भारत में तमिलनाडु में 17 वर्षीय लावण्या ने सफ़ेद मिशनरी जहर के कारण अपनी जीवनलीला समाप्त कर ली है, परन्तु क्या यह सिलसिला अभी का है या कहा जाए कि क्या मिशनरी स्कूल्स ने अभी आकर ही लावण्या को अपना शिकार बनाया है? या यह सदियों पुरानी चाल है। मिशनरी स्कूल्स भारत में ईसाई रिलिजन के प्रचार प्रसार के लिए ही स्थापित किए गए थे।
द रेनेसां इन इंडिया, इट्स मिशनरी आस्पेक्ट में सीएफ एंड्रूज़ ने यह विस्तार से लिखा है कि मिशनरी स्कूल्स और कॉलेज का लक्ष्य क्या है। उन्होंने लिखा है कि मैकाले के मिनट्स लिखे जाने से पहले एलेग्जेंडर डफ़ नामक चौबीस वर्षीय मिशनरी शिक्षक ने बंगाल में एक कॉलेज की स्थापना की थी। और वर्ष 1833 में गवर्नर जनरल एवं उनकी काउंसिल ने डफ़ के विचार को अपना लिया था और राजा राम मोहन रॉय इस मिशनरी शिक्षक के साथ थे। इसके साथ ही युवा बंगाल ने इस शिक्षक का स्वागत किया था, डफ़ अंग्रेजों की ओर इस नए अभियान का नेतृत्व बन कर उभरा था।
वह लिखते हैं कि डफ़ के प्रयासों के कारण ही बंगाल में कई अमीर और कुलीन परिवारों के प्रतिभाशाली युवाओं ने ईसाई रिलिजन का दामन थाम लिया और उत्तर भारत में ईसाई शिक्षा आन्दोलन चलाने के लिए यही युवा आगे आए थे।
डफ़ ने मिशनरी स्कूल और ईसाई शिक्षा के विषय में क्या कहा था, पहले उसे समझते हैं और फिर हम लावण्या सहित जितने बच्चों को प्रताड़ित किया जाता है उसे समझते हैं। डफ़ का सिद्धांत था कि ईसाईयत कुछ सार सिद्धांतों का ढांचा भर नहीं है बल्कि मांस-मज्जा से बनी सुसज्जित वस्त्र पहने हुए एक जीवंत आत्मा है। ईसाई सिविलाइजेशन में ईसाई फेथ के मूर्त रूप होने का भाव है और यही ईसाई सिविलाइजेशन अर्थात सभ्यता भारत में सभी को देनी चाहिए।
फिर वह जो लिखते हैं उसे समझा जाना चाहिए
“अंग्रेजी शिक्षा, जो इस सभ्यता को व्यक्त करती है, वह मात्र एक सेक्युलर चीज़ नहीं है बल्कि वह ईसाई रिलिजन में पगी हुई है। अंग्रेजी साहित्य, अंग्रेजी इतिहास और अर्थशास्त्र, अंग्रेजी दर्शन, सभी में जीवन की जरूरी ईसाई अवधारणाएं साथ चलती हैं, जो अब तक ईसाइयों ने बनाई हैं।”
फिर वह कहते हैं कि “डफ़ ने जो सच बताया है, उसे किसी भी अच्छे कॉलेज टीचर के अनुभव से आसानी से स्थापित किया जा सकता है!”
वह कहते हैं कि जो हिन्दू पश्चिमी विज्ञान को संवेदना और समझ के साथ पढ़ाते हैं, वह उनके लिए ईसाई मूल्यों वाला ही होता है।
उसके बाद मैकाले का तो उद्देश्य ही था कि भारतीयों के दिमाग को पहले कोरी स्लेट बनाना और फिर उसमें “अंग्रेजी” लिखना।
हालांकि एंड्रूज़ इस बात को भी लिखते हैं कि वह देशी भाषाओं को मिटाने में विफल हुए और देशी भाषाओं से शिक्षा बंद कराने में भी विफल हुए। वह लिखते हैं कि आर्य समाज जैसे संस्थानों ने पश्चिमी विज्ञान को प्राचीन भारतीय संस्कृति और साहित्य के साथ ही पढ़ाना आरंभ किया
मिशनरी स्कूल्स का मुख्य उद्देश्य ईसाई रिलिजन का ही प्रचार करना था
इसी पुस्तक में वह पृष्ठ 53 और 54 में आशा व्यक्त करते हैं कि भारत में बुद्धिमत्ता बहुत है और यही कारण है कि हमें आशा है कि हमारे मिशन कॉलेज से पास होने वाले विद्यार्थियों में से कई ऐसे होंगे जिनमें रिलीजियस उत्कृष्टता होगी और वह “ईसाई रिलिजन” के लिए अपना सब कुछ छोड़ सकेंगे। वह कहते हैं एक दिन जरूर ऐसा आएगा जब हमारी मिशनरी से पास हुए युवा पूरे भारत में ईसाई सन्देश की शिक्षा देंगे।
