“सम्राट पृथ्वीराज” फिल्म में सबसे अधिक समस्या जिस आयाम से लोगों को हुई थी, वह थी उसका उर्दू की ओर अधिक झुकाव होना। उन शब्दों का प्रयोग किया जाना अत्यंत आम हो गया है, जो हिन्दुओं को पूरी तरह से नीचा दिखाते तो हैं बल्कि हिन्दुओं के अस्तित्व के लिए भी खतरा है। सम्राट पृथ्वीराज में तो उर्दू के प्रयोग को लेकर डॉ द्विवेदी ने संजय दीक्षित के साथ साक्षात्कार में भाषा की यात्रा को बता दिया और साथ ही यह भी कहा कि तुलसीदास जी ने भी कई स्थान पर उर्दू का प्रयोग किया है।
उन्होंने यह भी किसी का उदाहरण देते हुए कहा कि उर्दू तो ब्रज भाषा से ही निकली है। डॉ द्विवेदी की यह बात सत्य है कि उर्दू कहीं बाहर से नहीं आई, बल्कि उसका जन्म यहीं हुआ है, सत्य है, परन्तु यह भी बात सत्य है कि उर्दू का प्रयोग कालांतर में मजहबी वर्चस्व के लिए किया गया।
उर्दू साहित्य का इतिहास जब पढ़ते हैं तो उसमें हमें पता चलता है कि उर्दू का उद्गम यद्यपि भारत में ही हुआ और उसमें ब्रज, अवधि, फारसी आदि सभी भाषाओं के शब्द थे, परन्तु जैसे जैसे मुग़ल काल का पतन होता गया, वैसे वैसे एक बड़ा वर्ग था, जिसे बेचैनी थी। जैसे जैसे पेशवाओं का प्रभाव बढ़ता गया दिल्ली से शायर लखनऊ आते गए। और उन्होंने पुराने उन शब्दों को छोड़ना आरम्भ कर दिया, जो ब्रज आदि भाषाओं से लिए गए थे।
श्री रघुपति सहाय ‘फिराक’ गोरखपुरी ने उर्दू भाषा और साहित्य नामक पुस्तक में पृष्ठ 52 में लिखा है कि “भाषा तथा अभिव्यक्ति शैली के क्षेत्र में इस काल में अवश्य पहले से विकास हुआ और दिल्ली के कवियों द्वारा वृयवहृत बहुत से शब्द और वाक्य विन्यास छोड़ दिए गए/ यद्यपि इन लोगों ने कुछ कुछ पुराने शब्द जैसे नित, टुक, अंखड़िया, भल्ला रे आदि कायम रखे, परन्तु बाद में “उस्ताद नासिख” ने छोड़कर परिष्कृत उर्दू का नमूना पेश कर दिया!”
उस्ताद नासिख कौन थे? यह ध्यान देना होगा!
कौन से नासिख?
श्री रघुपति सहाय ‘फिराक’ गोरखपुरी उर्दू भाषा और साहित्य में पृष्ठ 64 में लिखते हैं कि “उर्दू की साज संवर तो प्रत्येक कवि ने अपने जमाने में कुछ न कुछ की है, किन्तु नासिख की जो इस बारे में देन है, उससे उर्दू संसार कभी उऋण नहीं हो सकता। इसमें कोई संदेह नहीं कि उन्होंने बुजुर्गों की परम्परा छोड़कर उर्दू में अरबी-फारसी शब्दों और शब्द विन्यासों की बहुतायत कर दी और परिष्कार के नाम पर हिंदी के बहुत से मधुर शब्द भी वर्जित कर दिए, किन्तु फारसी का निचोड़ लेकर उर्दू को ऐसा टकसाली कर दिया कि वह ऊंचे ऊंचे विषयों के प्रतिपादन के योग्य हो गयी।

