पालघर में हुए साधुओं के हत्याकांड मामले में 14 आरोपियों को थाणे की एक अदालत ने मंगलवार 30 जून 2021 को जमानत प्रदान कर दी। हालांकि अभी न्यायालय ने 18 और उन लोगों को जमानत नहीं दी है, जो इस घृणित कार्य में संलग्न थे।
अप्रेल 2020 में महाराष्ट्र के पालघर जिले में दो साधुओं और उनके ड्राइवर की पीट पीट कर भीड़ ने हत्या कर दी थी, जिसमें वीडियो में यह देखा गया था कि पुलिस ही बार बार उन्हें भीड़ के हवाले कर रही है। जूनागढ़ अखाड़े से जुड़े साधुओं के साथ हुई इस जघन्य घटना में धीरे धीरे ऐसा लग रहा है जैसे सभी को जमानत मिलती जा रही है।
परन्तु उससे भी अधिक हैरान करने वाला है, आम जनता में इस मामले को लेकर कोई शोर न होना। इतना ही नहीं साधुओं के साथ होने वाले किसी भी अत्याचार पर हमें फर्क नहीं पड़ता, और इसे मात्र क़ानून व्यवस्था की बात कहकर हिन्दू समाज टाल देता है। ऐसा क्यों होता है कि साधुओं के साथ हुई लिंचिंग की बात हिन्दू परिवार में चर्चा का हिस्सा नहीं बन पाती है, और यही कारण है कि जहाँ एक मुस्लिम चोर की मृत्यु का मामला अंतर्राष्ट्रीय मामला बन जाता है और साधुओं का मामला संदिग्ध बन जाता है।
यदि इसके मूल में जाएं, तो कई कारण प्राप्त होते हैं, परन्तु सबसे बड़ा कारण कहीं हमारी शिक्षा व्यवस्था ही दिखाई देती है। कहने में यह बात कुछ विरोधाभासी प्रतीत होती है, परन्तु यह बात कहीं न कहीं सत्य प्रतीत होती है कि हमारे बच्चों को शिक्षा ही ऐसी प्रदान की जाती है, जो उसे उसके धर्म से दूर ले जाती है। ऐसा लगता है जैसे आधुनिक शिक्षा व्यवस्था ने हिन्दुओं के साथ अन्याय किया है।
और यह शिक्षा व्यवस्था कहाँ से रूप ले रही है, वह भी देखना होगा, क्या वैधानिक रूप से ही हिन्दुओं के साथ अन्याय हो रहा है?
संविधान की कुछ धाराएं भी क्या इसके लिए उत्तरदायी हैं?
एक बहुत बड़ा प्रश्न फिर उभर कर आता है कि क्या संविधान की कुछ धाराएं हिन्दुओं को कम अधिकार देती हैं और अल्पसंख्यकों को अलग? पिछले दिनों भारत के संविधान की धारा 30 पर बहुत बहस हुई थी और यह कहा गया था कि यह धारा मुस्लिमों को तो यह अधिकार देती है कि वह अपनी मजहबी तालीम जारी रख सकते हैं, पर हिन्दू गीता, या रामायण स्कूलों में नहीं पढ़ा सकते हैं। और यही कारण है कि मुस्लिमों के छोटे बच्चे कुरआन के विषय में जानते है, यहाँ तक कि हिन्दू बच्चे भी कुरआन, बाइबिल आदि के विषय में जानते हैं, परन्तु प्रभु श्री राम और महादेव आदि के विषय में नहीं। और जब जानता है तो ऐसे धर्म के रूप में जो बेहद पिछड़ा है, जिसे सुधारने के लिए कई सुधारक आए!
भारत के संविधान की धारा 30 अल्पसंख्यकों के अधिकारों के बारे में है। इसमें कहा गया है कि
सभी अल्पसंख्यक, फिर चाहे वह भाषा या धर्म के आधार पर अल्पसंख्यक हों, उनके पास यह अधिकार है कि वह अपने अनुसार शैक्षणिक संस्थानों को स्थापित कर सके और उनका प्रशासन कर सके।
और इसमें लिखा है कि सरकार को भी शैक्षणिक संस्थानों को अनुदान देते समय इस आधार पर भेदभाव नहीं करना चाहिए कि वह संस्थान किसी अल्पसंख्यक के प्रबंधन के अंतर्गत है या नहीं!
