अभी बहुत दिन नहीं हुए हैं, जब पूरा देश तमिलनाडु से आए एक ऐसे मामले से दहल उठा था, जिसमें शिक्षा और रिलिजन का ऐसा तालमेल था कि एक हिन्दू बच्ची को अपनी जान तक देनी पड़ी थी। लावण्या ने इस बात को लेकर अपनी जीवनलीला समाप्त कर ली थी कि उसे धर्म के नाम पर प्रताड़ित किया जा रहा है।
17 वर्ष की लावण्या पर उसकी वार्डन द्वारा यह दबाव डाला जा रहा था कि वह ईसाई धर्म अपना ले, परन्तु लावण्या ने मृत्यु को चुनना उचित समझा था। इस घटना के उपरान्त ऐसा प्रतीत हुआ जैसे कि अब ईसाई मतान्तरण का जाल कुछ समय तक हिन्दू बच्चियों से दूर रहेगा, परन्तु विस्तारवादी अब्राह्मिक रिलिजन की प्रवृत्ति ही रिलीजियस वर्चस्व की है, इसलिए अब यह और भी अधिक विस्तार से दिखाई दिया है!
अब तमिलनाडु से ही एक छठवीं कक्षा में पढने वाली बच्ची का वीडियो सोशल मीडिया पर प्रचारित हुआ है, जिसमें छात्रा बता रही है कि उसके शिक्षक उसे कह रहे हैं कि प्रभु यीशु के अलावा अन्य सभी देवता शैतान हैं। बच्ची ने बताया कि कैसे उसे उसके धर्म को लेकर परेशान करते हैं, निशाना बनाते हैं, वह अपने माथे पर विभूति लगाती है तो उसके कारण उसे परेशान किया जाता है।
बच्ची ने कहा कि टीचर ने बच्चों से प्रार्थना करने के लिए कहा। फिर उसने अपना हाथ पानी में डुबोया और जीसस के बारे में बताया। फिर उसने हिन्दू लड़कियों के पेट पर अपने हाथ में पानी लेकर छुआ। फिर टीचर ने उसे विभूति के साथ डंकी कहा। परन्तु यही एकमात्र मामला नहीं है। तमिलनाडु में यह आम बात है और अब यह बहुत ही सरल होता जा रहा है कि बच्चों को निशाना बनाया जाए!
news.18 की रिपोर्ट के अनुसार एक कक्षा आठ के बच्चे ने यह बताया कि कैसे उसे अतिरिक्त अंकों के लिए जीसस की ही प्रार्थना करने की सलाह दी गयी थी, और उससे यह भी कहा गया था कि अगर वह ऐसा नहीं करता है तो वह जीवन में विफल हो जाएगा। इसके बाद उसके पिता ने एक अलग स्कूल में प्रवेश दिला दिया था। उनका कहना था कि हम ऐसे किस स्कूल में बच्चे को भेज सकते हैं जो धार्मिक आधार पर भेदभाव करना सिखाते हैं।
इतना ही नहीं सीएनएन न्यूज़ 18 ने तो उस मामले पर शो किया था, जिस पर बात करने की सहज ही लोगों की हिम्मत नहीं होती है अर्थात कन्वर्जन माफिया, अर्थात वह लोग हिन्दू नाम रखे हुए हैं, नाम नहीं बदलते हुए भी हिन्दुओं के लिए बने हुए आरक्षण का फायदा ले रहे हैं और जानबूझकर अपना रिलिजन नहीं बताते है, जो लाभ धर्म से हिन्दू समुदाय को मिलने चाहिए, वह क्रिप्टो वर्ग को मिल रहे हैं:
इन घटनाओं के सामने आने के बाद लोग गुस्से में हैं, ऐसा नहीं है कि लोगों को पता नहीं था, या भान नहीं है कि ईसाई स्कूलों में क्या पढ़ाया जाता है, परन्तु जब से स्टालिन की सरकार दोबारा चुनकर आई है, तब से ऐसी घटनाओं में और भी तेजी से वृद्धि हुई है। दुर्भाग्य से देखा जाए तो इस समय भारत के दक्षिणी छोर पर सभी राज्यों में हिन्दुओं को निशाना बनाया जा रहा है, सोशल मीडिया पर भी कई लोग इस ओर संकेत करते हैं और कहते हैं कि दक्षिण भारत में धर्मान्तरण के मामले बहुत आम बात हो गए हैं।
यही कामना तो सीएफ एंड्रयूज ने मिशनरी अभियान के समय की थी:
हमने पहले भी अपने लेखों में यह बताया है कि कैसे ईसाई मिशनरी शिक्षा को अपने रिलिजन के प्रचार के लिए प्रयोग करती हैं क्योंकि उनके लिए शिक्षा ही हिन्दुओं में ईसाई रिलिजन के प्राचर का माध्यम है। हमने पहले भी अपने लेख में बताया था कि जब मिशनरी भारत में आईं तो कैसे स्थानीय भाषाओं के कारण विफल हुई थीं, इसलिए पहले उन्होंने स्थानीय भाषाओं पर प्रहार किया था।
