आज हम अंग्रेजों से स्वतंत्र है, परन्तु क्या हम उस औपनिवेशिक आत्महीनता की ग्रंथि से पूर्णरूपेण बाहर आ सके हैं, जो हमारे भीतर इतने वर्षों की गुलामी के दौर में उपजा दी गयी है? यह प्रश्न बार बार इसलिए उभरता है क्योंकि अभी तक एक बड़ा वर्ग है जो अपने धर्म पर गर्व करना नहीं सीख पाया है। वह गर्व तो करता है, परन्तु कई किन्तु परन्तु के साथ। ऐसा लगता है जैसे उसे किसी का प्रमाणपत्र चाहिए। वह मुक्त होकर यह कहने में हिचकता है कि “हाँ, यही उसका धर्म है, यही उसकी संस्कृति है!”
आज भी एक बड़ा वर्ग है जिसे यह कहने में संकोच होता है कि उसके धर्म ने विश्व को आयुर्वेद, ज्योतिष एवं गणित, विज्ञान, साहित्य दिया, परन्तु वह अपनी पाठ्यपुस्तकों में यह पढ़कर गर्वित होता है कि हिन्दू धर्म में कुरीतियाँ थीं, जिन्हें उसने दूर कर दिया। परन्तु उन कुरीतियों के कारणों पर प्रकाश डालने से वह वर्ग भयभीत होता है क्योंकि जब वह कुरीतियों के कारणों पर जाता है तो वह उस वर्ग के विरुद्ध स्वत: ही खड़ा हो जाता है, जो आज के “विमर्श-स्थान” में सुधारक या उद्धारक के रूप में स्वयं को स्थापित कर चुके हैं।
यह आत्महीनता बहुत ही सूक्ष्म तरीके से एक ऐसे वर्ग की चेतना में धंसी हुई है, जिसका प्रभाव आम भारतीय पर बहुत अधिक है। पश्चिम ने बहुत ही स्मार्ट तरीके से यह भाव मन में बसा दिया है। THE RENAISSANCE IN INDIA, ITS MISSIONARY ASPECT में सीएफ एंड्रूज़ भारत के मन में बसी बेचैनी को जड़ों की ओर लौटने की बेचैनी न बताकर एक ऐसी बेचैनी बताते हैं, जो एक नए धर्म की ओर देख रही है। वह कई “हिन्दू छात्रों” के हवाले से इस प्रोपोगैंडा को हवा देते हैं।
मजे की बात यह है कि सीएफ एंड्रूज़ जब मिशनरी सोसाइटीज के सहयोग से यह पुस्तक लिख रहे थे, तो उनके उद्देश्य स्पष्ट थे। भारतीय मेधा को भ्रमित करना और उन्होंने इस पाठ्यपुस्तक को तथ्य आधारित बताया है, परन्तु जब भी भारतीय छात्रों के हवाले से बात की है, तो उन्होंने न ही नाम दिया है और न ही उसके धर्म का उल्लेख किया है। बल्कि एक आत्महीनता का ही विस्तार किया है। वह लिखते हैं कि इस समय अर्थात मैकाले की शिक्षा व्यवस्था के बाद जो पीढ़ी शिक्षित हो रही है, उसके मन में कैसी व्यग्रता उत्पन्न हो रही है। वह लिखते हैं कि इस पुस्तक का उद्देश्य है कि मैं भारतीय बेचैनी को और इस देश में शिक्षित वर्ग की स्थिति को दिखा सकूं। इस पुस्तक में जिन समस्याओं के विषय में चर्चा की जाएगी, उनमें वर्तमान भारतीय स्थिति की तुलना में कहीं अधिक वृहद अवधारणाएं हैं। फिर वह लिखते हैं कि ऐसी स्थिति बन रही है कि जहाँ पर एशिया वह युवक प्राचीन परम्पराओं एवं पुराने जगत की परम्पराओं को छोड़ रहे हैं।
रिकॉर्ड ईसाई कार्यकर्त्ताओं और विचारकों के समक्ष यह स्पष्ट करते हैं कि जीवित प्रभु की भावना इस गहरे चेहरे पर चिन्तन कर रही है और कह रही है “यहाँ पर रोशनी होने दे” और यहाँ पर रोशनी हो रही है!
अर्थात वह भी शिक्षा को रोशनी या लाइट का पर्याय बता रहे हैं, परन्तु कौन सी शिक्षा? शिक्षा प्रकाश लाती है, परन्तु जो शिक्षा मिशनरी दे रही थीं, वह कौन सी शिक्षा थी, जिसने भारतीयों को भ्रमित कर दिया, जिसने उनके भीतर अपने ही धर्म के प्रति आत्महीनता का बोध भर दिया?
