अमेरिका में हिन्दुफोबिया की जब हम बात करते हैं, तो ऐसा नहीं है कि यह आज की बात है। अमेरिका में हिन्दुफोबिया का एक लम्बा इतिहास रहा है। सबसे घृणित बात तो यही है कि भारत को जी भर कर लूटकर भारतीयों को मरने के लिए छोड़ने वाले पश्चिम ने भारतीयों को उस गरीबी के नाम पर बदनाम किया, जो दरअसल उन्हीं गोरों ने दी थी। जब आज अमेरिकी विश्वविद्यालयों में लगातार हिन्दुओं के विरुद्ध अकादमिक दुष्प्रचार देखते हैं, तो यह भी देखना होगा कि क्या यह अभी से चल रहा है या फिर इसकी जड़ें कहीं और हैं?
हमने आपको सारा बुल की कहानी पहले ही बताई थी। उसके बाद फिर से कहानी आरम्भ होती है। आखिर हिन्दू धर्म से घृणा क्यों थी? या फिर यदि घृणा थी तो रूप क्या था? इस विषय में स्टीफेन प्रोथेरो अपने एक लेख “हिन्दुफोबिया एंड हिन्दुफिला इन यूएस कल्चर” में लिखते हैं कि जब सारा बुल का मुकदमा चल रहा था, और जब सारा बुल के मुक़दमे की चर्चा न्यूयॉर्क टाइम्स में हो रही थी तो कई पुस्तकें और लेख प्रकाशित हुए, जिनमें उन्होंने अमेरिका में यह प्रमाणित करने का प्रयास किया कि हिन्दू साधु यहाँ की अमीर औरतों को अपने जाल में फंसा लेते हैं और फिर उनकी जमीन आदि पर कब्जा कर लेते हैं।
वह अपने लेख में मेबेल पॉटर डग्गेट के एक लेख का उल्लेख करते हैं। वर्ष 1912 में इसे लिखा गया था “द हिन्दू इंवेज़न ऑफ अमेरिका” और इसमें मेबेल ने मंदिरों में वैश्यावृत्ति बताती थी, बाल विवाह की बात की थी और कहा था कि भारत में विधवाएं आत्महत्या कर लेती हैं। और उन्होंने अपने लेख को इस अवधारणा के आसपास लिखा था कि हिन्दू साधु संत सर्प हैं और अमेरिकी औरतें इव! उन्होंने एक ऐसी तस्वीर अपने लेख में प्रस्तुत की, जिसमें यह था कि अमेरिकी औरतों ने हिन्दू साधुओं के सामने समर्पण कर दिया है, वह उनके पैर धो रही हैं, और फिर उन्हें अपना धन आदि दे रही हैं और कभी कभी अपना शरीर भी, और यह जो साधु हैं, वह उन औरतों को उनके “सच्चे रिलिजन” से तो दूर करते ही हैं, साथ ही उनके पति और बच्चों से भी दूर कर देते हैं।
हालांकि वर्ष 1907 में फ्रेड लॉकले ने एक लेख लिखा था “द हिन्दू इनवेजन”। उसमें उन्होंने हिन्दुओं को भेड़ों का एक ऐसा वर्ग कहा था, जो अपना खेत चर चुका था और अब उसकी नजर दूसरे हरे खेत पर है। और वह दूसरे खेत को भी खा जाना चाहता है, क्योंकि उनकी जनसँख्या बहुत अधिक है और वह बस बच्चे पैदा करना जानते हैं। अब वह अमेरिका आकर अमेरिका को खाना चाहते हैं।

वह लिखते हैं कि
“क्या भारत, अपनी 296,000,000 जनसँख्या के साथ, जिनमें से 100,000,000 से अधिक हमेशा भुखमरी के कगार पर हैं, एक अप्रवासी खतरा बन जाएगा?
