आज महाराष्ट्र की राजनीति में एक बहुत बड़ा उलटफेर हुआ है, पिछले कई दिनों से चल रहे घटनाक्रम और उद्धव ठाकरे के त्यागपत्र देने के पश्चात आज तमाम समीकरणों को ध्वस्त करते हुए एकनाथ शिंदे ने मुख्यमंत्री पद की शपथ ले ली। पहले यह माना जा रहा था कि देवेंद्र फडणवीस ही मुख्यमंत्री बनेंगे, लेकिन आज उन्होंने घोषणा कर दी कि एकनाथ शिंदे यह दायित्व संभालेंगे और भाजपा उनका समर्थन करेगी। इसी के साथ देवेन्द्र फडणवीस ने उपमुख्यमंत्री की शपथ ली ।
यूं तो यह रस्साकशी बहुत पहले से चल रही थी एवं महाविकास अघाड़ी सरकार ऐसी पार्टियों की सरकार थी, जिनमें परस्पर वैचारिक मतैक्य नहीं था। जो दल वैचारिक अर्थात हिंदुत्व के विचार पर एक थे, वह परस्पर अलग हो गए थे। यह एक ऐसा द्वन्द था जिसमें शिवसेना के कई ऐसे नेता फंसे हुए थे, जिन्हें अभी आगे हाल ही में कई चुनावों में सामने जाना है। ऐसे में शिवसैनिकों को हिंदुत्व अर्थात अपनी जड़ों की ओर वापस आना ही उचित प्रतीत हुआ होगा।
भारत में हिंदुत्ववादी राजनीति कई दशकों से चलती आ रही है, और इसमें हिंदू ह्रदय सम्राट बालासाहेब ठाकरे द्वारा वर्ष 1966 में स्थापित शिवसेना का नाम प्रमुखता से लिया जाता है । शिवसेना कुछ गिने चुने राजनीतिक दलों में मानी जाती थी, जिन्होंने कभी अपनी मूल विचारधारा से समझौता नहीं किया। शिवसेना ने कभी भी सत्ता को लेकर लालच नहीं दिखाया, लेकिन यह हमेशा से महाराष्ट्र में एक किंगमेकर की भूमिका निभाती रही है।
परन्तु यह भी कहा गया है कि परिवर्तन प्रकृति का नियम है एवं सत्ता के लिए कोई वैचारिकी नहीं होती, तो ऐसे में क्या यह संभव था कि शिवसेना बची रहती? शिवसेना भी बदल गयी, उसने अपनी मूल विचारधारा के विपरीत जा कर कांग्रेस और एनसीपी के साथ गठबंधन कर सत्ता पर कब्ज़ा किया। कट्टर हिंदूवादी विचारधारा को प्रश्रय देनी वाली शिवसेना उद्धव ठाकरे एवं संजय राउत के हाथों में आकर एक ऐसे जाल में फंसी कि अब उसके अपने ही दल में टूट पड़ गयी तथा ठाकरे गुट को ही शिवसेना और उसके चुनाव चिह्न के लाले पड़े हैं।
उद्धव ठाकरे की मुख्यमंत्री पद की लालसा ने उन्हें सत्ता तो दिला दी, लेकिन साथ ही शिवसेना को पतन के पथ पर अग्रसरित भी कर दिया। इस गठबंधन की सरकार ने शिवसेना को जहाँ सैंकड़ो तरह के वैचारिक समझौते करने पर विवश कर दिया, जिससे दल के समर्थक भी वैचारिक शून्यता को प्राप्त हो गए। य
शिवसेना के वैचारिक पतन और हिन्दू विरोधी निर्णय जो उसके पतन के कारण बने
