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Friday, March 29, 2024

मैं हिन्दू कैसे बना: सीताराम गोयल: अध्याय-7- जहां से चले थे वहीं पहुंच गए

हम सीता राम गोयल जी की पुस्तक “मैं हिन्दू कैसे बना: How I Became Hindu” अपने सभी पाठकों के लिए हिंदी में प्रस्तुत कर रहे हैं. स्वर्गीय सीता राम गोयल जी स्वतंत्र भारत के उन अग्रणी बौद्धिकों एवं लेखकों में से एक थे,  जिनके कार्य एवं लेखन को वामपंथी अकादमी संस्थानों ने पूरी तरह से हाशिये पर धकेला. हम आम लोगों के लिए पुस्तकों/लेखों का खजाना उपलब्ध कराने के लिए VoiceOfDharma.org के आभारी हैं:

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मैं जहां से चला था वापस वही पहुंच गया था।गांधीवाद में मेरे विश्वास ने मार्क्सवाद को पराजित कर दिया था।अब मैं मार्क्सवादी नहीं था। मैंने अपने आप से बार-बार पूछा- मैं यहां से कहां जाऊं?

आपके जीवन का व्यवसाय किसी संदर्भ के वैचारिक ढांचे के बिना बहुत अच्छी तरह से चल सकता है। एक इंसान खाता है,सहवास करता है, सोता है और जीविकोपार्जन करता है।कोई किताबें और कागजात पढ़ता है, कोई गपशप करता है और वर्तमान घटनाओं पर पारंपरिक निर्णय पारित करता है, किसी के पास एक परिवार,एक पेशा,दोस्तों का एक मंडल होता है और किसी को फुर्सत के समय में अपने आप को व्यस्त रखने का शौक होता है । कोई बूढ़ा हो जाता है,अपने हिस्से की बीमारियों को इकट्ठा कर लेता है और बीते वक्त को परिवेदना के साथ पीछे मुड़कर देखता है,जब वह युवा और सक्रिय था। हम में से अधिकांश साधारण नश्वर लोगों के लिए यह संपूर्ण मानव जीवन है।हम अपनी सफलता,असफलता और अपने प्यार और नफरत को बहुत गंभीरता से लेते हैं, इस पर विचार किए बिना कि यह सब क्या और किस लिये है।

 मैं हमेशा से साधारण आकांक्षाओं वाला एक सामान्य व्यक्ति रहा हूँ। अगर अपने आप पर छोड़ दिया होता तो मैं एक सामान्य जीवन व्यतीत कर रहा होता। मैं अब एक अच्छा व्यावसायिक प्रबंधक था जिसे निर्यात कारोबार में काफी अनुभव प्राप्त था। मैं उसी पेशे में और अधिक सफलता हासिल कर सकता था। हो सकता है कि कोलकाता के किसी करोड़पति द्वारा मुझे उसका कनिष्ठ साझेदार बनने के लिए आमंत्रित किया जाता और नियत समय में मैं भी अपने लाखों कमा लेता। यह सब उन सपनों में से कुछ सपने थे, जो मेरे पिता ने मेरे लिये देखे थे । वह कुछ ऐसे लोगों को जानते थे जो शुरुआत में गरीब थे लेकिन प्रतिभाशाली थे और बाद में जो सफल व्यक्तियों के साझेदार के रूप में सफल हुए थे। हो सकता है कि मैं व्यवसाय की दुनिया में खुद को कुछ अधिक ही मान बैठता, ध्वस्त हो जाता और अपना शेष जीवन उन लोगों की आलोचना और धिक्कारने में लगा देता जिन्होंने अंतिम समय में मुझे विफल करने का षड्यंत्र बुना। मैं कोलकाता में ऐसे कई विफल लोगों से मिल चुका था।

