आज जब पूरा विश्व कथित रूप से प्रेम दिवस मना रहा है, तब आवश्यक है कि भारत में सबसे सुन्दर प्रेम कथा को समझा जाए। भारत का प्रेम, जिसमें आध्यात्म से लेकर दाम्पत्तय प्रेम तक प्रेम का हर रूप अपने सर्वाधिक उदात्त एवं सर्वाधिक उदार, मुखर प्रारूप में व्यक्त होता है। यह प्रेम कथा है महादेव एवं माँ पार्वती के प्रेम की। जगत जननी माँ हिमालय के घर में पार्वती के रूप में जन्म ले चुकी हैं, और अब माँ, महादेव के लिए तप कर रही हैं।
उनके तप से अब महादेव व्यग्र हो गए हैं, परन्तु अपनी प्रियतमा की परीक्षा लेने के लिए पहुँच गए हैं। ब्राह्मण भेष में! पार्वती ने स्वागत किया। ब्राह्मण भेष में महादेव ने शिव के विषय में कुछ अप्रिय कथन कहे। इस पर पार्वती कुपित हो उठी हैं। और उन्होंने कहा
“हे ऋषिवर, शिव के विषय में कुछ भी भ्रामक सुनने से तो उत्तम है इस स्थान से ही परे जाया जाए! आप प्रकार का उपहास त्रिलोक स्वामी के विषय में किस प्रकार कर सकते हैं? क्या इस कृत्य से आप स्वयं को श्रेष्ठ प्रमाणित करना चाहते हैं?” शिव को प्राप्त करने हेतु तप में रत पार्वती का क्रोध उस तपस्वी पर बरस रहा था जिस तपस्वी के तेज से अभी कुछ ही क्षण पूर्व वह प्रभावित हुई थीं!
“मेरा प्रश्न आपसे मात्र इतना है देवी, कि वह शमशान स्वामी, वनवासी, जिसके निवास पर कोई सुविधा ही नहीं है, और जिसके पास न ही धन-धान्य पूर्ण महल हैं, जिसके पास न ही आपकी इन सखियों जैसी कोई दासियाँ हैं, एवं न ही आपके सुकोमल तन को विश्राम देने वाले मखमली शय्या एवं बिछौने हैं, तो आप किस प्रकार कैलाश में निवास कर पाएंगी? न ही वहां गज की सवारी होगी, क्या आप एक वृद्ध बैल पर सवार होकर जाएँगी? अभी भी आपके पास समय है त्रिपुर सुन्दरी, किसी और देव को अपना जीवनसाथी चुन लें एवं जीवन को सुख एवं वैभव पूर्ण बना लें! आप स्वयं नहीं जानतीं कि आप जैसी सुकुमार कन्या का स्वामी वह औघड़ होकर कैसा लगेगा?” उस ऋषि पर पार्वती के क्रोध का कुछ असर नहीं हुआ था, एवं वह पूर्ववत ही शिव के विषय में बोलता जा रहा था!
पार्वती का मुख क्रोध से लाल होता जा रहा था, यूं प्रतीत हो रहा था जैसे सम्पूर्ण शरीर का रक्त पार्वती के कपोलों पर एकत्र हो गया हो! तप से जो रूप निखरा था, वह रूप जैसे अपने सर्वाधिक उन्मुक्त रूप में आ गया हो, पार्वती का क्रोध अपनी चरमता पर था। किस प्रकार यह निर्लज्ज ऋषि मेरे शिव का अपमान करने की धृष्टता कर रहा है एवं अपने शब्दबाणों को विराम भी नहीं दे रहा है! यह मूर्ख क्या जाने कि शिव का सौन्दर्य क्या है? जो प्रेम करते हैं वही तो सौन्दर्य देख पाते हैं, शिव तो गौरी के हो ही चुके हैं, बस मूर्त रूप में उन्हें उनके पास आने की देर है! शिव का कैलाश हर महल से बढ़कर है! शिव के कैलाश में जो पुष्पाभूषण होंगे उनसे श्रृंगारित होने पर मेरे सौन्दर्य का क्या रूप निखर कर आएगा, यह इस मूर्ख को ज्ञात नहीं है! परन्तु प्रत्यक्ष में क्रोध को दबाते हुए बोलीं
“ऋषिवर, मुझे यह नहीं ज्ञात है कि आप इस प्रकार शिव के विरुद्ध मुझे क्यों उकसा रहे हैं! शिव ही अब मेरे प्राण हैं, मैं आपसे कटु शब्दों में चाह कर भी संवाद नहीं कर पा रही हूँ! यह मेरी कैसी विवशता है, यह मेरे ज्ञान से परे है। परन्तु मैं शिव के विषय में अब एक भी शब्द नहीं सुन सकती, चलो विजया, इन ऋषि को अपने में ही शिव निंदा करने दो, हम चलती हैं!” क्रोध से लाल कपोल लेकर ज्यों ही पार्वती मुड़ीं वैसे ही ऋषि रूप में शिव ने पार्वती का हाथ थाम लिया!
