महाभारत एक ऐसा ग्रन्थ है, जिसके विषय में यह कहा गया कि इस ग्रन्थ को घर में नहीं लाना चाहिए क्योंकि भाइयों में लड़ाई हो जाएगी। परन्तु क्या वास्तव में ऐसा है? क्या वास्तव में महर्षि वेदव्यास कृत महाभारत को घर में नहीं रखा जाना चाहिए? क्या वास्तव में यह भाइयों में झगड़ा करवाता है? जबकि इस पूरे ग्रन्थ में परिवार, भाई, बहन, पिता, आदि की महत्ता पर बात की गयी है। इसके हर पर्व में एक नई सीख है। आदिपर्व में एक प्रकरण है, शकुन्तला एवं दुष्यंत का।
इस प्रकरण में शकुन्तला किस प्रकार दुष्यंत से प्रश्न कर रही हैं, कि वह अपनी संतान को नहीं पहचान रहे हैं तथा पत्नी और संतान का क्या स्थान होता है:
जब वह यह स्वीकार ही नहीं करते हैं कि उन्होंने कभी शकुन्तला के साथ विवाह किया था, तो वह कहती हैं
“हे दुष्यंत, यदि प्रार्थना करने वाली मेरी प्रार्थना आप नहीं सुनेंगे तो आज आपका सिर सैकड़ों भागों में फट जाएगा!”
इसके उपरान्त वह कहती हैं कि
“भार्या पति: संप्रविश्य स यस्माज्जायते पुन:
जायाय आईटीआई जायात्वं पुराणा: कवयो बिदु:”
अर्थात प्राचीन ज्ञानी लोग कहा करते हैं कि पति स्वयं गर्भ के रूप में पत्नी के रूप में प्रविष्ट होकर पुत्र के रूप में जन्म लेता है, इसलिए पत्नी जाया कही जाती है।
फिर वह कहती हैं कि
ज्ञानी पुरुष के जो पुत्र होता है, वह पुत्र संतानों से परलोकवासी पितरों का उद्धार करता है!”
इसके बाद भी दुष्यंत नहीं सुनते हैं। वह उस समय राजा के रूप में हैं, उनकी कुछ मर्यादाएं हैं, वह संभवतया अपने मुख से नहीं स्वीकार करने का साहस कर पा रहे हैं कि उन्होंने ही शकुन्तला से विवाह किया था। संभवतया वह उन्ही साक्षी तत्वों द्वारा प्रमाणित किए जाने की प्रतीक्षा में हैं, जिनका उल्लेख शकुन्तला ने यह कहते हुए किया था कि
“मन्यते पापकं कृत्वा न कश्चिद्वेत्ति मामिति,
विदन्ति चैनं देवाश्च स्वश्वेवांतरपुरष:”
अर्थात लोग पाप करके समझते हैं कि किसी ने मुझे नहीं जाना, परन्तु देव और हृदय के अन्दर रहने वाले परमपुरुष सब कुछ जानते हैं!”
आदित्य, चंद्रमा, वायु, अग्नि, आकाश, धरती, जल, हृदय, यम, दिन, रात्रि, दोनों संध्या और धर्म, यह सब मनुष्य के सम्पूर्ण चरित्रों को जानते हैं!”
संभवतया दुष्यंत इन्ही द्वारा कुछ कहे जाने की प्रतीक्षा में हैं!
“रति, प्रीति, और धर्म सभी पत्नी के ही हाथों में होते हैं, अत: ज्ञानी को चाहिए कि वह अति क्रोधित होने पर भी पत्नी से कभी अप्रिय बात न करे”
इस पर भी दुष्यंत जब मौन रहते हैं तो वह स्त्रियों के विषय में क्या कहती हैं:
“आत्मनो जन्मन: क्षेत्रं पुण्यं रामा: सनातनम,
ऋषीणामपि का शक्ति: स्नष्टुं रामामृते प्रजा:”
“स्त्रियाँ आत्मा का सनातन और पवित्र जन्मक्षेत्र हैं; ऋषियों में भी क्या शक्ति है जो वह बिना स्त्री के प्रजा रच सकें?”
“जब पुत्र धरती के धूल में शरीर को सानकर पास आकर के पिता के अंगों से लिपट जाता है तो उससे और अधिक सुख क्या होगा?”
यह सभी वाक्य शकुंतला दुष्यंत को यह स्मरण कराते हुए कह रही हैं कि वह उनके साथ विवाह करके आए थे तथा अब वह अपने उस वचन का पालन करें, जो विवाह के समय दिया था।
विवाह के समय शकुन्तला ने यह दुष्यंत से यह वचन लिया था कि वह तभी विवाह करेंगी जब इस विवाह से उत्पन्न पुत्र को वह अपना उत्तराधिकारी घोषित करेंगे!