अब वह आगे लिखते हैं कि यह जागृति तब तक अपर्याप्त है और एक नए युग का सूत्रपात नहीं कर सकती है जब तक इस पुनर्जागरण के साथ साथ एक धार्मिक सुधार नहीं चलें। ईसाई मिशन चुपचाप ही सही, परन्तु निश्चित ही पूर्व के लोगों की प्राचीन धार्मिक अवधारणाओं को छोड़ रहे हैं और वह नया जीवन प्रदान कर रहे हैं।
अब वह एक ऐसे प्रबुद्ध भारतीय विचारक, जो स्वयं ईसाई नहीं है के हवाले से कह रहे हैं कि “अगर हमें एक राष्ट्रीय आन्दोलन सफल करना है या आगे लेकर जाना है तो हमें एक नए धर्म की आवश्यकता होगी। भारत का दिल पूरी तरह से धार्मिक है और वह तब तक कुछ नहीं समझ सकता है जब तक उसे धार्मिक तरीके से न समझाया जाए। ——————— पर वह नया धर्म क्या होगा, हम यह कल्पना भी नहीं कर सकते, हिन्दू धर्म यह नहीं कर सकता, इस्लाम भी नहीं ———- आप यह कह सकते हैं कि ईसाई रिलिजन ही भविष्य में सर्वोच्च धर्म होगा और हम भारतवासी इसकी ओर आशा से देख रहे हैं।————————————— हम वास्तव में एक नए धार्मिक आवेग के आने की प्रतीक्षा में हैं और उसके आगमन की आशा कर रहे हैं। और ऐसा होने से हमारी वर्तमान कठिनाइयाँ और निराशाएं समाप्त हो जाएँगी।”
जो बात सीएफ एंड्रूज़ इस पुस्तक में लिखते हैं, वह बहुत स्पष्ट तरीके से हिन्दुओं के एक बड़े वर्ग के जीवन में दिखाई देती है, वह समस्याओं पर तो बात करते हैं, पर कारणों पर नहीं। वह यह नहीं लिखते कि हमारे साधुओं की हत्या के पीछे वह दशकों पुरानी वह हिन्दू घृणा और आत्महीनता की भावना है, जो ईसाई मिशनरी ने शिक्षा के माध्यम से भर दी है।
और आज भी एक बड़ा वर्ग है वह बार बार हिन्दू विधि विधानों को उसी चश्मे से देखता है जिस चश्मे से इतने वर्ष पहले से ईसाई मिशनरी ने अपनी “आधुनिक शिक्षा” के माध्यम से दिखाना आरम्भ किया था।
और सबसे मजेदार और रोचक बात यही है कि भारत में राष्ट्रीयता के उदय के लिए “आधुनिक शिक्षा” को उत्तरदायी बताया था। जिस भारत में तुलसीदास जी ने न जाने कब यह लिख दिया था कि “पराधीन सपनेहूँ सुख नाहीं!” उस भारत में स्वतंत्रता की भावना और राष्ट्रीय चेतना की भावना के लिए उस आधुनिक शिक्षा को कारक बताया गया, जिस आधुनिक शिक्षा ने हिन्दू बोध को ही खुरच खुरच कर बाहर निकालने का षड्यंत्र रचा।।
यह आत्महीनता इस सीमा तक औपनिवेशिक मस्तिष्क में बस गयी है कि उसे निकालने के लिए भी उसी प्रकार खुरचना होगा जैसे हिन्दू होने के बोध को खुरचा गया। Decolonizing the Hindu Mind Ideological Development of Hindu Revivalism में कोएनार्ड एल्स्ट लिखते हैं कि भारत में भाषा को औपनिवेशवाद से मुक्त करने से रोकने के लिए और अंग्रेजी के ही प्रभुत्व के अधिकार को सुरक्षित करने के लिए शासन में बैठे कुलीनों ने अपना पूरा जोर लगा दिया है।
अंग्रेजी को एक भाषा न मानकर एक बड़ा वर्ग उसे उद्धारक मानता है, यह समस्या है।
फिर वह अपने प्राचीन ज्ञान और बौद्धिक संपदा से विमुख भारत के विषय में एक विख्यात नानी पालखीवाला की एक टिप्पणी का उल्लेख करते हैं “भारत एक ऐसे गधे की भांति है, जिसकी पीठ पर सोना लदा हुआ है। और उसे पता ही नहीं है कि उसके पास क्या है मगर वह उसे ढोए जा रहा है!”
वह बार बार इस तथ्य पर बल देते हैं कि कैसे हिन्दू बौद्धिक संपदा को अंग्रेजों ने नष्ट किया। क्लाउड अल्वेयर्स कहते हैं कि “यह विचार तक बहुत सुनियोजित तरीके से नष्ट किया गया कि दूसरी संस्कृतियों में तकनीक हो सकती हैं!”
आज भी हम यह देखते हैं कि जैसे ही कोई चाणक्य को अर्थशास्त्र का जनक बताता है तो उसे अजीब दृष्टि से या पिछड़ी दृष्टि से देखा जाता है, कोई चिकित्सा के क्षेत्र में आयुर्वेद का उल्लेख करता है तो उसे पिछड़ा कहा जाता है। जबकि इन्हीं जकड़नों से मुक्त होने की आवश्यकता है।