मातृत्व को अब तक स्वैच्छिक बताने वाली फेमिनिस्ट और बच्चों को एक प्रकार से बोझ बताने वाली वामपंथी औरतें अपने एजेंडे से परे एक विज्ञापन भी नहीं देख सकती हैं और वह हर स्थिति में उसका विरोध करने लग जाती हैं। प्रेगान्युज़ जो प्रेगनेंसी किट के लिए विख्यात है, उसने एक विज्ञापन बनाया, वह विज्ञापन वामपंथी फेमिनिज्म द्वारा बनाए गए ढाँचे को दो ही मिनट में तोड़ देता है।
इस विज्ञापन में एक नई मॉडल, जिसने हाल ही में शादी की है, वह अपने मॉडलिंग कैरियर को लेकर चिंतित है और वह इस बारे में बार बार सवाल कर रही है कि क्या उसे यह बच्चा चाहिए। वह एक रेलवे स्टेशन पर है और जब वह महिला विश्राम गृह में जाती है तो पाती है कि एक साड़ी में महिला बैठी है और उसकी गोद में एक बच्चा है और वह रो रहा है। बिंदी और शायद मंगलसूत्र भी पहने हुए वह महिला है।
और वहीं पर एक अधेड़ उम्र की महिला है, जो लैपटॉप पर काम कर रही है, उससे हर प्रकार के भारतीय चिन्ह गायब हैं और वह स्वयं में एक श्रेष्ठता का भाव लिए है। फिर उस महिला के बच्चे की बोतल गिरती है और वह मॉडल बोतल नहीं उठाती है, बल्कि फिर से एक बिंदी लगाई हुई सफाई कर्मी आती है और, कहती है कि उसके तीन बच्चे हैं और वह तलवे सहलाकर चुप कराती थी।
अर्थात वह अपने मातृत्व का अनुभव साझा कर रही है, यहाँ पर वामपंथियों द्वारा फैलाया गया वर्ग विभेद भी टूट रहा है, और जब वह साड़ी वाली संभ्रांत महिला उस सफाई कर्मी द्वारा अपनेपन से बताए गए अनुभव के आधार पर अपने बच्चे के तलवे सहलाती है, तो वह उसका रोना बंद हो जाता है!
यही बहनापा है, जो भारत की पहचान है, यही वह बहनापा है जो हमारे यहाँ सदियों से रहा है, और यही वह बहनापा है जो यह फेमिनिस्ट मादाएं अपने विकृत सिस्टरहुड से तोड़ना चाहती हैं, और फिर विज्ञापन का सबसे रोचक दृश्य आता है, जिस पर वामपंथी औरतें भड़क सकती हैं! या फिर भड़क रही हैं!
वह प्रौढ़ महिला उस सफाईकर्मी से कहती है कि “ज़िन्दगी में पीछे रह गईं, उसका क्या?”
अब क्षण भर का असहज करने वाला सन्नाटा है! ऐसा लग रहा है जैसे वास्तव में कोई फेमिनिस्ट आकर उस प्रौढ़ महिला की देह में बैठी है! वह उस सफाई कर्मी को उसके काम के आधार पर पिछड़ा बताती है परन्तु कोई भी काम छोटा या बड़ा नहीं होता, इसी सिद्धांत को आत्मसात किए हुए वह सफाई कर्मी अपने पेशे के प्रति आदर व्यक्त करती हुई कहती है कि “मुझे नहीं पता कि आपकी नजर में आगे बढ़ना क्या होता है, मैं अपने बच्चों की नजर में आगे हूँ!”
इस समय यह विज्ञापन जैसे वामपंथी भारत को ठुकराकर भारतीय भारत की ओर बढ़ता है और फिर वह प्रौढ़ महिला उस साड़ी वाली महिला से पूछती है कि क्या उसकी पहचान तो नहीं चली गयी है, बच्चा होने के बाद!
साड़ी पहने महिला कहती है कि उसे तो एक नई पहचान मिली है, तो वह ताना मारती है कि “हाउसवाइफ हो न, इसलिए फ़िल्मी डायलॉग बोल पा रही हो!”
फिर वह महिला कहती है कि इस बच्चे के साथ वह और भी काम करती है और वह शहर का law and order सम्हालती है, और फिर अब तक शांत रहकर इस संवाद को सुन रही वह मॉडल उससे पूछती है कि वह कौन है तो वह कहती है कि “मैं सीमा रस्तोगी, एसएसपी झांसी”! अब आकर उस लड़की का वह भ्रम समाप्त हो जाता है, जिससे वह लड़ रही थी. ऐसा प्रतीत होता है जैसे उसे दिशा मिल गयी, उसे वह दिशा मिल गयी जिससे दूर ले जाने का कुप्रयास उसे भ्रमित विमर्श कर रहा था!
और फिर विज्ञापन का अंत होता है कि एसएसपी अपनी ड्यूटी पर जा रही है और उसके हाथ में एक मैगजीन आती है जिसमें उसी मॉडल की गर्भ्वास्था की तस्वीर होती है! और थैंक्स लिखा होता है!