लेकिन मैं पहले ही ऐसे एक व्यक्ति से मिला जिन्होंने ऐसा नहीं होने दिया। वह थे रामस्वरूप। उन्होंने मुझे झूठे आत्मसम्मान और अपमानजनक आत्म दया के दोहरे दलदल से छुड़ाने का पूरा प्रयास किया था। उन्होंने मुझे प्रेरित किया कि मैं अपनी निजता से उठकर वृहद उद्देश्यों में रूचि लूं। चूंकि सामाजिक कारणों के लिए मेरे विचार और चिंताएं उनके ही विचारों और चिंताओं के समान थे, तो मैं इस कार्य के लिए उनके आदेश पर प्रश्न नहीं उठा सकता था।

उसके बाद मुझे एक ऐसे समूह में जुड़ने के लिए आमंत्रित किया गया, जहाँ पर उनके नए विचार साझा किए जाते थे। भारत में सांस्कृतिक और राजनीतिक माहौल पिछले कुछ वर्षों में साम्यवादी श्रेणियों के विचारों से भरा हुआ था। सोवियत रूस, लाल चीन और पूर्वी यूरोपीय देशों में सोवियत सशस्त्र बलों के कब्जे वाले और सोवियत कठपुतलियों द्वारा तानाशाही शासन करने वाले स्वर्ग के बारे में कई मिथक चल रहे थे। भारतीय साम्यवादी दल भारत में एक स्वस्थ सामाजिक व्यवस्था के अग्रदूत के रूप में स्थापित होने के लिए इन मिथकों का उपयोग कर रहा था। साम्यवादी विचार श्रेणियां भारतीय साम्यवादी दल की राष्ट्रीय जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में घुसपैठ करने में मदद कर रही थीं, जिसका अंतिम उद्देश्य भारतीय लोकतंत्र को नष्ट करना और राष्ट्र को सोवियत के उपनिवेश का दर्जा देना था।

हमने जो मुख्य कार्य अपने ऊपर लिया वह था साम्यवादी श्रेणियों के विचारों का पर्दाफाश करना कि वे किस तरह से मानव स्वतंत्रता, राष्ट्रीय एकजुटता, सामाजिक स्वास्थ्य,आर्थिक विकास और राजनीतिक और सांस्कृतिक बहुलवाद के लिये विद्वेषपूर्ण है, जिनके साथ हम नागरिकों या व्यक्तियों के रूप में जुड़े हुए थे। साथ ही, हम साम्यवादी देशों के बारे में मिथकों को उजागर करने के लिए कमर कसे थे ताकि हमारे लोग, विशेष रूप से हमारे राष्ट्रीय और लोकतांत्रिक राजनीतिक दल आदि यह देख सकें कि वह साम्यवादी देश कैसे निम्न जीवन स्तर और प्रतिगामी संस्कृति वाले सर्वसत्तावादी अत्याचारी थे। यह हमने बड़े पैमाने पर उनके स्वयं के प्रकाशनों से संकलित उद्धरण और सांख्यिकी की मदद से साम्यवादी शासन के विषय में सच्चाई बताकर किया।

हमारी अपेक्षा थी कि हमने जो भी जानकारी प्रदान की है, वह राष्ट्रीय और लोकतांत्रिक दलों को वह खलनायक देखने में सहायता करेगी जिसका नाम था साम्यवाद और उस षड्यंत्र को देखने में मदद करेगी जिसका नाम था भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी । इन्हीं दलों को दुष्ट सम्प्रदाय और विदेशी पांचवे स्तंभ के खिलाफ राजनीतिक लड़ाई लड़ना था। हमारा काम कुछ हद तक उपयोगी साबित हुआ।

कुछ सांसदों, श्रमिक संघवादियों और क्षेत्र के राजनीतिक कार्यकर्ताओं ने हमारे द्वारा दी गई जानकारी का प्रयोग किया और साम्यवादी दस्ते को रक्षात्मक स्थिति पर खड़ा कर दिया। कुछ पत्रकारों और बुद्धिजीवियों ने हमारे काम का स्वागत किया और लड़ाई को आगे बढ़ाने में हमारी मदद की। उनमें से एक ने यह कहकर हमारी प्रशंसा की कि हमने साम्यवाद को भारत के राजनीतिक मानचित्र पर पूरी तरह से रखा था।

