प्राय: हम लोग सुनते ही रहते हैं कि कई आईएएस अधिकारी या प्रशासनिक मशीनरी हिन्दू धर्म के प्रति दुराग्रह का भाव लिए होती है और हिन्दुओं के प्रति उनमें एक घृणा का भाव नेपथ्य में तिरता रहता है! हम सुनते हैं कि कभी कभी कोई अधिकारी सदियों से चली आ रही मंदिर की सहज परम्पराओं को भी तोड़ने में कोई अपराध नहीं समझते हैं और उन्हें लगता है कि जो भी दुर्गुण हैं वह मात्र हिन्दू धर्म में हैं, और उसमें ही सुधार किए जाने की आवश्यकता है।
धीरे धीरे बातें स्पष्ट हो रही हैं कि यह सब तो कहीं न कहीं कुछ आईएएस की कोचिंग के दौरान ही पाठ्यक्रमों के माध्यम से सिखाया जाने लगता है। मुगलों के विषय में महिमामंडन सिखाया जाता है, हिन्दू धर्म के प्रति गलत इतिहास समझाया जाता है। पिछले दो दिनों से विजन आईएएस के कई वीडियो इंटरनेट पर छाए हुए हैं, जिनमें ऐसा प्रतीत हो रहा है कि जैसे बहुत ही सुनियोजित तरीके से यह स्थापित किया जा रहा है कि कैसे इस्लाम के आने के बाद भक्ति आन्दोलन आरम्भ हुआ।
स्मृति शाह द्वारा यह बताया जा रहा है कि चूंकि इस्लाम लिबरल था और समानता की बात करता था, इसलिए भक्ति आन्दोलन आरम्भ हुआ। तो इस झूठ को वैसे ही भारत में पसमांदा आन्दोलन की मुख्य आवाज डॉ फैयाज़ अपने तर्कों से काटते रहते हैं। और डॉ फैयाज़ ने लिखा है कि
“बादशाह अकबर ने कसाई और मछुआरों के लिए राजकीय आदेश जारी किया था कि उनके घरों को आम आबादी से अलग कर दिया जाए और जो लोग इस जाति से मेलजोल रखें, उनसे जुर्माना वसूला जाए। अकबर के राज में अगर निम्न श्रेणी का व्यक्ति किसी उच्च श्रेणी के किसी व्यक्ति को अपशब्द कहता था तो उस पर कहीं अधिक अर्थदंड लगाया जाता था।“
इस्लाम कितना समानता की बात करता है, वह अकबर में राहुल सांकृत्यायन द्वारा लिखे गए तथ्यों से स्पष्ट होता है:
“अरब आदमी नहीं, अरब खून के महत्व को जरूर माना जाता था,”
फिर वह लिखते हैं
“अकबर के समय तक शेख, सैय्यद, मुग़ल, पठान का भेद गैर मुल्की मुसलमानों में स्थापित हो चुका था। शेख के महत्व को हम अब इसलिए नहीं समझ पाते क्योंकि अब वह टके सेर है, वैसे ही जैसे खान। तुर्कों और मंगोलों में खान राजा को कहते हैं। 1920 ई तक बुख़ारा में सिवाय वहां के बादशाह के कोई अपने नाम के आगे खान नहीं लगा सकता था। युवराज भी तब तक अपने नाम के आगे खान नहीं जोड़ सकता था, जब तक कि वह तख़्त पर न बैठ जाता।”
फिर वह अकबर के समय इस्लाम में उसी मजहब में व्याप्त वर्ग भेद के विषय में लिखते हैं
“शेख सबसे श्रेष्ठ माने जाते थे! शेख का अर्थ हुआ गुरु या सत पुरुष।——————– उनके बाद पैगम्बर के अपने वंश और रक्त से संबंधी होने से सैय्यदों का नंबर आता था। मध्य एशिया में उन्हें खोजा कहा जाता था। मुग़ल पहले तुर्क कहाए जाते थे।”
“पठान दसवीं सदी तक पक्के हिन्दू थे।”
इन चारों के बाद हिन्दुओं से मुसलमान बने लोग आते थे। ————- मुल्की मुसलमान दूसरे मुसलमानों के सामने वही स्थान रखते थे, जो अंग्रेजों के काल में एंग्लो-इन्डियन। मुल्की मुसलमानों में उच्च और नीच (अशरफ और अर्जल) दो तरह के लोग थे। सारे ही मुसलमानों में भारत में सबसे अधिक संख्या अर्जलों की थी, मगर वह अपने ही सहधर्मियों के भीतर अछूतों से थोड़े ही बेहतर समझे जाते थे। जब तक अंग्रेजों ने दास प्रथा को समाप्त नहीं किया। मुसलमान होने से ही कोई दास बनने से छुट्टी नहीं पा सकता था।”
और भक्ति आन्दोलन को बदनाम करने के लिए विजन आईएएस की एक फैकल्टी द्वारा कैसा झूठ फैलाया जा रहा है
एक और वीडियो सामने आया है जिसमें विजन आईएएस की फैकल्टी द्वारा सबरीमाला की परम्परा का मजाक उड़ाया जा रहा है, जिसमें ब्रह्मचारी देव के लिए ही विशेष विशेषताएं हैं। और भगवान राम के मंदिर के लिए हिन्दुओं ने जो ४०० वर्ष प्रतीक्षा की है, उसका उपहास उड़ाया जा रहा है:
फिर एक और वीडियो आया है जिसमें वह एक ही धर्म की बुराई करते हुए दिख रहा है,
और तो और एक ओर श्री श्री रविशंकर के आर्ट ऑफ लिविंग कार्यक्रम के बहाने हिन्दू धर्म की हंसी उड़ाई जा रही है और सोनू निगम ने यदि यह कहा कि सुबह पांच बजे अज़ान से डिस्टर्बेंस होता है तो उसका उपहास किया जा रहा है कि जिन्हें समस्या है वह साउंडप्रूफ घर क्यों नहीं बनाते?
