कहा जाता है कि यदि मनुष्यों में विस्मृति का उपहार नहीं होता तो उसके लिए जीवन बहुत कठिन होता, परन्तु भारत के लिए एवं विशेषकर भारत के लोक के विमर्श के लिए यह विस्मृति का उपहार एक अभिशाप ही है क्योंकि उन्हें वह सब विमर्श विस्मृत हो चुका है, जो दरअसल उनके अस्तित्व के लिए आवश्यक है। साहित्य में तो इस सीमा तक आत्महीनता की स्थिति आ चुकी है, कि पाकिस्तान में जाकर बस गए इकबाल एवं जॉन एलिया तो हिन्दी के कथित साहित्यकारों को स्मरण हैं, परन्तु वह तमाम साहित्यकार जिन्होनें भारत की आत्मा को रचा, जिन्होनें भारत के नायकों को साहित्य में जीवंत किया, उन्हें वह विस्मृत कर चुका है।
आज भारत के हिन्दी साहित्यकार उस शायर जॉन एलिया को याद कर रहे हैं, जिनका जन्म 14 दिसंबर 1931 को अमरोहा में हुआ था और वह विभाजन के बाद पाकिस्तान चले गए थे। जॉन एलिया की कथित बौद्धिक विरासत पर भारत के हिन्दी साहित्यकार दावा ठोंकते रहते हैं। उन्हें लगता है कि जॉन एलिया भारतीय हैं। जॉन एलिया के कुछ शेर देखते हैं और खोजते हैं कि उसमें भारत कहाँ हैं?
जॉन एलिया की शायरी का अपना एक स्वभाव है, अपनी एक प्रवृत्ति है, परन्तु जब उन्होंने भारत छोड़कर पाकिस्तान जाकर रहना स्वीकार किया तो उनकी निजी पसंद या प्रवृत्ति या कहें हिन्दू बाहुल्य देश में स्वेच्छा से न रहने वाली प्रवृत्ति भी परिलक्षित होती है। उनकी शायरी रूमानियत से भरी शायरी है। जैसे
नश्शा है राह की दूरी का कि हमराह है तू
जाने किस शहर में आबाद करूँगा तुझ को
मेरी बाँहों में बहकने की सज़ा भी सुन ले
अब बहुत देर में आज़ाद करूँगा तुझ को
उनकी शायरी में दर्द है, विरह है, इश्क है,
सीना दहक रहा हो तो क्या चुप रहे कोई
क्यूँ चीख़ चीख़ कर न गला छील ले कोई
साबित हुआ सुकून-ए-दिल-ओ-जाँ कहीं नहीं
रिश्तों में ढूँढता है तो ढूँडा करे कोई
भारत में लोग उनकी शायरी के दीवाने हैं। उनके लिए जॉन एलिया अपने ही हैं। और सही ही तो है, कला की सरहद नहीं होती है।
मैं इब्तिदा-ए-इश्क़ से बे-मेहर ही रहा
तुम इंतिहा-ए-इश्क़ का मेआ’र ही रहो
तुम ख़ून थूकती हो ये सुन कर ख़ुशी हुई
इस रंग इस अदा में भी पुरकार ही रहो
अपने जॉन एलिया की शायरी में भारत कहाँ है, यह विचार करने की बात है। और साहित्य क्या होता है? क्या साहित्य लोक, धर्म एवं देश की बात नहीं करता? क्या इन भावों के बिना रचा गया कुछ सार्थक हो सकता है? जो व्यक्ति जानबूझकर लोक और देश का त्याग करके चला गया हो, क्या उसकी शायरी में वह सब कुछ आ सकता है, जो एक भारतीय खोजता है?
क्या मात्र इश्क, प्यार, मोहब्ब्तं, वफा, बेवफाई, जिस्म, आदि ही साहित्य है? यह प्रश्न इसलिए उभर कर आया क्योंकि 14 दिसम्बर को जब हिन्दी साहित्य में जॉन एलिया को स्मरण किया जा रहा है, उससे कुछ ही दिन पहले अर्थात 9 दिसंबर को एक ऐसे अनूठे हिन्दी साहित्यकार को स्मरण करने का दिन निकला, जिनके विमर्श में भारत था। जिनकी भाषा में लोक था, जिनकी रचनाओं में भारत का वह इतिहास था, जिसे कथित वह प्रगतिशील साहित्य मानता ही नहीं है, जो साहित्य को सीमारहित बनाता है। ऐसे अनूठे कहानीकार जो उस यथार्थवाद को कसकर अपनी कहानी में थप्पड़ मारते हैं, जो कथित प्रगतिशील साहित्यकारों ने जबरन गढ़ ही नहीं दिया, बल्कि जनता पर थोप दिया, जिससे वह इस सीमा तक अपने देश, धर्म एवं लोक के विमर्श से विमुख हो गयी कि उसे जॉन एलिया तो याद रहते हैं, परन्तु गुरुदत्त वैद्य नहीं!
