वर्ष 1911 में हिन्दू धर्म अमेरिका में न्यायालय तक पहुंचा था और उसमें उसके हिस्से न्यायिक प्रक्रिया में हार आई थी। यह कहने के लिए माँ और बेटी की कहानी थी परन्तु दरअसल यह कहानी थी ईसाई समाज और हिन्दू धर्म के बीच की, कैसे एक महिला की वसीयत को हिन्दू धर्म को नीचा दिखाने के लिए प्रयोग किया गया था।
वर्ष 1911 में नॉर्वे के प्रतिष्ठित वायलिन वादक ओले बुल की पत्नी श्रीमती सारा बुल का देहांत हुआ। कैब्रिज में ब्रेटल ग्रीट में “स्टूडियो हाउस” में सारा बुल एक फैशनेबल सैलून चलाती थीं। वहां पर ईस्ट कोस्ट बुद्धिजीवियों की भेंट भारतीय विद्वानों जैसे स्वामी विवेकानंद से हुई थी। जो वेदांता सोसाइटी के संस्थापक थे और जो वर्ष 1893 में हुई विश्व धार्मिक संसद में सबसे लोकप्रिय वक्ता थे। सारा बुली हिन्दू धर्म स्वीकार कर चुकी थीं और उनकी वार्ता संस्कृत विद्वान चार्ल्स लंमन, दार्शनिक जोसिया रोयास और मनोवैज्ञानिक विलियम जेम्स से भी लगातार होती रहती थी।
वर्ष 1911 में उनके देहांत के बाद जब उनकी वसीयत खोली गयी तो सब दंग रह गए थे। यह पाया गया कि उन्होंने अपनी आधे मिलियन डॉलर के एस्टेट को वेदांत सोसाइटी के सदस्यों को दे दिया था। यह सुनते ही उनकी बेटी ओलिया बुल वॉघन ने इस सिद्धांत के आधार पर वसीयत को चुनौती दी कि उनकी माँ ने जब इस पर हस्ताक्षर किए थे, तब उनकी मानसिक स्थिति ठीक नहीं थी।
जब यह मुकदमा चल रहा था, तो हालाँकि वह एक छोटे कमरे में चल रहा था, परन्तु न्यूयॉर्क टाइम्स के अनुसार इसे अमेरिका के हर समाचार पत्र द्वारा कवर किया जा रहा था। क्योंकि आज तक ऐसा कुछ नहीं हुआ था। ऐसा मामला नहीं आया था। इसमें जज के सामने हालांकि श्रीमती बुल की मानसिक स्थिति पर चर्चा होनी थी, पर उनकी मानसिक स्थिति क्यों खराब हुई थी, चर्चा इस पर भी हो रही थी! अर्थात उनकी मानसिक स्थिति को हिन्दू धर्म ने बिगाड़ दिया था।
यह मुकदमा पांच सप्ताह चला था और इस अवधि में कई प्रकार के गवाह कोर्ट के सामने प्रस्तुत किए गए जिनमें एक कुक, मेड, और एक “मनोवैज्ञानिक नाई” शामिल था। प्रयास यही था जिससे यह प्रमाणित किया जा सके श्रीमती बुल धार्मिक रूप से प्रेरित शैतान हैं। उनके खानपान पर बहसें हुईं, उनके राज योग पर चर्चाएँ हुईं और यह भी चर्चा हुई कि वह ऐसी जादूटोने की हरकतें करने लगी थीं कि एक बार उन्होंने अपनी बेटी के आने पर खुद को कमरे में बंद कर लिया था।
यह चर्चाएँ हालांकि श्रीमती बुल की मानसिक स्थिति के ही इर्दगिर्द थे, परन्तु यह भी साथ साथ प्रमाणित किया जा रहा था कि हिन्दू धर्म पागल बनाता है क्योंकि श्रीमती बुल के दिमाग पर हिन्दू स्वामियों ने कब्जा कर लिया था। श्रीमती बुल संस्कृत में बात करती थीं, और वह मन्त्र बुदबुदाती थीं एवं वह ध्यान लगाती थीं। वह अपने आध्यात्मिक लक्ष्य को पाने के लिए अपने मरते हुए दादाजी को छोड़कर अपने स्वामी जी से मिलने चली गयी थीं। वह अपने ब्रेटल स्ट्रीट वाले घर में राजयोग में स्वामी विवेकानंद और उनके गुरु रामकृष्ण परमहंस की तस्वीरों को सामने रखकर रहस्यमयी योग करती थीं। उन्हें उनके दोस्त “संत सारा” कहते थे।
