जब भी हम फेमिनिज्म की बात करते हैं, या फिर कथित नारीवाद की बात करते हैं, तो ऐसा प्रतीत होता है जैसे हम समानता की बात कर रहे हैं, जैसे हम किसी विज्ञान की बात कर रहे हैं, जैसे हम नारियों की स्वतंत्रता की बात करते हैं। जैसे हम यह कहते हैं कि वास्तव में अब तक नारियों के साथ गलत हुआ, चलो अब सही करते हैं। परन्तु क्या सही करते हैं? नहीं पता, क्या स्वतंत्रता देते हैं, नहीं पता! स्वतंत्रता की परिभाषा क्या है, नहीं पता? और अंतत: यह आजादी की सनक कहाँ तक है?
फेमिनिज्म आखिर है क्या? और क्या वास्तव में फेमिनिस्ट कविताएँ इस्लाम की तरफ जाने के लिए बाध्य करती हैं? इसके लिए कुछ मनोविज्ञान समझना होगा। फेमिनिज्म अर्थात विक्टिमहुड की कविताएँ, अर्थात स्वयं को पीड़ित दिखाने की कविताएँ, एक कृत्रिम पीड़ा से प्रेम! कृत्रिम पीड़ा इसलिए कह रही हूँ क्योंकि वास्तव में ही वह एक ऐसे जगत का निर्माण करती हैं, जहाँ पर वह मात्र पीड़ित हैं, और उन पर अत्याचार हो रहे हैं। एक छद्म संघर्ष है!
यहाँ हम यह नहीं कह रहे कि अत्याचार नहीं हुए, परन्तु अत्याचार किसने किए, और उस समय की परिस्थितियाँ क्या थीं? यह कौन निर्धारित करेगा? अत्याचार से लड़ना था या समाज को ही अत्याचारी घोषित कर देना था? पीड़ा से बचना था कि पीड़ा का संसार ही रच देना था? बदलती परिस्थितियों में शत्रु बोध उत्पन्न करना था या फिर स्वयं को सेक्स स्लेव के लिए बिस्तर बन जाना था?
विश्व की परिस्थितियों में भी यदि हम देखते हैं, तो पाते हैं कि रेडिकल फेमिनिज्म ने विश्व भर की महिलाओं के लिए इस्लाम में मतांतरित होने का मार्ग प्रशस्त किया है। इस विषय में https://www.brusselsjournal.com पर एक बहुत ही रोचक लेख प्रकाशित हुआ है। इसमें एक बहुत ही सहज प्रश्न किया गया है कि क्या फेमिनिस्ट हमेशा यह दावा नहीं करती हैं कि यह दुनिया तब बहुत बेहतर होगी जब महिलाएं ही चालक सीट पर होंगी, क्योंकि वह अपने बच्चों को कभी दाँव पर नहीं लगाएंगी? परन्तु क्या यह एकदम विपरीत नहीं है? क्या वह उन पार्टियों के लिए वोट नहीं दे रही हैं, जो मुस्लिम शरणार्थियों के लिए दरवाजे खोल रही हैं, वही मुस्लिम शरणार्थी जो हमारे बच्चों पर हमला करेंगे?
इस पर आगे जो लिखा है, वही हूबहू हिन्दू पुरुषों पर भी लागू होता है। इसमें लिखा है कि कई फेमिनिस्ट विलाप यह मानता है कि सारा शोषण जो इस दुनिया में हो रहा है, वह पश्चिमी आदमियों के कारण हो रहा है और, जो महिलाओं को और “गैर-पश्चिमी” आदमियों का शोषण कर रहे हैं। और जो मुस्लिम शरणार्थी आ रहे हैं, वह इसी भेदभाव के साथी पीड़ित हैं। और वह पैट्रिआर्की पिग्स हो सकते हैं, मगर फिर भी वह पश्चिमी आदमियों से तो बेहतर हैं।”