द रेनेसां इन इंडिया, इट्स मिशनरी आस्पेक्ट में सीएफ एंड्रूज़ ने यह विस्तार से लिखा है कि मिशनरी स्कूल्स और कॉलेज का लक्ष्य क्या है। उन्होंने लिखा है कि मैकाले के मिनट्स लिखे जाने से पहले एलेग्जेंडर डफ़ नामक चौबीस वर्षीय मिशनरी शिक्षक ने बंगाल में एक कॉलेज की स्थापना की थी। और वर्ष 1833 में गवर्नर जनरल एवं उनकी काउंसिल ने डफ़ के विचार को अपना लिया था और राजा राम मोहन रॉय इस मिशनरी शिक्षक के साथ थे। इसके साथ ही युवा बंगाल ने इस शिक्षक का स्वागत किया था, डफ़ अंग्रेजों की ओर इस नए अभियान का नेतृत्व बन कर उभरा था।
वह लिखते हैं कि डफ़ के प्रयासों के कारण ही बंगाल में कई अमीर और कुलीन परिवारों के प्रतिभाशाली युवाओं ने ईसाई रिलिजन का दामन थाम लिया और उत्तर भारत में ईसाई शिक्षा आन्दोलन चलाने के लिए यही युवा आगे आए थे।
डफ़ ने मिशनरी स्कूल और ईसाई शिक्षा के विषय में क्या कहा था, पहले उसे समझते हैं और फिर हम लावण्या सहित जितने बच्चों को प्रताड़ित किया जाता है उसे समझते हैं। डफ़ का सिद्धांत था कि ईसाईयत कुछ सार सिद्धांतों का ढांचा भर नहीं है बल्कि मांस-मज्जा से बनी सुसज्जित वस्त्र पहने हुए एक जीवंत आत्मा है। ईसाई सिविलाइजेशन में ईसाई फेथ के मूर्त रूप होने का भाव है और यही ईसाई सिविलाइजेशन अर्थात सभ्यता भारत में सभी को देनी चाहिए।
फिर वह जो लिखते हैं उसे समझा जाना चाहिए
“अंग्रेजी शिक्षा, जो इस सभ्यता को व्यक्त करती है, वह मात्र एक सेक्युलर चीज़ नहीं है बल्कि वह ईसाई रिलिजन में पगी हुई है। अंग्रेजी साहित्य, अंग्रेजी इतिहास और अर्थशास्त्र, अंग्रेजी दर्शन, सभी में जीवन की जरूरी ईसाई अवधारणाएं साथ चलती हैं, जो अब तक ईसाइयों ने बनाई हैं।”
फिर वह कहते हैं कि “डफ़ ने जो सच बताया है, उसे किसी भी अच्छे कॉलेज टीचर के अनुभव से आसानी से स्थापित किया जा सकता है!”
वह कहते हैं कि जो हिन्दू पश्चिमी विज्ञान को संवेदना और समझ के साथ पढ़ाते हैं, वह उनके लिए ईसाई मूल्यों वाला ही होता है।
उसके बाद मैकाले का तो उद्देश्य ही था कि भारतीयों के दिमाग को पहले कोरी स्लेट बनाना और फिर उसमें “अंग्रेजी” लिखना।
हालांकि एंड्रूज़ इस बात को भी लिखते हैं कि वह देशी भाषाओं को मिटाने में विफल हुए और देशी भाषाओं से शिक्षा बंद कराने में भी विफल हुए। वह लिखते हैं कि आर्य समाज जैसे संस्थानों ने पश्चिमी विज्ञान को प्राचीन भारतीय संस्कृति और साहित्य के साथ ही पढ़ाना आरंभ किया
मिशनरी स्कूल्स का मुख्य उद्देश्य ईसाई रिलिजन का ही प्रचार करना था
इसी पुस्तक में वह पृष्ठ 53 और 54 में आशा व्यक्त करते हैं कि भारत में बुद्धिमत्ता बहुत है और यही कारण है कि हमें आशा है कि हमारे मिशन कॉलेज से पास होने वाले विद्यार्थियों में से कई ऐसे होंगे जिनमें रिलीजियस उत्कृष्टता होगी और वह “ईसाई रिलिजन” के लिए अपना सब कुछ छोड़ सकेंगे। वह कहते हैं एक दिन जरूर ऐसा आएगा जब हमारी मिशनरी से पास हुए युवा पूरे भारत में ईसाई सन्देश की शिक्षा देंगे।
आज वह दिन आ गया है जब भरत के ही लोग जो मिशनरी स्कूल्स से पढ़े होते हैं, वह अंतत: शेष लोगों को ईसाई बनाने के लिए अपना जीवन लगा देते हैं! तमिलनाडु में जो हो रहा है, वह इसीका प्रत्यक्ष उदाहरण है!