हिन्दी साहित्य की एक बहुत बड़ी पहचान है और वह है सत्ता का पिछलगू होना! विचार के आधार पर गुलाम होना उसकी सबसे बड़ी फितरत है। वह कथित रूप से अल्पसंख्यकों के लिए लिखने की बात करता है, परन्तु उसे नहीं पता है कि अल्पसंख्यक की परिभाषा ही क्या है?
इतने बड़े लेखक वर्ग को, जो बार बार हिन्दुओं को अपना निशाना बनाता है, जिसके होंठों पर गुजरात की कविताएँ और कहानियाँ तो होती हैं, परन्तु हिन्दू पीड़ा के लिए स्वर नहीं होता है, क्योंकि उसके लिए हिन्दू बहुसंख्यक है! अब बहुसंख्यक है, तो बहुसंख्यक तो अल्पसंख्यकों पर अत्याचार ही करेगा। फिर बहुसंख्यक वर्ग ने जो कश्मीरी पंडितों पर अत्याचार किए उसका क्या? तब उन कश्मीरी पंडितों के लिए कलम क्यों नहीं चली? तो वहां पर वह यह सिद्धांत लाते हैं, कि कश्मीरी पंडित संख्या में कम थे, परन्तुअल्पसंख्यक की परिभाषा में शायद इसलिए नहीं आते क्योंकि उनका अधिकार था अधिकतर व्यापार पर, सरकारी नौकरियों पर आदि आदि!
अभी भी उनसे पूछ लिया जाए तो उन्हें नहीं पता होगा कि अल्पसंख्यक की परिभाषा क्या है?
अल्पसंख्यक की परिभाषा
सबसे पहले यह जानने का प्रयास करते हैं कि आखिर अल्पसंख्यक की परिभाषा क्या है और औपचारिक रूप से उद्गम क्या है और इसका निर्धारण स्थानीय या वैश्विक रूप से किया जाता है? संयुक्त राष्ट्र संघ के अनुसार वर्ष 1977 में इसे फ्रांसेस्को कैपोतोरी ने इस प्रकार बताया “एक ऐसा समूह, जिसकी स्टेट में जनसँख्या कम होती है, वह कुछ भी निर्धारित करने की स्थिति में नहीं होता है, उसके नागरिक उस राज्य के नागरिक होते हैं, और जिनकी धार्मिक, भाषाई या मूल पहचान शेष जनसँख्या से कम होती है, उसे अल्पसंख्यक कहा जाता है!”
फिर इसमें लिखा है कि कई बार देखा गया है कि जो बहुसंख्यक होते हैं, उनका शोषण भी संख्या में कम लोगों द्वारा किया जाता है। जैसे दक्षिण अफ्रीका में अंग्रेजों के अश्वेतों का किया।[1]
संयुक्त राष्ट्र के अनुसार भी अल्पसंख्यक की परिभाषा को स्पष्ट नहीं किया जा सकता है क्योंकि संख्या से इसका निर्धारण नहीं किया जा सकता है, जैसा हम अभी भारत के उदाहरण में देख सकते हैं।
इस्लाम के आक्रमण से दहल गया था पूरा देश
हिन्दू और बौद्ध बाहुल्य देश भारत पर मुस्लिमों ने आक्रमण किया और संख्या में कम होने, परन्तु क्रूरता में भयानक होने के कारण बहुसंख्यक हिन्दुओं की बौद्धिक एवं भौतिक संपदा को नष्ट करने का बार बार प्रयास किया गया। भारत का लिखित साहित्य जला दिया गया, सम्पूर्ण विश्व में विख्यात नालंदा विश्वविद्यालय को बख्तियार खिलजी ने वर्ष 1198 में जला दिया था। और इसके साथ ही गुलाम वंश से लेकर मुग़ल काल तक बाहर से आए आक्रमणकारियों ने स्थानीय बहुसंख्यक हिन्दुओं पर जो अत्याचार किए थे, वह सभी इतिहास की पुस्तकों के साथ साथ तत्कालीन यात्रियों के संस्मरणों में लिपिबद्ध हैं।
हर शहर के अभिलेखों में दर्ज है यह अत्याचार। फिर ऐसे में अल्पसंख्यक की यह परिभाषा अपने आप में विफल हो जाती है कि वह संख्या में कम होते हैं।
अंग्रेजों ने भी मुट्ठी भर होते हुए भी विमर्श पर शासन किया एवं वही विमर्श अभी तक चल रहा है। अल्पसंख्यक की परिभाषा का निर्धारण कैसे होगा, यदि साहित्य इसका निर्धारण मात्र संख्या के आधार पर करेगा तो भक्तिकालीन, वीरगाथा कालीन समस्त साहित्य ही परिभाषा से बाहर हो जाएगा, जो इस्लामी आक्रमणकारियों के अत्याचारों का वर्णन करता है।
ऐसे में प्रश्न उठता है कि क्या अल्पसंख्यक की परिभाषा साहित्य को प्रभावित करती है, क्या यह संभव है कि दायरे और परिभाषा में ही साहित्य सिमट जाए?