लेकिन समय आने पर हमें पता चला कि हमारे मित्र हमसे उस सीमित भूमिका की अपेक्षा से कहीं अधिक चाहते हैं जो हमने अपने लिए निर्धारित की थी। समाजवादी, जो साम्यवाद के खिलाफ हमारे सबसे बड़े साथी सेनानी थे,चाहते थे कि हम कई मोर्चों पर कई और लड़ाईयाँ लड़ें। कुल मिलाकर कांग्रेसियों की, या तो किसी भी वैचारिक मुद्दे पर कोई राय नहीं थी, या वह चाहते थे कि हम सांप्रदायिकता के खिलाफ लड़ें, जिससे उनका मतलब आर एस एस और भारतीय जनसंघ (बीजेएस) से था, जो हमेशा हमारे प्रति सहानुभूतिपूर्ण, मैत्रीपूर्ण और हमारे काम में मददगार थे और जो चाहते थे कि हम भारत के राष्ट्रीय हितों को हर चीज़ के ऊपर रखें। हमने धैर्यपूर्वक उनकी बात सुनी, अपनी सीमाओं को इंगित किया, राष्ट्रवाद और लोकतंत्र से जुड़े राजनीतिक दलों के बीच शत्रुता को कम करने की कोशिश की, और साम्यवादी साजिश की अंतरराष्ट्रीय प्रकृति पर प्रकाश डाला।

 जैसे-जैसे साम्यवाद के खिलाफ लड़ाई आगे बढ़ी मुझे पूरी तरह से पता चल गया कि साम्यवाद को दूर रखने के लिए संदर्भ के सकारात्मक ढांचे की बहुत जरूरत है। वह खांचा आखिर क्या हो सकता है?

प्रजातंत्र ? हमारे पास वह सारा प्रजातंत्र था जिसकी हमें जरूरत थी। लेकिन वह तो साम्यवादी ही इसका एक उद्देश्यपूर्ण उपयोग इसके अंतिम विध्वंस की दिशा में कर रहे थे।

समाजवाद? हमने इसे पहले ही राज्य नीति के रूप में अपना लिया था। लेकिन साम्यवाद समाजवाद की भाषा को भ्रमित करने में सफल हो गया था जिससे समाजवाद की बराबरी एक लगातार बढ़ते सार्वजनिक क्षेत्र के साथ हो गई जो अक्षम, बेकार और बहुत ही अधिक भ्रष्ट था।

मुक्त उद्यम? लेकिन कई लोगों के लिये ये पूंजीवाद के लिए केवल एक स्वीकारोक्ति है, जिसके पास निजी लाभ के लिये जनता को लूटने का एक स्वतंत्र अनुज्ञापत्र था।

इसके अलावा बीसवीं सदी के मध्य में भारत न तो अमेरिका था, न ब्रिटेन था, ना ही जर्मनी था, ना ही फ्रांस था और ना ही तब तक जापान था जो उन्नीसवीं सदी के प्रयोग को आजमाने के लिए तैयार था। उसकी समस्याओं के साथ-साथ उसके संसाधनों के भी अलग आयाम थे।

 साम्यवाद के एक मजबूत एंटीडोट के रूप में राष्ट्रवाद के पक्ष में मेरा एक मजबूत झुकाव था। मेरा देश, सही या गलत, जो मेरे मुख्य सिद्धांत के रूप में उभर रहा था। लेकिन मेरा बुलबुला एक दिन रामस्वरूप द्वारा फोड़ दिया गया जिन्हें मैंने आरएसएस- बीजेएस के एक मित्र से बात करते सुना था। यह मित्र हर उस चीज से परहेज करने पर ज़ोर दे रहा था जो विदेशी थी। 