अब वह नन्हे भरत को लेकर आई हैं, जिनका नाम उस समय सर्वदमन है, उनकी धरोहर को उन्हें सौंपने के लिए! वह बताना चाहती हैं कि यह नन्हा अवश्य है, परन्तु शेर के दांत गिन लेता है, यह नन्हा अवश्य है परन्तु उसका नाम “सर्वदमन” रखा गया है! परन्तु जब वह राजसभा में पहुँचती हैं, तब राजा उन्हें पहचानने से इंकार कर देते हैं।
शकुन्तला एवं दुष्यंत का यह संवाद असत्य और भ्रम के उस आवरण को हटाता है, जो यह कहा करता है कि स्त्रियों का आदर नहीं था तथा उन्हें शिक्षा ग्रहण नहीं करने दिया जाता था। यदि ज्ञान ग्रहण नहीं करने दिया जाता था तो शकुन्तला के भीतर यह ज्ञान कहाँ से आया कि वह दुष्यंत को ही कठघरे में खड़ा कर रही हैं?
परन्तु राजा दुष्यंत राजा होने की मर्यादा से संभवतया बंधे हुए हैं!
वह पुन: अपमान करते हुए कहते हैं कि शकुन्तला मेनका की पुत्री होते हुए भी असत्य भाषण क्यों कर रही हैं?
इस पर शकुन्तला आगे स्पष्ट कहती हैं कि उनमें और दुष्यंत में कितना भेद है, परन्तु फिर भी वह अपने प्रेम के कारण ही इस सभा में खड़ी हैं और फिर राजा को दर्पण दिखाती हैं।
वह कहती हैं कि
हे राजेन्द्र, देखो, मेरु और सरसों के समान हम दोनों में भेद है, तुम धरती पर चलते हो और मैं आकाश में उडती हूँ!”
उसके उपरान्त वह कई उदाहरण देते हुए कहती हैं कि जो पुरुष अपने समान ही संतान को उत्पन्न कर उसका अपमान करता है, देवगण भी उसका अनादर करते हैं एवं उन्हें सुख नहीं प्राप्त होता है!
इसके उपरान्त वह पुत्र के भी प्रकार बताती हैं, और कहती है कि भगवान मनु ने स्वपत्नी एवं अन्य स्त्रियों से उत्पन्न, पाए हुए, खरीदे हुए, विवर्धित तथा संस्कारित ये पांच प्रकार के पुत्र बताए हैं।
जब वह यह देखती हैं कि तनिक भी राजा पर प्रभाव नहीं हो रहा है तो वह कहती हैं कि
हे दुष्यंत! आपके स्वीकार न करने पर भी मेरा यह पुत्र शैलराज से अलंकृत इस पृथ्वी का चारों समुद्रों तक शासन करेगा!
उसके उपरान्त आकाशवाणी होती है, जो कहती है कि हे दुष्यंत, अपने पुत्र को स्वीकारो एवं शकुन्तला का अनादर मत करो, जो कुछ भी शकुन्तला ने कहा है, वह सत्य है।
इस आकाशवाणी को सुनकर दुष्यंत अत्यंत प्रसन्न हुए एवं उन्होंने अपने मंत्रियों एवं सभासदों से कहा कि आप इन देवदूत की वाणी पर ध्यान दीजिये एवं “मैं भी वैसा जानता हूँ कि इस पुत्र ने मुझसे ही जन्म लिया है!”
उसके उपरान्त दुष्यंत यह कहते हैं कि हे देवी लोकों में कोई नहीं जानता कि मैंने तुमसे विवाह किया है। अत: तुम्हारी शुद्धि हेतु मैंने ऐसा व्यवहार किया। और कुछ लोग ऐसा समझ सकते हैं कि केवल सुख की अभिलाषा से इनका संगम हुआ, विवाह नहीं हुआ, यह बिना विधि से उत्पन्न हुआ पुत्र राज्य का अधिकारी हुआ है, बस लोकापवाद को दूर करने के लिए ऐसा चरित्र प्रकट किया!”
यह प्रकरण पत्नी द्वारा पति को उसके तथा उन दोनों की सन्तान को अधिकार दिलाने के सम्बन्ध में अत्यंत महत्वपूर्ण संवाद है, जो यह बताता है कि हिन्दू स्त्री को जिस प्रकार यह प्रमाणित किया जाता रहा कि पति द्वारा अन्याय सहे जाने पर वह भी मौन रही, और वह एक गूंगी वस्तु रही, बस रोती रही, इन सबका खंडन शकुन्तला करती हैं।
वह जब देखती हैं कि दुष्यंत मान ही नहीं रहे हैं, तो भी उन्हें अपने पालनपोषण पर विश्वास है और वह कहती हैं कि मेरा पुत्र तो आपके बिना भी शासन करेगा!
यह हिन्दू ग्रंथों में वर्णित स्त्री की कथा है, शक्ति की कथा है, तभी यह प्रपोगैंडा प्रसारित किया गया कि “महाभारत घर में न रखें!”
यदि घर में रखा, और अध्ययन किया तो हिन्दू स्त्री शकुन्तला को वामपंथी एजेंडे में रोती हुई नहीं बल्कि राजा से प्रश्न करती हुई पत्नी के रूप में देखेंगी और उनके भीतर भी शक्ति आएगी!
(स्रोत- महाभारत, हिन्दी सम्पादन – डॉ पंडित श्रीपाद दामोदर सातवलेकर, – स्वाध्याय मंडल पारडी- जिला वलसाड)