कश्मीरी हिन्दुओं के पलायन और उन पर हुए कट्टर इस्लामी अत्याचारों को बताने वाली फिल्म “द कश्मीर फाइल्स” के विरुद्ध दायर की गयी याचिका मुम्बई उच्च न्यायालय द्वारा खारिज कर दी गयी है।
मुम्बई उच्च न्यायालय ने कल इस याचिका को खारिज कर दिया, जिसमें यह कहा गया था कि इस फिल्म में रिलीज होने से अशांति फ़ैल सकती है, और इस फिल्म में मुस्लिमों को ही दोषी दिखाया है, जिसके कारण उनकी भावनाएं आहत हो रही हैं।
यह कितना बड़ा दुर्भाग्य है कि मुस्लिम समुदाय की भावनाएं आहत हो रही है, परन्तु इतने वर्षों तक कश्मीरी पंडितों के साथ जो किया, उसके विषय में कोई बात नहीं। पूरे कश्मीर की हिन्दू पहचान समाप्त कर दी, वह कुछ नहीं, मंदिरों को जला दिया गया, वह भी कम था, जब जब कश्मीरी पंडितों ने अपनी बात रखनी चाही, उन्हें उसी लच्छेदार विमर्श में फंसा दिया गया, जो वामपंथियों ने निश्चित किया था।
न जाने कितनी लड़कियों का बलात्कार किया गया। कश्मीर पर अभी तक जो भी फ़िल्में बनी थीं, उनमें सेना को खलनायक बनाकर प्रस्तुत किया जाता था। फिर चाहे मिशन कश्मीर हो या फिर फिल्म शिकारा! आतंकवाद को रोमांटिसाइज़ किया जाता रहा और कश्मीरी पंडितों के साथ कश्मीर की हिन्दू पहचान नष्ट किए जाने पर कोई बात ही नहीं हुई।
हैदर फिल्म तो पाठकों को स्मरण होगी ही, जिसमें कश्मीर की सबसे बड़ी हिन्दू पहचान को शैतान का घर बता दिया गया था! यह सांस्कृतिक जातिध्वंस था, यह जेनोसाइड का सांस्कृतिक रूप था, कि संस्कृति ही नष्ट कर दी जाए।
उस समय भी कश्मीरी पंडितों के संगठनों ने विरोध किया था, शेष भारत इसलिए नहीं विरोध कर पाया क्योंकि पहले ही कश्मीर की पहचान को कश्मीरियत की चाशनी में घोलकर हिन्दुओं को पिलाया जा चुका था, शेष बची कसर कश्मीरियत पर लिखी गयी कवितायेँ पूरी कर रही थीं, जिनमें पूरी तरह से भारतीय सेना ही दोषी करार कर दी गयी थी।
भारत सरकार दोषी थी, हिन्दू पहचान दोषी थी। और कश्मीर का जो सच था, कश्मीरी पंडितों के साथ जो मजहबी कट्टरता उनके अपने पड़ोसियों ने ही की थी, वह कहानी उस झूठे एजेंडे की कहानी के नीचे दब गयी जिसे राजनीतिक रूप से यह कहा गया कि “कश्मीरी पंडितों के साथ कुछ नहीं हुआ, वह तो राजनीतिक लाभ के चलते उस समय के राज्यपाल जगमोहन ने उन्हें बाहर निकाल लिया!”
और वर्ष 1990 में जनवरी में जब वह लोग वहां से निकले, तो उनके इस संहार को भी मौकापरस्ती घोषित कर दिया गया। उनके साथ और उनके बहाने हिन्दुओं पर कई प्रकार से हिंसा हो रही थी, कई प्रकार से मारा जा रहा था। सबसे पहले तो उनका दर्द राजनीतिक दर्द बना दिया गया, बार बार यही कहा जा रहा था कि कुछ ख़ास नहीं हुआ।
बरखा दत्त जैसी पत्रकारों ने यह तक प्रमाणित करने का प्रयास किया कि चूंकि पंडितों का एकाधिकार था नौकरी और व्यापार पर, इसलिए असंतोष था
हर प्रकार से यह प्रयास किया गया कि कश्मीरी पंडितों का दर्द कभी दुनिया के सामने न आ पाए, और जब आए तब इतनी देर हो जाए कि कुछ किया ही न जा सके। कश्मीर को हिन्दू विहीन करना हर सच्चे मुस्लिम शासक का एक सपना रहा है। ऐसा इतिहास में पाया गया है।
द कश्मीर फाइल्स इन सभी झूठों का उत्तर है
विवेक अग्निहोत्री की फिल्म द कश्मीर फाइल्स, उन सभी षड्यंत्रों पर भारी पड़ रही है, जो आज तक कश्मीरी पंडितों और कश्मीर की हिन्दू पहचान के साथ होते रहे। दरअसल इससे बड़ा पाप और अपराध हो ही नहीं सकता कि इकोसिस्टम केवल एक जाति की पहचान छीनें, उसका मजहबी आधार पर पूर्णतया ध्वंस करने का स्वप्न देखे और फिर अंत में उसे ही अपने समुदाय के विरुद्ध खड़ा कर दे, कि वह यह भूल ही जाए कि उसके साथ आखिर हुआ क्या था?
वामपंथी और इस्लामिस्ट यही करते हैं। पहले वह एक सभ्यता का पूरी तरह से विनाश करने का षड्यंत्र रचते हैं और जब वह उसका लगभग सफाया कर देते हैं, उसके बाद वह मानवता का खेल खेलते हुए शेष के साथ प्यार का व्यवहार करते हुए, उसे अपने उन लोगों के विरुद्ध अपनी घृणा का टूल बनाते हैं, जो अपनी विस्मृत पहचान के लिए लड़ रहे हैं।
जैसे अभी हिन्दू लड़ रहे हैं, अपनी विस्मृत पहचान के लिए, और उनके सामने कौन खड़ा है बार बार फक हिंदुत्व का नारा लगाते हुए? कितने मुस्लिम हैं जो इस प्रकार फक हिंदुत्व का नारा लगाते दिखते हैं? विवेक अग्निहोत्री की फिल्म के ट्रेलर से यही पता चलता है कि कहीं न कहीं वह जो युवा है, वह इस वामपंथी जाल से बाहर निकलकर अपनी हिन्दू, अपनी कश्मीरी पंडितों की पहचान की बात करता है।
अंतिम प्रश्न, क्या हिन्दुओं की पीड़ा की कहानी कहना मुस्लिमों की भावनाओं को आहत करना है? कट्टरपंथी मुस्लिमों द्वारा गोलियों द्वारा आतंकवाद और बौद्धिक आतंकवादियों द्वारा किया गया बौद्धिक आतंकवाद जो अब तक हिन्दुओं के साथ छल करता आया, उससे किसी की भावनाएं आहत नहीं हुईं?
ये एकतरफा ही भावनाएं आहत क्यों होती हैं?