ये सांवले, काली दाढ़ी वाले, पगड़ी वाले एशियाई कौन हैं? क्या हम उन्हें चाहते हैं? क्या वे रहने आए हैं? क्या वे वांछनीय अप्रवासी हैं? क्या हम उनका स्वागत करें या उनके आने का विरोध करें? ब्रिटिश कोलंबिया के नागरिकों द्वारा ये प्रश्न और इसी तरह के अधिक आयात के बारे में पूछा जा रहा है। यह प्रश्न तब और तीव्र हो गया जब दो हजार से अधिक सिख और हिंदू वैंकूवर और विक्टोरिया लास्ट फॉल में उतरे।“
जरा सोचिये मात्र दो हजार हिन्दू ही वहां पर पहुंचे थे। हिन्दू का अर्थ भारत से गैर मुस्लिम आबादी। अर्थात सिख भी।
वह हिन्दुओं को अर्थात हिन्दू और सिखों को महामारी फैलाने वाला भी बताते हैं। वह लिखते हैं कि
“लाखों लोग लगातार पड़ रहे अकाल के कारण मारे गए। 1900 के अकाल में, जो पंजाब से शुरू हुआ और फिर केन्द्रीय प्रान्तों में फ़ैल गया, उसमें खाने की कमी के कारण आठ मिलियन से अधिक लोग मारे गए थे। इन अकालों के बाद हैजा, चेचक, बुखार और बूबोनिक प्लेग फैला। बूबोनिक प्लेग ने तो वर्ष 1905 में ही केवल एक मिलियन लोगों की जान ले ली थी। जहाँ पर यह बीमारियाँ भारत की गंदी और बदबूदार झुग्गी झोपड़ियों में पैदा हो रही थीं, खासकर बूबोनिक प्लेग, तो वह पूरी दुनिया को खतरे में डालते हैं।”
प्लेग के लिए भारत को पूरी तरह से जिम्मेदार बताते हुए उन्होंने कहा यह भारत से होता हुआ होनोलूलू और सैनफ्रांसिस्को, और फिर लिवरपूल और हांगकांग तक आया।
सितम्बर 1907 में हिन्दू विरोधी दंगे
सितम्बर 1907 में हिन्दुओं को बाहर निकालने के लिए दंगे हुए। असंतोष इस बात को लेकर भड़काया गया था कि एशियाई लोगों के आने से गोरे मजदूरों की नौकरी चली जाएगी। 4 सितम्बर 1907 को पंच सौ गोरे लोगों की भीड़ ने हिन्दुओं पर हमला कर दिया। हिन्दुओं से अर्थ सिख भी है। बेलिंघम में दक्षिण एशियाई लोगों पर हुए इस हमले का एक एहे उद्देश्य था कि “उन्हें इतना मारा जाए कि उनकी हिम्मत ही न हो, गोरे लोगों का काम छीनने की!”

दंगाई पूरे शहर में फ़ैल गए और उन्होंने हर उस स्थान को खोजा, जहाँ पर हिन्दू समूहों में रहा करते थे और फिर उन्होंने लोगों को मारा पीटा भी, आग भी लगाई। इतना सब होता रहा और पुलिस ने कुछ नहीं किया। दरअसल न्यूयॉर्क टाइम्स के अनुसार “एक ऐसा विचार नीचे तैर रहा था जिसने लगभग दंगाइयों के क़दमों का अनुमोदन ही किया और यह पाया गया कि इन हमलावारों में से किसी को भी सजा नहीं मिली!”
यह षड्यंत्र सफल रहा और दस ही दिनों के भीतर वहां से हिन्दू चले गए। हालांकि 100 वर्षों के उपरांत बेलिंघम हेराल्ड ने इस बात के लिए क्षमा माँगी थी कि “नस्लवाद को केवल बर्दाश्त ही नहीं किया गया, बल्कि साथ ही प्रोत्साहित भी किया गया।”
तो अब जब कोरोना की पश्चिमी मीडिया की भारत की कवरेज हो या फिर कोई और, नस्लवाद उनमें कूट कूट कर भरा है और साथ ही हिन्दुओं के प्रति घृणा भी उनमें भरी है, जैसा अभी यूक्रेन युद्ध की रिपोर्टिंग में दिख रहा है , जिसमें एक बड़ा वर्ग यह कह रहा है कि यह कोई तीसरी दुनिया, अर्थात विकासशील देश नहीं है!
जबकि यह सत्य पूरी दुनिया जानती है कि भारत गरीब कैसे हुआ? भारत को इस स्थिति में किसने पहुंचाया. वह भारत जहाँ पर मेगस्थनीज अपनी इंडिका में कहते है, कि भारत के किसान इतनी फसलें जानते हैं कि कभी भूखे नहीं मर सकते, तो फिर अंग्रेजों के आने के साथ ही ऐसा क्या हुआ कि अकाल पड़ना एक साधारण घटना हो गयी? ऐसा क्या हुआ कि लाखों लोगों का मरना साधारण घटना हो गयी? इसके विषय में भी तथ्य प्रस्तुत किए जाएंगे, परन्तु तथ्य यही बार बार स्थापित करते हैं कि भारत की गरीबी पश्चिम की ही देन है, पश्चिम की नीतियों ने भारत को आज इस स्थिति में पहुंचाया है! और जब जब इन तथ्यों पर बात होती है, तब तब वह असहज होते हैं और हिन्दुओं पर और भी अधिक नस्लीय हमला कर देते हैं!
अत: अमेरिका में हिन्दूफोबिया आज की बात नहीं है, इसके आगे की कहानी भी हम अपने और लेखों में प्रस्तुत करते रहेंगे!