अर्थात भारतीय भाषाओं से जब उर्दू बनी थी, तब उर्दू अपनी थी और वर्ष 1800 आते आते मुस्लिम हिन्दी से किनारा खींचने लगे थे। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल हिन्दी साहित्य का इतिहास में लिखते हैं कि संवत 1800 आते आते मुसलमान हिन्दी से किनारा खींचने लगे थे। हिन्दी हिन्दुओं के लिए छोड़कर अपने पढ़ने लिखने की भाषा वह विदेशी अर्थात फारसी ही रखना काहहते थे। जिसे “उर्दू” कहते हैं, उसका उस समय तक साहित्य में कोई स्थान न था, इसका स्पष्ट आभास नूर मुहम्मद नूर के इस कथन से मिलता है कि
कामयाब कह कौन जगावा, फिर हिंदी भाखै पर आवा
छांडि पारसी कंद नवातैं, अरुझाना हिन्दी रस बातैं
जब डॉ द्विवेदी इतनी बड़ी बड़ी बातें कर रहे थे, तो उन्हें नूर मुहम्मद नूर के विषय में भी बताना चाहिए था। नूर मुहम्मद नूर दिल्ली के बादशाह मुहम्मद शाह के समय में थे और उन्हें फारसी बहुत अच्छी आती थी, परन्तु उन्होंने हिन्दी भाषा का चयन किया था। उन्होंने इन्द्रावती नामक बहुत सुन्दर काव्य लिखा है और जिसमें उन्होंनें हिन्दी भाषा का प्रयोग किया था, इस पर उन्हें ताना मारा गया था कि मुस्लिम होकर हिन्दी का प्रयोग कैसे कर सकते हैं। तो उन्होंने अनुराग बांसुरी नामक ग्रंथ के आरम्भ में इसकी सफाई दी थी और कहा था कि
जानत है वह सिरजनहारा । जो किछु है मन मरम हमारा॥
हिंदू मग पर पाँव न राखेउँ । का जौ बहुतै हिन्दी भाखेउ॥
मन इस्लाम मिरिकलैं माँजेउँ । दीन जेंवरी करकस भाँजेउँ॥
जहँ रसूल अल्लाह पियारा । उम्मत को मुक्तावनहारा॥
तहाँ दूसरो कैसे भावै । जच्छ असुर सुर काज न आवै॥
अर्थात वह जो सृजनहारा है, वह सब जानता है कि उनका मर्म क्या है? वह कभी हिन्दू नहीं बनेंगे, क्या हुआ जो थोड़ी बहुत हिन्दी बोल ली। उनका मन तो इस्लाम में लगा है, और उन्हें रसूल और अल्लाह प्यारा है। उन्हें उम्मत पर विश्वास है और उसमें कोई दूसरा कैसे भा सकता है।
अनुराग बांसुरी का रचनाकाल संवत 1821 माना गया है।
उर्दू को हिन्दुओं के विरुद्ध साहित्य में प्रयोग किया गया था। हालांकि कुछ रचनाकार ऐसे थे, जिन्होनें ऐसा नहीं किया। फिर भी उर्दू को लेकर एक अलगाववाद की भावना भरी जाने लगी थी, जब उसमें से संस्कृत, ब्रज आदि भाषा के शब्द निकाल दिए गए थे।

अब आते हैं फिर से संजय दीक्षित के साथ उस वीडियो पर। डॉ द्विवेदी ने भाषा के नाम पर स्वयं को सही प्रमाणित करने के लिए हिन्दी के कई शब्दों को ही उर्दू का बता दिया है। उन्होंने कहा कि पानी हिन्दी का शब्द नहीं है। अब उर्दू के ऑनलाइन शब्दकोश रेख्ता पर हम जाते हैं तो उसमें पानी शब्द का स्रोत लिखा है संस्कृत: पानीयं शब्द जब स्पष्ट रूप से संस्कृत में है, तो इसे हिन्दी का न बताना या फिर इसे उर्दू का बताना?

