कुछ महीने पूर्व जाने-माने मानस अनुसंधानकर्ता टिम वाइटफील्ड की एक रिपोर्ट मीडिया की सुर्खियाँ बनी थी । उनका कहना है कि ‘एग्ज़ीक्यूटिव फंक्शन’ योजना बनाना और अलग-अलग प्रकार के कार्य के बीच काम करते हुए लक्ष्य को प्राप्त करने की योग्यता का नाम है। ऐसा जाना जाता है कि उम्र के साथ ये क्षमता कम होती जाती है। लेकिन अध्ययन ये बताते है कि योग-ध्यान आदि मानस उत्थान की क्रियाएं के बल पर इस क्षमता को बहुत हद तक क्षीण होने से रोका जा सकता है ।
निरंतर होने वाले ऐसे अनुसंधान से निश्चित रूप से योग पर भरोसा बढ़ता है। लेकिन साथ ही यह भी सत्य है कि दुनिया के लिए भले ही यह अभिनव बात हो, पर भारत के लिये ये मात्र नए प्रकार से पुनर्स्मरण से अधिक नहीं है। जिन्होंने योग का अध्ययन किया है, उसको स्वयं अनुभूत किया है उन्होंने अपनी-अपनी तरह से उसकी पहले से ही व्याख्या कर रखी है।
बिहार स्कूल ऑफ़ योग, मुंगेर, के श्री निरंजनानंद सरस्वती कहते हैं -‘ योग से आरोग्य और प्रतिभा का विकास दोनों ही संभव है’। वहीँ दूसरी और जिनके मन में योग के अध्यात्मिक पक्ष को लेकर जो कुछ शंकायें हैं , उन शंकाओं को निर्मूल करते हुए ईशा योग[कोइम्बतुर] के सद्गुरु जग्गी वासुदेव कहतें हैं-‘ योगी सुख-भोग के विरुद्ध नहीं होते। वस्तुतः बात केवल ये है कि वे अल्प-सुख की स्थिति पर ही संतोष कर लेना नहीं चाहते। सदैव शांत बने रहना, अतीव आनंद की अवस्था में स्थिर रहना हर मनुष्य के लिए उपलब्ध है । योग का विज्ञान आपको ये अवसर प्रदान करता है’। यही कारण है कि भारतीय मूल चेतना के धर्मों में योग का इतना महत्व देखने को मिलता है।
हिन्दू धर्म में पतंजलि का नाम एक ऐसे योगी के रूप में अंकित है जिन्होंने योग को सूत्रबद्ध किया। अष्टांग योग को प्रतिपादित करते हुए वे कहते हैं कि ये ‘चित्तवृति निरोध’; ‘कर्म में कुशलता’; ‘जीवन में समत्व’; और ‘मन के प्रशमन’ का सर्वोत्तम उपाय है। वहीँ जैन धर्म में ऋषभदेव को प्रथम योगी के रूप में पूजा जाता है। २४ वें तीर्थंकर महावीर स्वामी तक जितने भी तीर्थंकर हुए हैं उनकी प्रतिमाएं या तो ‘पद्मासन’ में या ‘खडगासन’ में पायी जाती हैं। नासिका के अग्र-भाग पर दृष्टि केन्द्रित करने वाली ध्यान विधि ‘नासाग्र दृष्टि’ जैन धर्म में योग मुद्रा की एक प्रमुख विशेषता है।
वैसे ही ‘कायोत्सर्ग’ योग [काया या शरीर का स्वेच्छा से उत्सर्ग या समाप्त कर देना] इसके धार्मिक आचार की प्रमुख विधा है।इसके एक आचार्य जिनका नाम शुभचंद्र है, उन्होंने ‘ज्ञानार्नव’ नामक ग्रन्थ में आसन-प्रणायाम तथा ध्यान की सभी विधियों की सूक्ष्म विवेचना की है। वहीँ ‘प्रेक्षाध्यान’ नामक जीवन विज्ञान पर आधारित एक अनूठी ध्यान पद्धति के प्रतिपादक भी जैन मुनि आचार्य महाप्रज्ञ हैं।
फिर जहां ‘ॐ नम: सिधेभ्य:’ जैन धर्म का बीज मन्त्र है, तो ‘१ॐ’ [एक ओंकार] सिख धर्म का। गुरु नानक देव ने ‘हठयोग’ के स्थान पर ‘सहज योग’ पर बल दिया। गुरु ग्रन्थ साहिब में ‘इड़ा’,’पिंगला’ तथा ‘सुष्मना’ जैसे योग में प्रयुक्त होने वाले शब्दों का उल्लेख मिलता है। शिवयोग कहता है कि जब सांस अंदर जाती है तब सेकंड के हजारवें हिस्से के लिए रूकती है, बाहर से अंदर आने के पहले फिर एक बार रूकती है।ये जो रुकने का अंतराल है, उसके प्रति सजग हो जाओ तो धीरे-धीरे अपने अस्तित्व तक पहुँच जाओगे। महात्मा बुद्ध ने इस विधि का प्रयोग किया। बोद्ध-दर्शन में यह विधि ‘विपश्यना’ नाम से प्रचलित है।
वैसे जो बात सैकड़ों वर्षों पूर्व हमारे धर्मों में बता दी गई थी, उसी बात की पुष्टि अब आधुनिक एलोपेथिक चिकित्सा विज्ञान ने भी शुरू कर दी है- ‘योग शरीर के ऑटोनोमिक नर्वस सिस्टम[तंत्रिका तंत्र] को सशक्त करता है। इस कारण योग से डिप्रेशन,तनाव,एंग्जायटी[लगातार चिंता करना] पैनिक अटैक [अत्यधिक घबराहट] जैसे मनोरोगों को दूर करने में मदद मिलती है। असल में मानव शरीर में दो तरह की क्रियाएँ होती हैं – पहली ऐच्छिक;दूसरी अनैच्छिक। इच्छा से खाना-पीना, नहाना आदि शामिल है। वहीँ कुछ क्रियाएँ ऐसी होती हैं जिन पर हमारा नियंत्रण नहीं होता, जैसे दिल की धड़कन, सांस लेना,बैचेनी आदि। डिप्रेशन आदि मनोरोगों में व्यक्ति के दिल की धड़कन, सांस लेने की प्रक्रिया असामान्य हो जाती है। योग इन अनैच्छिक क्रियाओं को नियंत्रित करने में सहायक होता है’- डॉ उन्नति कुमार, मनोरोग विशेषज्ञ।