और इसमें लिखा है कि मौकाले के साथ जो पश्चिमी सिविलाइज़ेशन के सम्बन्ध में अंतर आया वह जॉन सीले के अनुसार था कि हमें बहुत मजबूती से स्वयं को ऐसे प्रस्तुत करता है जैसे हम ही हैं जो सभ्यता सिखाने आए हैं और साथ ही हम ही शिक्षक हैं।
अब वर्तमान में हुई कई घटनाओं को देखते हैं
तमिलनाडु में लावण्या ने हिन्दू धर्म न छोड़ने को लेकर आत्महत्या कर ली, क्योंकि वार्डन उस पर ईसाई धर्म अपनाने का दबाव डाल रही थी और साथ ही कई अपमानजनक कार्य करवा रही थी। इस मानसिकता को समझना होगा कि भारत की स्वतंत्रता के उपरांत भी कहीं न कहीं मिशनरी स्कूल्स में यह मानसिकता अभी तक है कि हिन्दू पिछड़े हैं, और उन्हें सुधारना है। उनका उद्धारक बनना है।
और यही कारण है कि हिन्दू धार्मिक प्रतीकों एवं पर्वों पर मिशनरी स्कूल्स द्वारा गाहे बगाहे आक्रमण होते रहते हैं। ऐसे ही कुछ मामलों पर हम दृष्टि डालते हैं:
- वर्ष 2006 में नवम्बर में ओमाल्लुर सुकन्या कैथोलिक मिशनरी द्वारा संचालित किए जा रहे फातिमा स्कूल के कैम्पस में रहस्यमयी स्थितियों में मृत पाई गयी थी। स्वराज्यमार्ग की रिपोर्ट के अनुसार जब सत्तारूढ़ डीएमके एक मंत्री ने जनता के बढ़ते आक्रोश के चलते स्टाफ के स्थानान्तरण का अनुरोध किया था, तो सालेम के बिशप ने यह कहा था कि एक अल्पसंख्यक संस्थान होने के नाते वह उनकी मांग के सामने नहीं झुक सकते हैं।
वहीं इसी में आगे लिखा है कि तुगलक ने 25 जुलाई 2007 में यह रिपोर्ट की कि फोरेंसिक रिपोर्ट के अनुसार उस लड़की के साथ यौन शोषण भी हुआ था।
- स्वराज के अनुसार वर्ष 2009 में एक बारह साल की बच्ची रंजीता ने आत्महत्या कर ली थी क्योंकि उसे जबरन बाइबिल पढने के लिए बाध्य किया गया और जब वह नहीं सुना पाई थी तो उसे अपमानित किया गया था, मंदिर ने जो तावीज दिया था, वह भी जबरन हटा दिया था। हालांकि स्कूल ने उसकी आत्महत्या का आधिकारिक कारण उसके कम अंक बताए थे, परन्तु उसकी कई सहेलियों ने मनोवैज्ञानिक उत्पीडन को ही कारण बताया था।
- अक्टूबर 2019 में त्रिपुरा के स्कूल में भी एक विद्यार्थी की भी होस्टल वार्डन द्वारा कथित शारीरिक अत्याचार के चलते मृत्यु हो गयी थी। त्रिपुरा के कुमारघाट में पबियाछारा में होली क्रॉस स्कूल में एक कक्षा नौ के विद्यार्थी हैपी देबबर्मा की मृत्यु होस्टल वार्डन के अत्याचारों के कारण हो गयी थी।
- यह ज्ञात मामले हैं, परन्तु न जाने कितनी लावण्या और कितनी रंजीता हैं जो इन अत्याचारों के कारण आत्महत्या कर लेती होंगी या प्रताड़ित होती रहती होंगी। क्योंकि मिशनरी स्कूल्स द्वारा मेहंदी हटाने को लेकर प्रताड़ित किया जाता है, विद्यार्थियों के माथे से भभूत हटाने के लिए कहा जता है और जनेऊ पहनने पर भी प्रताड़ित किया जाता है।
यह सभी इसीलिए क्योंकि कहीं न कहीं अभी तक भी डफ़ और मैकाले के वही सिद्धांत कुछ मिशनरी स्कूल्स के अवचेतन में हैं।
- हाल ही में कनाडा के एक स्कूल में 200 से ज्यादा बच्चों के शव मिले थे और दुनिया दंग रह गयी थी। और फिर पता चला था कि इस मिशनरी ईसाई स्कूल का संचालन ओटावा में ईसाई चर्चों द्वारा किया जाता था और मीडीया के अनुसार जाँच एजेंसियों को जो दस्तावेज़ मिले थे, उनके आधार पर इसकी पुष्टि हुई थी कि यहां पढ़ने वाले करीब 1 लाख 50 हजार बच्चों को शारीरिक उत्पीड़न, रेप जैसे अपराध का सामना करना पड़ा और उन्हें कई दिनों तक बिना खाने के भी रखा गया था।
- इस मामले के सामने आने पर कनाडा के प्रधानमंत्री ने क्षमा भी मांगी थी
कथित सुधारक और उद्धारक के चोले के नीचे न जाने कितने बच्चों के शव हैं, यह पता नहीं कब पता चल सकेगा!