भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के प्रखर सेनानी और महान हिंदुत्ववादी नेता वीर सावरकर जी की आज 139वीं जयंती है। उनका जन्म 28 मई को 1883 में महाराष्ट्र के नासिक जिले के ग्राम भगूर में हुआ था। सावरकर जी ना सिर्फ एक महान क्रांतिकारी थे, बल्कि एक अति उत्कृष्ट लेखक, प्रेरक कवि और समाज सुधारक भी थे। सावरकर जी भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन की पहली पंक्ति के सेनानी और प्रखर राष्ट्रवादी नेता थे, जिन्हें सम्मान से स्वातंत्र्यवीर या वीर सावरकर के नाम से भी जाना जाता है।
सावरकर जी का बचपन
सावरकर जी की माता का नाम राधाबाई सावरकर और पिता दामोदर पंत सावरकर थे, उनके तीन भाई और एक बहन भी थी। उनकी प्रारंभिक शिक्षा नासिक के शिवाजी स्कूल से हुयी थी। मात्र 9 साल की उम्र में हैजा बीमारी से उनकी मां का देहांत हो गया था जिसके कुछ वर्ष बाद ही उनके पिता की भी मृत्यु हो गई। घर परिवार का समस्त उत्तरदायित्व सावरकर के बड़े भाई गणेश सावरकर पर आ गया था, जिसका उन्होंने अच्छे से पालन भी किया।
सावरकर बचपन से ही प्रतिभाशाली थे और कुछ अलग करने की उनकी प्रवृत्ति थी। जब वे मात्र ग्यारह वर्ष के थे तभी उन्होंने ̔वानर सेना ̕नाम का समूह बनाया था। वह बाल गंगाधर तिलक जी से अत्यंत प्रभावित थे, और उनके द्वारा शुरू किए गए ̔शिवाजी उत्सव ̕और ̔गणेश उत्सव ̕ का हर वर्ष बढ़ चढ़कर आयोजन किया करते थे।
युवावस्था और विवाह
वर्ष 1901 मार्च में उनका विवाह ̔यमुनाबाई ̕ से हो गया था। वर्ष 1902 में उन्होंने स्नातक के लिए पुणे के ̔फर्ग्युसन कॉलेज में प्रवेश लिया। आर्थिक स्थिति अच्छी न होने के कारण उनके अध्ययन का खर्च उनके ससुर जी ने ही उठाया था।
सावरकर जी ने पुणे के प्रतिष्ठित फर्ग्यूसन कॉलेज से कला स्नातक (बीए), उसके पश्चात वर्ष 1906 में कानून की पढ़ाई करने के लिए इंग्लैंड चले गए थे। लंदन में वह इंडिया हाउस में प्रवास करते थे, और साथ ही लेखन आदि कार्य भी करते थे। उन दिनों इंडिया हाउस का सञ्चालन पंडित श्याम जी किया करते थे, और वह स्थान मात्र राजनीतिक गतिविधियों का केंद्र ही नहीं था बल्कि क्रांतिकारी गतिविधियों के लिए भी प्रख्यात था।
वीर सावरकर ने वहीं ‘फ्री इंडिया’ सोसाइटी का निर्माण किया, जहां भारतीय छात्रों को स्वतंत्रता के लिए लड़ने के लिए प्रेरित किया जाता था। वीर सावरकर ने अपने उत्कृष्ट लेखन के कारण जल्द ही अच्छी खासी ख्याति प्राप्त कर ली थी, उनके क्रांतिकारी विचारों से युवा वर्ग बहुत प्रभावित हुआ करता था। उनके मन में आजादी की अलख जल रही थी, और इसे से प्रेरित हो कर उन्होंने वर्ष 1907 में ‘1857 का स्वातंत्र्य समर’ नामक बेहतरीन पुस्तक लिखनी प्रारंभ की थी।
इंग्लैंड से आरम्भ किया स्वतंत्रता का अभियान
