विवेक अग्निहोत्री की कश्मीर फाइल्स फिल्म जहाँ दिन प्रतिदिन सफलता के नए प्रतिमान बनाती जा रही है तो वहीं अब उस पर कथित बौद्धिकों का कहर टूट पड़ा है। बस यही प्रमाणित करने का प्रयास किया जा रहा है कि यह मुस्लिमों के प्रति हिन्दुओं की घृणा का प्रदर्शन करती है और मुस्लिमों के प्रति घृणा को बढाती है। कई फिल्म आलोचक यह लिख रहे हैं कि विवेक अग्निहोत्री ने वह रेखा पार कर ली है, जो अभी तक फिल्म इंडस्ट्री की पहचाना थी। अर्थात एक संतुलन बनाकर रखा जाता था। कोई न कोई सेक्युलर मुस्लिम को दिखा कर एक समुदाय के प्रति गुस्से को नहीं भड़काया जाता था। जैसे गदर फिल्म में अनिल शर्मा ने एक गांधीवादी मुस्लिम का चरित्र रखा, जैसे पहले होता आया था।
फिल्म के कथित आलोचकों का कहना है कि यह तानाबाना विवेक अग्निहोत्री ने तोड़ दिया, और मुस्लिमों के प्रति नफरत भर दी! यह हैरान करने वाली बात है क्योंकि इस फिल्म में किसी अच्छे मुस्लिम को नहीं दिखाया, जबकि हत्याएं तो उनकी भी हुई थीं। यह बात ठीक है कि हत्याएं मुस्लिमों की भी हुई थीं, परन्तु उनकी हत्याओं और हिन्दुओं की हत्याओं के कारणों में जमीन आसमान का अंतर था। जितने भी मुस्लिम मारे गए थे उनमें से अधिकाँश वह थे जो कहीं न कहीं और किसी न किसी कारण भारत सरकार या जम्मू कश्मीर सरकार के भारतीय पक्ष से जुड़े थे। उनकी हत्याएं जातिविध्वंस के इरादे से नहीं हुई थीं।
उनकी हत्याएं इसलिए नहीं हुई थीं कि वह चले जाएं, और उनकी औरतें यहीं रह जाएं। जिन मुस्लिमों ने भारत सरकार के प्रति अपनी पक्षधरता का प्रदर्शन किया, उन्हें अपनी जान से हाथ धोना पड़ा! जबकि कश्मीरी पंडितों के साथ ऐसा नहीं था। गिरिजा टिक्कू को काटा जाना, तब ही हो सकता है कि पूरे समुदाय के प्रति घृणा इस हद तक व्याप्त हो कि उसे जिंदा ही काट दिया जाए। जिसे वह देख ही नहीं सकते हैं।
कश्मीरी पंडितों की जो कहानियाँ निकलकर आई हैं, और जो पहले भी थीं, उनसे देखा जा सकता है कि कैसे उन्हें भगाया गया। पुलिस ने साथ नहीं दिया और सेना से मदद मांगने पर सेना कहती थी कि “ऊपर से आदेश नहीं है।” ऐसे ही एक शरणार्थी दिलबाग सपोरी ने कहा था कि “जब हमले होते थे लोग पुलिस को फोन करते थे, लेकिन कोई फोन तक नहीं उठाता था। कई जगह तो जिहादियों ने मिलकर हिन्दुओं को मारा। निराश और हताश हिन्दू जब सेना से मदद मांगते थे, तो वह लोग कहते थे कि ऊपर से कोई आदेश नहीं है!”
लोग चाहते हैं कि वह एक ऐसी काल्पनिक फिल्म बनाते जिसमें होता कि मुसलमान कश्मीरी पंडितों को वहां पर रुकने में मदद कर रहे हैं, दोस्तों की जान बचा रहे हैं। मगर उन दिनों तो कश्मीर में मुस्लिम दोस्त ही हिन्दुओं के दुश्मन बने हुए थे। ऐसी ही एक कहानी है बड़गाम निवासी कृष्ण राजदान की, जो उस समय सीबीआई में इन्स्पेक्टर के रूप में पंजाब में अपनी सेवाएं दे रहे थे। जब वह फरवरी 1990 में छुट्टियों में अपने घर आए हुए थे। उन्हें नहीं पता था कि उनके बचपन का दोस्त अहमद शल्ला जेकेएलएफ का आतंकी बन चुका है। एक दिन वह उन्हें बुलाने आया और वह उसके साथ चले गए।
वह दोनों बस में सफर कर रहे थे, शल्ला ने उन्हें गोली ही नहीं मारी बल्कि आतंकी मंजूर ने राजदान के शव को बहार खींचा और मुस्लिम मुसाफिरों से शव को पैरों के नीचे रौंदने के लिए उकसाया। और घाटी के हिन्दुओं के मन में दहशत भरने के लिए राजदान के शरीर पर उनके सभी पहचानपत्र कीलों से घोंप दिए। और वह शव तब तक वहां पड़ा रहा, जब तक पुलिस ने आकर उसे अपने कब्जे में नहीं ले लिया!
