कुतुबमीनार, जिसे एनसीईआरटी की पुस्तकों सहित कई आधिकारिक दस्तावेजों में बार बार यह प्रमाणित करने का प्रयास होता आ रहा कि उसे कुतुबुदीन ऐबक ने बनाया है, जबकि वहां पर विद्यमान प्रतिमाएं यह बार बार चीख-चीख कर कहती हैं कि यह मंदिरों को तोड़कर बनाई गयी है। इस विषय में हमने कई बार लिखा है कि कैसे ऐतिहासिक प्रमाण यह बताते हैं कि इसका अस्तित्व कुतुबुद्दीन ऐबक से पहले से था।
भारत की अधिकाँश मस्जिदें मंदिरों को तोड़कर ही बनी हैं, जिनका उल्लेख सीताराम गोयल ने अपनी पुस्तक हिन्दू टेम्पल्स व्हाट हैपन टू देम, में किया है। वहीं अभी तक एनसीईआरटी की इतिहास की पुस्तकों में यह पढ़ाया जा रहा है कि क़ुतुब मीनार का निर्माण तीन सुल्तानों जैसे कुतुबुद्दीन ऐबक, इल्तुतमिश और फ़िरोज़ शाह तुगलक ने किया था। जबकि इस बात का आज तक कोई प्रमाण नहीं है कि क़ुतुब मीनार का निर्माण इन तीन मुस्लिम शासकों ने किया था।
फिर भी यह झूठ चल रहा है, इस झूठ का काट करती हैं, वहां पर विद्यमान गणेश प्रतिमाएं! वह इस बात की गवाही देती हैं, कि जो कहा जा रहा है, वह झूठ है और झूठ के अतिरिक्त कुछ नहीं है। जब एनसीईआरटी की पुस्तकें पढने के उपरान्त बच्चा वहां जाता है तो उसे अनुभव स्वत: ही हो जाता है, कि कहीं न कहीं तो उसे कुछ न कुछ गलत पढ़ाया गया है, क्योंकि मस्जिद में प्रतिमाओं का क्या काम एवं फिर वह सत्य की तलाश में जाता है।

अब कल्पना करें कि यदि यह प्रतिमाएं ही न रहें तो क्या होगा? कल्पना करें कि प्रतिमाओं को आदर देने के नाम पर उन सभी चेतनाओं और स्मृतियों को मस्जिदों के परिसर से बाहर कर दिया जाता है, जो वहां के हिन्दू इतिहास की गवाही देती हैं, तो क्या होगा? क्या हमारे बच्चे उसी झूठ पर ही विश्वास नहीं कर लेंगे, जो उन्हें उनकी पाठ्यपुस्तकों में पढ़ाया जा रहा है या फिर किसी वामपंथी रचनाकार के झूठे साहित्य में पढ़ाया जा रहा है?
एक नहीं कई विवाद ऐसे चल रहे हैं, जिनमें यदि ऐतिहासिक संदर्भों के आधार पर निर्णय आएगा तो यही कहा जाएगा कि यहाँ पर मस्जिद से पहले मंदिर था।
जौनपुर में अटाला मस्जिद के निर्माण में अटाला देवी के मंदिर की सामग्री का प्रयोग किया गया था। इस बात का उल्लेख सीताराम गोयल जी ने भी किया है कि यह मंदिर को तोड़कर बनाई गयी है। यदि इसे भीतर से देखा जाता है तो इसमें मन्दिर के स्तम्भ आज भी दिखते हैं। अर्थात यह हिन्दू पहचान को परिलक्षित करते हैं।

वहीं मध्यप्रदेश में धार में भी भोजशाला पर हर वर्ष उठता विवाद हमें उस झूठ का स्मरण कराता है जो उसके विषय में बार बार बोला जाता रहा है। धार में भोजशाला में वाग्देवी की प्रतिमा को राजा भोज के शासन में स्थापित किया गया गया था। यह प्रतिमा भोजशाला के निकट खुदाई में मिली थी तो वर्ष 1880 में मेजर किनकैड इसे अपने साथ लंदन ले गया था।
वहीं 1456 में महमूद खिलजी ने दरगाह बनाई! अब राजा भोज की बनाई गयी भोजशाला पर मुस्लिम दावा करते हैं। परन्तु कोई भी यह बता सकता है कि दरअसल यहाँ क्या था?

