जब भी विमर्श की बात आती है या कहें “डिस्कोर्स” की बात आती है तो हिन्दू विमर्श, हिन्दू पीड़ा के विमर्श पर एकदम चुप्पी छाई रहती है। ऐसा लगता है जैसे सारा विमर्श हिन्दू पीड़ा से अलग हो चुका है या यह मान चुका है कि हिन्दुओं का, हिन्दुओं की पीड़ा का, हिन्दुओं के लोक का विमर्श में क्या स्थान? क्योंकि उनके अनुसार हिन्दू शब्द तो राजनीतिक शब्द है, इनकी पीड़ा उठाने से या बात करने से वह पिछड़े हो जाएँगे।
यही कारण है कि भारत में रहने वाले कथित मानवता के क्रांतिकारियों के दिल में भारत से बाहर की किसी भी ऐसी घटना पर भर-भर कर आंसू और कविताएँ आ जाती हैं, जिसमें पीड़ित कोई मुस्लिम बच्चा होता है या बच्चे होते हैं। उसपर भी उनका निशाना कभी भी जिहादी कट्टरता या जिहादी आतंकवाद की ओर नहीं जाता है, जिसके कारण वह बच्चे मारे गए। वह बस लिखते हैं, क्योंकि उन्हें लिखना होता है। और स्वयं को ‘अमनपसंद और इंसानियत से प्यार करने वाला” दिखाना होता है!
सीरियाई बच्चे एलन कुर्दी की याद सभी को होगी, जिसकी दुखद मृत्यु हो गयी थी और सागर के किनारे उसकी निर्जीव देह पड़ी हुई थी। वह तस्वीर जैसे ही वायरल हुई थी, वैसे ही भारत में बैठी उन तमाम मानवता प्रेमियों के दिल भर गए थे जो आज तक कश्मीर में आतंक के शिकार हिन्दुओं के बच्चों की निर्जीव देहों को देखकर भी नहीं भरे थे। कविताओं की ऐसी नदियाँ बहीं थीं, कि ऐसा लगा कि जैसे जलजला आ गया हो।
परन्तु एक भी कविता ऐसी नहीं थी जो यह बताती हो कि आखिर एलन के अब्बा को अपना मुल्क छोड़कर जाना किसके कारण पड़ा था? ऐसा कोई विमर्श नहीं हुआ! उस बच्चे की मृत्यु के लिए वास्तविक कारण को छोड़कर सभी को दोषी ठहरा दिया गया, मानवता को, विश्व को, भगवान को आदि आदि सभी को, परन्तु यह मूल प्रश्न किसी भी मानवता वादी ने नहीं उठाया कि आखिर एलन को मारने वाली मानसिकता कौन सी है?
नहीं, वह नहीं उठा सकते! क्योंकि जैसे ही वह उस मानसिकता पर बात करेंगे, उन पर इस्लामोफोबिया का आरोप लग जाएगा। उन पर हिन्दू होने का टैग लग जाएगा, जो उन्होने बहुत ही कठिनाई से अपने हिन्दू पर्वों को गाली देकर हटाया है।
उन पर यह आरोप लग जाएगा कि वह घृणा की बात कर रहे हैं। इसलिए यह सभी मानवता प्रेमी विमर्श में कभी भी यह नहीं लाए कि आखिर एलन कुर्दी को मारने वाली मानसिकता क्या है? अब आते हैं ऐसी ही एक और घटना पर, जिसे लेकर हिन्दू मानवता प्रेमी हद तक दुबला गए थे। और वह थी पाकिस्तान में पेशावर में एक सैनिक स्कूल पर हमला और उस में मारे जाने वाले बच्चों की मृत्यु पर रुदन!
बच्चों की मृत्यु हर स्थिति में दुखद होती है, हर स्थिति में, परन्तु यह जो सिलेक्टिव ओवरफ्लो होता है मानवता के आंसुओं का, यह दुःख देता है। पाकिस्तान में बच्चे मारे गए थे, उनकी माओं का क्रंदन वास्तव में दिल चीर रहा था, परन्तु प्रश्न यहाँ पर भारत के कथित मानवता प्रेमियों से है कि उनके दिलों में जो मानवता उस समय उफान लेती है, जब पाकिस्तान में बच्चे मारे जाते हैं, वह उस समय उफान क्यों नहीं लेती है जब भारत में बच्चे इस्लामी कट्टरता का शिकार होते हैं?