विजन आईएएस के शिक्षक हिन्दुओं के अतिरिक्त किसी और में सुधार की बात नहीं करते हैं, यहाँ तक कि पसमांदाओं की बात भी नहीं करते हैं। इस्लाम में किस हद तक भेद है, वह बात नहीं करते हैं, जबकि डॉ फैयाज़ न जाने कितनी बार यह बात उठा चुके हैं और उठा भी रहे हैं।
खैर जो शिक्षिका हिन्दू धर्म के विषय में इतनी घृणा फैला रही हैं, वह सैंट स्टीफंस से ग्रेजुएट हैं, जहाँ पर हिन्दुओं की बात करने वाले जे साईं दीपक को हाल ही में बुलाने पर आपत्ति दर्ज की गयी थी। यहाँ से उत्तीर्ण हुआ व्यक्ति किस प्रकार हिन्दुओं के प्रति मानसिकता लिए होगा, यह सहज अनुमान लगाया जा सकता है:
हालांकि विजन आईएएस की ओर से स्पष्टीकरण आया है, परन्तु इतने एकतरफा दृष्टिकोण के उपरांत क्या इतना पर्याप्त है? क्योंकि इस्लाम में वर्ग विभेद और जाति तो तब से ही है!
दृष्टि आईएएस की इतिहास की कुछ अध्ययन सामग्री
ऐसे ही दृष्टि आईएएस में पूछे गए कई प्रश्नों के उत्तरों में भी कई बार ऐसा लगा है जैसे तथ्यों को सत्य को पूरा नहीं प्रदर्शित किया गया है। जैसे पानीपत का द्वितीय युद्ध, जो अकबर की सेना और हेमू के बीच हुआ था। जिसमें दृष्टि आईएएस में लिखा है कि
“हेमू को हौदा (घोड़े की पीठ पर सवारी के लिये गद्दी) पर न देखकर हेमू की सेना में खलबली मच गई और इसी भ्रम की स्थिति के कारण वह हार गई।
युद्ध समाप्त होने के कई घंटे बाद हेमू को मृत अवस्था में पाया गया और उसे शाह कुली खान महरम (Shah Quli Khan Mahram) द्वारा पानीपत के शिविर में अकबर के डेरे पर लाया गया।
हेमू के समर्थकों ने उसके शिरश्छेदन (Beheading) स्थल पर एक स्मारक का निर्माण कराया जो आज भी पानीपत में जींद रोड पर स्थित सौंधापुर (Saudhapur) गाँव में मौजूद है।“
जबकि हेमू की मृत्यु किसके हाथों हुई थी, क्या यह अकबर के सामने हुई थी या फिर अकबर ने की थी, इस विषय पर यह लोग मौन साध गए हैं, और लिखा है कि हेमू को मृत अवस्था में अकबर के सामने लाया गया, जो कि तत्कालीन इतिहासकारों के अनुसार सही नहीं है, इस विषय में इतिहासकार एकमत नहीं हैं कि क्या अकबर ने स्वयं हेमू को मारा या फिर उसने मरवाया, हाँ, इस बात पर एकमत हैं कि हेमू की हत्या अकबर के सामने हुई थी।
इस विषय में अल-बदाऊंनी (१५४० – १६१५) ने मुन्तखाब-उत-तवारीख में लिखा है कि अकबर ने इंकार कर दिया और कहा कि मैं तो इसे पहले ही मार चुका हूँ, इसलिए क्या मारना इसे। तब बैरम खान और शेष सरदारों ने मिलकर बेहोश हेमू का सिर धड़ से अलग कर दिया और इतना ही नहीं हेमू का कटा हुआ सिर दिल्ली के द्वार पर लटका दिया गया, जिससे हिन्दुओं के भीतर भय बैठ जाए कि उन्हें विद्रोह नहीं करना है।