फिर इन्होनें कहा कि मछली उर्दू शब्द है, इसका भी रेख्ता खंडन करते हुए कहती है कि इसका स्रोत संस्कृत है। फिर वह छोटे छोटे शब्द जैसे रोटी, मीठा आदि को भी हिन्दी का नहीं बताते हैं, बाहर का बताते हैं, रेख्ता इसका खंडन करते हुए इन्हें संस्कृत का बताती है। सूफीनामा भी इसे हिन्दी का ही बताता है! मीठा कितना स्पष्ट है कि मिष्ठान से ही आया है, मिष्ठान भण्डार, तो अभी तक हम लोग प्रयोग में देखते हैं!
रोटी की यात्रा भी रोटिका से रोटी की संस्कृत से हिन्दी की यात्रा है, इसमें परायापन कैसा? परन्तु वह कह रहे हैं कि रोटी भी हिन्दी शब्द नहीं है!

https://www.rekhtadictionary.com/meaning-of-rotii-1?lang=hi&keyword=%E0%A4%B0%E0%A5%8B%E0%A4%9F%E0%A5%80

इन्होनें ऊँगली को भी उद्रू का बता दिया है, जबकि अंगुलिमाल की कहानी ही हमारे यहाँ हर कोई जानता है, अंग से बनी अंगुली और अंगुली का ही उंगली हो गया होगा, ऐसा भाषा विज्ञानियों का कहना है। यह समझ नहीं आया कि जो शब्द जैसे देखना, जो बहुत सहजता से कोई भी बता सकता है कि दृश्य शब्द से देखना हुआ होगा, फिर भी उन्होंने इसे हिन्दी का शब्द मानने से इंकार कर दिया?
वह मीठा शब्द के लिए कहते हैं मीठे का अर्थ संस्कृत में मधुर होता है, पर हम मधुर शब्द का प्रयोग नहीं करते! मीठा शब्द का मूल सूफीनामा पृष्ठ भी संस्कृत और प्राकृत से बताता है! फिर उन्हें इसे जबरन दूसरी भाषा का बताने का क्या कारण है?
यहाँ तक कि अच्छा शब्द, जिसका मूल संस्कृत के अच्छ शब्द से प्राप्त होता है, जिसका अर्थ है साफ़, चमकदार उसे भी हिन्दी का नहीं बताया है! जो शब्द संस्कृत से सीधे हिन्दी में आए हैं, उन्हें भी पराया बताना, यह किस प्रकार का हठ था? यह समझ नहीं आया! या फिर जो संस्कृत से फारसी में गए, उन्हें विदेशी बताना कहीं न कहीं डॉ साहब की छवि के अनुकूल नहीं था!
ब्रह्मास्त्र के ट्रेलर में “सिकंदर” शब्द का प्रयोग

भाषा ने बहुत ही सूक्ष्म स्तर पर हिन्दुओं को उनके इतिहास से विस्मृत करने का कार्य किया है। हाल ही में ब्रह्मास्त्र फिल्म का ट्रेलर आया है। उसमें लिखा है कि उसे नहीं पता कि वह “ब्रह्मास्त्र की किस्मत का सिकंदर है!”
सिकंदर से क्या अभिप्राय है? सिकंदर ने भारत पर आक्रमण किया था, और उसके हृदय में भारत को अपने अधीन करने की अभिलाषा थी। क्या एक ऐसे व्यक्ति का उदाहरण आदर्श के रूप में दिया जा सकता है जिसका उद्देश्य भारत और उसकी संस्कृति को रौंदना रहा हो।
एक और सिकंदर हिन्दुओं के काल के रूप में जाना जाता है। वह था कश्मीर का सिकंदर बुतशिकन। जिसने कश्मीरी हिन्दुओं का संहार करवाया था और मार्तंड मंदिर में भी उसी ने आग लगवाई थी।
सिकंदर लोधी, जिसने अनगिनत मंदिरों को तोडा, और जिसकी सूची सीताराम गोयल की पुस्तक हिन्दू टेम्पल्स, व्हाट हैपेण्ड टू देम, में दी गयी है। उसने काशी विश्वनाथ मंदिर का ध्वंस किया था, और उसने उसके साथ ही असंख्य मंदिरों को ध्वस्त किया था।
तो “ब्रह्मास्त्र की किस्मत का सिकंदर” किस दृष्टिकोण से उचित वाक्य कहा जा सकता है? कल को उसे लिखने वाला भी यह कह सकता है कि सिकंदर चूंकि विश्वविजेता था, इसलिए उसने यह लिखा।
एक पुस्तक है, जो सेन्ट्रल आर्किलियोजिक्ल लाइब्रेरी, नई दिल्ली के पुस्तकालय एवं इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र की वेबसाईट पर ऑनलाइन उपलब्ध है, जिसका नाम है भारतीय इतिहास पुनर्लेखन क्यों?, जिसे लिखा है डॉ कुंवर लाल व्यासशिष्य ने, उसमें लिखा है कि प्रोफ़ेसर हरिश्चंद्र सेठ ने सिकंदर और पोरसयुद्ध के सम्बन्ध में यूनानीस्रोतों के आधार ही सिद्ध किया है कि इस युद्ध में पोरस की विजय हुई थी, परन्तु आज भारतीय पाठ्यपुस्तकों में सिकंदर को महान विजेता चित्रित किया जाता है।

