हिन्दू लड़कियों का आधा मस्तिष्क तो वैसे ही वामपंथी और कथित राष्ट्रवादी रोने धोने वाली छद्म कविताओं और इतिहास की पुस्तकों एवं उर्दू गजलों के कारण भ्रमित हो जाता है। उसके बाद उनके पास अपनी स्त्रियों की कोई जानकारी नहीं होती है। उन्हें यह नहीं पता होता कि जो स्त्री विमर्श कि स्त्री का आंकलन उसकी बुद्धि के आधार पर किया जाना चाहिए, वह तो उनके वेदों से ही आरम्भ हुआ है।
वैदिक काल में कम से कम 25-30 ऋषिकाओं का उल्लेख है जिसमें सबसे महत्वपूर्ण है रोमशा! रोमशा पहली ऐसी स्त्री थी जिन्होनें इस विमर्श को आरम्भ किया कि स्त्री के सौन्दर्य से इतर उसकी बुद्धि और गुण के आधार पर आंकलन किया जाना चाहिए।
ऋग्वेद के प्रथम मंडल के 126वें सूक्त के सातवें मन्त्र की रचयिता रोमशा लिखती हैं
“उपोप मे परा मृश मा मे दभ्राणि मन्यथाः।
सर्वाहमस्मि रोमशा गन्धारीणामिवाविका ॥“
रोमशा को स्त्री विमर्श का प्रथम स्वर मानते हुए सुमन राजे अपनी पुस्तक हिंदी साहित्य का आधा इतिहास में, लिखती हैं कि जिस प्रकार रोमशा ने अपने पति से कहा है कि वह उनके रूप के स्थान पर गुणों पर ध्यान दें, वह स्त्री विमर्श का प्रथम स्वर है।
वहीं एक और स्त्री लोपामुद्रा का विशेष उल्लेख करना होगा, जिसने सबसे पहले यह कहा कि दाम्पत्त्य में सबसे आवश्यक है कि स्त्री के मन के अनुसार सम्बन्ध बनें! ऋषि अगस्त्य की पत्नी लोपामुद्रा ने वेदों में ही दाम्पत्त्य सुख संबंधी सूक्त लिखे और कहा कि उसका यौवन बेकार हो रहा है, यह पति का कर्तव्य है कि वह उसे यौवन सुख दे!
इससे भी सबसे महत्वपूर्ण नाम है सूर्या सावित्री का। सूर्या सावित्री को ऋग्वेद में सूर्य की पुत्री कहा गया है तथा ऋग्वेद के दसवें मंडल को विवाह सूक्त कहा जाता है, और आज की स्त्रियों को पता ही नहीं होगा कि इस विवाह सूक्त के मन्त्र किसी और ने नहीं बल्कि सूर्या सावित्री ने की है।
कुछ मन्त्र हैं:
सम्राज्ञी श्वशुरे भव सम्राज्ञी श्वश्रवाम् भव
ननान्दरि सम्राज्ञी भाव सम्राज्ञी अधि देवृषु। (ऋग्वेद 10 मंडल सूक्त 85. मन्त्र 46)
अर्थात वह अपने श्वसुर गृह की साम्राज्ञी बने, अपनी सास की साम्राज्ञी बने, वह अपनी नन्द पर राज करे एवं अपने देवरों पर राज करे।
सूर्या सावित्री ने तब उन मन्त्रों की रचना की जब विश्व की कई परम्पराएं देह एवं विवाह के मध्य संबंधों को ठीक से समझ ही रही होंगी। इन मन्त्रों में सहजीवन के सहज सिद्धांत हैं जो अर्धनारीश्वर की अवधारणा को और पुष्ट करते हैं। मन्त्र संख्या 43 में संतान की कामना के साथ ही एक साथ वृद्ध होने की इच्छा है।
आ नः प्रजां जन्यातु प्रजापति राज्ररसाय सम्नक्त्वर्यमा
अदुर्मंगलीः पतिलोकमा विशु शं नो भव द्विपदे शम् चतुष्पदे ।
(ऋग्वेद 10 मंडल सूक्त 85 मन्त्र 43)
अर्थात पति पत्नी द्वारा प्रजापति से मात्र अच्छी संतान की कामना ही नहीं है अपितु वृद्ध होने पर अर्यमा से रक्षा की भी प्रार्थना है, इसके साथ ही हर पशु के कल्याण की भी कामना है। सूर्या सावित्री बाद में प्रचलित अबला स्त्री एवं त्यागमयी स्त्री की छवि से उलट यह कहती हैं कि स्त्री अपने पति के साथ अपनी संतानों के साथ अपने भवन में आमोद प्रमोद से रहे।
स्त्री को रुलाया इन वामपंथी कविताओं ने है, नहीं तो झांसी की रानी लक्ष्मीबाई तक स्त्रियों की एक वीर परम्परा रही है, जिन्होंने विमर्श को नया रूप दिया है, उन्होंने विमर्श स्वयं के जीवन से आरम्भ किया है!