धोखे की ऐसी कहानियों को सामने लाना मुस्लिमों के प्रति घृणा कैसे और क्यों हो गया? फ़िल्म के समीक्षक क्या चाहते हैं कि जैसी मिशन कश्मीर और हैदर बनाई गयी, उसी तर्ज पर फ़िल्में बनें? आखिर वास्तव में वह क्या चाहते हैं? यह एक ऐसा प्रश्न है, जिसे बार बार पूछा जाना चाहिए!
क्रिकेट और नैरेटिव
अभी हाल ही में क्रिकेट विश्वकप पर एक फिल्म आई थी, रणवीर सिंह और दीपिका पादुकोण के अभिनय से सजी! उसमें भारत की क्रिकेट टीम की जीत पर नाचने वालों में एक दाढ़ी वाले मुस्लिम को जरूर दिखाया! और यह भी दिखाया कि पाकिस्तान के मेजर सादिक ने सीमा पर तैनात हिन्दुस्तानी सैनिकों से कहा कि आप मैच इंजॉय कीजिये आज हम फायरिंग नहीं करेंगे!”क्या वास्तव में ऐसा हुआ था? यदि हाँ तो उसका सन्दर्भ मिलना ही चाहिए और यदि नहीं, तो क्या ऐसी कल्पना फिल्म में डाली जानी चाहिए?
यही संतुलन फ़िल्मी समीक्षकों को चाहिए, जिसमें हिन्दुओं वाली भारत सरकार को झूठी, गुंडे वाली सरकार बताया जाता रहे और मुस्लिम पीड़ित बने रहें, जैसे इस फिल्म में भी साम्प्रदायिक तनाव व्यर्थ में दिखाया गया था:
और अंत में कथित सेलेब्रेशन का वह दृश्य दिखाया था, जिसे हाल ही में स्वयं मुस्लिमों ने नकार दिया है:
इन्हीं कबीर खान ने जब बजरंगी भाईजान का निर्देशन किया था तो कैसे शाकाहार और हिन्दुओं को पूरी तरह से कठघरे में खड़ा कर दिया था, क्या यही संतुलन चाहिए? जिन हिन्दी फिल्मों में अभी तक पंडित, ठाकुर आदि को खलनायक बनाकर मात्र कल्पना के आधार पर बेचा जाता रहा, क्या ऐसा संतुलन चाहिए? प्रश्न बहुत हैं, परन्तु क्रिकेट में भारत के पूरे मुस्लिम समाज का समर्थन भारत को मिलता है, यह एक ऐसा प्रश्न है जिसका उत्तर अभी हाल ही में भारत और पाकिस्तान के टी-20 विश्वकप मैच में पाकिस्तान की जीत के दौरान पूरे विश्व ने देखा था।
जबकि कश्मीर फाइल्स फिल्म में क्रिकेट का जो दृश्य है वह यह दिखाता है कि भारत और पाकिस्तान के बीच क्रिकेट मैच के कमेंट्री चल रही होती है और एक बच्चा वहां जाता है और सचिन सचिन कहता है।
इसके बाद वहां मौजूद कुछ आतंकवादी उस बच्चे को पकड़ लेते हैं और मारने लगते हैं।
पाठकों को याद होगा कि वह बच्चा भी सामने आया था, जिसके साथ यह हुआ था।
उसने बताया था कि उसे घेर लिया था और उसके पास जो भी पैसे थे सब लूट ले गए थे।
फिल्म समीक्षक क्या चाहते हैं कि कैसा संतुलन बनाया जाए? क्यों आज तक कश्मीरी पंडितों के लिए कश्मीर में आम मुसलमानों के बीच यह स्थिति नहीं हो पाई है कि वह आराम से निष्कंटक होकर वापस लौट आएं? क्या कश्मीर में आम मुसलमान कश्मीरी हिन्दुओं को स्वीकारने के लिए तैयार है?
जब टी-20 में पाकिस्तान की टीम की जीत का जश्न मनाने पर लोगों को हिरासत में लिया गया था तो शरजील इमाम का पुराना पोस्ट वायरल हो गया था कि पहले सोशल मीडिया नहीं था तो हम लोग गली मोहल्लों में पाकिस्तान की जीत का जश्न मनाते ही थे
शरजील इमाम की यह पोस्ट वह प्रश्न उठाती है जो इस फिल्म ने उठाए हैं, कि पहचान कुछ तत्व कहाँ से अपनी जोड़ते हैं? शरजील इमाम तो कथित पढ़ा लिखा व्यक्ति है, जब वह इतनी बड़ी बात बोल रहा है कि “दूसरी बात कि जब बचपन से हमें सब्जीबाग पटना में सईद अनवर की बीवी के नाम शक्ल सूरत सब की खबर थी और गांगुली के बारे में कम जानते थे तो उसकी कोई वजह ही रही होगी। वजह पता कीजिए।”
यही वजह ही तो कश्मीर फाइल्स बताती है, परन्तु इस वजह की गहराई में जाने के स्थान पर वाम पिशाची फिल्म समीक्षक संतुलन दिखाने की बात कह रहे हैं, यह तो बताइए कि हिन्दू पीड़ा में ही क्यों आपको संतुलन दिखाना है? और संतुलन कहाँ और क्या दिखाना है?
यह तो प्रश्न पूछा ही जाना चाहिए न!