सावरकर ने अपने इंग्लैंड प्रवास से समय ही भारत को मुक्त कराने के लिए हथियारों के इस्तेमाल को महत्वपूर्ण बताया था, और इसी कारण से उन्होंने हथियारों से सुसज्जित एक दल का गठन भी किया था। सावरकर द्वारा लिखे गए लेख ̔’तलवार’ और इंडियन सोशियोलाजिस्ट’ जैसी लोकप्रिय पत्रिकाओं में प्रकाशित होते थे। वह एक ऐसे लेखक थे जिनकी रचना के प्रकाशित होने के पहले ही ब्रिटिश सरकार उन पर प्रतिबंध लगा दिया करती थी । इसी समयकाल में उनकी पुस्तक ̔द इंडियन वार ऑफ़ इंडिपेंडेंस 1857’ लिखी जा चुकी थी, परंतु ब्रिटिश सरकार ने उसके प्रकाशित होने पर भी रोक लगा दी।
स्वतंत्रता सेनानी मैडम भीकाजी ने उनकी सहायता की, और इस पुस्तक की को गुपचुप तरीके से हॉलैंड में प्रकाशित हुयी और इसकी प्रतियां फ्रांस और अन्य यूरोपीय देशो में पहुंची, साथ ही इस पुस्तक को भारत भी पहुंचाया गया । सावरकर ने इस पुस्तक में ‘1857 के विद्रोह’ को ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध स्वतंत्रता की पहली लड़ाई बताया था।
वीर सावरकर का ब्रिटिश सरकार से सीधा टकराव
वर्ष 1909 में मदनलाल ढींगरा ने लार्ड कर्जन की हत्या का असफल प्रयास किया, और बाद में सर विएली को गोली मार दी। उसी दौरान नासिक के तत्कालीन ब्रिटिश कलेक्टर ए.एम.टी जैक्सन की भी गोली मारकर हत्या कर दी गयी थी। इस हत्या के बाद सावरकर पर ब्रिटिश सरकार की कुदृष्टि पड़ गयी थी, क्योंकि ढींगरा उनके सहयोगी थे।
ब्रिटिश पुलिस ने उन्हें गिरफ्तार किया और 13 मार्च 1910 को उन्हें लंदन में कैद कर लिया गया। ब्रिटिश न्यायलय ने उनपर गंभीर आरोप लगाये गए, और उन्हें 50 साल की कठोर कारावास की सजा सुनाई गयी। उस समय कालापानी की सज़ा को सबसे कठोर माना जाता था, सावरकर को काला पानी की सज़ा देकर अंडमान के सेलुलर जेल भेज दिया गया था।
सावरकर ने 14 साल कालापानी में सजा काटी, और उसके बाद ही उन्हें मुक्त किया गया था। कालापानी जेल में उन्होंने कील और कोयले से कविताएं लिखीं और उनको याद कर लिया था। उन्होंने कंठस्त की हुई दस हजार पंक्तियों की कविता को जेल से बाहर आने के बाद फिर से लिखा।वर्ष 1920 में महात्मा गाँधी, बाल गंगाधर तिलक, और विट्ठलभाई पटेल ने सावरकर को मुक्त करने मांग की। 2 मई 1921 में उनको रत्नागिरी जेल भेजा गया और वहां से सावरकर को यरवदा जेल भेज दिया गया था। रत्नागिरी जेल में उन्होंने ̔हिंदुत्व पुस्तक ̕की रचना की।
वर्ष 1924 में ब्रिटिश सरकार ने उन्हें मुक्त किया, लेकिन कई तरह के प्रतिबन्ध उन पर लगा दिए गए थे। उनको रत्नागिरी से बाहर जाने की अनुमति नहीं थी, और न ही वह पांच वर्ष तक कोई राजनीति कार्य कर सकते थे। कारावास से मुक्त होने के बाद उन्होंने 23 जनवरी 1924 को ̔रत्नागिरी हिंदू सभा’ का गठन किया और भारतीय संस्कृति और समाज कल्याण के लिए काम करना शुरू किया।
सावरकर और कालेपानी की सजा
