जब भी कभी वामपंथी लिखते हैं कि अंग्रेजों के आने पर भारत में शिक्षा आई तो उनके सामने कई ऐसे चेहरे इस बात की काट करने आ जाते हैं। हम अधिक पीछे न जाकर मात्र मध्य काल में, जब मुगलिया अत्याचार अपने चरम पर था, जब हिन्दू होने का दंड मृत्यु था, उस समय भी हमारे संत कैसी महान रचनाएं रच रहे थे और अपने पर्वों को जीवित रखे थे, वह देखते हैं।
सूरदास लिखते हैं:
हरि संग खेलति हैं सब फाग।
इहिं मिस करति प्रगट गोपी: उर अंतर को अनुराग।।
सारी पहिरी सुरंग, कसि कंचुकी, काजर दे दे नैन।
बनि बनि निकसी निकसी भई ठाढी, सुनि माधो के बैन।।
डफ, बांसुरी, रुंज अरु महुआरि, बाजत ताल मृदंग
अति अनुराग मनोहर बानी गावत उठत तरंग
तो वहीं मीराबाई लिखती हैं:
रंग भरी राग भरी रागसूं भरी री।
होली खेल्यां स्याम संग रंग सूं भरी, री।।
उडत गुलाल लाल बादला रो रंग लाल।
पिचकाँ उडावां रंग रंग री झरी, री।।
चोवा चन्दण अरगजा म्हा, केसर णो गागर भरी री।
मीरां दासी गिरधर नागर, चेरी चरण धरी री।।
मीराबाई की एक और रचना देखिये:
राग होरी सिन्दूरा
फागुन के दिन चार होली खेल मना रे॥
बिन करताल पखावज बाजै अणहदकी झणकार रे।
बिन सुर राग छतीसूं गावै रोम रोम रणकार रे॥
सील संतोखकी केसर घोली प्रेम प्रीत पिचकार रे।
उड़त गुलाल लाल भयो अंबर, बरसत रंग अपार रे॥
घटके सब पट खोल दिये हैं लोकलाज सब डार रे।
मीराके प्रभु गिरधर नागर चरणकंवल बलिहार रे॥
ऐसा नहीं हैं कि मात्र कृष्ण प्रेमी कवियों ने ही होली को लिखा है। निर्गुण ब्रह्म को मानने वाले कबीर लिखते हैं:
ऋतु फागुन नियरानी हो,
कोई पिया से मिलावे।
सोई सुदंर जाकों पिया को ध्यान है,
सोई पिया की मनमानी,
खेलत फाग अंग नहिं मोड़े,
सतगुरु से लिपटानी।
इक इक सखियाँ खेल घर पहुँची,
इक इक कुल अरुझानी।
इक इक नाम बिना बहकानी,
हो रही ऐंचातानी।।
राम भक्ति की रचनाएं रचने वाली प्रताप कुंवरी जगत को मिथ्या मानते हुए लिखती हैं:
होरिया रंग खेलन आओ,
इला, पिंगला सुखमणि नारी ता संग खेल खिलाओ,
सुरत पिचकारी चलाओ,
कांचो रंग जगत को छांडो साँचो रंग लगाओ,
बारह मूल कबो मन जाओ, काया नगर बसायो!
निर्गुण भक्ति की उपासक उमा ने होली और प्रभु श्री राम के विषय में कैसे लिखा है, वह देखते हैं:
ऐसे फाग खेले राम राय,
सुरत सुहागण सम्मुख आय
पञ्च तत को बन्यो है बाग़,
जामें सामंत सहेली रमत फाग,
जहाँ राम झरोखे बैठे आय,
प्रेम पसारी प्यारी लगाय,
जहां सब जनन है बंध्यो,
ज्ञान गुलाल लियो हाथ,
केसर गारो जाय!
रीतिकालीन कवि पद्माकर लिखते हैं:
फागु के भीर अभीरन तें गहि, गोविंदै लै गई भीतर गोरी ।
भाय करी मन की पदमाकर, ऊपर नाय अबीर की झोरी ॥
छीन पितंबर कंमर तें, सु बिदा दई मोड़ि कपोलन रोरी ।
नैन नचाई, कह्यौ मुसक्याइ, लला ! फिर खेलन आइयो होरी ॥
पद्माकर की ही एक और रचना देखें:
ऐसी न देखी सुनी सजनी धनी बाढ़त जात बियोग की बाधा।
त्यों ‘पद्माकर’मोहन को तब तें कल है न कहूँ पल आधा।
लाल गुलाल घलाघल में दृग ठोकर दै गयी रूप अगाधा।
कै गई कै गई चेटक-सी मन लै गई लै गई लै गई राधा॥
घनानंद कितना सुन्दर लिखते हैं:
कहाँ एतौ पानिप बिचारी पिचकारी धरै,
आँसू नदी नैनन उमँगिऐ रहति है ।
कहाँ ऐसी राँचनि हरद-केसू-केसर में,
जैसी पियराई गात पगिए रहति है ॥
चाँचरि-चौपहि हू तौ औसर ही माचति, पै-
चिंता की चहल चित्त लगिऐ रहति है ।
तपनि बुझे बिन ’आनँदघन’ जान बिन,
होरी सी हमारे हिए लगिऐ रहति है ॥
घनानंद की एक और रचना देखिये:
होरी के मदमाते आए, लागै हो मोहन मोहिं सुहाए ।
चतुर खिलारिन बस करि पाए, खेलि-खेल सब रैन जगाए ॥
दृग अनुराग गुलाल भराए, अंग-अंग बहु रंग रचाए ।
अबीर-कुमकुमा केसरि लैकै, चोबा की बहु कींच मचाए ॥
जिहिं जाने तिहिं पकरि नँचाए, सरबस फगुवा दै मुकराए ।
’आनँदघन’ रस बरसि सिराए, भली करी हम ही पै छाए ॥
यह रचनाएं तो झलकियाँ मात्र हैं, हिन्दुओं का अपना एक वृहद और सम्पन्न साहित्य था जब मुग़ल आए एवं जब अंग्रेज आए। यह वह रचनाएं हैं, जो मुगलों के घनघोर अत्याचार वाले युग में लिखी जा रही थीं, कल्पना करें कि जब ऐसे आततायी नहीं रहे होंगे तब कितना सुन्दर रहा होगा हिन्दुओं के साहित्य का संसार!
यह होली पर लिखी गयी कुछ ही रचनाएं हैं, जिनमें कृष्ण, राम आदि को लेकर होली के रंग हैं, प्रश्न उठता ही है कि जो संसार इतना रंगों से भरा था, उसे पिछड़ा किसके संकेत पर ठहराया गया?