भारत में मनुस्मृति को गाली देना, कोसना और अपशब्द कहना ही क्रान्ति है। जो जितना अधिक मनुस्मृति को जलाएगा, उसे अपशब्द कहेगा उसे उतना ही ज्ञानी माना जाता है। मनु की ही सन्तान मनुष्य हैं। हमने पहले भी मनुस्मृति और उसके अनुवादों को लेकर लेख लिखा है। परन्तु आज मनुस्मृति के एक ऐसे श्लोक की बात करेंगे जिसमें दिन और रात की अवधि के समय के विषय में बताया गया है।
मनुस्मृति के प्रथम अध्याय में 64वां श्लोक है:
निमेषा दश चाष्टौ च काष्ठा त्रिंशत्तु ताः कला ।
त्रिंशत्कला मुहूर्तः स्यादहोरात्रं तु तावतः।
अर्थात (दश च अष्टौ च) दस और आठ मिलाकर अर्थात अट्ठारह (निमेषा) निमेषों की एक काष्ठा (काष्ठा) होती है। (ता: त्रिशत्तु) उन तीस काष्ठाओं की एक कला होती है। (त्रिंशत्कला), तीस कलाओं का (मुहूर्त-स्यात) [48 मिनट] का होता है और (तावत: तू) उतने ही अर्थात 30 मुहूर्तों के (अहोरात्रम) एक दिन-रात होते हैं। (प्रोफ़ेसर सुरेन्द्र कुमार)
अब इसे और विस्तार से समझते हैं और फिर इसके अंग्रेजी अनुवाद पर आते हैं। एक मुहूर्त 48 मिनट का माना गया है, और ऐसे जब 30 मुहूर्त मिलकर दिन और रात बनाते हैं, तो क्या प्राप्त होता है उसे देखते हैं। आइये गुणा करते हैं:
30 मुहूर्त = 1 दिन-रात अर्थात 24 घंटे
24 घंटे अर्थात
24x 60 = 1440 मिनट
मनुस्मृति के अनुसार
30 मुहूर्त अर्थात 48 x 30=1440 मिनट
अब इसका जब अंग्रेजी अनुवाद बहलर ने किया तो लिखा
Eighteen nimeshas (twinklings of the eye, are one kashtha), thirty kashthas one kala, thirty kalas one muhurta, and as many (muhurtas) one day and night।
और विलियम जोन्स ने इसका अनुवाद किया
Eighteen nimeshas or twinkling of an eye are one castha; thirty casthas are one kala; thirty calas, one muhurta; and just so many muhurtas let mankind consider as duration of their day and night।
अब यहाँ पर अनुवाद में सारा खेल हो गया है। न ही बहलर ने यह जानने का प्रयास किया कि एक मुहूर्त कितने मिनट का होता है और न ही विलियम जोन्स ने यह जानने का प्रयास किया कि एक मुहूर्त में कितने मिनट होते हैं। यदि यह जानने का प्रयास किया होता तो वह इसमें लिखते कि 48 मिनट का एक मुहूर्त होता है। उन्होंने मात्र भाषांतरण कर दिया और जिस एक शब्द से यह गणना स्थापित होती कि मनु महाराज ने कैसे दिन और रात की गणना बताई थी, वह गुम हो गया।
ऐसा ही कई स्थानों पर किया गया है। एक और श्लोक हम पढ़ते हैं। यह श्लोक वृक्षों में जो अन्तश्चेतना होती है उसके विषय में है:
तमसा बहुरूपेण वेष्टिताः कर्महेतुना ।अन्तःसंज्ञा भवन्त्येते सुखदुःखसमन्विताः । ।1/49
इसका अनुवाद प्रोफ़ेसर सुरेन्द्र कुमार ने इस प्रकार किया है कि
(कर्महेतुना) पूर्वजन्मों के कर्मों के कारण (बहुरूपेण तमसा) बहुत प्रकार के तमोगुण से (वेष्टिताः) आवेष्टित – घिरे हुए या फिर भरपूर (एते) ये स्थावर जीव (सुख दुःख समन्विता) सुख दुःख के भावों से संयुक्त हुए (अन्तः – संज्ञाः भवन्ति) आन्तरिक चेतना वाले होते हैं अर्थात जिनके भीतर तो चेतना है किन्तु चर प्राणियों के समान बाहरी क्रियाओं में प्रकट नहीं होती है। अत्यधिक तमोगुण के कारण चेतना और भावों का प्रकटीकरण नहीं हो पाता है।
अब इसका अंग्रेजी अनुवाद देखते हैं:
बहलर ने लिखा है:
These (plants) which are surrounded by multiform Darkness, the result of their acts (in former existences), possess internal consciousness and experience pleasure and pain।
इसे विलियम जोन्स ने लिखा है:
These animals and vegetables are encircled with multiform darkness by reason of past actions, have internal conscience, and are sensible of pleasure and pain।
अब जब हम इस श्लोक के भाषांतरण को भी देखते हैं तो पाते हैं कि कितना अधूरा भाषांतरण है! क्या बहलर या विलियम जोन्स उस चेतना के विषय में परिचित भी थे जो वृक्षों में होती है और तमोगुण क्या होते हैं? क्या उन्हें यह ज्ञात था? वृक्षों में चेतना होती है इसे जब वैज्ञानिक जगदीश चन्द्र बसु ने अपने प्रयोग के माध्यम से बताया था तो उसी पश्चिमी जगत ने उनके प्रयोग को विफल करने का हर संभव प्रयास किया था। तो ऐसे में जब मनु स्मृति में वृक्षों में जीवन, चेतना और जीवन चक्र के विषय में बताया गया है, क्या बहलर और विलियम जोन्स यह समझ पाए होंगे कि वृक्ष कोई और नहीं बल्कि जीवात्मा की ही एक अवस्था है?
जिन्हें तम का अर्थ नहीं पता वह डार्कनेस लिख रहे हैं तम को?
अब जब विज्ञान भी मान रहा है कि पृथ्वी एक जीवित ग्रह है, जिसमें फंगस नुमा संरचनाएं आपस में संवाद करती हैं, तो मनु द्वारा लिखा गया यह श्लोक भी कहीं न कहीं प्रतिध्वनित होता है कि वृक्षों में चेतना, संवाद सब कुछ होता है! एक पूरी अवधारणा का अनुवाद क्या बहलर और विलियम जोन्स कर सकते थे?
धार्मिक ग्रंथों के निकटतम समतुल्य अनुवाद पढ़ने का प्रयास होना चाहिए, क्योंकि यही हमारे विचारों और सोच का निर्माण करते हैं। बहलर और विलियम जोन्स द्वारा किये गए अनुवाद आधे अधूरे हैं एवं यदि इन्हें ही स्रोत के रूप में लिया जाएगा तो इस श्लोक का अर्थ जरा भी समझ नहीं आएगा। और जब आधे अधूरे अनुवाद को ही स्रोत या रीसोर्स के रूप में लिया जाएगा तो कैसे वह सम्पूर्ण अर्थ को परिलक्षित करेगा, यह भी एक समस्या है।
इस प्रकार के सतही अनुवाद से मूल ग्रन्थ की हानि तो होती ही है, साथ ही आने वाली पीढ़ियों के लिए सतही ग्रन्थ ही स्रोत के रूप में उपलब्ध रहते हैं।
परन्तु यह संयोग नहीं हो सकता है कि हर स्थान पर बहलर का ही अनुवाद मनुस्मृति के अनुवाद के रूप में उपलब्ध है एवं व्याख्यापरक अनुवाद उपलब्ध नहीं है। इस षड्यंत्र को समझना होगा