इसके लिए प्रगतिशील लेखक आन्दोलन को भी समझना होगा!
प्रगतिशील लेखक आन्दोलन अर्थात प्रोग्रेसिव राइटर्स एसोसिएशन की स्थापना लन्दन में भारतीय लेखकों और बौद्धिकों द्वारा वर्ष 1935 में की गयी, जिसमें उन्हें कुछ अंग्रेजी साहित्यिक व्यक्तियों का योगदान प्राप्त हुआ। मुल्क राज आनंद, सज्जाद जहीर और ज्योतिमाया घोष सहित कुछ लेखकों का समूह था, जिसने यह निर्धारित किया कि “भारतीय समाज में बहुत ही तेजी से बहुत अधिक परिवर्तन आ रहे हैं। ऐसे में हमारा यह मानना है कि भारत में जो साहित्य है (लिटरेचर) है, उसे मौजूदा समस्याओं का सामना करना चाहिए, भूख और गरीबी की समस्याएं, सामाजिक पिछड़ेपन की समस्याएं, और राजनीतिक दमन की समस्याओं पर बात करनी चाहिए। हमें जो भी पीछे की ओर खींचता है, हमें अकर्मण्य बनाता है और अतार्किक बनाता है हम उसे प्रतिक्रियावादी कहकर अस्वीकार करते हैं। हम केवल उसी को प्रगतिशील मानेंगे जो हमारे भीतर आलोचक की दृष्टि उत्पन्न करेगा और संस्थानों एवं परम्पराओं को तर्क से जांचने देगा!” इस समूह में ऑक्सफ़ोर्ड, कैम्ब्रिज और लंदन विश्वविद्यालय के विद्यार्थी थे, जो लंदन में माह में एक या दो बार मिलते थे और लेखों और कहानियों की आलोचना करते थे।[2]
यहाँ यह देखना दिलचस्प है कि वर्ष 1935 में कुछ ऐसे लेखकों ने, जिनके दिल में भारतीय लोक के विषय में पिछड़ापन या एक तरफ़ा सोच थी, उन्होंने अब तक के लिखे साहित्य को प्रतिक्रिया वादी कहकर जैसे खारिज कर दिया और उस समय हिन्दुओं या भारतीय लोक के प्रति जो मिशनरी दृष्टि या कथित वाम दृष्टि थी, उसे ही साहित्य का मुख्य आधार बना दिया।
आर्य और द्रविड़ सिद्धांत, जिसे इतिहास में अभी तक स्थापित नहीं किया जा सका है, उसे ही अकाट्य सत्य मानते हुए भारत के लिखित इतिहास जैसे रामायण, महाभारत, वेदों को मिथक की श्रेणी में डाल दिया गया एवं यहाँ तक कि जो भी साहित्यकार हिन्दू दृष्टि से या मुस्लिमों द्वारा हिन्दुओं पर किए गए अत्याचारों का उल्लेख करता था, उसे पिछड़ा कहकर त्याज्य माना जाने लगा।
इस संघ द्वारा एक अपील की गयी “”लेखक मित्रो ! हमारा क़लम, हमारी कला, हमारा ज्ञान उन शक्तियों के विरुद्ध रुकने न पाये जो मौत को निमंत्रण देती हैं, जो मानवता का गला घोटती हैं, जो रूपये के बल पर शासन करती हैं, और अंत में फ़ासिज़्म के विभिन्न रूप धारकर सामने आती हैं और अबोध जनता का खून चूसती हैं”
जैसे ही साहित्य में स्थानीय या देशज समस्याओं के स्थान पर दमन या अत्याचार की विदेशी परिभाषा आ गयी, वैसे ही भारत के एक वर्ग के साहित्य की दिशा निर्धारित हो गयी।
उर्दू साहित्य में कथित रूप से यह इन्कलाब आया था। फिर जब वर्ष 1936 में सज्जाद जहीर भारत में प्रोग्रेसिव राइटर्स एसोसिएशन की स्थापना का सपना लेकर आए तो वह मुम्बई में कन्हैया लाल मुंशी से भी मिले। परन्तु कुछ ही देर की ही बात-चीत में सज्जाद ज़हीर किस निर्णय पर पहुंचे स्वयं उन्हीं से सुनिए –
“हमें यह स्पष्ट हो गया कि कन्हैयालाल मुंशी का और हमारा दृष्टिकोण मूलतः भिन्न था। हम प्राचीन दौर के अंधविश्वासों और धार्मिक साम्प्रदायिकता के ज़हरीले प्रभाव को समाप्त करना चाहते थे। इसलिए, कि वे साम्राज्यवाद और जागीरदारी की सैद्धांतिक बुनियादें हैं। हम अपने अतीत की गौरवपूर्ण संस्कृति से उसका मानव प्रेम, उसकी यथार्थ प्रियता और उसका सौन्दर्य तत्व लेने के पक्ष में थे। जबकि कन्हैयालाल मुंशी सोमनाथ के खंडहरों को दुबारा खड़ा करने की कोशिश में थे।”[3]