एक और ऋषिका का उल्लेख है, वह है विश्ववारा, जिनके जीवन से यह ज्ञात होता है कि वह यज्ञ किया करती थीं। अर्थात स्त्रियों के लिए यज्ञ वर्जित नहीं था।
जब कहा जाता है कि स्त्री को भारतीय संस्कृति में परदे के पीछे रखा जाता था, या बन्धनों में बांधा जाता था वह भी विश्ववारा के माध्यम से असत्य प्रमाणित होता है। यह भी कहा जाता है कि अतिथियों के आगमन पर स्त्रियों के लिए पृथक स्थान प्रदान किया जाता था, वह इस मंडल के 28वें सूक्त के प्रथम मन्त्र से ही खंडित हो जाता है जिसमें अग्नि देव की आराधना करते हुए ऋषिका विश्ववारा का उल्लेख है, कि अग्नि का जो तेज है वह आकाश तक अपनी ज्वाला फैलाए है और विदुषी स्त्री विश्ववारा विद्वानों का सत्कार करते हुए यज्ञ कर रही है।
ऋग्वेद के पंचम मंडल के 28वें सूक्त में ऋचाएं रचने वाली विश्ववारा ने अग्निदेव की आराधना करते हुए तीसरी ऋचा में लिखा है कि
अग्ने शर्ध महते सौभगाय तव द्युम्नान्युत्तमानि सन्तु।
सं जास्पत्यं सुयममा कृणुष्व शत्रूयतामभि तिष्ठा महांसि ॥३॥ (ऋग्वेद 5 मंडल 28 सूक्त मन्त्र 3)
इसका अंग्रेजी अनुवाद है
Show thyself strong for mighty bliss, O Agni, most excellent be thine effulgent splendours।
Make easy to maintain our household lordship, and overcome the might of those who hate us। (Ralph T.H.Griffith)
इस में अग्नि से दाम्पत्त्य सम्बन्ध सुदृढ़ करने के कामना के साथ ही यह भी कामना की गई है कि उनका नाश हो जो उनके दाम्पत्त्य जीवन के शत्रु हैं। स्त्री विजयी होना चाहती है, परन्तु वह विजय वह अकेले नहीं चाहती, वह चाहती है कि जो उसके जीवन में हर क्षण साथ निभा रहा है, वह उसके साथ ही हर मार्ग पर विजयी हो।
विश्ववारा को कर्म सिद्धांत प्रतिपादन करने वाली भी माना जाता है। विश्ववारा ने चौथे मन्त्र में अग्नि के गुणों की स्तुति की है।
समिद्धस्य प्रमहसोऽग्ने वन्दे तव श्रियम्।
वृषभो द्युम्नवाँ असि समध्वरेष्विध्यसे
इसका अंग्रेजी अनुवाद है:
Thy glory, Agni, I adore, kindled, exalted in thy strength।
A Steer of brilliant splendour, thou art lighted well at sacred rites।
(Ralph T.H. Griffith)
विश्ववारा द्वारा स्वयं यज्ञ किए जाने का भी उल्लेख प्राप्त होता है, विश्ववारा ने अपने मन्त्रों के माध्यम से अग्निदेव की प्रार्थना की है, प्रार्थना में अग्नि देव के गुणों के वर्णन के साथ साथ दाम्पत्त्य सुख का भी उल्लेख है। स्त्री को सदा से ही भान था कि एक सफल दाम्पत्त्य के लिए क्या आवश्यक है और क्या नहीं, देवों से क्या मांगना चाहिए, अतिथियों का स्वागत किस प्रकार करना चाहिए। जब हम सृष्टि के प्रथम लिखे हुए ग्रन्थ को देखते हैं, और उसमें हमें विश्ववारा भी टकराती हैं तो सच कहिये क्या क्रोध की एक लहर आपके भीतर जन्म नहीं लेती कि यह मिथ्याभ्रम किसने और क्यों उत्पन्न किया कि स्त्री को वेद अध्ययन करने का अधिकार नहीं? क्या आपको यह मन्त्र पढ़ते हुए एक चेतना का आभास नहीं हो रहा?
चूंकि न ही हमारी रचनाओं और न ही इतिहास में इन स्त्रियों का उल्लेख है, तो हमारी लड़कियों को यह पता ही नहीं होता कि उनका इतिहास रोने धोने का इतिहास नहीं है, उनका त्याग का इतिहास नहीं है, उनका इतिहास जीवन जीने का इतिहास है। उनका इतिहास प्रेम और सम्भोग का इतिहास है, न कि स्त्री को वस्तु मानकर उपभोग का! और कथित वामपंथी रोने धोने की लाइन पर ही कथित राष्ट्रवादी कविताएँ चलीं, कि हिन्दू स्त्रियों को त्याग की प्रतिमूर्ति बना दिया, हिन्दू स्त्री त्याग की नहीं बल्कि वीरता, प्रेम, यौन उन्मुक्तता की प्रतिमूर्ति थी, शत्रुओं का रक्त पीने वाली माता स्वरूपा स्त्रियों को हर समय रोने वाली स्त्री बनाने वालों का साथ देने वाले कौन हैं? समय आ गया है कि हम हिन्दू स्त्रियों के वैभव को आगे लाएं!
*कल प्रेम की बदलती अवधारणा पर हम बात करेंगे!
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