अब इसे हिन्दू परिदृश्य में देखते हैं!
भारत में हिन्दू फेमिनिस्ट मादाएं, हमेशा एक ही बात को लेकर रोती रहती हैं कि हिन्दू पुरुष बहुत अत्याचार करते हैं, और मुस्लिम अमन चैन की बातें करते हैं। अब इसे एक उदाहरण से समझते हैं। जितनी भी अधिकतर कविताएँ हैं उनमें हिन्दू पुरुष ही खूंखार जानवर की तरह प्रस्तुत किया गया है। जैसे आइये देखते हैं, आभा बोधिसत्व की कविता, जिसमें वह हिन्दू पुरुषों को अत्याचारी या गालियाँ देने वाला कह रही हैं और लिखती हैं:
न केशव की कमला हूँ
न ब्रहमा की ब्रह्माणी
न मंदिर की मूरत हूँ
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नींद में सुनती हूँ गालियाँ दुत्कार
मुझे दुत्कारता यह
कौन है।।। कौन है।।। कौन है।।।?
जो देता है सुनाई
पर नहीं पड़ता दिखाई
हर तरफ छाया बस
मौन है।।। मौन है।।। मौन है…
अब इस कविता को पढ़कर ऐसा लगेगा जैसे न जाने कितना अत्याचार इनके समाज का पुरुष इन पर कर रहा है, जबकि व्यक्तिगत जीवन इनका कैसा होगा, यह नहीं बताएंगी!
ऐसे ही गगन गिल की कविता देखिये
पिता ने कहा
मैंने तुझे अभी तक
विदा नहीं किया
तू मेरे भीतर है
शोक की जगह पर
कौन सा पिता ऐसा कहता है? हिन्दुओं में बेटियों को कब से शोक माना जाने लगा? यदि लड़कियों को बोझ माना भी गया तो माना गया तब, जब इस्लामी आक्रान्ताओं ने छोटी छोटी बच्चियों का बलात्कार करना शुरू कर दिया, छोटी छोटी बच्चियों को भी सेक्स स्लेव बनाकर बेचना आरम्भ कर दिया, परन्तु जिन कथित फेमिनिस्ट लेखिकाओं की कविताएँ बच्चियों को पढ़ाई जाती हैं, वह हिन्दू धर्म के प्रति आक्रोश भरती हैं और दूसरे मजहब को ऐसा बताती हैं, जैसे कि निर्मला गर्ग अपनी एक कविता में कहती हैं कि वह बांग्लादेश जाकर मुहम्मद यूनुस से हाथ मिलाना चाहती हैं,
ठीक है, मुहम्मद युनुस ने काम अच्छा किया है, आप जाकर मिल सकती हैं, परन्तु इस बहाने वह कितना बड़ा नैरेटिव सेट कर रही हैं कि
हमारे प्रधानमंत्री भी तुम्हारे साथ पढ़ रहे हैं
पर उनका अर्थशास्त्र इतना अलग क्यों है?
हालांकि निर्मला यह नहीं बतातीं कि हमारे प्रधानमंत्री का कौन सा अर्थशास्त्र अलग है? यह कविता संभवतया वर्ष 2012 में लिखी गयी है तो हो सकता है कि प्रधानमंत्री कौन है यह पता लग सकता है?