यह कुछ मिनट का विज्ञापन वामपंथियों द्वारा जतन से बनाई गयी हिन्दू महिला की रोती छवि को एकदम तोड़ देता है!
जो दृश्य इस विज्ञापन में दिखाया है, वह दृश्य बहुत ही आम तौर पर दिख जाता है। हर हिन्दू महिला जो कामकाजी है, वह इसी दृश्य से दो चार होती है और वह अपने मातृत्व को कभी उस प्रकार का बोझ नहीं समझती है जैसा इन वामपंथी रचनाकारों ने बना दिया है। उसके लिए मातृत्व शक्ति है, यह वही शक्ति है जो एक स्त्री को जीजाबाई बनाती है, मातृत्व स्त्री को पूर्ण करता है।
परन्तु पश्चिम में अर्थात ईसाई रिलिजन में मातृत्व औरत को दंड के फलस्वरूप मिला है, इसलिए वह उसे सृजन की पीड़ा न मानकर एक बंधन सा माना गया है,
परन्तु मनुस्मृति में माँ को सबसे बढ़कर बताया गया है:
‘उपाध्यायांदशाचार्य आचार्याणाम शतं पिता।
सहस्रन्तु पितृन्माता गौरवेणातिरिच्यते॥’
(मनुस्मृति; 2/145)
अर्थात The teacher (akarya) is ten times more venerable than a sub- teacher (upadhyaya), the father a hundred times more than the teacher, but the mother a thousand times more than the father। (बहलर)
हिन्दी में इसका अर्थ है
दस उपाध्यायों के तुल्य गौरव एक आचार्य में और शत अर्थात सौ आचार्यों के समान पिता और पिता से भी सहस्र्गुणित गौरव माता में होता है!
यद्यपि यहाँ पर यह सन्दर्भ अजीब लग सकते हैं, परन्तु यह अवधारणा कि औरत गुलाम है, और उसे दंडस्वरूप ही आदमी के स्वामित्व में रहना है, इसके आधार पर उपजे विमर्श के आधार पर भारत के मातृत्व को उन फेमिनिस्ट औरतों के द्वारा कोसा जाता है, जिन्हें पश्चिम के वामपंथी विचारों के आधार पर प्रशंसा चाहिए होती है, और वह मातृत्व को नकारती ही नहीं हैं, बल्कि मातृत्व के भारतीय विचार को पूर्णतया अस्वीकार और अपमानित करती हैं! एवं हिन्दू स्त्रियों को जो अपने परिवार और अपने बच्चों से प्रेम करती हैं, उन्हें निरंतर ही पिछड़ा बताती रहती हैं!
यही कारण है कि इस विज्ञापन को लेकर प्रेगान्युज़ पर फेमिनिस्ट हमले शुरू हो गए हैं। और कहा जा रहा है कि यह स्त्री विरोधी विज्ञापन है और यह महिलाओं को खांचे में बाँट रहा है।
एक महिला ने कहा कि प्रेगान्यूज़ अपने उत्पाद को बेचने पर ध्यान दो। महिलाओं को यह निर्णय करने दो कि वह खुद के लिए क्या चाहते हैं, सभी महिलाऐं एक समान नहीं होती हैं। अगर किसी ने काम को गर्भ से ऊपर चुना है तो उन्हें गलत ठहराने का आपको कोई अधिकार नहीं है!
मगर एक बात समझ नहीं आती है कि कामकाजी और परिवार तोड़ने वाली औरतें एक गृहिणी को बहुत आराम से नीचा दिखा सकती हैं, परन्तु स्वयं की कथित श्रेष्ठता पर उंगली उठाए, यह बर्दाश्त नहीं करती हैं।
एक यूजर ने कहा कि यह महिलाओं को खलनायिका नहीं बता रहा है, यह बस एक दृष्टिकोण बता रहा है।
एक महिला ने कहा कि यह बहुत बेकार विज्ञापन है, जिसमें कैरियर पर मातृत्व को प्राथमिकता दी गयी है और एक यूजर ने कहा कि यह बहुत ही डिस्टर्बिंग विज्ञापन है, मातृत्व को ग्लोरीफाइंग करना बंद कर दिया जाना चाहिए। लोगों की अलग अलग पसंद हो सकती हैं,
तो एक ने कहा कि यह कितना होर्रिबल विज्ञापन है और प्रेगान्यूज़ की टीम कितनी ऑर्थोडॉक्स है! और एक ने लिखा कि वह महिला के त्याग को प्रमोट क्यों कर रहे हैं?
कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर बुर्का पहनने वाली फेमिनिस्ट स्त्रियों और मातृत्व को महिमामंडित करने वाले विज्ञापन पर शोर मचा रही हैं। इन्हें बुर्के की कैद और एक वर्ग की पूरी औरतों को अँधेरे में बंद करना अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता लगती है और एक महिला का सही उम्र पर मातृत्व का चयन करना ऑर्थोडॉक्स लग रहा है?
can I get this content in English?