पोथी पढ़ पढ़ जग मुआ पंडित भया न कोय,
ढाई आखर प्रेम का पढ़े सो पंडित होय!
प्रेम के ढाई अक्षर देखें तो सृष्टि भी ढाई अक्षर का ही शब्द है। अर्थात जैसे कबीर दास कहते हैं कि ढाई अक्षर की सृष्टि जो पढ़ लेगा वह पंडित अर्थात ज्ञानी हो जाएगा। परन्तु राम की भक्ति करने वाले कबीरदास को यह नहीं पता था कि एक दिन उन्हें ही प्रेम नहीं किया जाएगा, और संकुचित कर दिया जाएगा, और खड़ा कर दिया जाएगा एक महान कवि और भक्त तुलसीदास के सामने!
विमर्श होगा और उन तुलसीदास को वामखेमा कबीरदास जी से नीचा साबित करने लग जाएगा, जो ईसाईयत और इस्लाम को फैलाने में सबसे बड़ी बाधा हैं। द रेनेसां इन इंडिया, इट्स मिशनरी आस्पेक्ट में सीएफ एंड्रूज लिखते हैं कि मगर भक्ति के संतों में और देशज भाषा के कवियों में भारत में अब तक के सर्वश्रेष्ठ कवि थे तुलसीदास। वह सोलहवीं शताब्दी में हुए थे – यूरोप और भारत में होने वाले धार्मिक सुधारों से एक शताब्दी पूर्व!” एंड्रूज का कहना है कि भारत की तीन महान धार्मिक विभूतियों में वह सर्वश्रेष्ठ थे। सबसे पहले थे गौतम बुद्ध जिनका व्यक्तित्व विशाल था, और जिनकी शिक्षाएं दूर दूर तक फैलीं परन्तु भारत का दिल उनके साथ नहीं हुआ। फिर दूसरे थे शंकराचार्य, जिनमें विद्वता की शक्ति थी, और फिर तुलसीदास, जिन्होनें देशज भाषा का प्रयोग किया और अपने गौरवशाली इतिहास को देशी भाषा में जनता के पास लेकर गए। रामचरित मानस का पाठ हर गाँव में होता है और हिन्दू धार्मिक त्यौहार में हर कोई भाग लेता है,”
परन्तु ऐसे महान कवि को एक झूठे विमर्श के माध्यम से नीचा दिखाने का बार बार प्रयास किया गया और वह भी अकेडमिक स्तर पर, जिससे हिन्दुओं को आपस में बाँट दिया जाए। आज संत कबीर की जयन्ती है। संत कबीरदास ने भी कभी नहीं सोचा होगा कि एक दिन उनके राम और तुलसीदास जी के राम को ही वामपंथी आपस में लड़वा देंगे।
वह राम को अपना सर्वस्व मानकर बैठे हैं। उनके राम अयोध्या के राम से अलग कैसे हो गए। वह लिखते हैं:
राम बिनु तन को ताप न जाई ।
जल में अगन रही अधिकाई ॥
राम बिनु तन को ताप न जाई ॥
तुम जलनिधि मैं जलकर मीना ।
जल में रहहि जलहि बिनु जीना ॥
राम बिनु तन को ताप न जाई ॥
तुम पिंजरा मैं सुवना तोरा ।
दरसन देहु भाग बड़ मोरा ॥
राम बिनु तन को ताप न जाई ॥
वह राम का बंधन अपने गले में बाँध बैठे हैं। वह राम के लिए समर्पित हैं। लिखते हैं:
कबीर कुत्ता राम का, मुतिया मेरा नाऊँ।
गलै राम की जेवड़ी, जित खैंचे तित जाऊँ॥
मगर वामपंथी विमर्श दो रामभक्तों में फूट डालता है और बार बार यह प्रमाणित किया जाने लगा कि कबीर ही तुलसीदास से बेहतर हैं। जबकि दोनों ही प्रभु श्री राम के अनन्य भक्त हैं। कबीरदास जी को क्रांतिकारी कहा जाने लगा और तुलसीदास जी को स्त्री विरोधी और उसके लिए एक दो दोहे निर्धारित कर दिए गए। और हाल ही में जामिया के ही एक प्रोफेसर ने शायद यह तक कह दिया था कि तुलसीदास का साहित्य हिंदी से मिटा ही देना चाहिए।
