हिंदी का सरलीकरण एक ऐसा विषय है जिसने अनुवाद और सरलीकरण के नाम पर हिंदी को लोक और जड़ से काटने का कार्य किया है। कई बार अनुवाद आपको अपनी संस्कृति से घृणा करना सिखाता है। अनुवाद और वह भी धार्मिक-राजनीतिक अनुवाद एक ऐसा साधन है जो कुछ न करते हुए भी आपको एकदम से काट देता है, जड़ कर देता है। यही कारण है कि अनुवाद पढ़ते समय सजग होकर पढ़ना चाहिए!
इसका उदाहरण हम देखते हैं, आजकल एक नितांत आम शब्द ‘काऊ बेल्ट‘ से! गाय की पट्टी के निवासी हैं! यह गाय की पट्टी क्या हुआ? यह कैसा शब्द है? और जो काऊ बेल्ट के निवासी हैं वह पिछड़े कैसे हो गए? कैसे गंवार शब्द पिछड़ेपन का प्रतीक बन गया? ऐसे कई प्रश्न है जो अवधारणात्मक अनुवाद में आपको मिलेंगे।
स्वयं के प्रतीकों पर लज्जित होने की यह कहानी हमारे धर्म ग्रंथों के अंग्रेजी अनुवाद और फिर अनूदित धर्म ग्रंथों को स्रोत माने जाने के कारण आरम्भ हुई।
दो उदाहरण से बात को और गंभीरता से समझा जा सकता है। तुलसीदास रामचरित मानस में लिखते हैं
स्यामसुरभि पय बिसद, अति गुनद करहिं सब पान,
गिराग्राम्य सिय राम जस, गावहिं सुनहिं सुजान!
अर्थात,काली गाय का दूध उज्जवल और अत्यंत गुणदायक जानकर भी सब पान करते हैं, उसी तरह गँवारी बोली में कहे गए सियाराम के यश को सज्जन लोग गान करते हैं और सुनते हैं।
मगर जब इसका अंग्रेजी अनुवाद होता है तो ‘द रामायण ऑफ तुलसीदास‘ में यह गंवारू अर्थात ग्राम्य भाषा को रफ (असभ्य) भाषा कर दिया जाता है। इसके अनुवाद में लिखा गया है –
The milk cow can be black; its milk is white and very wholesome, and all men drink it and so though my speech is rough, it tells the glory of Sita and Rama and will therefore be heard and repeated with pleasure by sensible people.
अंग्रेजों के लिए ग्राम का अर्थ पिछड़ा था, गाय एक पशु थी एवं हमारे यहाँ की व्यवस्था एक नई दुनिया। वनवासियों की दुनिया पर उन्होंने जो किताबें लिखी हैं, उन्हें पढ़कर ज्ञात होता है कि वह एक उन्मुक्त एवं स्वतंत्र समाज देखकर हतप्रभ हैं। ‘छोटा नागपुर के ओरांस’ (‘the oraons of chota nagpur’) में उराऊं की समृद्ध परम्परा देखकर हैरान हैं। वह यह देखकर हैरान हैं कि कैसे जंगलों में रहने वाले लोग धरती माता और सूरज का रिश्ता जोड़कर खुद को सांस्कृतिक रूप से समृद्ध किए हैं। वह यौन स्वतंत्रता देखकर भी हैरान हैं।
अब जिनके लिए लोक भाषा का अर्थ ही रफ (असभ्य) भाषा है, वह किस तरह से ग्रामीण जीवन और उसके साथ ही साथ प्रकृति की निकटता को समझ पाएंगे? जिस भारत में उन्होंने कदम रखा वह भारत प्रकृति से प्रेम करने वाला भारत था, नदियों को पूजने वाला भारत था। (कृपया नदियों के सम्बन्ध में अभी की जा रही लापरवाही का उदाहरण न दिया जाए क्योंकि नदियों का प्रदूषण भी औपनिवेशिक काल में आरम्भ हुआ), वह जिस भारत में आए उसके सुदूर गावों में जो व्यवस्था थी वह उसके लिए पर्याप्त थी।