दरअसल भारत का फेमिनिज्म भी विक्टिमहुड के उस शातिर पड़ाव पर है जहाँ से आगे जाकर हिन्दू धर्म का विरोध आरम्भ हो जाता है। उनके लिए उनका वह धर्म और वह ग्रन्थ खलनायक हैं, जिन्हें वह मानती ही नहीं है, और जिन मुगलों ने सिर काटकर मीनारें बनाईं, उन्हें वह अपना उद्धारक मानती हैं। यही कारण हैं कि वह मुक्ति के पाठ में सबसे पहले खुद को हिन्दू पहचान से अलग करती हैं। आप स्वयं को अलग कर लीजिये, परन्तु जब वह ऐसी कविता रचती हैं, मुक्ति की, तो उस मुक्ति में किससे मुक्ति है, यह नहीं बतातीं।
इन लोगों ने हिन्दू पुरुषों को “अपने ऊपर” और “मुस्लिमों” पर अत्याचारी के रूप में सोच लिया, कल्पना कर ली और इसी विक्टिमहुड के चलते वह उन कट्टरपंथी मुस्लिम तत्वों के साथ जाकर खड़ी हो गईं, जो तीन तलाक, हलाला और औरतों को परदे में रखने के में सबसे आगे हैं।

उन्हें इन मुस्लिम कट्टरपंथी पुरुषों के कथित हिन्दुओं द्वारा शोषण के पीछे वह असली अत्याचार नहीं दिखते, जो वह वास्तव में अपनी औरतों पर करते हैं। फेमिनिज्म यह अजीब मनोवैज्ञानिक द्वन्द उत्पन्न करता है! और यह फेमिनिस्ट एक ओर कथित महिला दिवस मनाती हैं तो उसके साथ ही हिजाब को भी स्वतंत्रता बताती हैं।
अदनान कफील दरवेश एक विवाह का उल्लेख करते हुए लिख रहे हैं:
आज उस स्त्री के प्रथम सहवास का दिन है
आज ही एक पुरुष ने उसे बड़ी धूमधाम से ख़रीद लिया है
आज ही उसकी हत्या होगी
आज ही उसका एक नए घर में पुनर्जन्म होगा
नया सजा-धजा घर
नया शरीर
नए हाव-भाव
नई हँसी
नए विचार
नई संवेदना
इतनी नई कि कुछ दिनों में ही भूल जाएगी
अपना पिछला जन्म
और प्रेमी के साथ विवाह न होने के कारण वह मातापिता को दोषी ठहरा रहे हैं और विवाह जैसे पवित्र संस्कार को स्त्री की हत्या कह रहे है, क्या वास्तव में ऐसा होता है?
अनिता वर्मा अपनी इच्छाओं के लिए कहती हैं कि मुक्ति सम्भव नहीं है क्योंकि उनकी हर चरण पर इच्छाएं थीं!
अब प्रश्न यह है कि आखिर कौन आपकी इच्छाओं को पूरा करने से रोकता है? इन लोगों ने पूरे हिन्दू समाज और लोक को दोषी बनाकर प्रस्तुत कर दिया है,
अपनी पत्नियों और बहनों एवं बेटियों को मुस्लिम आक्रान्ताओं से बचाने वाले हिन्दू पुरुष सबसे बड़े खलनायक बनाकर इनके द्वारा प्रस्तुत कर दिए गए और हिन्दू महिलाओं को अपनी अय्याशी के लिए सेक्स स्लेव बनाने वाले मुग़ल इनके नायक हैं!

कमला दास का उदाहरण सबसे बड़ा उदाहरण है
आधुनिक अंग्रेजी भारतीय कविता की माँ मानी जाने वाली कमला दास, जो अपने पूरे जीवन भर हिन्दू परम्पराओं को कोसती रहीं, और कहती रहीं कि इस धर्म में प्रेम की स्वतंत्रता नहीं हैं। वह यौनिकता की स्वतंत्रता की बात करती रहीं, और अपने जीवन में अंतिम दिनों में अपने मुस्लिम प्रेमी के कारण इस्लाम अपना लिया और अपना नाम कमला सुरैया कर लिया। तब इस स्वतंत्रता की बात नहीं की कि प्रेम में मजहबी क्यों हो जाना? क्या प्रौढ़ कमला दास का युवा मुस्लिम प्रेमी इन्हें इनके असली नाम के साथ नहीं अपना सकता था? और क्या इनकी यौनिक प्यास इनकी पहचान से बढ़कर थी? शायद हाँ! फेमिनिस्ट केवल इन दिनों यौनिकता के नाम पर शारीरिक संतुष्टि का ही साधन बनकर रह गया है! और यही इन लोगों का दोगलापन है!

और जीवन भर हिन्दू कमला दास जो अपनी हिन्दू जड़ों को गाली देती रहीं, वह अंत में पर्दा अपनाने वाली कमला सुरैया तो बनीं ही, बल्कि अपने दोस्त और प्रेम कृष्ण को हटाकर उन्होंने नमाज पढ़ना शुरू कर दिया।
और अपने मित्र कृष्ण के बारे में उन्होंने क्या लिखा था, तब वह जब कमला दास थीं:
The Maggots
At sunset, on the river ban, Krishna
Loved her for the last time and left।।।
That night in her husband’s arms, Radha felt
So dead that he asked, What is wrong,
Do you mind my kisses, love? And she said,
No, not at all, but thought, What is
It to the corpse if the maggots nip?
तो ऐसी महिलाएं जिनका मूल उद्देश्य ही हिन्दुओं को नीचा दिखाना था, उन्हें जानबूझकर फेमिनिज्म का आदर्श बनाया गया, और उन्हीं की कविताओं को शामिल किया गया पाठ्यक्रम में, जिन्होनें हमारे आदर्शों को नीचा दिखाया। जैसे क्रांतिकारी कमला सुरैया ने कृष्ण को नीचा दिखाया।
अब इसे फिर से पश्चिम में जो फेमिनिज्म तहलका मचाए है, उसमें देखते हैं। इसमें नॉर्वे में गोरे आदमियों के लिए जिस प्रकार से घृणा पसरी है, उसे बताया है।
क्या यह घृणा हिन्दी कविताओं में हिन्दू इतिहास और हिन्दू पुरुषों के लिए नहीं है? क्या यही घृणा हिन्दू मान्यताओं के लिए नहीं है? बच्चों को कक्षा दस में ही कन्यादान के विषय में क्या पढ़ाया जाता है, यह भी हमने देखा ही है:

इस बात पर अब विमर्श होना ही चाहिए कि क्यों फेमिनिज्म का अर्थ मात्र हिन्दू पुरुषों और हिन्दू धर्म ग्रंथों का विरोध बनकर रह गया है? और कहीं न कहीं कट्टरपंथी इस्लाम का संवाहक यह फेमिनिज्म बन गया है!