क्या चिकित्सा जैसा क्षेत्र भी जिहाद या मजहब के प्रचार का हिस्सा बन सकता है या मजहब या रिलिजन चिकित्सा को प्रभावित कर सकता है? अब इस पर फिर से बहस आरम्भ होने के आसार हैं क्योंकि फ्रांस के एक डॉक्टर ने कहा है कि अस्पतालों में नियुक्त इस्लामिस्ट कैसे स्वास्थ्य प्रणाली पर अत्यंत व्यवस्थित रूप से प्रभाव डाल रहे हैं।
इस बात को स्मरण रखा जाए कि अब्राह्मिक कल्ट का हर इंसान अपने मजहब या रिलिजन के अनुसार ही हर क्षेत्र को देखता है। जैसा कि हमने पिछले दिनों इन्डियन मेडिकल एसोसिएशन के ईसाई अध्यक्ष के क्रिश्चियन टुडे को दिए गए साक्षात्कार में देखा था कि कैसे उन्हें कोरोना के संक्रमण में ईसाई रिलिजन के प्रचार की संभावनाएं नजर आती हैं और कैसे वह इस पेशे का प्रयोग ईसाई सिद्धांतों के प्रचार प्रसार में कर रहे हैं।
हमने पहले भी अपने लेखों के माध्यम से वह तथ्य अपने पाठकों के सम्मुख लाने का प्रयास किया है, जो शिक्षा के क्षेत्र को हिन्दुओं के विरुद्ध कैसे प्रयोग किया गया, और किया जा रहा है, यह बताते हैं। द रेनेसां इन इंडिया, इट्स मिशनरी आस्पेक्ट में सीएफ एंड्रूज़ ने यह विस्तार से लिखा है कि मिशनरी स्कूल्स और कॉलेज का लक्ष्य क्या है।
उन्होंने इस पुस्तक में अंग्रेजी शिक्षा के विषय में यह लिखा है:
“अंग्रेजी शिक्षा, जो इस सभ्यता को व्यक्त करती है, वह मात्र एक सेक्युलर चीज़ नहीं है बल्कि वह ईसाई रिलिजन में पगी हुई है। अंग्रेजी साहित्य, अंग्रेजी इतिहास और अर्थशास्त्र, अंग्रेजी दर्शन, सभी में जीवन की जरूरी ईसाई अवधारणाएं साथ चलती हैं, जो अब तक ईसाइयों ने बनाई हैं।”
यहाँ पर हम यह बताने का प्रयास कर रहे हैं, कि कैसे अब्रह्मिक मजहब और रिलिजन ने शिक्षा या चिकित्सा को अपने अपने मजहब और रिलिजन को ही फैलाने का कार्य किया है। यह भी बात सत्य है कि आयुर्वेद का क्षरण अंग्रेजों के काल से ही होना आरम्भ हुआ क्योंकि अंग्रेजों ने एलॉपथी चिकित्सा को ही राज्य द्वारा स्पोंसरशिप प्रदान की एवं मान्यता प्रदान की।
अत: चिकित्सा प्रणाली का प्रयोग एक प्रकार से रिलिजन की श्रेष्ठता को स्थापित करने के लिए किया गया और आयुर्वेद जैसी चिकित्सा पद्धति को चलन से बाहर करने का प्रयास किया। स्वतंत्रता के उपरान्त जब नरेंद्र मोदी सरकार द्वारा आयुर्वेद को और भी अधिक प्रोत्साहित किया जा रहा है तो आईएमए के ईसाई अध्यक्ष जॉनरोज़ ऑस्टिन जयालल ने क्या कहा था उस पर ध्यान दिया जाना चाहिए:
उन्होंने कहा था कि
“भारत सरकार अपने सांस्कृतिक एवं परम्परागत मूल्य प्रणाली, जिसे आयुर्वेद कहते हैं पर विश्वास करती है। यह चिकित्सा की प्राकृतिक व्यवस्था है, जिसका पालन काफी लम्बे समय से किया जा रहा है। अब नई शिक्षा नीति में आपको आयुर्वेद, यूनानी, सिद्धा, होम्योपैथी,योग और नैचुरोपैथी सबेहे को पढना होगा। सरकार इसे एक देश और एक चिकित्सा व्यवस्था के रूप में बनाना चाहती है। हालांकि हम किसे व्यवस्था के विरोधी नहीं हैं, पर हम मिक्स नहीं करना चाहते हैं।“
परन्तु उनकी आपत्ति का कारण क्या था? क्या उनकी आपत्ति का कारण यह था कि सारी चिकित्सा पद्धतियाँ आपस में जुड़ जाएँगी तो परसपर उनमें टकराव होगा? या फिर क्या? तो उनका उत्तर था कि आयुर्वेद संस्कृत भाषा पर आधारित है, जो हमेशा ही हिन्दू सिद्धांतों पर आधारित होता है, यह सरकार द्वारा लोगों के दिमाग में संस्कृत और हिंदुत्व की भाषा को पाने का एक माध्यम है।”
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इस साक्षात्कार में उन्होंने यह बताया था कि कैसे वह एलॉपथी को ईसाई रिलिजन के लिए प्रयोग कर रहे हैं। इस पर हंगामा हुआ था। परन्तु कैसे चिकित्सा और रिलिजन का घालमेल हो सकता है और होता है, यह हमने देखा था और देख रहे हैं।
फ्रांस में कट्टर इस्लामी अस्पताल की चिकित्सा व्यवस्था को प्रभावित करने का प्रयास कर रहे हैं
फ्रांस में एक डॉक्टर पैट्रिक पेलोक्स ने यह बताया कि कैसे कट्टर इस्लामी, जो अस्पताल में कार्य कर रहे हैं, वह अपने मजहबी उसूलों के चलते बहुत ही सुनियोजित और रणनीतिक रूप से पूरी की पूरी चिकित्सा पद्धति का दुरूपयोग कर रहे हैं।
उन्होंने marianne.net को साक्षात्कार देते हुए कहा कि “हमें स्पष्ट हो जाना चाहिए कि समस्या राजनीतिक इस्लाम के साथ है।”
उन्होंने कहा कि पहले ऐसी कोई समस्या नहीं थी, अस्पताल पंथनिरपेक्ष थे और डॉक्टर्स के बीच सीमा जैसी कोई बात नहीं थी। अर्थात सेवा देने में मजहब या रिलिजन की कोई भूमिका नहीं थी। परन्तु 1990 के मध्य से ही जब अस्पतालों में पर्दे की बात उठी, तो हमने अस्पताल के परिवेश में भी यह जांचने का प्रयास किया कि क्या मजहब का प्रश्न यहाँ पर भी उपस्थित है?”
