अब जब फिल्म सम्राट पृथ्वीराज फ्लॉप हो ही गयी है, तो इस बहाने डॉ. चन्द्र प्रकाश द्विवेदी जी का अहंकार भी सबके सामने आ गया। जयपुर डायलॉग के संजय दीक्षित के साथ लिया गया उनका साक्षात्कार यह बताने के लिए पर्याप्त है कि उनका अध्ययन और उनकी विचार प्रक्रिया भी वह नहीं है जो एक धर्मनिष्ठ एवं राष्ट्रवादी हिन्दू खोज रहा था।
साक्षात्कार के पहले भाग में जब संजय दीक्षित यह पूछते हैं कि दर्शक यह पूछ रहे हैं कि लोग डॉ. चंद्रप्रकाश द्विवेदी को देखने गए थे और उन्हें मिले अक्षय कुमार, अर्थात वह अक्षय कुमार के साथ रिलेट नहीं कर पाए। इस पर डॉ. द्विवेदी का कहना था कि यह हिन्दी फिल्मों का “ट्रेंड” है। उन्होंने कहा कि सबसे पहले उन्होंने जब वर्ष 2004 में इस फिल्म की योजना बनाई थी तो सन्नी देओल को पहले लेना चुना था, फिर यह आरम्भ हुई तो वर्ष 2018 हो गया था। इस बार उन्होंने अक्षय कुमार के साथ बात की।
फिर जो उन्होंने कहा वह सबसे महत्वपूर्ण है। उन्होंने कहा कि वह ऐसा चेहरा चाहते थे जो दर्शकों को थिएटर तक लाए। अर्थात उनका उद्देश्य इस मूवी को बनाने का पृथ्वीराज चौहान की कहानी को सामने लाना था या फिर एक ऐसी कमर्शियल फिल्म बनाना, जिसमें केवल दर्शकों को खींचने वाला चेहरा हो। और फिर उन्होंने कहा कि भारत में हर वह सुपरस्टार जिसके नाम पर दर्शक आते हैं, वह पचास या पचपन से ऊपर ही हैं। अर्थात उनका संकेत खान गैंग या उसी गैंग की ओर था, जिसे इन दिनों दर्शक ठुकरा रहे हैं।
सुशांत सिंह राजपूत की मृत्यु के उपरान्त जिस प्रकार बॉलीवुड ने एक ठंडा व्यवहार और सुशांत की मृत्यु के कारणों का पता न लगाने के प्रति उपेक्षा देखी, तब से आम जनता क्रोधित है, वह क्षोभ में है और वह आक्रोशित होकर पूछ ही रही है कि हम क्यों जाएं देखने ऐसी फिल्म? ऐसा नहीं है कि फ़िल्में चली नहीं हैं, “कश्मीर फाइल्स” ने जो व्यापार किया है, वह अपेक्षा से परे था।

दोनों ही फिल्मों को सरकार की ओर से प्रमोट किया गया था, परन्तु जहां “कश्मीर फाइल्स” में एक सत्यता एवं तथ्यों के प्रति निष्ठा थी, तो वहीं सम्राट पृथ्वीराज का एक एजेंडा था। वह एजेंडा क्या था? और क्या यह पृथ्वीराज चौहान, वही पृथ्वीराज चौहान थे जो जनमानस में बसे हुए हैं? यह एक प्रश्न सबसे महत्वपूर्ण था क्योंकि जनमानस में बसे हुए पृथ्वीराज कोई फेमिनिस्ट एजेंडा चलाने वाले न होकर वीर हैं, वह गोरी से युद्ध लड़ते हैं। वह इस्लाम स्वीकार करने से इंकार करते हैं और प्राणों का बलिदान देते हैं, इसलिए वह जन के नायक हैं।
परन्तु क्या डॉ. द्विवेदी के पृथ्वीराज भी वही हैं?
