वर्ष 2002 में साबरमती एक्सप्रेस का कोच एस6 27 फरवरी को जला दिया गया था। जला इसलिए दिया गया था क्योंकि उसमें प्रभु श्री राम का ध्यान करने वाले कारसेवक बैठे हुए थे। उसे बहुत ही सुनियोजित तरीके से जला दिया गया था। कोई भी व्यक्ति उस वीभत्स दृश्य की कल्पना भी नहीं कर सकता है कि जब जिंदा लोग, जिनके जीवन में कुछ ही क्षण पहले सपने थे, जिनके जीवन में कुछ ही क्षण पहले जीवन की मुस्कान थी, वही लोग खुद को लपटों से घिरा हुआ पा रहे थे।
वह खुद को जलता हुआ देख रहे थे!
वह देख रहे थे कि उनके बच्चे, दुधमुंहे बच्चे जल रहे हैं। वह देख रहे थे कि कैसे क्रूर लोग उन्हें केवल डिब्बे में ही नहीं जला रहे थे बल्कि साथ ही वह बाहर भी हथियार लेकर खड़े थे। कैसे पूरा षड्यंत्र रचा गया, इस विषय में एक नहीं कई लोगों ने लिखा है। पत्रकार संदीप देव ने अपनी पुस्तक साज़िश की कहानी, तथ्यों की जुबानी, में बताया था कि कैसे इस षड्यंत्र की रूपरेखा बनाई गयी और एक पीड़िता की कहानी उन्होंने भी बताई है। गायत्री पंचाल के अनुसार 27 फरवरी की सुबह लगभग 8 बजे गाड़ी गोदरा स्टेशन से आगे बढ़ी। गाड़ी में सवार सभी कारसेवक रामधुन गा रहे थे। गाड़ी मुश्किल से 500 मीटर आगे गयी होगी कि अचानक रुक गयी। इससे पहले कि कुछ समझ पाता, पत्री के दोनों ओर से बड़ी संख्या में लोग हाथ में तलवार, गुफ्ती आदि लेकर गाड़ी की ओर भागे आ रहे थे। वे लोग गाड़ी पर पत्थर बरसा रहे थे। गाड़ी के अन्दर मौजूद लोग डर गए और उन्होंने खिड़की दरवाजे बंद कर लिए।
बाहर के लोगों की आवाज स्पष्ट सुनाई दे रही थी। वे लोग कह रहे थे “मारो-मारो” लादेन ना दुश्मनों ने मारो! और फिर भीड़ ने ट्रेन पर हमला कर दिया। हमलावरों ने खिड़की को तोड़ दिया। और बाहर से गाड़ी का दरवाजा बंद कर दिया, ताकि कोई भी बाहर न आ सके। उसके बाद उन्होंने गाड़ी के भीतर पेट्रोल उड़ेल कर आग लगा दी!”
ऐसा नहीं है कि मात्र गायत्री के बयान के आधार पर इतने सारे लोगों को सजा दी गयी होगी। पूरे 253 गवाहों और 1500 दस्तावेजों के आधार पर निर्णय दिया गया था।
यह घटना जितनी वीभत्स थी, उतनी ही विकृत थी इस पर होने वाली राजनीति। क्या इस बात की कोई कल्पना कर सकता है कि भारत में राजनीति का ऐसा भी दौर आएगा जिसमें जिंदा जल कर मर जाने वाले लोगों की पीड़ा को यह कहकर नकार दिया जाएगा कि यह आग तो उन्होंने स्वयं लगाई थी।
भारत में राजनीति का वह निकृष्ट रूप देखा, जो कोई भी सोच नहीं सकता था। मरने वाले चूंकि कारसेवक थे, तो यह आरोप लगाना विमर्श में न्याय ही था कि वह तो अपने आप जल गए, और चूंकि सेक्युलर राजनीति में हिन्दू होना और वह भी प्रभु श्री राम की पूजा करने वाला हिन्दू होना ऐसा अपराध है, जिसके लिए हर दंड छोटा है।
ऐसे में तत्कालीन रेल मंत्री ने एक ऐसा एक सदस्यीय आयोग बनाया, जिसने यह तक निष्कर्ष दे दिया कि यह आग दरअसल कहीं बाहर से नहीं लगी थी, बल्कि उसे तो भीतर से ही लगाया गया था। यह कृत्य यूपीए सरकार के प्रथम कार्यकाल के मध्य किया गया था एवं संभवतया यह एक ऐसे तुष्टिकरण के लिए किया था, जिसकी तुलना विश्व इतिहास में भी कहीं नहीं मिलेगी!