इसके साथ ही कई और भी प्रमाण अब सामने आने लगे हैं कि उस युद्ध में पुरु की विजय हुई थी।
कई लेख अब सामने आ रहे हैं जो इस बात को लेकर प्रश्न उठा ही रहे हैं कि यदि वास्तव में पुरु को सिकंदर ने परास्त कर दिया था तो वह आगे क्यों नहीं बढ़ा?
वर्ष 1957 में भारतीय सैन्य अकादमी, देहरादून में कैडेट्स को संबोधित करते हुए Marshal Zhukov ने कहा था कि भारत में सिकंदर असफल हुआ था, न कि सफल! और फिर उन्होंने कारण बताए थे। उनके अनुसार सिकंदर की भारत में उससे भी बड़ी पराजय हुई थी, जितनी नेपोलियन की रूस में हुई थी।

यह सत्य है कि सिकंदर जब भारत से लौट रहा था, तो उसकी मृत्यु हो गयी थी। सिकंदर ने भारत विजय की या नहीं, इससे परे भी यह कहीं से भी उचित नहीं कहा जा सकता है कि हम एक ऐसे व्यक्ति को वीर व्यक्ति के नाम से अपनी जनता के मस्तिष्क में अंकित करने का पाप करें, जिसका उद्देश्य मात्र अपने नाम के लिए विश्व पर अधिकार स्थापित करना था? और कहीं न कहीं भारत की मूल संस्कृति पर प्रहार करना था! परन्तु फिर भी एक सिकंदर के नाम से हमारे मस्तिष्क में एक ऐसी गुलामी और आत्महीनता को भर देना कि सिकंदर महान था, जबकि भारत में प्राचीन काल से ही वीरों की एक परम्परा और इतिहास रहा है, वही हिन्दू विरोधी चाल है, जो बॉलीवुड इतने दशकों से चलता आया है।
बॉलीवुड बहुत ही सूक्ष्मता से गढ़ता है भाषा के आधार हिन्दू-विरोधी नैरेटिव और इससे पार पाना तब तक कठिन होना जब तक इस झूठ से मुक्त नहीं हो जाते कि अभी वाली उर्दू दरअसल हिन्दी की ही बहन है! उर्दू का इतिहास कुछ और ही कहता है, और हमें हमारे ही लेखक कुछ और पढ़ाते समझाते हैं!
कैसे डॉ द्विवेदी ने हिन्दी के ही शब्दों को फारसी के शब्द बता दिया और कैसे ब्रह्मास्त्र जो हिन्दुओं में एक अत्यंत शक्तिशाली एवं ब्रह्म के अस्त्र का प्रतीक है उसकी किस्मत का सिकंदर ही किसी को बता दिया? भाषा का यह खेल सांस्कृतिक रूप से कितनी हानि करता है, यह बहुत देर से समझ आता है, जब हमारे बच्चे अपनी ही संस्कृति को पराया और पराई को अपनी संस्कृति मान बैठते हैं!
एक दिन संस्कृत गायब हो जाएगी और फिर यही शोध बच्चे कहेंगे कि रोटी शब्द तो फारसी है, पानी तो यहाँ का है, मिठाई तो यहाँ का है, फिर हिन्दुओं का क्या है? क्या है आपका योगदान?