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Sunday, October 6, 2024

उच्चतम न्यायालय ने आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग के सवर्णों के आरक्षण पर लगाई मुहर, लम्बे समय तक चले षड्यंत्र का हुआ अंत

उच्चतम न्यायालय की पांच न्यायाधीशों की संवैधानिक बेंच ने एक बहुत बड़ा निर्णय देते हुए संविधान के 103 वें संशोधन अधिनियम 2019 की वैधता को बनाये रखा है। उच्चतम न्यायालय ने सोमवार को आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग के लिए 10 प्रतिशत आरक्षण पर अपनी मुहर लगा दी है। मामले की सुनवाई करते हुए पांच जजों वाली संवैधानिक पीठ ने ईडब्ल्यूएस आरक्षण के पक्ष में 3-2 के अंतर से अपना निर्णय सुनाया।

इस संविधान संशोधन से पहले मात्र जाति के आधार पर आरक्षण की व्यवस्था थी, जिसके अंतर्गत कुछ पिछड़ी जातियों को ही आरक्षण मिलता था। लेकिन इस संशोधन के पश्चात आर्थिक रूप से पिछड़े सवर्णों के लिए भी आरक्षण की व्यवस्था की गई थी। साल 2019 में मोदी सरकार द्वारा यह संविधान संशोधन लाया गया था, जिसके पश्चात कई कथित पिछड़ी जातियों से सम्बंधित दलों और संगठनों ने लगभग 40 याचिकाएं उच्चतम न्यायालय में प्रेषित की थीं। इन सभी याचिकाओं पर ही आज यानी 7 नवंबर 2022 को उच्चतम न्यायालय ने अपना निर्णय सुनाया है।

क्या है ईवीएस आरक्षण कानून?

भारतीय संविधान में 103वां संशोधन करके साल 2019 में मोदी सरकार ने अनुच्छेद 15(6) और 16 (6) को जोड़ा। इसके अंतर्गत उच्च शिक्षण संस्थानों में पिछड़े वर्गों, अनुसूचित जाति (SC), अनुसूचित जनजाति (ST) और सरकारी नौकरियों में प्रारंभिक भर्ती के दौरान गरीबी रेखा से नीचे जीवन यापन करने वाले सवर्णों को भी 10 फीसद आरक्षण दिया जाएगा। इसके पीछे सरकार का उद्देश्य था कि आर्थिक रूप से पिछड़े लोगों को भी आरक्षण का लाभ मिल सके, वहीं आर्थिक रूप से पिछड़े लोगों का पहचान उनकी जमीन और वार्षिक आय के आधार पर होगा।

पाठकों को स्मरण होगा कि अनुच्छेद 15 धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग और जन्म स्थान के आधार पर किसी भी तरह के भेदभाव को रोकता है, वहीं अनुच्छेद 16 समस्त नागरिकों को रोजगार के समान अवसर देने की बात कहता है। इसके अतिरिक्त खंडों ने सरकार को आर्थिक रूप से पिछड़े लोगों के लिए आरक्षण का कानून बनाने की शक्ति प्रदान की, जिस तरह से एससी, एसटी और ओबीसी के लिए कानून बनाए गए।

मार्च 2005 में केंद्र की तत्कालीन यूपीए सरकार ने सेवानिवृत्त मेजर जनरल एस.आर. सिंहो की अध्यक्षता में एक आयोग गठित किया था, जिसकी सिफारिश के आधार पर सरकार ने EWS आरक्षण का कानून बनाया। सिंहो आयोग ने सिफारिश की कि समय-समय पर अधिसूचित सामान्य श्रेणी के सभी गरीबी रेखा से नीचे रहने वाले परिवारों और वह परिवार जिनकी सभी स्रोतों से होने वाली पारिवारिक आय कर सीमा से कम हो को आर्थिक रूप से पिछड़े वर्ग रूप में चिन्हित किया जाना चाहिए।

बता दें कि इस आयोग ने जुलाई 2010 में सरकार को अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की थी, लेकिन इस पर अंततः संविधान संशोधन मोदी सरकार ने ही किया।

उच्चतम न्यायालय ने 3-2 के अंतर से अपना निर्णय सुनाया

उच्चतम न्यायालय की बेंच ने इस विषय पर 3-2 के अंतर से निर्णय सुनाया, जहां न्यायाधीश दिनेश माहेश्वरी, बेला एम त्रिवेदी, जेबी पारदीवाला ने ईडब्ल्यूएस आरक्षण पर सहमति जताई है। इन तीनों न्यायाधीशों का मानना है कि कि यह आरक्षण संविधान का उल्लंघन नहीं करता है। वहीं सीजेआई जस्टिस यूयू ललित व जस्टिस रवींद्र भट ने इस पर असहमति प्रकट की।

