श्रीमद्भागवत गीता में भगवान श्री कृष्ण कहते हैं कि जब जब धर्म की हानि होती है तब वह अवतार लेते हैं। भगवान विष्णु कभी भी अपने भक्तों की पुकार को अनदेखा नहीं करते हैं। जब जब भगवान को उनके भक्त पुकारते हैं तब तब भगवान दौड़े चले आते हैं। ऐसे ही चले आए थे अपने भक्त नन्हे प्रह्लाद के विश्वास की पुकार पर, और आते भी क्यों न, प्रश्न ही कुछ ऐसा था हिरण्यकशिपु दैत्य का कि क्या तुम्हारी रक्षा के लिए आएँगे भगवान? क्या इस खम्भे में भी भगवान हैं?” और भगवान प्रकट हो गए, अवतरित हो गए!
प्राचीन काल में हिरण्यकशिपु नामक दैत्य समस्त दैत्यों का राजा था। उसका वध करने के लिए भगवान श्री विष्णु चौथे अवतार के रूप में नृसिंह रूप में प्रकट हुए थे। अत्यंत बलवान होने के कारण हिरण्यकशिपु को अपने बल का बहुत घमंड था। तीनों लोकों के लिए वह काल रूप था। उसने वन में ब्रह्मा जी से वरदान पाने के लिए कठिन तप किया था। उसके कठिन तप से प्रसन्न होकर स्वयं ब्रह्मा जी वरदान देने के लिए आए। ब्रह्मा जी ने उसे वरदान मांगने के लिए कहा। ब्रह्मा जी को स्वयं के सम्मुख देखकर वह प्रसन्न हो गया, एवं उसने माँगा कि वह न ही देवता, न ही असुर, न ही गन्धर्व, न ही यक्ष, न ही नाग, न ही राक्षस और न ही मनुष्य एवं न ही पिशाच मार सके। फिर उसके वरदान मांगा कि उसे तपस्वी, ऋषि, महर्षि आदि कुपित होकर श्राप न दें। फिर उसने कहा हे परमपिता, न ही मेरा वध अस्त्र से हो, न ही शस्त्र से, न ही पृथ्वी पर हो, न ही रात में, न ही दिन में और न ही बाहर और न ही भीतर मेरा वध हो और साथ ही न ही मेरा वध न ही पशु, न ही पक्षी एवं न ही सरीसृप से हो।
ब्रह्मा जी ने उसे उसके वांछित वर दिए एवं अपने लोक चले गए। यहाँ पृथ्वी पर उसके अत्याचारों से हाहाकार मच गया। न ही कोई ऋषि उसे श्राप दे सकता था, और न ही कोई महर्षि उस पर कुपित हो सकता था। उसके पास शक्ति हो गयी एवं वह उस शक्ति का भरपूर लाभ लेने लगा।
देवों को इस बात का भान था। अत: उन्होंने वरदान देकर लौटे परमपिता ब्रह्मा से प्रश्न किया था कि उसका अंत कैसे होगा क्योंकि वह ऐसे वरदान पाकर तो वह देवताओं को बहुत कष्ट देगा। यह सुनकर परमपिता ब्रह्मा ने कहा कि उसे उसकी तपस्या का फल तो अवश्य ही प्राप्त होगा। कालांतर में जब उसके पापकर्म से उसके पुण्यकर्मों का नाश हो जाएगा तो उसका वध करने के लिए भगवान विष्णु अवश्य ही आएँगे।
ऐसा सुनकर देवता प्रसन्न तो हुए, परन्तु उनकी प्रसन्नता अधिक दिन तक नहीं टिक सकी एवं हिरण्यकशिपु वरदान का लाभ उठाते हुए अत्याचार करने लगा। उसके भीतर घमंड भर गया था एवं उसने सातों द्वीपों और अनेक लोकों को बलपूर्वक अपने अधीन कर लिया था। उसने देवताओं को अपने अधीन किया तथा उसने कहा कि वही भगवान है एवं सभी को उसे ही भगवान मानना होगा।
वह देवलोक का निवासी बन गया एवं सोचने लगा कि वह ही इंद्र हो जाए, एवं वही चंद्रमा, अग्नि, वायु, आकाश, जल नक्षत्रों आदि का स्वामी हो जाए। उसने दैत्यों को यज्ञ का अधिकारी बनाया एवं देवताओं को भगाने लगा। देवता उसके भय से अपने प्राण बचाते भागते रहते। इस प्रकार तमाम अत्याचारों के उपरान्त वह स्वयं को भगवान मानने लगा।
फिर देवताओं ने ब्रह्मा जी से सहायता माँगी, और ब्रह्मा जी ने उनसे कहा कि इस समस्या का समाधान मात्र विष्णु जी के ही पास है। वही इस दैत्य का संहार करेंगे। फिर समस्त देवों ने क्षीर सागर पहुँच कर विष्णु जी से गुहार लगाई। विष्णु जी ने सभी देवों को आश्वासन दिया कि वह अभय होकर रहें, शीघ्र ही वह उस दुष्ट दैत्य का वध करेंगे।
इधर हिरण्यकशिपु का पुत्र प्रहलाद भगवान विष्णु का भक्त था। जब जब वह अपने दैत्य पिता के सम्मुख भगवान विष्णु का जाप करता, तो वह क्रोधित हो जाता। विष्णु पुराण के अनुसार हिरण्यकशिपु ने प्रहलाद को मारने के हर प्रकार के प्रयास किये। सर्वप्रथम उसने सर्पों से कटवाया। परन्तु प्रहलाद को कुछ नहीं हुआ। उसके उपरान्त उसने अपने रसोइयों से अपने पुत्र को विष देने के लिए कहा। परन्तु फिर भी भक्त प्रहलाद को कुछ नहीं हुआ। उसके उपरान्त उन्हें पर्वत से नीचे गिरवाया। हर प्रकार की मायाओं से भयभीत कराया, परन्तु प्रहलाद को भक्ति से नहीं डिगा सका।
हर बार भगवान आकर उसकी रक्षा करते। जैसे हिरण्यकशिपु की तपस्या का क्षरण होते देखना चाहते हों। फिर एक दिन उसे राज सिंहासन से उतरकर उसे लात मारी एवं उसे समुद्र में फिंकवाने का निर्णय लिया। परन्तु प्रभु ने उनकी रक्षा की। उसके उपरान्त उन्होंने प्रहलाद की रक्षा एवं देवों की रक्षा के लिए नृसिंह का अवतार लिया तथा हिरण्यकशिपु का वध किया।
महाभारत के सभा पर्व के अनुसार भी भगवान विष्णु ने देवताओं की रक्षा के लिए नृसिंह का अवतार लिया। जो न ही पशु थे एवं न ही मानव! और उन्होंने उसे अपनी गोद में लिटाया तथा संध्याकाल आने पर राजभवन की देहरी पर अपनी जाँघों पर रखकर नखों से उसका वक्ष:स्थल फाड़ डाला।
तथा समस्त लोकों की रक्षा उसके अत्याचारों से की थी। वैशाख मास की शुक्ल पक्ष की चतुर्दशी तिथि को ही भगवान विष्णु ने नृसिंह का अवतार लिया था। यह तिथि इस वर्ष 25 मई को पड़ी है। भगवान विष्णु के प्रत्येक अवतार न्याय एवं कर्म की हिन्दू अवधारणा की पुष्टि करते हैं, एवं धर्म तथा न्याय की स्थापना ही जीवन का उद्देश्य बताते हैं। पाप पर पुण्य की विजय को समस्त अवतार प्रदर्शित करते हैं।
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