तत्कालीन रेल मंत्री लालू प्रसाद यादव द्वारा जस्टिस यूसी बनर्जी के एक सदस्य वाले आयोग का गठन किया गया, जबकि उस समय राज्य सरकार द्वारा गठित आयोग जांच कर ही रहा था। परन्तु फिर भी मुस्लिम वोटों के लालच में यह कदम उठाया गया था, वह बात दूसरी है कि उसे गुजरात उच्च न्यायालय द्वारा अवैध घोषित कर दिया गया था। फिर भी यह एक ऐसी राजनीतिक दलाली थी, जिसकी कहीं भी अन्यत्र तुलना नहीं है!
विमर्श के स्तर पर उन तमाम पीड़ाओं को नकारने की जघन्य घटना कहीं भी नहीं दिखती है एवं संवेदनहीनता की पराकाष्ठा इस सीमा तक थी कि हमारी नई पीढी अर्थात विद्यार्थियों को आधिकारिक रूप से पिछले वर्ष तक यही पढ़ाया जा रहा था कि यह आग अपने आप लगी थी, जबकि इस सम्बन्ध में निर्णय वर्ष 2011 में ही आ गया गया, फिर भी यह पिछले वर्ष तक पढ़ाया जाता रहा था।
और जब इसे भारत सरकार द्वारा हटाया गया तो सेक्युलर राजनीतिक दलों ने हंगामा किया था! ऐसे में इनसे यह पूछा जाना चाहिए था कि आखिर वह लोग क्यों चाहते हैं कि बच्चे झूठ पढ़ते रहें, क्यों वह न्यायालय द्वारा प्रमाणित तथ्यों को नकार कर बच्चों के मस्तिष्क में विष भरना चाहते हैं?
यद्यपि यह पिछले वर्ष पाठ्यक्रम से हटा दिया गया है, परन्तु फिर भी यह संवेदनहीनता की वह परत भारत की युवा पीढी के कुछ लोगों के भीतर उत्पन्न कर गया, जिसके लिए गोधरा काण्ड ऐसी घटना है, जिस पर हंसा भी जा सकता है, जैसा कॉमेडियन कहे जाने वाले मुनव्वर फारुकी द्वारा जलती हुई ट्रेन के डिब्बे को बर्निंग ट्रेन फिल्म कहते हुए उपहास का विषय बनाया जा सकता है और इस पर कहकहे भी लगाए जा सकते हैं।
आज जब इतने वर्षों बाद भी बीबीसी गुजरात में हुए दंगों पर डॉक्यूमेंट्री बना सकती है, परन्तु आज भी गोधरा में मारे गए उन परिवारों पर बात करना भी कोई गवारा नहीं समझता।
जो विमर्श है वह यह नहीं कह सकता है कि उन परिवारों की पीड़ा को भी कहा जाए, उन जलती हुई देहों पर कुछ बात की जाए, उन सपनों के विषय में जाना जाए जो उस घृणा की आग में जल गए थे, जो उनके धर्म को लेकर किसी के दिल में न जाने कब से पनप रही थी।
दुर्भाग्य से विमर्श में आज तक कुप्रचार ही जीतता आया है और आज तक उस पीड़ा को स्थान मिलना शेष है, जो सदियों से हिन्दुओं के हृदय में धंसी हुई है और साबरमती एक्सप्रेस के एस6 कोच में लगी आग उसका विस्तार थी एवं विमर्श में उस आग पर चुप्पी घृणा का विस्तार है।