रामचरितमानस, एक ऐसी कृति है जिसकी प्रतियां आज भी बाज़ार को प्रभावित करती हैं। हर पुस्तक मेले में रामचरितमानस की प्रतियां सर्वाधिक बिकने वाली पुस्तक होती हैं। आज भी भारत में अभिवादन का रूप राम राम है। एक अद्भुत पुस्तक जिसने अपनी सहज भाषा से पूरे विश्व को सम्मोहित किया। एक ऐसी पुस्तक जिसने कई अंग्रेजों को मात्र यह जानने के लिए हिंदी सीखने के लिए प्रेरित कर दिया कि आखिर भारतीयों की जिजीविषा का रहस्य क्या है?यह लोग विपदाओं में जीवित कैसे रह लेते हैं एवं हर आपत्ति का मुकाबला वह किस प्रकार हँसते हुए कर लेते हैं। इस अदम्य साहस की प्रेरणा कहाँ से प्राप्त होती है?
जब अंग्रेजी विद्वानों ने राम का नाम सुना और रामचरित मानस को सुना तब हैरानी हुई कि अंतत: एक पुस्तक तथा वह भी अवधी, वह प्राणवायु की भांति पूरे भारतीय जनमानस को किस प्रकार प्रभावित करती रहती है। कई विद्वानों ने रामचरित मानस को अंग्रेजी में अनूदित भी किया। परन्तु हिंदी में रामचरित मानस जितना लोकप्रिय है, उतनी लोकप्रियता किसी भी ग्रन्थ को प्राप्त होना असम्भव है। इस ग्रन्थ की लोकप्रियता देखकर अंग्रेज बहुत हैरान हुए थे। जब भारत में अंग्रेज धर्मांतरण के लिए जाते थे, तो वह यह देखकर हैरान रह जाते थे कि आखिर क्या कारण है कि एक धोती पहने हुए व्यक्ति भी उतना ही सुखी है, जितना रेशमी वस्त्र पहनने वाला!
इसका उत्तर मिलता है रामचरित मानस में! यूं तो अंग्रेजों ने हर हिन्दू ग्रन्थ का अंग्रेजी अनुवाद कराया है, और उनके उद्देश्य भिन्न रहे हैं। फिर भी अनुवादों के इंट्रोडक्शन को पढने पर कई बातें स्पष्ट होती हैं। रामचरित मानस के अंग्रेजी अनुवाद में तुलसीदास और रामचरित मानस की प्रशंसा बहुत अधिक की गयी है और आश्चर्य व्यक्त किया गया है कि आखिर कैसे कोई पुस्तक ऐसी हो सकती है जिसके रखने मात्र से ही वह पुरुष सम्माननीय हो जाता है।
रामचरित मानस के दो अनुवाद The Ramayana of Tulsidasa और The Holy Lake of the Acts of Rama, अपने आप में ऐसे अनुवाद हैं जो रामचरितमानस के विदेशीकरण को बहुत सहजता से स्थापित करते हैं।
जे एम मैक्फी, द रामायण ऑफ तुलसीदास में रामचरित मानस को द बाइबल ऑफ नोर्दर्न इंडिया, कहते हैं। यद्यपि राम केवल उत्तर भारत के नहीं थे, फिर भी उन्होंने रामचरित मानस को उत्तर भारत की अवधी भाषा के कारण उत्तर भारत की बाइबिल कहा। वह इसके लिए तर्क देते हुए लिखते हैं कि “यह कहा जाता है कि इस कविता को संयुक्त प्रांत के इतने लोग प्रेम करते हैं, जितना कि इंग्लैण्ड में उतने क्षेत्र में रहने वाले लोग बाइबिल से करते हैं।” और इसके साथ वह यह भी लिखते हैं कि इस कविता की लोकप्रियता ने पश्चिमी अवलोकनकर्ताओं को अत्यंत प्रभावित किया है। वह इस बात को भी बहुत हैरानी से बताते हैं कि कैसे यह पुस्तक होना, किसी भी घर और परिवार के लिए गर्व और गौरव की बात मानी जाती थी। कैसे किसी गाँव में इस पुस्तक का होना उसके लिए सम्मान का विषय हो जाता था।
वह यह भी लिखते हैं कि तुलसी एक कवि नहीं है, वह मुक्त करने वाले हैं, उन्होंने रामकथा लिखकर लोगों को बन्धनों से मुक्त किया है।
वहीं डब्ल्यू डगलस पी हिल अपनी पुस्तक द होली लेक ऑफ रामा में लिखते हैं कि यह कविता उच्चतम स्तर की कविता है।
द रामायण ऑफ तुलसीदास में ग्रोव्से लिखते हैं कि इस कविता को भारतीय संस्कृति का जीवंत प्रतीक माना जा सकता है।
परन्तु सबसे महत्वपूर्ण बात द रेनेसां इन इंडिया, इट्स मिशनरी आस्पेक्ट में सीएफ एंड्रूज कहते हैं। यह पुस्तक भारत में ईसाइयत के प्रचार प्रसार की अवधारणा, रणनीति पर लिखी गयी है, जिसमे मैकाले और उसके मिनट्स, डफ और ईसाई शिक्षा अभियान की रणनीतियों का वर्णन है। उसमें सीएफ एंड्रयूज प्रभु श्री राम को ईसाइयत की राह की सबसे बड़ी बाधा बताते हैं। और यह भी लिखते हैं कि भक्ति के संतों में और देशज भाषा के कवियों में भारत में अब तक के सर्वश्रेष्ठ कवि थे तुलसीदास। वह सोलहवीं शताब्दी में हुए थे – यूरोप और भारत में होने वाले धार्मिक सुधारों से एक शताब्दी पूर्व!” एंड्रूज ने कहा कि तुलसीदास ने चूंकि स्थानीय भाषा का प्रयोग किया, इसलिए वह सीधे दिल तक पहुँचती है और यह रामचरितमानस ही है, जो बहुत ही भव्य रूप से हर गाँव में मंचित की जाती है।
तुलसीदास जी ने यह स्थापित किया है कि मन की शुद्धता से प्रभु को पाया जा सकता है।
वैसे रामचरित मानस या तुलसीदास जी की महानता के लिए किसी भी विदेशी प्रमाणपत्र की आवश्यकता नहीं है, परन्तु यह बातें इसलिए बताई जानी आवश्यक हैं, जिससे यह पता चल सके कि अंतत: प्रभु श्री राम, जो भारत की आत्मा में इस प्रकार समाए हैं कि राम राम कहकर ही अभिवादन होता है, जो उत्तर से लेकर दक्षिण तक सभी को एक सूत्र में बांधते हैं, उनके साथ होने वाले, उनके विरुद्ध लिखे जाने वाले विकृत साहित्य का मूल कहाँ है?
क्यों प्रभु श्री राम को नकारना प्रगतिशीलता बन गयी है? इसका उत्तर शायद इन्हीं बातों में मिलता है कि चूंकि अंग्रेज हिन्दुओं की चेतना को अपना गुलाम नहीं बना पा रहे थे, तो उन्होंने पहले जाना कि हिंदुओं की चेतना उनके धर्म में है, और फिर उनके आदर्शों पर चुन चुन कर प्रहार करना आरम्भ किया।
और चूंकि हमारी लोक भाषा ने हिन्दू धर्म को लोक से जोड़े रखा तो क्या लोक भाषा को जानबूझकर पिछड़ा अंग्रेजों ने घोषित किया? ऐसे तमाम प्रश्न हैं, जिनके उत्तर हमें खोजने होंगे और हम खोजते रहेंगे!
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