दिनांक 7 जुलाई को हिंदी फिल्मों के अभिनेता युसूफ खान अर्थात दिलीप कुमार का देहांत हो गया। जैसा परम्परा है, निधन के पश्चात जैसा इन दिनों होता है, विवाद होने लगा। कुछ ने श्रद्धांजलि दी, तो कुछ लोग उन्हें पकिस्तान परस्त बताने लगे और बार बार यह कहने लगे कि वह जब गानों में हिन्दू भगवान का नाम लेते थे, तो उसके बाद नमाज पढ़ने जाते थे, क्योंकि वह उसे अपने मजहब के खिलाफ मानते थे।
इसके अलावा इमरान खान की तारीफ़ के कारण उनकी आलोचना की गयी, कारगिल युद्ध के दौरान उन्होंने पाकिस्तान के सबसे बड़े नागरिक सम्मान “निशान ए इम्तियाज़” को वापस नहीं किया था। और 1965 के युद्ध के समय उन पर यह आरोप लगा था कि उन्होंने पाकिस्तान की जासूसी की और उनके पास से पाकिस्तान के संपर्क वाला एक रेडियो ट्रांसमीटर मिला था। इससे पहले कलकत्ता में एक पाकिस्तानी जासूस की डायरी में उनका नाम आया था। इन दोनों ही मामलों को कहते हैं, सरकार की मदद से रफा दफा कर दिया था।
फिर लोगों ने कहा कि ऐसा कहा जाता है कि उन्होंने वर्ष नब्बे के दशक में फ्री लंच योजना शुरू की, जिसमें केवल मुसलमानों को ही खाना दिया जाता था, यद्यपि इस बात की पुष्टि नहीं हुई है। फिर भी यह कल से लोगों की आलोचना का आधार है। अब इस बात को लेकर कई प्रश्न उभरते हैं, और उसी समाज से उभरते हैं, जो कल से आलोचना कर रहा है।
यदि यह सभी बातें सत्य हैं तो प्रश्न कई हैं! प्रश्न हिन्दू समाज से है और गंभीर प्रश्न है। यदि युसूफ खान ने इतना गलत किया था, जो कानूनी रूप से गलत था तो किसी भी सरकार ने उन पर कार्यवाही क्यों नहीं की? और यदि मात्र पकिस्तान की तरफदारी करना अपराध है तो उन कश्मीरी नेताओं से अब तक बातचीत क्यों होती रही जिन्होनें खुलकर कश्मीर में अलगाववाद के बीज बोए? यदि दिलीप कुमार उफ़ युसूफ खान एक व्यक्ति के रूप में बुरे थे, और एक एक्टिंग अच्छी करते थे, तो भी यह प्रश्न है कि हम एक भी ऐसा एक्टर क्यों नहीं खोज पाए जो युसूफ खान को पीछे छोड़ दे!
और उन्हें पद्मविभूषण जब इस सरकार द्वारा दिया गया था, तो इस निर्णय पर किसने और क्या विरोध किया था? क्या जो लोग आज उन्हें देश द्रोही कह रहे हैं, उन्होंने अपनी सरकार से यह अनुरोध किया था कि वह एक देशद्रोही को पद्मविभूषण न दें? पर शायद ही ऐसी कोई अपील हुई थी
और सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न, यदि यह बात सत्य है कि वह हिन्दू भजन गाने के बाद प्रायश्चित रूप में नमाज पढ़ते थे तो ऐसा क्या कारण है कि एक भी हिन्दू कलाकार ऐसा क्यों नहीं बना पाए जो मुस्लिम मजहबी गाना गाने के बाद प्रायश्चित करे? क्यों कश्मीर के अलगाववादियों के सामने अपना दर्द कहने वाले अनुपम खेर को हिन्दू खुलकर अपना नहीं कह पाए? क्यों कथित खान तिकड़ी की फ़िल्में सुपरहिट बनाते रहे, और वह भी वह फ़िल्में जिनमें हिन्दुओं का मज़ाक था, हिन्दुओं की आस्था का अपमान था या फिर कहें धर्म का सीधा सीधा अपमान था।
किसी मुस्लिम एक्टर के मरने के बाद यह शोर अब बंद होना चाहिए कि वह इतना मजहबी था उतना मजहबी था। प्रश्न यह है कि कैसे हम उन लेखकों का खुलकर विरोध नहीं कर पाए जिन्होनें जनता द्वारा चुनी गयी सरकार का विरोध करते हुए अवार्ड वापसी जैसा नाटक किया? इस सरकार के ही कई प्रकाशनों में उस सोच के लोग कार्य कर रहे हैं, कि हिन्दू कट्टरपंथ बढ़ रहा है, जबकि ऐसा कुछ नहीं है!