मगर विसेंट ए स्मिथ इससे सहमत नहीं हैं। वह द डेथ ऑफ हेमू इन 1556, आफ्टर द बैटल ऑफ पानीपत (The Death of Hemu in 1556, after the Battle of Panipat) में अहमद यादगार को उद्घृत करते हुए लिखते हैं कि “किस्मत से हेमू के माथे में एक तीर आकर लग गया। उसने अपने महावत से कहा कि वह हाथी को युद्ध के मैदान से बाहर ले जाए। मगर वह लोग भाग न पाए और बैरम खान के हाथों में पड़ गए। इस प्रकार बेहोश हेमू को बालक अकबर के पास लाया गया, और फिर उससे बैरम खान ने कहा कि अपने दुश्मन को अपनी तलवार से मारे और गाजी की उपाधि धारण करे। राजकुमार ने ऐसा ही किया, और हेमू के गंदे शरीर से उसका धड़ अलग कर दिया।”
डे लेट (De Laet) की पुस्तक में भी यही विवरण प्राप्त होता है। डच में लिखी गयी पुस्तक का अंग्रेजी अनुवाद स्मिथ ने दिया है जो इस प्रकार है “ हेमू के सैनिक अपने राजा को हाथी पर न देखकर भागने लगे और मुगलों ने अधिकार कर लिया। और बैरम खान ने हेमू को पकड़ कर अकबर के सामने प्रस्तुत किया। अकबर ने अली कुली खान के अनुरोध पर अचेत और आत्मसमर्पण किए हुए कैदी का सिर तलवार से काट दिया और फिर उसके सिर को दिल्ली के द्वार पर लटकाने का आदेश दिया।”
ऐसे ही इसमें वही लिखा है कि क़ुतुब मीनार को कुतुबुद्दीन ऐबक ने बनाया था, उन्होंने मेन्स प्रैक्टिस प्रश्न में एक प्रश्न पूछा है कि इंडो-इस्लामिक स्थापत्य कला की विशेषताओं पर प्रकाश डालिये। तो उसके उत्तर में लिखा है कि:
जबकि क़ुतुबमीनार वास्तव में कुतुबुद्दीन ऐबक ने बनाई थी, इसका प्रमाण एनसीईआरटी भी नहीं दे पाई है:
इसी के विषय में आगरा विश्वविद्यालय में इतिहास के प्रोफ़ेसर ए एल श्रीवास्तव द्वारा लिखी गयी किताब THE SULTANATE OF DELHI में यह लिखा गया है कि कुतुबुद्दीन ऐबक ने यह मस्जिद हिन्दू मंदिरों को तोड़कर बनवाई थी
इसी तथ्य को Introduction of Indian Architecture में इस प्रकार लिखा है
सीताराम गोयल ने भी hindu temples: what WHAT HAPPENED TO THEM में लिखा है कि ऐसे प्रमाण प्राप्त होते हैं कि अढाई दिन का झोपड़ा हिन्दू मंदिर के विध्वंस पर बनी थी, और इसी तथ्य को कई और आईएएस और अन्य कोचिंग संस्थान भी बताते हैं कि यह अजमेर में विग्रह राज-4 द्वारा बनाए गए संस्कृत महाविद्यालय के स्थान पर बनाई गयी थी!
परन्तु आईएएस पढ़ाने वाली कुछ कोचिंग संस्थाएं भी पूरा सच नहीं बताती हैं, या तो वह इस्लाम की प्रशंसा और हिन्दू धर्म की बुराई ही अधिकतर बताती हैं या फिर इस्लाम की कट्टरता को छिपा ले जाती हैं, या फिर मौन रह जाती हैं! प्रश्न उठता है को जो तथ्य इतिहास की पुस्तकों में हैं, उन्हें अनदेखा क्यों किया जाता है? किस एजेंडे के अंतर्गत? या फिर बस ऐसे ही यह चल रहा है!
परन्तु इसमें हानि किसकी हो रही है, यह देखना होगा और हिन्दू धर्म पर इस प्रकार आक्रमण? इससे समाज में क्या संदेश जा रहा है? कितना जहर घुल रहा है? इन सबका उत्तरदायी कौन है?