डॉ. द्विवेदी पृथ्वीराज चौहान को श्रृंगार से परिपूर्ण बनाना चाहते थे:
वीर रस वाले पृथ्वीराज को उन्होंने श्रृंगार रस तक क्यों समेट दिया? फिर वह नाट्यशास्त्र तक चले गए और उन्होंने ब्रह्मा जी तक को अपने लिए खींच लिया और कहा कि ब्रह्मा जी ने भी हर रस का महत्व बताया। उन्होंने कहा कि पृथ्वीराज चौहान को हम जिस रूप में जानते हैं, उससे इतर हम इस रूप में भी जानते हैं कि उन्होंने संयोगिता का वरण किया था।”
परन्तु डॉ. चन्द्रप्रकाश द्विवेदी यह नहीं बता पाते हैं कि अंतत: संयोगिता उन पर मोहित क्यों थी? ऐसा क्या कारण था जिस कारण एक स्त्री उस समय पर किसी पुरुष पर मोहित रही होगी? पृथ्वीराज के शौर्य की कहानियां सुनकर ही न? फिर शौर्य श्रृंगार से पीछे क्यों कर दिया गया? क्यों हमारे नायकों को मात्र प्रेम तक ही समेट देने का कुचक्र इन लोगों द्वारा फैलाया जा रहा है?
आखिर ऐसा क्या कारण है कि योगेश्वर कृष्ण को मात्र राधा-कृष्ण और गोपियों तक समेट दिया है, और उनका राजनीतिक रूप कहीं पीछे छोड़ दिया? वामपंथ हमारे साथ ऐसा छल क्यों कर रहा है? परन्तु इस बार यह छल अपने कहे जाने वाले डॉ. चन्द्रप्रकाश द्विवेदी ने किया है। यह बहुत बड़ा छल है, उन्होंने कहा कि हमने निर्धारित किया था कि हम अतिरेक नहीं करेंगे!”
अब यह अतिरेक क्या है? क्या अपने नायकों की वीरता और अपने नायकों का संघर्ष दिखाना अतिरेक है? क्या अपने नायकों की शक्ति दिखाना अतिरेक है? यह भी समझ से परे ही बात है!
इसके साथ ही उन्होंने यह भी जोर देकर कहा कि वह यही पृथ्वीराज लेकर आदित्य चोपड़ा के पास गए थे।
अर्थात उन्होंने श्रृंगार को ही ध्यान में रखकर पृथ्वीराज की परिकल्पना की थी।
श्रृंगार रस की बात करने पर यह कहा जा सकता है कि जहाँ पर नाट्यशास्त्र, कामसूत्र और श्रृंगार शतक जैसी रचनाओं की रचना हुई है, वहां का दर्शक श्रृंगार को न देखे, यह नहीं हो सकता, क्योंकि प्रेम और श्रृंगार ही हर कहानी का मूल होता है। परन्तु यह भी सत्य है कि दर्शक मूल कहानी से समझौता नहीं चाहता है। वह अपने नायकों को ऐसा नहीं देखना चाहता है जो कहने के लिए उस फिल्म में शूरवीर की भूमिका निभा रहा हो और परदे पर अंडरवियर और पानमसाला बेच रहा हो!
वह ऐसे हर अभिनेता को अस्वीकार करता है। ऐसे में डॉ. द्विवेदी का यह अहंकार समझ से परे है कि कोई बड़ा चेहरा ही पृथ्वीराज की भूमिका निभाने के लिए चाहिए था। यह कैसे हो सकता है? यह उनका अहंकार ही प्रतीत हो रहा है कि उन्हें सम्राट पृथ्वीराज के लिए एक बड़ा बैनर चाहिए था! वहीं इसकी तुलना हम मणिकर्णिका से करते हैं तो पाते हैं कि कैसे कंगना ने वह फिल्म अपने कंधे पर खींची थी। किसी बड़े नायक का मोह नहीं था। बस अंत में आकर वीरगति के तरीके में परिवर्तन किया था, परन्तु मूल कथा में अधिक परिवर्तन नहीं था, रानी की भव्यता थी और वस्त्रों एवं आभूषणों से कोई भी समझौता नहीं था।

मणिकर्णिका सुपरहिट फिल्म थी। उसमें कथा को ध्यान में रखा गया था, श्रृंगार था भी तो वह नेपथ्य में था। बाहूबली फिल्म में भी श्रृंगार था, परन्तु उसमें हिन्दू धर्म की भव्यता थी। डॉ. चन्द्र प्रकाश द्विवेदी ने कहीं न कहीं भारत की उस भव्यता से समझौता किया है जिसे मेग्स्थनीज़ तक बताता है, ऐसा उन्होंने क्यों किया? यह एक प्रश्न बार- बार उभरता है और इसका उत्तर भी इसी साक्षात्कार में है। जिसका विश्लेषण हम अगले लेख में करेंगे!
यह बात पूर्णतया सत्य है कि दर्शक डॉ द्विवेदी के नाम पर हॉल में गया था, परन्तु उसे वहां अक्षय कुमार मिले, जो चरित्र में तनिक भी फिट नहीं थे!