(प्रतीकात्मक चित्र)
भारत अंग्रेजों से स्वतंत्रता पाने का अपना आजादी का अमृत महोत्सव मना रहा है और ऐसे में कई आयोजन भी हर स्थान पर हो रहे हैं। स्पष्ट है कि आज 9 अगस्त को जब लोग भारत छोड़ो आन्दोलन के 80 वर्ष आदि भी मना रहे हैं और यह भी स्पष्ट है कि चरखे से मिली आजादी का भी शोर मच रहा है, ऐसे में चुपके से बहुत आवश्यकता है कि उन सभी महिलाओं के चेहरे के विषय में भी बात की जाए, जिन्होनें बिना किसी अपेक्षा के स्वतंत्रता के इस यज्ञ में अपने जीवन, अपने सुख आदि की आहुति दे दी थी।
आजादी के अमृत महोत्सव में क्या उनका उल्लेख नहीं होना चाहिए? क्या ऐसी महिलाऐं, जिन्होनें इस आजादी के लिए ही सब कुछ बलिदान कर दिया, उनके विषय में इसलिए बात नहीं होनी चाहिए क्योंकि कथित अहिंसा का विमर्श कमजोर होता है या फिर यह विमर्श कमजोर होता है कि अंग्रेज रहमदिल थे और वह अपने आप ही चले गए थे?
आज कहानी वर्ष 1906 में कलकत्ता में जन्मी शोभारानी दत्त की। उनके पिता श्री जतीन्द्र नाथ दत्त एक प्रख्यात कांग्रेसी थे और साथ ही माता लावण्या प्रभा दत्त भी राजनीतिक रूप से सक्रिय थीं। कुल मिलकर कहा जाए तो वह एक राजनीतिक चेतना संपन्न परिवार से थीं।
एक और मिथक इनके जीवन से टूटता है कि बार-बार यह कहा जाता है कि भारत में हिन्दू स्त्रियों के पास आजादी नहीं थी, उन्हें दबाया जाता था आदि आदि, तो हिन्दूपोस्ट में कई बार ऐसे मिथकों का खंडन किया जा चुका है। शोभा रानी दत्त, भी ऐसी ही महिला थीं, जिन्होनें स्वतंत्रता आन्दोलन में जमकर हिस्सा लिया और जिनके जीवन का ध्येय ही स्वतंत्रता था।
उन्होंने 16 वर्ष की उम्र में ब्रह्म गर्ल्स स्कूल से प्रशिक्षण किया और फिर वह लाला लाजपत राय के विचारों से प्रभावित होकर पंजाब चली गईं थीं और फिर वर्ष 1930 में उनका परिचय क्रांतिकारी नेता हरिकुमार चक्रवर्ती के साथ हुआ, और जिसके कारण उनका झुकाव क्रांतिकारियों की ओर हो गया। उन्होंने अपनी माँ से मिलकर वर्ष 1930 में ही आनंद मठ नामक प्रतिष्ठान की स्थापना की और उसके बाद वह नमक सत्याग्रह में भी सम्मिलित हुईं।
और फिर वह कई प्रकार से इस आन्दोलन में सक्रिय हो गईं, जैसे जुलूसों में भाग लेना, जैसे विदेशी वस्तुओं और शराब की दुकानों पर धरने देना आदि।
और उन्हीं दिनों डलहौजी स्क्वेयर काण्ड में पुलिस कमिश्नर पर आक्रमण के बाद दिनेश मजूमदार, अनुज सेन, मनोरंजन राय आदि फरार चल रहे थे तो यह शोभा रानी ही थीं, जिन्होनें उन्हें अपने घर में शरण दी थी। और यह वही थीं जो उन्हें अपनी गाड़ी में सुरक्षित करके पटुरिया गाँव तक पहुंचा दिया था।
उन्हें इसी बमकांड के सिलसिले में गिरफ्तार किया गया, परन्तु चूंकि पुलिस के पास कोई प्रमाण नहीं था तो उन्हें छोड़ दिया गया। 8 मई 1934 के लेबंग काण्ड के बाद फिर से जब उज्ज्वला मजूमदार फरार हुए तो शोभा रानी दत्त ने ही फिर से उन्हें शरण दी। फिर दस दिनों बाद फिर से पुलिस ने उनके घर पर छापा मारा और उन्हें उनकी सहेली के साथ गिरफ्तार कर लिया।
यातनाएं ऐसी दी गईं कि उनका मानसिक संतुलन खो गया
अब उनके कष्ट के दिन आरम्भ हुए। उन्हें अब यातनाएं दी जानें लगीं थीं। उनसे कहा गया कि वह अपने साथियों का नाम बताएं, उनसे कहा गया कि वह अपने राज बताएं। परन्तु उन्होंने यातनाएं सहना स्वीकार किया, न कि अपने साथियों के विषय में बताना।
सबसे दुखद यह हुआ कि इतनी यातनाओं के मध्य उनका मानसिक संतुलन खो गया था। और उसके बाद उन्हें जेल से ही मानसिक चिकित्सालय रांची भेजा गया। फिर जब वह ठीक हो गईं तो भी उन्हें रिहा नहीं किया गया, और उन्हें जेल भेज दिया गया।
अंतत: वर्ष 1935 में उनकी रिहाई हो सकी।
फिर भी ऐसा नहीं हुआ कि उनका स्वास्थ्य वापस आ पाता और बहुत लम्बी बीमारी के बाद वर्ष 1950 में उनका देहांत हो गया।
हाँ, एक बात उनके साथ यह अच्छी थी कि चूंकि वह क्रांतिकारियों की सहायता के लिए सदा तत्पर रहा करती थीं और उन्होंने मुंह भी नहीं खोला था, तो उनके साथ सभी वह लोग जिनकी उन्होंने सहायता की थी, दिल से जुड़े रहे। वह उनकी रिहाई के बाद उनसे मिलने आते रहे और राजा महेद्र प्रताप का विशेष आशीर्वाद उन्हें प्राप्त रहा। लम्बी बीमारी में यह साथ उन्हें मिलता रहा।
परन्तु जब आजादी का अमृत महोत्सव मनाया जा रहा है तो यह बात बार-बात कचोटती है कि आखिर इन सभी महिलाओं के समग्र योगदान पर बात क्यों नहीं होती है? क्यों उन कष्टों पर बात नहीं होती है जो हमारी महिलाओं ने स्वतंत्रता आन्दोलन के दौरान झेला, क्या मात्र इस कारण कि इससे हिन्दू महिलाओं में उस झूठे इतिहास के प्रति वितृष्णा जागृत होती जिसमें उन्हें उनके अस्तित्व के प्रति घृणा करना ही सिखाया गया था?
(स्रोत- क्रांतिकारी महिलाएं-आशा रानी व्होरा)