उन्होंने अंतिम प्रकट की थी कि उनका अंतिम संस्कार हिन्दू विधि विधान से हो तथा उनकी राख को कुरियर से नॉर्वे में उनके पति की कब्र पर पहुंचा दिया जाए। पर उनकी बेटी ने ऐसा करने से इंकार कर दिया था।
जब यह मुकदमा चल रहा था, उस समय पूरे अमेरिका के समाचारपत्रों की दृष्टि वहीं पर थी। उनकी बेटी ही मात्र अपनी माँ की मानसिक स्थिति और हिन्दू धर्म पर पर नहीं बोल रही थी, बल्कि मीडिया भी बढचढ कर इस पर बात कर रहा था। धर्म विज्ञान एवं नए विचार तथा ईसाई विज्ञान के पत्रकार इस बात पर बहस कर रहे थे कि हिन्दू धर्म मानसिक बीमार करने वाला है। न्यूयॉर्क टाइम्स ने हिन्दू धर्म को “स्ट्रेंज कल्ट” कहा था और बोस्टन पेपर्स ने हिन्दू परम्पराओं को “विचित्र” कहा था और श्रीमती बुल के घर में मूर्तियों को “मोटे स्वामियों की तस्वीरें” कहा था। बोस्टन हेराल्ड ने हिन्दू धर्म पर सबसे बड़ा प्रहार करते हुए कहा था कि यह “राज योग कल्ट की मनोवैज्ञानिक गड़बड़ी है और साथ ही कहा था कि राज योग योगियों का शारीरिक जिम्नास्टिक है!”
इस मुक़दमे के अंत में हेराल्ड ने कहा था कि “भारत में हिन्दू तपस्वी “फ़कीर” न होकर “fekar – फेकर हैं” और हिन्दू धर्म भगवान के साथ एकाकार होना नहीं सिखाता है बल्कि असली हिन्दू धर्म सार्वजनिक वैश्यावृत्ति, मूर्तिपूजा, असामाजिक स्वामी, बाल वधुओं और जाति प्रणाली है।”
जब यह मुकदमा चल रहा था, तभी श्रीमती बुल के एस्टेट के वकील यह भांप गए थे कि वह इस केस को हारने जा रहे हैं, क्योंकि यह मुकदमा केवल न्यायालय में नहीं चल रहा था बल्कि यह मुकदमा चल रहा था मीडिया के माध्यम से जनता के मन में!
जनता के बीच हिन्दू धर्म को बदनाम किया जा रहा था, और हिन्दुफोबिया पैदा किया जा रहा था। वह लोग कोर्ट से बाहर समझौते को भी तैयार हो गए थे। और श्रीमती बुल की बेटी की मुक़दमे की विजय हुई थी।
परन्तु श्रीमती बुल की बेटी अपनी विजय का जश्न नहीं मना पाई थी क्योंकि जिस दिन समझौते की घोषणा हुई थी उसी दिन उसका टीबी से निधन हो गया था!

अत: यह मानकर चलना चाहिए कि हिन्दुफोबिया आज की बात नहीं हैं, यह सौ से अधिक वर्षों से चला आ रहा है हाँ, अब हिन्दुओं ने प्रतिकार करना सीखा है! इस मामले में ईश्वरीय न्याय त्वरित हुआ था, हिन्दू धर्म को अपने स्वार्थ के लिए न्यायालय की चौखट पर ले जाने वाली वॉघन भी उस संपत्ति का आनन्द नहीं उठा पाई थीं, जिसने उससे यह पाप करवाया था!