाइफ24 बनाकर पत्नी की एक हफ्ते की गारंटी लेंगे तो क्या विज्ञापन पर शोर मचेगा?
मगर हम सोचते नहीं! हम उस लेखिका को क्रांतिकारी मानते हैं, जो समाज में पुरुषों के प्रति घृणा का विस्तार करती है। जो राम को कोसती है, जो कृष्ण को छलिया और न जाने क्या क्या कहती है।
यह फेमिनिज्म और कुछ नहीं, बस समाज और हिन्दुओं के आधार को नष्ट करने का एक उपकरण है, जिससे हमें आने वाली अपनी हर पीढ़ी को बचाना है!
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