गुरुदत्त वैद्य की जो कहानियां इंटरनेट पर उपलब्ध हैं, उनमें यथार्थवाद कहानी तो कालजयी कही जा सकती है क्योंकि ऐसा प्रतीत होता है जैसे वह आज की ही स्थिति को दिखाती है। कहानी में एक लेखक है, केवल नाम का! उसका और प्रकाशक का वार्तालाप पढ़िए
“” श्रीमानजी, यह चलेगी नहीं । “
” क्यों ? “
” इसमें यथार्थता का अभाव है । “
” वह क्या होती है ? “
” जो जैसा है , उसका वैसा ही वर्णन करना । “
” परंतु सत्य क्या है ? “
” देखिए बाबू साहब, आप पढ़े-लिखेहैं । कुछ लोग आपको विद्वान् भी कहते हैं । आपकी लिखी रचनाएँ पढ़ी भी अवश्य जाती हैं , परंतु वे सदा यथार्थ से दूर होती हैं । अब आप पूछते हैं कि कैसे ? मैं भला कैसे बता सकता हूँ ? मैं तो न लेखक हूँ, न ही विद्वान् । यदि आप इस विषय में जानना चाहते हैं तो डॉक्टर दिनेशजी से मिल लीजिए । वे पी -एच। डी। इन इंगलिश लिट्रेचर हैं । उन्होंने साहित्य – समालोचना पर कई ग्रंथ लिखेहैं । “
” परंतु उपन्यास तो उन्होंने कोई लिखा नहीं । कम – से- कम मेरे ज्ञान में नहीं है । “
” पंद्रह वर्ष पूर्व एक लिखा तो था । हमने ही उसे प्रकाशित किया था । “
” क्या नाम है उस उपन्यास का ? “
” निष्णात । “
“ अच्छा, सुना नहीं । “
” प्रथम संस्करण दो सहस्र प्रतियों का छपवाया था । उन दिनों हमारा काम भी कुछ ढीला था । हमारा बिक्री का प्रबंध इतना अच्छा नहीं था और डॉक्टर साहब भी तब इस पदवी पर नहीं थे, जिस पर कि आज हैं । वह संस्करण अभी तक समाप्त नहीं हुआ । इस वर्ष के आरंभ में स्टॉक लेने पर देखा कि एक सौ से अधिक प्रतियाँ पड़ी हैं । “
” तो इस वर्ष तो उनकी बिक्री हुई होगी । अब तो पचास से अधिक आपके एजेंट देश भर में घूमते हैं । “
” परंतु उस पुस्तक को लिखे अब पंद्रह वर्ष हो गए हैं । तब के यथार्थ और आज के यथार्थ में अंतर आ गया है । देश ने भारी उन्नति की है । इसलिए उनका वह यथार्थ वर्णन आज अयथार्थ हो गया है । “
यर्थाथवाद की यही राजनीति और किताबें बेचने का नेटवर्क जो उन्होंने लिखा था, वही तो आजतक चल रहा है। यदि अच्छे पद पर कोई है, तो वह अपनी प्रथम पुस्तक से ही बेस्ट सेलर हो जाएगा, जैसा पहले होता था और जैसा आज भी हो रहा है। यह बाजार पर अधिकार की जंग है, जिसमें महान पुष्यमित्र शुंग पर उपन्यास लिखने वाले वैद्य गुरुदत्त विस्मृत हो जाते हैं और जिस्म, इश्क, वफा आदि पर लिखने वाले एवं अपने मन से अपने अपनी जन्मभूमि छोड़कर पाकिस्तान जाने वाले जॉन एलिया महान हो जाते हैं!
जो लोग आज जॉन एलिया को याद कर रहे हैं, उन्हें यह ज्ञात भी न होगा कि दरअसल विमर्श की गुलामी क्या होती है या गुलामी का विमर्श क्या होता है? गुलामी का विमर्श यही है जो कथित मुख्यधारा के हिन्दी साहित्य में चल रहा है! जिसके पास न ही विचार अपने हैं, और न ही लेखक! सब कुछ आयातित या औपनिवेशिक या फिर मुग़लई है!
*पुष्यमित्र शुंग उपन्यास पर विस्तार से लेख लिखा जाएगा