अर्थात यह स्पष्ट होता जा रहा था कि यह जो कथित प्रगतिशील लेखक संघ था, उसका शिकार कौन बनने जा रहा था। हिन्दुओं को या हिन्दू विचारधारा को खलनायक बनाने की नींव डाली जा चुकी थी।
चूंकि इसमें उर्दू लेखक ही अधिक जुड़े थे, इसलिए हिन्दी वाले लेखक इसके साथ जुड़ने से कतरा रहे थे। परन्तु इसमें जैसे ही राजनेतिक हस्तक्षेप जैसे ही हुआ, वैसे ही परिदृश्य बदल गया। पंडित नेहरू ने अपने भाषण में कहा “कलाकार और साहित्यकार की एक अलग पहचान होती है और जिसमें यह पहचान नहीं है, मैं उसे कलाकार नहीं कह सकता। पर उसकी पृथक पहचान यदि ऐसी है कि वह समाज से अलग है और जो चीज़ें समाज को हिलाती हैं, उनसे प्रभावित नहीं होता, तो उस साहित्यकार की कोई उपयोगिता नहीं है। यह पहचान यदि विकसित हो सकती है तो केवल समाज के समाजवादी ढाँचे में। यह कहना कि समाजवाद आकर हमारी पृथक पहचान को मिटा देगा, सर्वथा ग़लत है। आने वाले इंक़लाब के लिए देश को तैयार करना साहित्यकार की ज़िम्मेदारी है। आप जन-सामान्य कि समस्याओं का समाधान कीजिए, उनको रास्ता बताइये, लेकिन आपकी बात उनके दिल में उतर जानी चाहिए। प्रगतिशील लेखक संघ एक बड़ी ज़रूरत को पूरी करता है और उस से हमें बड़ी आशाएं हैं”
पंडित नेहरू के भाषण का एक लाभ यह अवश्य हुआ कि वे लोग जो नेहरू जी के प्रति श्रद्धा रखते थे और प्रगतिशील सम्मेलनों में भाग लेने से कतराते थे, अब इस संस्था के लिए पर्याप्त नर्म पड़ गए।[4]
और यह पीछे रहने की प्रवृत्ति अभी तक है, तभी जैसे ही कांग्रेस की ओर से राहुल और प्रियंका गांधी का नाम उछाला जाता है, तो पूरा का पूरा प्रगतिशील लेखक समाज दादी की नाक से लम्बाई नापने लगता है।
यही कारण है कि गुजरात 2002 में कांग्रेस के निर्धारित किए गए एजेंडे पर ही कविताएँ लिखी गईं,
जल रहा है गुजरात
जल रहे हैं गाँधी
गोडसे के नववंशजों ने
मचाया है रक्तपात ।
हत्यारे ही हत्यारे
दीख रहे हैं सड़कों पर
एक विशेष समुदाय पर
गिर रही है गाज ।
या फिर जैसे यह कविता
गुजरात के मृतक का बयान
पहले भी शायद मैं थोड़ा थोड़ा मरता था
बचपन से ही धीरे धीरे जीता और मरता था
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मेरी औरत मुझसे पहले ही जला दी गई
वह मुझे बचाने के लिए खड़ी थी मेरे आगे
और मेरे बच्चों का मारा जाना तो पता ही नहीं चला
वे इतने छोटे थे उनकी कोई चीख़ भी सुनाई नहीं दी
मेरे हाथों में जो हुनर था पता नहीं उसका क्या हुआ
मेरे हाथों का ही पता नहीं क्या हुआ
उनमें जो जीवन था जो हरकत थी वही थी उनकी कला
और मुझे इस तरह मारा गया
जैसे मारे जा रहे हों एक साथ बहुत से दूसरे लोग
मेरे जीवित होने का कोई बड़ा मक़सद नहीं था
और मुझे मारा गया इस तरह जैसे मुझे मारना कोई बड़ा मक़सद हो
यह एक लम्बी कविता का अंश है! ऐसी ही न जाने कितनी कविताएँ उसी ढर्रे पर लिखी गईं जो कांग्रेस द्वारा निर्धारित किया गया था और उसमे से हिन्दू पीड़ा एकदम गायब थी, गोधरा में जो 59 लोग जिंदा जलकर मरे थे, वह पूरी तरह से गायब थे क्योंकि हिन्दी साहित्य ने राजनीतिक लाइन पर चलना चुना, न कि राजनीतिक सुख सुविधाओं से इतर जनता के पक्ष में खड़ा होना चुना, बिना किसी वाद के, बिना राजनीतिक अल्पसंख्यक शोर के!
[1] https://www.ohchr.org/en/issues/minorities/pages/internationallaw.aspx
[2] https://www.open.ac.uk/researchprojects/makingbritain/content/progressive-writers-association
[3] https://web.archive.org/web/20160305121647/http://yugvimarsh.blogspot.com/2008/06/blog-post_14.html
[4] https://web.archive.org/web/20160305121647/http://yugvimarsh.blogspot.com/2008/06/blog-post_14.html