“अब आप कहीं नहीं जाएँगी देवी! अब मुझे छोड़कर कहाँ जाएँगी प्रिये! अब मैं तुम्हारा कभी त्याग नहीं करूंगा! देवी, मैं अब तुम्हारा दास हूँ, तुमने अपनी तपस्या से मुझे खरीद लिया है! तुम्हारे सौन्दर्य ने मुझे जीत लिया है! अब तुम मेरी स्वामिनी हो! मेरी दासता को स्वीकार करो! अब तुम्हारे बिना एक क्षण भी मेरे लिए युग के समान है पार्वती! मैं अब तुम्हारे अधीन हूँ, जैसे चाहे स्वीकार करो मुझे! तुम्हारे साथ मैं अब शीघ्र ही अपने निवासस्थान कैलाश जाऊंगा!”
प्रेम में वह मौन का क्षण था, वह प्रेम में प्रेमी के दास बन जाने का क्षण था! वह क्षण था जब तीनों लोक के स्वामी याचक बने खड़े थे!
पार्वती सकुचा रही थीं! कुछ ही क्षण पूर्व क्रोध से लाल हुए कपोलों पर लाज की रक्तिम आभा पसर चुकी थी, अब तक ऋषि के सम्मुख वाचाल हुई पार्वती अब लाज से अपने पैरों से भूमि को खुरच रही थीं! ह्रदय चाह रहा था कि वह हाथ शिव के हाथों में अभी दें दें, परन्तु लोक भी कुछ होता है! लोक ने स्व पर विजय पाई “हे देव, मेरे पिता से मेरा हाथ मांगने शीघ्र आएं!”
शिव ने कहा “अधिक दिनों तक तुम्हारे बिना रह नहीं पाऊंगा प्रिय! शीघ्र ही तुम कैलाश स्वामिनी होगी!”
शिव यह कहकर अपने धाम चले गए और पार्वती उस स्पर्श को अनुभव करे, न जाने कब तक वहीं खड़ी रहीं!
क्या प्रेम सच में सुफल होता है? पार्वती सोच रही थीं।।।
(शिवमहापुराण पर आधारित)
भारत में न जाने कब से प्रेम कथाओं को जिया जा रहा है, यह भारत के प्रेम का ही रूप था, जिसने भारत को भारत बनाए रखा, जिसने भारत के कण कण में नृत्य, संगीत, एवं साहित्य की रचना की। रेगिस्तान से जैसे ही लैला-मजनू आदि का इश्क आया इसने कुंठित साहित्य रचा। जब तक मिलन का साहित्य रहा, जब तक आध्यात्मिक प्रेम रचनाओं का आधार रहा तब तक कालिदास से लेकर तुलसीदास और मीरा बाई तक अमर रचनाकार होते रहे और जब से साहित्य में लैला-मजनू, रोमियो जूलियट आदि का विमर्श आया, तब से न ही प्रेम रचा गया और न ही साहित्य!
आज जब कथित रूप से प्रेम कहानी कही जा रही हैं, तब आवश्यक है भारत की प्रेम कथाओं को स्मरण करने का और बताने का कि यह है प्रेम!