रामस्वरूप ने कहा – “लेकिन विदेशी को भौगोलिक दृष्टि से परिभाषित नहीं किया जाना चाहिए। फिर इसका क्षेत्रीय या आदिवासी देशभक्ति के अलावा कोई अर्थ नहीं रह जायेगा। मेरे लिए वह विदेशी है जो सत्य से  विदेशी है, आत्मन से विदेशी है।” इसने मेरे  दिल के किसी तार  को छू दिया। वह मेरी सीमा का अंत था। मुझे नहीं पता था कि आगे किस तरफ मुड़ना है।

वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य पर अपनी टिप्पणियों में रामस्वरूप कुछ अधिक ही केन्द्रित और चिंतनशील होते जा रहे थे। वह अक्सर एक सांस्कृतिक शून्यता की बात करते थे जिसका प्रयोग साम्यवाद अपने लाभ के लिए कर रहा था। उन्होंने कहा साम्यवाद एक गहरे स्तोत्र से समर्थन प्राप्त कर रहा था। हमारे राजनीतिक और सांस्कृतिक अभिजात वर्ग के बीच जो अलगाव था उसके कारण और उन ताकतों की मदद से आगे बढ़ रहा था जो सतह पर साम्यवाद के खिलाफ सहयोगी लगती थीं। यहां केवल हमारी लोकतांत्रिक राजनीति नहीं थी जिस पर साम्यवाद का हमला हुआ था। कई अन्य ताकतें थी जो भारत की अंतर्निहित ताकत के गहरे स्तोत्रों का दम घोंटने और बांझ बनाने के लिए एक साथ आई थीं।

 इसी बीच हम भारत में राजनीति के प्रगतिशील पतन के बारे में पूरी तरह जागरूक हो गए। हमारी राजनीति अब राष्ट्रीय राजनीति नहीं रही थी। यह जाति,भाषा और प्रांतीय संकीर्णता जैसे कई विखंडनीय कारकों से ग्रसित होती जा रही थी। अब इस राजनीति का उद्देश्य राष्ट्र निर्माण नहीं रह गया था। लोगों के प्रति जिम्मेदारी और जवाबदेही के बिना चुनाव जीतना और सत्ता और विशेषाधिकार हथियाना एक सिरा होता जा रहा था। एक ऐसी राजनीति जिसे अब एक बड़ी और गहरी संस्कृति द्वारा सूचित नहीं किया गया था, उसके काफी ज़हरीली हो जाने की संभावना थी।

इसी तरह का पतन अंतरराष्ट्रीय पटल पर भी हो रहा था। संयुक्त राज्य अमेरिका एक युद्ध के लिए तैयार था जो शायद ना हो। लेकिन वह एक वैचारिक प्रतियोगिता के लिए बिल्कुल भी तैयार नहीं था जिसमें मुद्दों का निर्धारण लम्बी अवधि में होने वाला था। सोवियत संघ किताबों, प्रचार पुस्तिका और पत्र-पत्रिकाओं के एक प्रवाह में बहुत श्रेणियों की अवधारणाएं,वैचारिकी और विचार प्रदान कर रहा था। इस खतरे के खिलाफ संयुक्त राज्य अमेरिका की एक एकमात्र प्रतिक्रिया आर्थिक सहायता थी।

अमेरिकी विचारकों और शासकों के बीच यह व्यापक रूप से माना जाता था कि यदि एक व्यक्ति के जीवन स्तर को ऊंचा किया जाए तो वह स्वतंत्रता और लोकतंत्र के लिए बेहतर जुड़ाव रखता है।