मगर धीरे धीरे जैसे जैसे हमारे इतिहास को अंग्रेजी में अनूदित किया गया और हमारे वनवासी इतिहास को अंग्रेजी में लिखा गया, तब से अंतर आना आरम्भ हुआ। जब से हिंदी को सुगम बनाने के लिए उर्दू निष्ठ शब्दों को जोड़ा जाने लगा तब से और भी ज्यादा समस्या का विस्तार हुआ। क्योंकि उर्दू का विकास भले ही भारत में हुआ, परन्तु वह कई अर्थों में भारत की भाषा नहीं है। दुःख की बात यह है कि उसमें कई शब्द ऐसे हैं जो अंतत: भारत के विरुद्ध खड़े हो जाते हैं। जैसे काफिर, जंग, ईमान, ईमानदारी आदि। कई बार बाज़ार के दबाव के कारण उर्दूनिष्ठ शब्दों का प्रयोग करना पड़ जाता है, परन्तु honest का सच्चा अर्थ ईमानदार नहीं हो सकता। ईमान पूरी तरह मजहबी शब्द है। जो भी व्यक्ति ईमानदार शब्द का प्रयोग honest के लिए करता है, वह दरअसल काफी कुछ समझ से दूर है। हिंदी में honest का सही अनुवाद होगा सत्यवादी या निष्कपट।
ईमान वाला व्यक्ति अर्थात जिसने इस्लाम को मन और वचन दोनों से अंगीकार कर लिया है, उसे honest के अर्थ में कैसे और किस सन्दर्भ में प्रयोग किया जा सकता है, यह एक प्रश्न है।
ऐसे ही कई और शब्द हैं और यह मूल लेखन के साथ भी हैं। उर्दू का शब्द कहीं और से सन्दर्भ लेता है जबकि हिंदी का संस्कृतनिष्ठ शब्द संस्कृत से सन्दर्भ लेता है। जब हम अपने लेखन में या अनुवाद में बहुत आराम से, सरलता से काफिर शब्द का प्रयोग करने लगते हैं, या प्रतिमा के स्थान पर बुत का प्रयोग करने लगते हैं तो कहीं न कहीं अन्याय करते हैं। हम प्रतिमा को बुत से नहीं जोड़ सकते, उनके लिए बुत का अर्थ है शैतान का बुत, जबकि हमारे लिए प्रतिमा का अर्थ है हमने प्रतिमा में भी प्राण प्रतिष्ठा की है एवं तब पूजा की।
कहने का तात्पर्य यह है कि अपने लेखन और अनुवाद में जितना अधिक से अधिक हो सके, संस्कृत निष्ठ शब्दों का प्रयोग किया जाए, जिससे हम अपनी संस्कृति से जुड़े रहें। शब्दों के माध्यम से तोड़ना हमारे लिए सबसे पहला चरण है।
जैसे जैसे हिंदी को ‘सरल’ बनाने के अभियान को आरम्भ किया गया वैसे वैसे हिंदी में संस्कृत निष्ठ शब्द हटते गए और उर्दू निष्ठ शब्द आते गए, सरल बनाने के नाम पर अंग्रेजी शब्दों को भी ठूंस दिया गया। इसके दो दुष्परिणाम देखने को मिले। एक तो बच्चे हिंदी से दूर हुए और हिंदी से दूर होते ही अपनी संस्कृति से दूर हुए।
हिंदी में सरलीकरण के नाम पर जो भी उर्दू के शब्द ठूंसे गए, उनका दुष्परिणाम आप नई पीढ़ी पर देखिये, जिसे काफिर शब्द सहज लगता है, जिसे प्रतिमाओं को तोड़ना बहुत आम लगता है। हिंदी के साथ की गयी इस घुसपैठ को हर मूल्य पर रोकना होगा। हमारे आपके जीवन में जो विधर्मी शब्द अतिक्रमण करके घुस आए हैं, उन्हें हटाना होगा। बच्चों को यह समझाना ही होगा कि इश्क, लव और प्रेम तीनों एक ही नहीं है। प्रेम व्यापक है, इश्क जिस्मानी है और लव, वह तो जैसे लस्ट (lust) का ही पर्याय आजकल बन गया है।
कहने को यह बहुत छोटा मुद्दा है, मगर शब्द ही हैं जिनके माध्यम से आपके बच्चों का भाषा से और धर्म से प्रथम परिचय होता है। उन्हें अंग्रेजी-निष्ठ और उर्दू-निष्ठ हिंदी के स्थान पर संस्कृतनिष्ठ हिंदी का अध्ययन कराने की आवश्यकता है। अंग्रेजी आपको स्वयं से घृणा करनी सिखाएगी और उर्दू आपकी मूल अवधारणाओं पर ही प्रहार करेगी। क्योंकि हर भाषा की उत्पत्ति उसके मत और पंथानुसार ही होती है।
बुद्धिजीवियों द्वारा भारत की नई पीढ़ी के साथ किए जा रहे षड्यंत्र का यह प्रथम बिंदु है।
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