15 अगस्त 2021 को जब अफगानिस्तान में तालिबान का शासन वापस आया था, उस समय मीडिया का एक बड़ा धड़ा, बार बार यही कह रहा था कि यह बदला हुआ तालिबान है, यह बदला हुआ तालिबान है। यहाँ तक कि जब तालिबान ने प्रेस कांफ्रेंस की थी तो मीडिया बलिहारी हो गया था। कम से कम वह प्रेस कांफ्रेंस तो कर रहा है। बार-बार नरेंद्र मोदी को कोसा गया, कि कम से कम उनमे पत्रकारों का सामना करने का साहस है।
परन्तु इस बदलते हुए अफगानिस्तान में उसी मीडिया के पत्रकार अपना पेशा छोड़ कर दूसरे पेशों में जा रहे हैं। khaama.com के अनुसार अफगानिस्तान की जर्नलिस्ट फाउंडेशन ने कहा है कि अफगानिस्तान के पत्रकार बहुत ही विकट आर्थिक स्थितियों से गुजर रहे हैं, क्योंकि 79% पत्रकारों ने नौकरी छोड़ दी है और अब वह जिंदा रहने के लिए कुछ और काम खोज रहे हैं।
फाउंडेशन ने पिछले डेढ़ महीने में अफगानी पत्रकारों के जीवन का आंकलन किया तो पाया कि वह तो खराब आर्थिक स्थितियों के कारण सबसे बुरा जीवन बिता रहे हैं।
इतना ही नहीं फाउंडेशन का कहना है कि वहां पर वित्तीय कारणों के कारण 75% मीडिया बंद हो चुका है।
सितम्बर में एक रिपोर्ट के अनुसार तालिबान के आने के बाद 150 मीडिया आउटलेट बंद हो चुके थे, और दिसंबर 2021 में आई एक रिपोर्ट के अनुसार 40% अफगान मीडिया आउटलेट बंद हो चुके थे.
बदले तालिबान की बात करने वाला मीडिया अब अपने ही संस्थान बंद कर रहा है, पत्रकार नौकरी छोड़ रहे हैं, किसी और काम की तलाश कर रहे हैं। परन्तु तालिबान का समर्थन और स्वागत करने वाली भारतीय मीडिया अपने ही पत्रकार बंधुओं की स्थिति को बताने में परहेज कर रही है। आखिर ऐसा क्यों नहीं हो रहा है कि जिस भारतीय मीडिया ने, जिन भारतीय पत्रकारों ने तालिबान को नया तालिबान कहकर स्वागत किया था, और अफगानों की पसंद बताया था, वह इस समय कहाँ पर हैं और क्या कर रहे हैं?
11 जनवरी को आए इस समाचार के बाद 16 जनवरी को उसी वेबसाईट पर एक और समाचार मीडिया से सम्बन्धित आया कि 95% अफगानी पत्रकार स्वतंत्र रूप से स्टोरी कवर नहीं कर सकते हैं। नेशनल युनियन ऑफ अफगानिस्तान’स जर्नलिस्ट ने कहा है कि 95% अफगान पत्रकारों के पास सूचना के स्रोत नहीं होते हैं और वह स्वतंत्र रूप से स्टोरी नहीं कर सकते हैं।
युनियन ने यह पोल करवाया था और इसे उन्होंने अफगानिस्तान के सभी 34 प्रान्तों में कराया था, जिसके दौरान उन्होंने लगभग 500 पत्रकारों से बात की थी।
यह भी निकल कर आया कि पत्रकारों ने तालिबान पर सेंसर करने, पिटाई करने, धमकी देने आदि का आरोप लगाया है, उन्होंने कहा कि जब वह आउटडोर स्टोरी कवर करने जाते हैं तो उनके साथ तालिबान से यह समस्याएं आती हैं।
17 जनवरी को यह रिपोर्ट आई कि सूचना की पहुँच के अभाव में अफगानिस्तान में मीडिया बंद भी हो सकता है।
नेशनल युनियन ऑफ अफगानिस्तान’स जर्नलिस्ट का कहना है कि उनके पास अफगानिस्तान की सरकार की ओर से ऐसा कोई कानूनी दस्तावेज और दिशानिर्देश नहीं है, जिससे उन्हें यह पता चल सके कि कैसे मीडिया कवरेज करना है और इसके कारण मीडिया और अफगानिस्तान के पत्रकार संकट में हैं।
युनियन का यह भी कहना है कि पिछले बीस वर्षों से अफगानिस्तान में मीडिया कवरेज को सुगम बनाने के लिए एक कानूनी दस्तावेज था।
युनियन के सदस्य इस बात से चिंतित हैं कि अगर ऐसा ही चलता रहा और उनके पास सूचनाओं के स्रोत कम होते रहे तो एक दिन अफगानिस्तान से मीडिया गायब हो जाएगा।
युनियन के प्रमुख का कहना है कि हालांकि अफगानिस्तान की तालिबान सरकार की ओर से यह आश्वासन दिया गया था कि पुरुष और महिला पत्रकारों पर कोई प्रतिबंध नहीं होगा, संकट नहीं आएगा, और काबुल में स्थितियां बेहतर हो रही हैं, परन्तु सूचना तक नहीं पहुंचा जा पा रहा है।
ऐसे में वामपंथी मीडिया का इस मामले में चुप रहना अपने आप में बहुत ही प्रश्न उठाने वाला रवैया है। वामपंथी मीडिया किस ओर है, यह समझ नहीं आता! क्या वामपंथी पत्रकार मीडिया की स्वतंत्रता पर बात करेगा?
वामपंथी मीडिया और पत्रकार न ही वहां पर कलाकारों पर हो रहे अत्याचारों पर बात कर रहा है और न ही तालिबान की इस कट्टरता पर जिसमें उन्होंने यह आदेश जारी किया कि निर्जीव पुतलों तक के सिर काट डाले जाएँ। वह तालिबान का भी समर्थन करते हैं और साथ ही इस बात को लेकर भी रोते हैं कि अफगानिस्तान में आम जनता भुखमरी का शिकार हो रही है।
परन्तु वह यह नहीं कहते कि आखिर यह कौन सी विचारधारा और कट्टरता है जो अपने ही मजहब के लोगों को निशाना बना रही है।
वह मीडिया को काम नहीं करने दे रहा है, पर भारत का वह वामपंथी मीडिया मौन ही नहीं है, बल्कि डाउन प्ले भी कर रहा है, जो स्वयं को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का चैम्पियन बताते हैं। तालिबान द्वारा पर्दों में लड़कियों को शिक्षा प्रदान करने पर लहालोट होने वाली फेमिनिस्ट भी इस बात पर मौन हैं, कि वहां पर मीडिया समाप्त होने के कगार पर हैं!