यूं तो शिवसेना ने भाजपा के साथ गठबंधन बना कर कई बार सरकार बनाई है, दोनों दलों के बीच थोड़ी बहुत नोकझोंक होती रहती थी, जो एक सामान्य सी बात है, लेकिन फिर भी दोनों दलों के बीच हिंदुत्व ही ऐसी शक्ति थी जो उन्हें जोड़ कर रखती थी। परन्तु जबसे शिवसेना महाविकास अघाड़ी का भाग बनी, उसका रंग ढंग ही बदल गया, और एक कट्टर हिंदुत्ववादी दल एक छद्म सेक्युलर दल में परिवर्तित हो गया।
कुछ निर्णय शिवसेना के बहुत ही अलोकप्रिय रहे, या कहें ऐसे रहे कि जिनके चलते उनका कट्टर समर्थक ही ठगा रह गया, उसे ऐसा लगा जैसे उसे किसी ने छल लिया हो :
- शिवसेना ने हिन्दू आतंकवाद शब्द की पोषक कांग्रेस के साथ गठबंधन किया।
- एनसीपी, जो हिन्दू विरोधी तत्वों और इस्लामिक आतंकवादी (दाऊद इब्राहिम) से करीबी सम्बन्ध रखती है, उसके साथ गठबंधन किया।
- पालघर में हिन्दू साधुओं की नृशंस हत्या पर शिवसेना सरकार ने कोई कार्यवाही नहीं की। जो हत्या खुलेआम कैमरा के सामने की गयी, उसके अधिकाँश आरोपियों को जमानत पर छोड़ दिया गया। महाराष्ट्र सरकार और पुलिस की भूमिका इस विषय में बहुत संदिग्ध थी।
- इस्लामिक देशो से भगाये गए धार्मिक अल्पसंख्यकों को भारत की नागरिकता देने वाले “नागरिकता संशोधन कानून” का शिवसेना ने राज्यसभा में कड़ा विरोध किया, जबकि कुछ ही दिन पूर्व वह लोकसभा में इसका समर्थन कर चुकी थी।
- उद्धव सरकार ने राज्य में गरीब वर्ग के हिन्दुओ का आरटीई कानून में निहित कोटा ख़त्म कर दिया था। इस कारण लाखो गरीब हिन्दू बच्चे शिक्षा से दूर हो गए।
- हिन्दुओं के विरुद्ध खुलकर खड़ी होने वाली ओवैसी की एआईएमआईएम के साथ शिवसेना ने निकाय चुनावों के लिए गठबंधन किया।
- नवाब मलिक जैसे मंत्री का समर्थन किया, जिसके सम्बन्ध इस्लामिक आतंकवादियों से हैं।
- वर्ष 2015 में जब जैन समुदाय के पवित्र पर्यूषण पर्व पर चार दिनों की मांस की बिक्री पर रोक लगाई गयी थी तो यह शिवसेना ही थी जिसने जैन संतों को यह चेतावनी दी थी कि वह स्वयं को काबू में रखें!
- यह शिवसेना ही थी, जिसने सोशल मीडिया पर पोस्ट करने पर कई हिन्दुओं का शोषण किया।
शिवसेना ने ना सिर्फ हिन्दू अहित के कार्य किये, बल्कि उन्होंने हर निर्णय का बेशर्मी से समर्थन भी किया। यही कारण था कि धीरे धीरे शिवसेना के कैडर में ही असंतोष उत्पन्न हो गया, और आज उनसे सत्ता छीन ली गयी है। कहते हैं पीड़ित का श्राप लगता है, क्या आप भूल सकते हैं पालघर के साधुओं की कातर आँखों को, जो अपने जीवन बचाने की विनती कर रही थी। क्या आप भूल सकते हैं उन लाखों हिन्दू कामगारों को, जिन्हे रातो रात मुंबई छोड़ भागना पड़ा?
यह कहा जा सकता है कि एक ऐसा गठबंधन अपने स्वाभाविक अंत की ओर पहुंचा है जो पूर्णतया अस्वाभाविक था, अप्राकृतिक था एवं सहज प्रवृत्तियों से दूर विकृतियों को समेटे हुए था!