वर्ष २००३ में कश्मीर में नदीमार्ग में कश्मीरी हिन्दुओं को एक पंक्ति में खड़ा करके गोली मार दी गयी थी। उसमें सबसे छोटा शिकार एक दो साल का बच्चा था। इसे ही द कश्मीर फाईल्स में दिखाया गया है।
परन्तु एलन कुर्दी पर जार जार रोने वाले मानवतावादी और मौसमी क्रांतिकारी ऐसी हर घटना पर मौन रहते हैं। उनके लिए विमर्श का अर्थ मात्र ऐसी मृत्यु पर रोना है जिससे वह अपने आलोचक आकाओं को प्रसन्न कर सकें और वह उन्हें मंच पर बुलाकर सम्मानित कर सकें। हिन्दू होना उनकी दृष्टि में ऐसा अपराध है, जिसका कोई भी निदान नहीं है।
यह विषय इसलिए आज प्रासंगिक हो चला है कि एलन कुर्दी पर आज तक कविता लिखने वाली और आज तक पेशावर में इस्लामिक कट्टरपंथी आंतकवादियों के हाथों मारे गए पाकिस्तानी बच्चों पर कविता पढने वाली मानवतावादी क्रांतिकारी लेखिकाओं की दृष्टि जम्मू में मारे गए उन बच्चों अर्थात विहान शर्मा एवं सानवी शर्मा की निर्जीव देहों पर नहीं पड़ी है जिन्हें मात्र इसलिए मार डाला गया था कि उनके घरवाले हिन्दू थे।
धार्मिक पहचान अलग है, यह जानने के बाद उनके घर पर ग्रेनेड से हमला किया गया। ये दोनों बच्चे भी उसी घृणा का शिकार हुए। परन्तु वह एक और घृणा का शिकार हुए और वह थी विमर्श की घृणा। उन्हें हिन्दुओं की पीड़ा पर विमर्श करना पसंद ही नहीं है।
यही कारण है कि उनके रुदन में उन दो बच्चों का विमर्श है ही नहीं जिन्हें इस अपराध में अपने प्राणों से हाथ धोना पड़ा कि उनके परिवार के पास धार्मिक पहचान थी, मजहबी नहीं!
एलन कुर्दी आज तक विमर्श में जीवित है, उसके विमर्श में जीवित रहने से कोई समस्या नहीं है बल्कि समस्या है उन हिन्दू बच्चों का विमर्श में न आ पाना, जो भारत में ही रहते हुए शांतिकाल की हिंसा का शिकार हो रहे है और वह भी मात्र इस आधार पर कि उनकी धार्मिक पहचान, मारने वालों की मजहबी पहचान से एकदम अलग है!
और मजहबी पहचान के विरुद्ध विमर्श भी कोई करता है भला? फिर चाहे अफगानिस्तान में महिला सांसद की हत्या हो जाए, फिर चाहे पाकिस्तान में हजारों लड़कियों को जबरन मजहबी चोला पहना दिया जाए, फिर चाहे ईरान में लड़कियों की हत्या होती रहे, फिर चाहे बुर्किना फासो में महिलाओं का अपहरण होता रहे!
आपको मजहबी कट्टरता पर विमर्श इसलिए नहीं करना है क्योंकि आप पर “पिछड़ेपन” या नफरती होने का ठप्पा लग जाएगा! इसलिए भारत में हिन्दू विमर्श में नहीं है, क्योंकि उसका विमर्श से गायब होना ही प्रगतिशीलता का संकेत है!
इसीलिये उन बच्चों की मृत्यु विमर्श का हिस्सा नहीं है! उन बच्चों की निर्जीव देह किसी भी विमर्श का हिस्सा नहीं है! क्या मौसमी मानवतावादियों की कलम से विहान और सानवी शर्मा के लिए कोई कविता लिखी गयी? मेरी दृष्टि के सामने से नहीं गुजरी है, आपने पढ़ा हो तो अवश्य बताइयेगा!