वीर सावरकर को उनकी क्रांतिकारी गतिविधियों की वजह से ब्रिटिश सरकार ने एक नहीं दो-दो आजीवन कारावास यानि 50 वर्ष की सजा दी थी। वह पहले इंसान थे जिन्हे दोहरे आजीवन कारावास की सज़ा सुनाई गयी थी, और इसके लिए उन्हें कालापानी (अंडमान और निकोबार द्वीप समूह ) भेजा गया था।
सेलुलर जेल में रखे गए कैदीयों से ब्रिटिश सरकार खूब काम कराया करती थी और उनका शोषण भी किया जाता था। उन्हें भरपूर यातनाएं दी जाती थी, उन्हे भर पेट खाना भी नहीं दिया जाता था, जंगलों से लकड़ियाँ काटना, नारियल छील कर उसका तेल निकालना, तेल निकालने की चक्कियों में कोल्हू के बैल की तरह मजदूरी करना और पहाड़ी क्षेत्रों में दुर्गम जगहों पर काम करना, यह सब वीर सावरकर और उनके सहयोगियों को करने पड़े थे। कोई भी गलती होने पर जेल प्रशासन क्रांतिकारियों की पिटाई भी करता था, और काल कोठरी में उन्हें कई-कई दिन तक भूखे प्यासे रखा जाता था।
सावरकर और हिन्दू महासभा का सम्बन्ध
कुछ समय बाद सावरकर बालगंगाधर तिलक की स्वराज पार्टी में सम्मिलित हो गए थे, उसके कुछ ही समय बाद उन्होंने हिन्दुओं के उत्थान के लिए हिंदू महासभा नाम का एक अलग संगठन भी बना लिया था । वर्ष 1937 में अखिल भारतीय हिंदू महासभा के अध्यक्ष बने और आगे जाकर भारत छोड़ो आंदोलन’ ̕का अंग भी बने।
सावरकर ने हमेशा पाकिस्तान निर्माण का विरोध किया और गांधीजी को भी ऐसा ही करने के लिए निवेदन किया। नाथूराम गोडसे ने 1948 में महात्मा गांधी की हत्या कर दी जिसमें सावरकर का भी नाम आया। सावरकर को एक बार फिर जेल जाना पड़ा परंतु साक्ष्यों के अभाव में उन्हें मुक्त कर दिया गया। वह सावरकर ही थे, जिन्होंने हमारे ध्वज तिरंगे के बीच में धर्म चक्र लगाने का सुझाव सर्वप्रथम दिया गया था। स्वतंत्रता के पश्चात उनको 8 अक्टूबर 1951 में पुणे विश्वविद्यालय द्वारा डी.लिट की उपाधि से सम्मानित भी किया गया था।
सावरकर कैसे बने ‘वीर’ सावरकर?
जब सावरकर पुणे में थे, तब कांग्रेस ने वक्तव्य को लेकर उन्हें प्रतिबंधित कर दिया था, और उनका हर जगह कड़ा विरोध किया जाता था। ऐसे में एक बार उन्हें नाटक और फिल्म कलाकार पी के अत्रे ने बालमोहन थिएटर में एक कार्यक्रम के लिए आमंत्रित किया था। जैसे ही यह जानकारी कांग्रेस के कार्यकर्ताओं को पता लगी, उन्होंने सावरकर का विरोध करना शुरू कर दिया, उनके विरोध में दुष्प्रचार करने के लिए पर्चे बांटे जाने लगे, और उन्हें काले झंडे दिखाने के लिए हजारों कांग्रेस कार्यकर्त्ता इकठ्ठा हो गए थे।
इस सबके बाद भी सावरकर ने अपना कार्यक्रम सफलतापूर्वक किया, जिससे प्रभावित हो कर अत्रे ने कहा कि जो इंसान कालेपानी की सजा से नहीं डरा हो, वो इन कांग्रेस के लोगो से क्या डरेगा। अत्रे जी ने उन्हें ‘वीर’ की उपाधि दी, जो आज तक उनके नाम से जुडी हुई है। उन्होंने हिंदी भाषा को देश भर में आम भाषा के रूप में अपनाने पर जोर दिया था और हिन्दू धर्म में व्याप्त जाति भेद व छुआछूत को ख़त्म करने का आह्वान भी किया था।