इसके साथ धारा 26 भी हिन्दुओं के साथ अन्याय करती हुई प्रतीत होती है, इसमें अल्पसंख्यकों के धार्मिक अधिकारों, नैतिकता और स्वास्थ्य आदि के विषय में स्पष्ट किया गया है। अल्पसंख्यकों के पास अधिकार है कि वह
- धार्मिक एवं दान के उद्देश्यों के लिए संस्थानों की स्थापना कर सके और उनका रखरखाव कर सके
- धर्म के सम्बन्ध में अपने मामलों का प्रबंधन कर सकें
- चल और अचल संपत्ति के स्वामी बन सकें और प्राप्त कर सकें
- और क़ानून के अनुसार ऐसी संपत्ति का प्रशासन कर सकें
परन्तु संविधान में बहुसंख्यक के धार्मिक अधिकारों के विषय में ऐसा कुछ स्पष्ट नहीं हैं। बल्कि हिन्दुओं के धार्मिक स्थलों की संपत्ति का अधिग्रहण का भी अधिकार दे दिया है। धारा 31 (ए) के अंतर्गत सरकार के पास यह अधिकार है कि धार्मिक संस्थानों, न्यासों का अधिग्रहण हो सकता है। परन्तु यह अधिग्रहण केवल हिन्दुओं के मंदिरों का ही हुआ। किसी भी मस्जिद या गुरुद्वारे का प्रबंधन सरकार के हाथ में नहीं है।
परन्तु न्यायालय में भी बार बार हिन्दुओं के मंदिरों की आस्थाओं को लेकर प्रश्न जाते रहे, याचिकाएं जाती रहीं और न्यायालय मनमाने निर्णय संविधान की धाराओं के आधार पर देते रहे। साबरीमाला मंदिर के निर्णय को कौन भूल सकता है? जिसमें इस बात को तनिक भी महत्व नहीं दिया गया कि धार्मिक संस्था के अपने विश्वास हो सकते हैं, कुछ आस्थाएं हो सकती हैं, कुछ नियम हो सकते हैं, पर नहीं, कुछ नहीं सुना गया और समानता का सिद्धांत लागू किया जाने लगा।
वह हालांकि एक मामला था, परन्तु बार बार हिन्दू धर्म के साथ ही सरकार एवं न्यायालय के स्तर पर भेदभाव होता गया और किया गया। यहाँ तक कि कांची पीठ के शंकराचार्य को दीपावली की रात में एक ऐसे क़त्ल के आरोप में हिरासत में लिया गया था, जिससे उन्हें बाद में बरी कर दिया गया था।
मजे की बात यह है कि किसी भी अनियमितता, कथित सामाजिक न्याय के नियम किसी भी अल्पसंख्यक धार्मिक संस्थान पर लागू नहीं होते हैं, या कहा जाए कि लागू नहीं किए जा सकते हैं।
जब संवैधानिक स्तर पर ही हिन्दुओं के साथ दोयम दर्जे का व्यवहार किया जा रहा है, तो पालघर हत्याकांड में धीरे धीरे जमानत का सिलसिला इसी प्रकार चलता रहेगा और इस मामले में जब निर्णय आएगा तो शायद किसी को कुछ प्रभाव ही न पड़े! क्योंकि संवैधानिक स्तर पर हिन्दुओं के मंदिरों, संस्थानों आदि का नियंत्रण तो सरकार के पास है, मजेदार बात यह है कि संविधान में यह अवश्य कहा गया है कि अल्पसंख्यक रिलिजन को धार्मिक संस्थान चलाने का अधिकार तो है, मगर अनियमितताओं को लेकर उन्हें कोई छूट नहीं मिली है, पर राज्य कोई कदम नहीं उठाते हैं।
जिस धर्म के साथ संवैधानिक स्तर पर ही भेदभाव किया जा रहा हो तो उसके मानने वालों में भी स्वयं के धार्मिक अधिकारों के प्रति उपेक्षा आरम्भ हो जाती है। यही उपेक्षा है जो बार बार साधुओं की मृत्यु के प्रति उदासीन करती है और जब मारने वालों को जमानत दे दी जाती है तो भी इसे नियति ही मान लेते हैं।
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