रामस्वरूप ने एक दिन टिप्पणी की- “सोवियत द्वंद्वात्मक भौतिकवाद की कसम खाता है। लेकिन यह जो व्यवहार करता है वह आदर्शवाद है। दूसरी ओर संयुक्त राज्य अमेरिका आदर्शवाद की कसम खाता है लेकिन यह जो अभ्यास करता है वह द्वंदात्मक भौतिकवाद है । इन दो शक्तियों के बीच भूमिकाओं का एक साफ विभाजन है। सोवियत हमारे मस्तिष्क की देखभाल करते हैं एवं संयुक्त राज्य अमेरिका हमारे चूल्हों और घरों की देखभाल करता है।

 गिरते राजनीतिक मानकों के इस वातावरण में हमने अपने साम्यवाद विरोधी अभियान को वापस लेने का फैसला निर्णय लिया, जैसा हमने इसे आरम्भ करते समय सोचा था। हमें इस विषय में पूर्ण विश्वास था कि अगर राष्ट्र को उसकी आत्मा के क्षरण से बचाना है तो एक बड़ी लड़ाई की जरूरत है जो गहरी सांस्कृतिक रूपरेखा से जुड़ी हो।

इसी समय मैं गंभीर रूप से बीमार पड़ गया और मेरा वजन बहुत कम हो गया जो पहले भी कभी ज़्यादा था ही नहीं । एक ईसाई सम्प्रदाय के धर्म प्रचारक, जिन्हें मैं हमारे साम्यवादी विरोधी कार्यों के सिलसिले में पहले से भी जानता था, एक दिन मुझसे मिलने आए। वे एक अच्छे और दयालु व्यक्ति थे और मजबूत चरित्र के थे। उन्होंने अपने धार्मिक अधिकारों पर जोर देते हुए हमारे और साम्यवादी साहित्य को मेलों और प्रदर्शनियों में बेचने पर जोर दिया, हालांकि उनके अभियान ने यह सलाह दी थी कि यह उनका कार्य नहीं है, और यह कि किसी भी मामले में भारत सरकार इस विषय पर भ्रमित थी। 

पादरी, जैसा कि मैं उन्हें सम्बोधित करता था, ने मुझे शारीरिक और आर्थिक रूप से मुश्किल स्थिति में पाया। उन्हें यकीन था कि ऐसे समय में यीशु मसीह ही लोगों के पास आते थे। उन्होंने मुझसे पूछा कि क्या मैं यीशु को ग्रहण करने के लिए तैयार हूं। मुझे तुरंत समझ नहीं आया कि वह मुझे ईसाई धर्म में परिवर्तित करने के लिए आमंत्रित कर रहे थे। मेरी धारणा यह थी कि वह ईसाई धर्म द्वारा निर्धारित कुछ आध्यात्मिक प्रक्रियाओं में मेरी सहायता करना चाहते थे। इसके अतिरिक्त, मैंने सदा ही यीशु की प्रशंसा की थी। अतः मुझे उनका स्वागत करने में कोई भी आपत्ति नहीं थी। मुझे मात्र इस विषय में संदेह था कि क्या कोई इस बैठक की व्यवस्था करने की स्थिति में था। लेकिन जब मैं उनके साथ सुदूर स्थित एक मोनिस्ट्री में गया तो मुझे पादरी के सच्चे इरादों के बारे में पता चला। उन्होंने रास्ते में मिले हर दूसरे ईसाई धर्म प्रचारक से उनकी सफलता के लिए प्रार्थना करने को कहा।

 इस मोनेस्ट्री में, जो बहुत ही सुरम्य वातावरण वाला एक विशाल स्थान था, मुझे पादरी द्वारा एकांतवास में जाने की सलाह दी गई। इसका मतलब एक कमरे में मेरा एकांत कारावास था। मुझे शौचालय जाने के रास्ते में, या वहाँ बाहर फैले विस्तृत घासदार मैदान में सुबह शाम के परिभ्रमण के समय किसी को देखने या उससे बात करने की अनुमति नहीं थी । और मुझे उन विषयों पर ध्यान लगाना था जो उन पादरी ने मेरे लिए दिनभर में चार या पांच व्याख्यानों के दौरान निर्धारित किए थे, जो उन सर्दियों की सुबह में लगभग 6:30 बजे शुरू होते थे। मुझे इस तरह के जीवन की आदत नहीं थी। मैं अपनी मर्जी से ऐसे एकांत में कभी नहीं रहा था। मेरे लिये एकमात्र सांत्वना यह था कि मुझे धूम्रपान करने की अनुमति दी गई थी और ईसाई तंत्र और धर्म शास्त्र पर बहुत सारी किताबें मुहैया कराई गई थीं।