फिर वह कहते हैं कि अस्पताल में जो भी स्टाफ काम करता है, वह सहज रूप से सहिष्णु होता है, और यदि वह पाते भी हैं कि कहीं न कहीं इस्लाम या कैथोलिक या प्रोटेस्टेंट के बीच संघर्ष है, तो वह अनावश्यक प्रतिक्रिया नहीं देते हैं। हमारी पड़ताल के मध्य हमने पश्चिम में अस्पताल में नर्स की सहायक ने बताया कि एक उसकी सहकर्मी भी कट्टरपंथी मुस्लिम है और वह उन्हें इस्लाम में मतांतरित करने की पूरी कोशिश कर रही थी। कोई भी नहीं जानता था कि आखिर क्या करना है।
फिर उन्होंने जो लिखा है वह पढ़ना चाहिए
“जाहिर है कि कई वर्षों से वामपंथ के एक बड़े हिस्से ने और इस्लामी आतंकवादियों ने समस्या को बिगाड़ने में कार्य किया है: आज इन सब समस्याओं के विषय में बात करना नस्लवादी माना जाता है”
फिर उन्होंने कुछ उदाहरण बताए और कहा कि
“यह एक ऐसी समस्या है जो डॉक्टरों को इलाज करने या कुछ तकनीकों का उपयोग करने से मना कर देती है, और यह परिदृश्य हालांकि अभी सौभाग्य से बहुत ही मामूली है। जैसे हमारे सामने एक डॉक्टर का मामला आया, जिसने अंग प्रत्यारोपण करने से इनकार कर दिया क्योंकि यह हराम था। एक अन्य उदाहरण: एक मेडिकल छात्र का मामला जिसने स्पष्ट रूप से महिलाओं का इलाज करने से इनकार कर दिया, लेकिन जो ज़ायोनी सांप्रदायिक प्रवृत्ति वाले समूह का सदस्य था। हम जानते हैं कि कुछ डॉक्टर गर्भावस्था की अवधि बढ़ जाने पर आवश्यक गर्भपात से इंकार करते हैं!
उन्होंने युवाओं में “ओपन” या “समेकित/इन्क्लूसिव” सेक्युलरिज्म जैसी अवधारणा पर बात करते हुए बताया कि यह बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण है कि कुछ युवा सेक्युलरिज्म के संशोधित संस्करण में विश्वास करते हैं, और चिकित्सा फैकल्टीज में कई महिला विद्यार्थी और कई धर्म बदलने वाले हैं, जो बुर्के या हिजाब का समर्थन करते हैं और मजहबी संस्थाओं द्वारा दी गयी भाषा बोलते हैं।
उन्होंने यह भी कहा कि उन सभी डॉक्टर्स के साथ बहुत समस्या आती है जो ऐसे देशों से फ्रांस में आते हैं, जहाँ पर आधिकारिक मजहब इस्लाम है।
और जब उनसे यह पूछा गया कि क्या “अस्पताल आज मजहबी समूहों द्वारा इस्लाम के प्रचार का निशाना बन गया है?” तो उनका उत्तर था
“हां, अस्पताल निशाना है! फिर उन्होंने कहा कि इस बात को नहीं भूलना चाहिए कि सीरिया में दाएश द्वारा उठाए गए क़दमों में लोगों के लिए निशुल्क चिकित्सा भी थी। “निशुल्क चिकित्सा व्यवस्था छोटी बात नहीं है। मुस्लिम ब्रदरहुड से राजनीतिक पत्रों का अनुवाद करने वाले जिनेब एल रहजोटी ने उनके लक्ष्यों के विषय में बताते हुए कहा है कि फ्रांस में वह लोक कल्याण व्यवस्था को प्रयोग करना चाहते हैं और अस्पताल की पूरी व्यवस्था को अपने कब्जे में लेना चाहते हैं।”
भारत में भी कोरोना वैक्सीन लगवाने में आनाकानी में मुस्लिम और ईसाई कट्टरपंथी समूह बहुत आगे रहे थे
ऐसा नहीं है कि मजहबी विचार मात्र फ़्रांस की ही चिकित्सा पद्धति को प्रभावित कर रहे हैं। पाठकों को स्मरण होगा कि भारत में भी यह हो चुका है और हाल ही में यह कोरोना की वैक्सीन के मध्य हुआ था। केरल में तो 2300 शिक्षकों ने ही मजहबी आधार पर कोरोना की वैक्सीन लेने में आनाकानी की थी और सरकार ने उन्हें घर से काम करने की छूट दे दी थी।
यह एक बहुत ही बड़ा भ्रम है कि चिकित्सा या शिक्षा सेक्युलर हो सकती है! अब्राह्मिक कल्ट का हर इंसान अपने मजहब या रिलिजन के अनुसार ही जीवन का हर कार्य करता है फिर चाहे वह शिक्षा का मामला हो या फिर चिकित्सा का।