प्रश्न यह है कि कोई प्रगतिशील लेखक या मुसलमान लेखक जो अपने मजहब की कट्टरता के बारे में न लिखकर हिन्दू धर्म के बारे में ही उलटा सीधा लिखता है, उसके खिलाफ सीधा सीधा यह क्यों नहीं हिन्दुओं की ओर से यह सन्देश दिया गया कि यह लिखना गलत है! जो विमर्श आज पैदा किया जा रहा है, क्या यह तथ्य पहले नहीं थे? पहले रहे होंगे तभी आज सामने आ रहे हैं, तो प्रश्न क्यों नहीं उठाए गए?
उनका विरोध करने से महत्वपूर्ण है कि, अपने नायकों को तैयार क्यों नहीं किया गया? अपने नायकों, अपने प्लेटफॉर्म, अपनी सामूहिक सोच विकसित करने की दिशा में कार्य क्यों नहीं किया गया? क्यों बार बार उस खेमे की ओर का तुष्टिकरण करने का प्रयास किया गया? और शत्रुता बोध? वह क्या होता है, उसके विषय में जानकारी क्यों नहीं दी गयी? ऐसे तमाम प्रश्न हैं, जो हिन्दू समाज का मुंह ताक रहे हैं।
कोई व्यक्ति गद्दार है, यह विमर्श तब उत्पन्न करने का क्या लाभ जब वह अपना सर्वस्व दे चुका है, जब वह अपनी एक्टिंग से प्रभाव उत्पन्न कर चुका है और जब वह अपना नैरेटिव पहले ही अपने नाम के द्वारा फिक्स कर चुका है। तो ऐसे में उसकी मृत्यु के समय या उसके दैहिक रूप से अप्रासंगिक होने के बाद विमर्श क्यों आरम्भ करना?
कितने हिन्दुओं ने अभिनेता अनुपम खेर को उस दर्द का प्रतिनिधित्व बनाने के लिए अपना साथ दिया, जो दर्द पूरे विश्व के पटल पर हिन्दुओं के साथ सदियों से होते आए अन्याय को उदाहरण के साथ स्थापित कर सकता था। कितने हिन्दुओं ने कश्मीरी हिन्दुओं की पीड़ा के रूप में अनुपम खेर को स्थापित करने का प्रयास किया या साथ देने का प्रयास किया?
और कितने लोग सोनू निगम का साथ देने आए, जब उन्होंने अजान माफिया के खिलाफ कुछ कहा। क्या उनका विरोध करने वालों में केवल मुस्लिम थे? नहीं! उनका विरोध कई प्रगतिशील लोगों ने यह कहते हुए किया कि भजन गाने वालों को अजान से समस्या, और फिर कई लोगों ने सोनू निगम की ही फटकार लगाई थी। लॉक डाउन के दौरान दुबई में फंसे हुए सोनू निगम को वर्ष 2017 के पुराने ट्वीट के माध्यम से कानूनी रूप में फंसाने की भी योजना बनाई गयी थी।
खान तिकड़ी न जाने कितने हिन्दुओं का कैरियर खा गयी, पर हिन्दू मिस्टर परफेक्शनिस्ट की एक्टिंग करने वाले आमिर खान की कथित परफेक्शन वाली फिल्मों में डूबा रहा और शाहरुख खान की एक फिल्म “मैं हूँ न” में हिन्दू राष्ट्रवाद और हिन्दुओं को देश का दोषी ठहराया गया है और फिर ताली बजवाई गयी हिन्दुओं से ही!
कितने लोगों ने अपनी ओर से पालघर में हुई साधुओं की लिंचिंग पर बनी फिल्म का प्रचार किया?
तो बार-बार यह आलोचना क्यों? कट्टर इस्लाम का तुष्टिकरण करती हुई हिंदी प्रगतिशीलता का विरोध समाज के स्तर पर बहुत पहले होना चाहिए था, परन्तु निंदा के माध्यम से नहीं, बल्कि वास्तविक प्रगतिशील नैरेटिव देकर और वह नैरेटिव केवल उस सनातन में है जिसने युसूफ खान को दिलीप कुमार के रूप में स्वीकार कर लिया था, पर युसूफ खान शायद दिलीप कुमार होने की एक्टिंग कर रहे थे, और दिल से कहीं दिलीप को उन्होंने स्वीकारा नहीं था
समय आ गया है कि हिन्दू पहचान के साथ एक मंच हो, जिसमें हिन्दू नैरेटिव का निर्माण हो, और उन्हें यह पता हो कि उनके लिए वास्तविक खतरा क्या है और उनका वास्तविक शत्रु कौन है? उनके मजहबी प्रेम से चिढ़ें नहीं स्वयं के नायकों का साथ दें, अपना नायक, अपना नैरेटिव बनाने और उनका साथ देने में इतनी हिचक क्यों है?
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