 मैंने कुछ किताबें पढ़ने की कोशिश की लेकिन मैं उनमें से किसी एक को भी पूरा पढ़ने में असफल रहा। यह बाइबल के विषयों और धार्मिक शब्दावली से भरे हुए थे जिन से मैं परिचित नहीं था। ज्यादातर समय मुझे केवल रामस्वरुप के वह विचार याद आते रहे जो मात्र ऊपरी सेलेब्रेशन के बारे में थे। या फिर वे मसीह से प्यार करने और ईसाई चर्च में शामिल होने के लिए एकपक्षीय उत्तेजक भाषण  थे। उनमें साम्यवादी प्रचार पुस्तिका से काफी समानता थी, जिसे मैंने खूब पढ़ा था। पादरी ने मुझे बार-बार मसीह का आह्वान करने और उनका ध्यान करने के लिए कहा था लेकिन उन्होंने मुझे यह नहीं बताया था कि यह कैसे करना है। ध्यान में मेरा कोई पिछला अभ्यास नहीं था। मुझे नहीं पता था कि  ईशु मसीह या किसी अन्य देवत्व का आह्वान कैसे किया जाए । मैं बस इतना कर सकता था कि बार-बार मन में ये सोचूँ कि यीशु पर्वत पर उपदेश दे रहे हैं या एक  व्याभिचारिणी को पत्थरवाहों द्वारा मौत के घाट उतारे जाने से बचा रहे हैं । लेकिन मेरे विचार हर कुछ पल के बाद भटक जाते थे।

 पादरी ने हर नए पाठ की शुरुआत से पहले मुझसे  पूछा कि क्या मैं मसीह की ओर आकर्षित महसूस कर रहा हूं । दूसरे दिन की शाम को मैंने झुंझलाहट और क्रोध में आकर उनसे कह दिया कि केवल एक ही देवता जिनकी और में आकर्षित हो रहा था वह थे श्री कृष्ण। यह सच नहीं था। मैंने झूठ बोला था जिसके लिए मुझे तुरंत ही शर्मिंदगी महसूस हुई। मैंने महसूस किया था कि मैं किसी भी चीज की ओर आकर्षित नहीं हुआ हूँ। श्रीकृष्ण तो बिल्कुल नहीं।अधिकांश समय मेरा मन फ्रायड चेतना के अर्थ में अबद्ध संसर्ग में लगा रहता था। मैंने झूठ बोला क्योंकि अब तक मैं पादरी के व्याख्यानों से तंग आ चुका था।  मुझे जिन समस्याओं का सामना करना पड़ा उनमें से किसी से उनकी कोई प्रासंगिकता नहीं थी। मैं चाहता था कि पादरी श्री कृष्ण के उल्लेख पर क्रोधित हों और उनके बारे में कुछ भी बुरा कहें ताकि मैं उनसे तर्क कर सकूं,उनके द्वारा मुझ पर लगाए गए अनुृशासन का उल्लंघन कर सकूँ और उनके चंगुल से बाहर निकल सकूँ।