फिर जब यह सभी हिन्दुओं के इतिहास के एवं मुस्लिम आक्रान्ताओं की क्रूरता के उदाहरण हैं, तो ऐसे में कोई भी सरकार यह क्यों चाहेगी कि हिन्दू प्रतीक या हिन्दू देवी देवताओं की प्रतिमाओं को मस्जिद से हटाया जाए? यही देखकर तो अहसास होता है वास्तविक इतिहास का?
ऐसे में यदि सरकार का कोई भी निकाय उन हिन्दू पहचानों को मस्जिद परिसर से हटाने का प्रयास करता है तो क्या वह हमारी आने वाली पीढ़ी के मस्तिष्क से उस स्थान के विषय में प्रत्येक हिन्दू पहचान को खुरचकर नहीं मिटा देगा? यह एक सहज प्रश्न है। ऐसे में जब केंद्र सरकार की संस्था राष्ट्रीय स्मारक प्राधिकरण के प्रमुख और पूर्व राज्यसभा अध्यक्ष एएसआई को यह पत्र लिखते हैं कि कुतुबमीनार में मस्जिद से गणेश जी की प्रतिमा को हटा कर राष्ट्रीय संग्रहालय में रखवा दिया जाए, तो क्या वह वहां से एक अत्यंत ही ज्वलंत प्रश्न की हत्या नहीं कर रहे हैं? उनका कहना है कि इन प्रतिमाओं को एक सम्मानजनक स्थान पर रखना चाहिए।
उन्होंने इस विषय में अपने बयान में कहा था कि ”मैं कई बार उस जगह पर गया हूं और महसूस किया है कि मूर्तियों की जगह अपमानजनक है। वो मस्जिद में आने वाले लोगों के पैरों में आती हैं। स्वतंत्रता के बाद हमने उपनिवेशवाद के निशान मिटाने के लिए इंडिया गेट से ब्रितानी राजाओं और रानियों की मूर्तियां हटाई हैं और सड़कों के नाम बदले हैं। अब हमें उस सांस्कृतिक नरसंहार को उलटने के लिए काम करना चाहिए जो हिंदुओं ने मुगल शासकों के हाथों झेला था।”
परन्तु वह यह नहीं बता रहे हैं कि उन प्रतिमाओं को हटाने से क्या वह स्वयं ही लोगों की दृष्टि से वह प्रमाण ओझल कर देंगे जो उन्हें यह अपमान बोध कराती है कि दरअसल यह कुतुबमीनार उन्हीं के मंदिरों को तोड़कर बनी है।
इस विषय में सोशल मीडिया पर आक्रोश है और लोग इस मंशा पर प्रश्न उठा रहे हैं। आनंद रंगनाथन का कहना है कि यह तो ऐसा हुआ जैसे बाबरी मस्जिद की पवित्रता को बनाए रखने केलिए राम लला की प्रतिमा को हटाया जाना
जब तरुण विजय यह बात कहते हैं कि इन प्रतिमाओं को आदर मिलना चाहिए, तो वह परिसर में ही, जहाँ पर वह स्थापित हैं, वहीं पर पूजा की व्यवस्था करवा सकते हैं, किसी भी विग्रह के लिए इससे बड़ा सम्मान नहीं हो सकता कि जहाँ पर वह हैं, वहीं पर उनकी विधिवत पूजा अर्चना आरम्भ हो! क्या सरकार का कोई भी निकाय यह कर सकता है? यदि नहीं तो राष्ट्रीय म्यूजियम में लेजाकर सम्मान दिलवाने की खोखली बातें क्यों?
यह इतिहास को स्मृति से मिटाने के प्रयास से अधिक कुछ नहीं हैं। जैसा यूजर कह रहे हैं:
ratan सारदा ने भी यही बात कही है कि यदि मस्जिद परिसर में प्रतिमाएं है तो उन्हें सम्मान उसे परिसर में दिलाया जाना चाहिए, वहां से हटाने से तो इस्लामी आक्रान्ताओं के समस्त प्रमाण ही चले जाएँगे:
तरुण विजय का आदर दिलाने वाला कदम दरअसल और कुछ नहीं इस बात की आधिकारिक पुष्टि प्रदान करना है कि कुतुबमीनार को कुतुबुदीन ऐबक ने बनाया था और उन तमाम हिन्दू मंदिरों के साथ अन्याय है, जिन्हें तोड़कर इसे बनाया गया था, उन तमाम हिन्दू चेतनाओं का अपमान है जो अभी तक वहां पर अपनी पहचान के लिए भटक रही हैं।
यह हमारी आने वाली पीढ़ी से हमारे इतिहास के प्रमाण छीनने का कुप्रयास है! यदि आदर देना ही उद्देश्य है तो उन विग्रहों की पूजा का अधिकार प्रदान किया जाना चाहिए!