मगर वह ऐसा कर नहीं पाए। पर एक बात ध्यान देने योग्य है, कि यदि एक पंक्ति के कारण वह तुलसीदास को स्त्री विरोधी ठहराते हैं, तो तुलसी के सामने श्रेष्ठ कहे जाने वाले कबीर ने भी एक से बढ़कर एक स्त्री विरोधी रचनाएं कीं। यहाँ पर कबीरदास पर कोई प्रश्न नहीं है, परन्तु यहाँ पर वामपंथियों के उस नैरेटिव पर प्रश्न है कि यदि एक दो पंक्ति से तुलसी बाबा स्त्री विरोधी हो सकते हैं, तो कबीर क्यों नहीं? क्योंकि कबीर भी भली स्त्री और बुरी स्त्री के विषय में और पतिव्रता स्त्री के विषय में उतने ही स्पष्ट हैं, जितने तुलसी! कबीर भी स्त्री के लिए वही सन्देश देते दिखाई देते हैं, जो तुलसी देते हैं, फिर वामपंथियों ने उन्हें तुलसी के सामने क्यों खड़ा किया? एक दोहा तो हद से ज्यादा स्त्री विरोधी है, जो है:
‘नारी की झांई पड़त, अंधा होत भुजंग
कबिरा तिन की कौन गति, जो नित नारी को संग’
अर्थात नारी की झाईं पड़ते ही सांप तक अंधा हो जाता है, फिर साधारण इंसान की बात ही क्या! और फिर वह लिखते हैं:
कलयुग में जो धन और नारी के मोह में नहीं फंसता, उसी के दिल में भगवान हैं, वह लिखते हैं:
कलि मंह कनक कामिनि, ये दौ बार फांद
इनते जो ना बंधा बहि, तिनका हूँ मै बंद।
और उन्होंने स्त्री को नागिन तक कहा है, वह लिखते हैं:
नागिन के तो दोये फन, नारी के फन बीस
जाका डसा ना फिर जीये, मरि है बिसबा बीस।
इसके अतिरिक्त भी कबीरदास जी के कई दोहे हैं, जो कथित रूप से आज के अनुसार या आज की व्याख्या के अनुसार स्त्री विरोधी हैं।
यहाँ पर हम कबीरदास जी के विरुद्ध कुछ नहीं कह रहे हैं, क्योंकि रचनाकार का आंकलन उस समय की परिस्थिति के अनुसार होता है, और कबीरदासजी और तुलसीदासजी ने अपने अपने भावानुसार लिखा। कबीरदासजी यदि स्त्री विरोधी होते तो स्वयं को ही हरि की बहुरिया कैसे कहते! इसी प्रकार तुलसीदासजी भी स्त्री की पीड़ा यह कहते हुए व्यक्त करते हैं कि “पराधीन सपने हूँ सुख नाहीं!” तुलसीदास सीता के रूप में एक ऐसा स्त्री आदर्श प्रस्तुत करते हैं, जिनके साथ हर स्त्री आज तक स्वयं को जोड़े रखना चाहती है। तुलसीदास ने अपने पात्रों के माध्यम से स्त्री के हर रूप को प्रस्तुत किया है, जिनमे सीता से लेकर मंदोदरी तक सम्मिलित हैं। यदि राक्षसी स्त्री भी है तो भी मजबूत चरित्र हैं, फिर चाहे शूपर्णखा हों या त्रिजटा!
कबीरदास स्त्री के पत्नी रूप को महान मानते हैं, माँ रूप को महान मानते हैं!
दरअसल वामपंथी हर उस व्यक्ति को नष्ट करना चाहते हैं, जो लोक में रमा है, जिसे लोक से प्रेम है और हिन्दू जिससे प्रेम करता है। यह हिन्दुओं के आदर्शों को नीचा दिखाने का षड्यंत्र है। इस देश का जनमानस कबीर और तुलसी दोनों को पूजता है, मगर वह तुलसी के स्थान पर कबीर को नहीं पूजता!
वामपंथी दरअसल हर उस व्यक्ति से भय खाते हैं, जिसकी जन में स्वीकार्यता होती है! इसलिए वह जानबूझकर उसे नीचा दिखाते हैं, मगर वह चाहते हुए भी तुलसीदास को मानस से हटा नहीं पाए हैं। फिर भी यह प्रश्न पूछा जाना चाहिए कि दो रामभक्तों को आपस में लड़वाकर वह हिंदी का और समाज का कौन सा हित कर रहे हैं?
लोक को दोनों पसंद हैं, पर तुलसी की कीमत पर कबीर नहीं, एवं कबीर की कीमत पर तुलसी नहीं!
दोनों का अपना अपना स्थान है, और चूंकि तुलसीदास जी की स्वीकार्यता जनमानस में राम जी के कारण अत्यधिक थी, तो उन्हें जनमानस से मिटाने के लिए षड्यंत्रवश कबीर को उनके विरोध में खड़ा कर दिया गया है!
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