पालघर में साधुओं के साथ हुई लिंचिंग के मामले में जमानत मिलने का सिलसिला जारी है। 16 अप्रेल 2020 को हुए इस जघन्य हत्याकांड में लगभग 251 आरोपितों को हिरासत में लिया गया था, जिन्होनें दो साधुओं एवं उनके ड्राइवर को पीट पीट कर मार डाला था। अब पूरे दो साल होने को हैं, धीरे धीरे ऐसा लग रहा है कि लोग इसे भूलते जा रहे हैं एवं साथ ही इस मामले में न्याय पाने की आशा भी धूमिल होती जा रही है।
पिछले वर्ष जब इस हत्याकांड को एक वर्ष हुआ था, तब तक उन 251 में से 181 लोगों को जमानत मिल चुकी थी। दिल दहला देने वाली इस घटना में दो साधुओं सहित तीन लोगों की जान गयी थी। 500 से अधिक लोगों की भीड़ ने उन तीनों को घेरकर मार डाला था। सबसे अधिक हैरान करने वाला तथ्य तो यही है कि पुलिस ने भी उन्हें बचाने के स्थान पर उन्हीं हत्यारों की भीड़ को सौंप दिया था।
महाराष्ट्र में पालघर में जहाँ पर यह घटना हुई थी, वहां पर इस बात का दावा किया गया था कि लोगों ने बच्चा चोर समझकर हमला कर दिया था। क्योंकि वहां पर ऐसी अफवाह फ़ैली थी कि आसपास कुछ तस्कर घूम रहे हैं, जो किडनियों की चोरी करते हैं और उन्हें खरीदते बेचते हैं। और इसी कारण उन्होंने उन साधुओं पर हमला कर दिया था तथा उन्हें मौत के घाट उतार दिया था। परन्तु यह बात नहीं समझ आती है कि यदि उन्हें इस बात का भय था कि यह लोग तस्कर हो सकते हैं, तो उन्हें पुलिस के हवाले न करके पुलिस के सामने ही पीट पीट कर मौत के घाट उतार दिया?
क्या यह घृणा भगवा वस्त्रों से थी? या फिर वास्तव में ही तस्करी जैसी घटनाएं हुई थीं? यदि तस्करी जैसी घटनाएँ हुई होतीं तो यह पुलिस का उत्तरदायित्व था कि वह उन्हें जिंदा हिरासत में लेकर यदि कोई गैंग आदि था तो उसका पता लगाती और यदि साधुओं को मारने वाले भी मात्र तस्करी से ही जुड़े होते तो उनका उद्देश्य भी इस तस्करी के गैंग को पकड़वाने को लेकर होता, परन्तु ऐसा कुछ भी नहीं हुआ था। हुआ था यह कि दोनों साधुओं एवं उनके ड्राइवर को घेर कर पीट पीट कर मार डाला था।
जून 2021 में भी कुछ आरोपितों को मिली थी जमानत
पालघर में हुए इस हत्याकांड में जून 2021 में भी 14 आरोपितों को जमानत दे दी थी और उस समय यह समाचार था कि 18 ऐसे लोगो को जमानत नहीं मिली है, जो इस घृणित कार्य में संलग्न थे।
अब मुम्बई उच्च न्यायालय ने 18 लोगों में से १० आरोपितों को जमानत दे दी है और 8 लोगों की जमानत याचिका को निरस्त कर दिया है।
न्यायालय ने जमानत देते हुए कहा कि वह लोग वहां पर उपस्थित तो हैं, परन्तु वह हमला नहीं कर रहे हैं। अत: उनकी जमानत याचिका को स्वीकार किया जाता है। तो वहीं शेष आठ लोगों को मृत साधु पर हमला करते हुए देखा जा सकता है, अत: उनकी याचिका निरस्त की जाती है।
धीरे धीरे जनता की स्मृति से ओझल हो रहा है यह मामला