लेकिन पादरी क्रोधित नहीं हुए ना ही उन्होंने श्रीकृष्ण के बारे में कुछ द्वेषपूर्ण बात कही। वह विचारमग्न हो गए, लगभग चिंताग्रस्त। अततः उन्होंने मुझे बताया कि धर्मपरिवर्तन के उनके इतने लंबे अनुभव में यीशु ने इतना विलंब कभी नहीं किया था। उन्होंने मुझे उस रात एक और प्रयास करने के लिए कहा। मैंने वादा किया। लेकिन मैं उनके जाते ही तुरंत सो गया। मैं पूरी तरह से थक चुका था। मुझे नहीं पता था कि उस जेल से मेरी रिहाई अगली सुबह होने वाली थी। सृष्टि पर व्याख्यान देते हुए पादरी ने कहा कि ईश्वर ने अपने ज्ञान एवं उदारता के कारण इन सभी मछलियों,जानवरों और पक्षियों को मनुष्य के उपभोग के लिए बनाया है। मैं तुरंत विद्रोह में उठ खड़ा हुआ। मैंने उन्हें सुस्पष्ट रूप से कहा कि मैं एक वैष्णव और शाकाहारी हूं और मुझे ऐसे भगवान से कोई सरोकार नहीं जिसने मनुष्य को अपने अन्य प्राणियों को मारने और खाने का अधिकार सिर्फ इसलिए दिया क्योंकि मनुष्य अधिक शक्तिशाली और कौशलूर्ण था। मैंने यह भी कहा कि मरे विचार में यह मजबूत और अधिक कुशल लोगों का उत्तरदायित्व था कि अधिक कुशल लोग कमजोर और कम जानकारी वाले लोगों के रक्षा करने।

 पादरी ने भी अचानक अपना आपा खो दिया। वह लगभग चिल्लाए और बोले- ” मैं आप हिंदुओं को कभी नहीं समझ सकता जो अपने चारों ओर रेंगने वाले हर जूँ ,कीड़े और तिलचट्टे में भी आत्मा को देखते हैं। बाइबिल न जाने कितनी बार कहती है कि मनुष्य भगवान की सर्वोच्च रचना है। तो फिर उच्चतर का निम्नतर पर आधिपत्य दिखाना क्या गलत है ?

 मैं चुप रहा । मैं उनकी आंखों में दर्द देख सकता था। मैं उनकी पीड़ा को और बढ़ाना नहीं चाहता था। उन्होंने अब अपने विद्वेष को सम्भाला और मुस्कराने लगे। अब मैं उनके सामने अपने घुटनों के बल बैठ गया और क्षमा माँगी कि अब मैं यहाँ पर और अधिक नहीं रह सकता हूँ। वह सहमत हो गए हालांकि अनिच्छापूर्वक। उनके चेहरे पर असफलता का भाव साफ झलक रहा था। मुझे वाकई बहुत अफसोस हुआ। मुझे अब लगा कि शायद हम दोनों के लिए अच्छा होता अगर यीशु मेरे पास आ जाते।

जब हम वापस बड़े शहर की ओर आ रहे थे, जहाँ पर उनका मिशन था, तो वह पुराने स्वभाव में ही वापस आ गए। यात्रा के दौरान जब हम बात कर रहे थे, मजाक कर रहे थे या फिर किसी गंभीर या सामान्य मामलों पर चर्चा कर रहे थे तो उनके चेहरे पर या उनकी आवाज में किसी भी तरह की कोई कड़वाहट का नामोनिशान नहीं था।अब मैंने बहुत हिम्मत करके उनसे अपना अंतिम प्रश्न पूछा -“क्या मैं पहले से ही ईसाई नहीं हूं? मैं आमतौर पर झूठ नहीं बोलता। मैं चोरी नहीं करता। मैं झूठी गवाही नहीं देता। अपने पड़ोसी की पत्नी या संपत्ति पर अपनी नजर नहीं डालता। एक इंसान ईश्वर का अनुग्रह पाने और यीशु मसीह के साथ रिश्ता कायम करने के लिए और क्या कर सकता है? आप औपचारिक धर्मांतरण पर ज़ोर क्यों देते हैं जो किसी भी तरह से मुझे जो मैं हूं उससे बेहतर बनने में मदद नहीं करता?