विरोधियों ने लगभग 40 याचिकाएं लगाई गयी इस आरक्षण के विरोध में

जैसे ही मोदी सरकार ने आर्थिक रूप से उपेक्षित सवर्णों के लिए आरक्षण की व्यवस्था की, तुरंत ही विपक्षी दल और कई कथित पिछड़े वर्ग के झंडाबरदार समझे जाने वाले संगठनों ने इसका विरोध करना शुरू कर दिया था। इन संगठनों ने सवर्णों को आरक्षण से वंचित करने के लिए लगभग 40 याचिकाएं उच्चतम न्यायालय में दायर की। इन याचिकाकर्ताओं ने दलील है कि आरक्षण का मकसद सामाजिक भेदभाव झेलने वाले वर्ग का उत्थान था, अगर गरीबी आधार तो उसमें एससी-एसटी-ओबीसी को भी स्थान मिले।

ईडब्लूएस कोटा के विरुद्ध कहा गया कि ये 50 फीसदी आरक्षण की सीमा का उल्लंघन है। ईडब्ल्यूएस आरक्षण के विरोधियों ने कहा है कि आरक्षण का उद्देश्य लोगों को गरीबी से ऊपर उठाना नहीं है, बल्कि उन लोगों का प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करना है जिन्हें संरचनात्मक असमानताओं के कारण इससे वंचित किया गया था। इन विरोधियों का तर्क है कि इस आरक्षण व्यवस्था से अवसर की समानता का अंत होगा, और यह संविधान की मूल ढांचे का उल्लंघन करता है और मंडल आयोग के मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले द्वारा तय की गई आरक्षण की 50 प्रतिशत की सीमा का उल्लंघन करता है।

वहीं ईडब्ल्यूएस कोटा का समर्थन करते हुए तत्कालीन अटॉर्नी जनरल केके वेणुगोपाल ने न्यायालय से कहा कि यह कोटा किसी भी तरह से अनुसूचित जाति (एससी), अनुसूचित जनजाति (एसटी) और अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) के अधिकारों का हनन नहीं करता है। वेणुगोपाल ने इस दावे को खारिज कर दिया कि इसने संविधान के मूल ढांचे का उल्लंघन किया है। उन्होंने कहा कि यह सामाजिक और आर्थिक रूप से पिछड़े वर्गों (एसईबीसी) के लिए 50 प्रतिशत कोटा को छेड़े बिना दिया गया है।

निर्णय के बाद सवर्ण विरोधियों ने उच्चतम न्यायालय को बताया जातिवादी

आशा के अनुरूप, जैसे ही सवर्णों के पक्ष में निर्णय आया, सवर्ण विरोधी और कथित आरक्षण के झंडाबरदार उबल पड़े और उन्होंने उच्चतम न्यायालय को ही जातिवादी ठहरा दिया। कांग्रेस के दलित नेता उदित राज ने कहा कि “सुप्रीम कोर्ट जातिवादी है, अब भी कोई शक! EWS आरक्षण की बात आई तो कैसे पलटी मारी कि 50% की सीमा संवैधानिक बाध्यता नही है लेकिन जब भी SC/ST/OBC को आरक्षण देने की बात आती थी तो इंदिरा साहनी मामले में लगी 50% की सीमा का हवाला दिया जाता रहा।”

वहीं दलितों के नाम पर बने हुए कई संगठन इस निर्णय के बाद भारतीय कानून व्यवस्था और संविधान को कोस रहे हैं। यह वही संविधान है जो उनके नेता भीमराव आंबेडकर जी ने बनाया था, लेकिन आज उन्हें यही व्यवस्था जातिवादी दिख रही है, कारण है उनके विपरीत निर्णय का आना।

कई दलित संगठन इस आरक्षण को ‘सुदामा आरक्षण’ बोल कर इसका मजाक उड़ाते थे, और यह उलाहना देते थे कि उनकी मेरिट भीख मानी जाती थी, तो क्या सवर्णों को दिया गया आरक्षण भीख नहीं है ? आज उन लोगों के पैरों के नीचे से ज़मीन खींच ली गयी है, और उनके समझ नहीं आ रहा कि इस समाचार पर कैसे प्रतिक्रिया दी जाए, इसलिए उच्चतम न्यायालय को ही जातिवादी बता रहे हैं।

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