ऐसा प्रतीत होता है कि हिन्दू साधु संतों की मृत्यु का मामला इस देश में बहुत अधिक मायने नहीं रखता ही। या इससे अब बहुत अधिक लोगों को अंतर भी नहीं पड़ता कि साधुओं को न्याय मिलता है या नहीं। हमने उत्तर प्रदेश में भी देखा था कि कैसे निहत्थे कारसेवकों पर गोली चलाने वाली समाजवादी पार्टी की सरकार ने शान से उसी प्रदेश में सरकार बनाई थी जहाँ पर निहत्थे कारसेवकों का खून बहा था। अखिलेश यादव की सरकार ने तो मुस्लिम तुष्टिकरण के चलते न केवल कुम्भ मेले का प्रभारी आज़म खान को बनाया था बल्कि वर्ष 2013 में अयोध्या में ८४ कोसी यात्रा पर भी रोक लगा दी थी। इस पर भी विवाद हुआ था एवं विश्व हिन्दू परिषद के नेता श्री अशोक सिंघल ने यह कहा था कि सपा प्रमुख मुलायम सिंह यादव की पार्टी में कुछ ऐसे जेहादी तत्व शामिल हैं जो हिंदू समाज के साथ शांति से रहने के पक्षधर नहीं हैं। उन्हीं जेहादियों के तुष्टिकरण के लिए सपा सरकार ने इस यात्रा की मंजूरी नहीं दी।“
परन्तु हमने उत्तर प्रदेश चुनावों में देखा था कि कैसे वही अखिलेश यादव स्वयं को हिन्दू प्रमाणित करने के लिए मंदिर मंदिर जा रहे थे?
प्रश्न यह उठता है कि क्या हिन्दू साधु संत मात्र चुनावी मामले हैं या फिर वास्तव में उनका आदर राजनीतिक दल करते हैं? यह प्रश्न इसलिए उठता है कि पालघर में हुए इस हत्याकांड को लेकर एक गहरी चुप्पी सी है। धीरे धीरे सारे आरोपी छूटते जा रहे हैं। और इनके छूटने पर भी कोई हलचल नहीं है।
हालांकि पिछले वर्ष अवश्य जून अखाड़ा के स्वामी अवधेशानंद ने यह मांग की थी कि जैसे सुशांत सिंह राजपूत की मृत्यु में कोई कार्यवाही नहीं की गयी है, वैसे ही पालघर में साधुओं की हत्या पर भी कोई ठोस कदम नहीं उठाया गया है, अत: धार्मिक संगठनो की मांग है कि इस जांच को सीबीआई के हवाले कर दिया जाए:
इस उपेक्षा के लिए कौन है उत्तरदायी?
एक और प्रश्न उठता है कि आखिर इस हद तक उपेक्षा के लिए उत्तरदायी कौन है? आखिर साधु संतों की जो लिंचिंग होती है, उस पर मुखरता से आवाज क्यों नहीं उठती है? ब्लैक लाइव मैटर्स पर भारत में तहलका मच जाता है और अपने ही देश में निरीह साधुओं को मार डाला जाता है, उन पर चुप्पी छाई रहती है? इसका कारण कहीं न कहीं तो कुछ है!
कहीं इसका कारण हमारे साहित्य, फ़िल्में और यहाँ तक कि हमारी पाठ्यपुस्तकें नहीं हैं? क्या फिल्मों में साधुओं को खलनायक नहीं दिखाया जाता?

और हाल ही में हमने देखा था कि कैसे आईएएस की तैयारी कराने वाली कोचिंग संस्थाएं भी ब्राह्मणों के प्रति घृणा का प्रचार प्रसार कर रही हैं,
कई वीडियो सामने निकलकर आए थे, जिनमें मुगलों को महान और हिन्दुओं को पिछड़ा बताया था। हम समाजशास्त्र की पुस्तकों में भी देखते हैं कि कैसे एक बड़े वर्ग को निशाना बनाया जाता है, यही कारण है कि अखलाक की लिंचिंग पर लोग फूट पड़ते हैं और पालघर में साधुओं की लिंचिंग को वही लोग सही ठहराते हैं। कहते हैं कि बच्चा चोरी की अफवाह के कारण भीड़ भड़क गयी थी!
यह देखना होगा कि इस मामले में निर्णय कब तक आता है! क्योंकि न्यायालय ही अब अंतिम आस हैं!