हालांकि उनका उत्तर बहुत सकारात्मक था पर इसने मुझे, शायद अच्छे के लिए ही, ईसाई धर्म मत से विरक्त कर दिया। उन्होंने कहा-” यह एक भ्रम है कि यदि आप ईसाई सदगुणों का अभ्यास करते हैं तो आप ईसाई बन सकते हैं। जब तक किसी व्यक्ति का बापिस्ता किसी ईसाई चर्च द्वारा नहीं किया जाता है, तब तक वह ईसाई होने का दावा नहीं कर सकता है। वह एकमात्र उद्धारक हैं। उसकी शरण से बाहर किसी को भी मोक्ष नहीं मिलता है। बुतपरस्तों को केवल एक ही चीज़ मिलती है और वह है नरक की आग।”

 उस शाम मैंने ईसाई धर्म प्रचारक मंडल के पुस्तकालय में पुस्तकालयाध्यक्ष से बातचीत की। वह नवयुवक था लेकिन बहुत दुखी और किसी में खोया हुआ लग रहा था। उसका उपनाम हिंदू था लेकिन उसने मुझे बताया कि वह कुछ साल पहले ईसाई बन गया था। उसने कहा -” मैं गंभीर रूप से बीमार पड़ गया। घर में पैसे नहीं थे। मेरी आमदनी बहुत कम थी और मुझ पर मेरी पत्नी और दो बच्चों के भरण-पोषण की ज़िम्मेदारी थी। मेरे रिश्तेदार भी मेरी तरह गरीब थे और मेरे दवाओं की लागत एवं निर्धारित आहार में ज़्यादा मदद नहीं कर सकते थे।ठीक इस समय पादरी जी आए। मैं उन्हें पहले से जानता था क्योंकि मे धर्मांतरित लोगों की तलाश में अक्सर हमारी गली में आते थे। वह मेरे लिए सभी दवाएं और फल लाए। मैं उनका बहुत आभारी था। और एक दिन मेरी कमजोरी के एक पल में उन्होंने मेरा बापिस्ता कर दिया। मेरी पत्नी ने ईसाई बनने से इंकार कर दिया। वह एक रूढ़िवादी हिंदू थी। लेकिन उसने मुझे नहीं छोड़ा। मेरे स्वस्थ होने के बाद पादरी ने ज़ोर देकर कहा कि मेरा धर्मांतरण तब तक पूर्ण नहीं होगा जब तक मैं गौ मांस नहीं खाता। कायस्थ के रूप में मैं पहले से ही एक मांसाहारी था। मुझे एक और प्रकार का मांस खाने में कोई बड़ा नुकसान दिखाई नहीं दिया। लेकिन जैसे ही मेरी पत्नी को यह पता चला वह हमारे दोनो बच्चों के साथ निकल गई और मैं अपने पिता के यहां चली गई, जो दूसरे नगर में रहते थे। मैं उसके पीछे पीछे गया लेकिन मुझे उसके घर से निकाल दिया गया।मुझे बहिष्कृत कर दिया गया। मेरे समुदाय में या मेरे रिश्तेदारों में से कोई भी मेरे साथ एक गिलास पानी भी साझा नहीं करता। मेरे पास अब और कोई ठिकाना नहीं। यह मिशन ही अब मेरे अंतिम समय तक का ठिकाना है।”

मुझे विवेकानंद द्वारा कही गयी यह बात याद आ गयी जिसमें उन्होंने ईसाई धर्म को चर्चियर्निटी के रूप में बताया था। साथ ही मुझे उस समाज पर शर्म आ रही थी जिससे मैं ताल्लुक रखता था । सदियों से इस समाज ने एक के बाद एक अपने अंगों को खोने की कला को सिद्ध किया था। लेकिन मैं उस नवयुवक के लिए क्या कर सकता था ? मैं तो स्वयं ही शारीरिक और वैचारिक आश्रयस्थल की खोज में था।

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